Thursday, 29 July 2021

हिंदुत्व की पिच पर विपक्ष की जाति वाली आक्रामक बैटिंग?

हिंदुत्व की पिच पर विपक्ष की जाति वाली आक्रामक बैटिंग?

जिस राजनैतिक पिच पर अभी तक बीजेपी का एकाधिकार रहा है, चाहे वह 2014 का लोकसभा हो या 2017 का विधानसभा हो या 2021 का उपचुनाव हो या त्रिस्तरीय पंचायत। उस पिच पर सपा-बसपा, कांग्रेस जिनकी राजनैतिक सोच और बहस इसी बात पर हमेशा से रही है सेकुलरिज़्म बनाम सांप्रदायिकता, कितना बैटिंग कर पायेंगे। ये बड़ा सवाल है? माना कि अब जालीदार टोपी पहनने के बजाय अखिलेश मंदिरों का चक्कर काट रहे है, मायावती सतीश मिश्रा के जरिए रामलला के दर्शन के बाद पूरे यूपी में दलित-ब्राह्मण कार्ड खेल रही है और प्रियंका बांड्रा को संगम स्नान सहित धार्मिक प्रतीकों के भरपूर इस्तेमाल में कोई हिचक नहीं है। खासतौर से तब जब भाजपा के एजेंडे में भगवा प्राथमिक एजेंडे में होगा या यूं कहे 2022 का विधानसभा चुनाव भाजपा विकास और हिंदुत्व के एजेंडे पर ही लड़ना चाह रही है और योगी आदित्यनाथ ही पार्टी का चेहरा होंगे

सुरेश गांधी

‘जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान, मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान 15 वीं सदी के रहस्यवादी कवि और संत कबीर ने जब यह दोहा लिखा होगा तो सोचा नहीं होगा कि 1500 साल बाद लोकतंत्र में उनकी यही बात उलट तरीके से राजीनीतिक दलों के लिए जीत या हार का मुख्य आधार बन जाएगी? राजनीति में जातिवाद का अर्थ जाति का राजनीतिकरण है। जातिवाद को लेकर इस समय पूरे देश में शोर मचा हुआ है। रह-रह कर जाति के आधार पर आरक्षण की बातें भी सामने आती रहीं हैं। अब जब फिर यूपी में विधानसभा चुनाव 2022 होने को है तो पार्टियां जाति को ही अपनी जीत का ताना बाना बुन रही है। फिरहाल, यूपी विधानसभा चुनाव में अभी 8 माह की देरी है, लेकिन महासंग्राम अभी से छिड़ा है। इसमें सभी सियासी दल सड़क, पानी, बिजली, विकास में भेदभाव, महिलाओं की सुरक्षा, लव जेहाद, जनसंख्या नीति, अपराध, एनकाउंटर, ट्रिपल तिलाक, श्रीराम मंदिर निर्माण, युवाओं को नौकरी आदि मुद्दों पर सत्ताधारी दल को घेरने में जुटे हुए हैं। इस जंग सत्तारुढ़ भाजपा भी पूर्व की सरकारों के गुडगर्दी, विकास में भेदभाव, योजनाओं में बंदरबाट घपले-घोटाले की बात कहकर अपने विकास के मुद्दे का ही हवाला देकर दुसरी बार सत्ता में आने का दावा कर रही है। कहने को वर्षों से सूबे में इन्हीं मुद्दों पर चुनाव लड़े भी जाते रहे हैं, लेकिन यह मुद्दे सिर्फ दिखावा मात्र के हैं। सच तो यह है कि सभी सियासी दल इन दिनों जातिय समीकरण भिड़ाने में जुटे हुए हैं। किसी का ब्राह्मण प्रेम जगा है तो कोई यादव-मुस्लिम समीकरण तो कोई दलित, मुस्लिम, ब्राह्मण तो कोई पिछड़ा वर्ग के साथ-साथ सबका साथ सबका विकास के भरोसे है। मतलब साफ है दलों को विकास के मुद्दे पर नहीं धर्म -जाति की आग सुलगाकर राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेंकने में व्यस्त हो गए हैं। इससे इतर विकास और आम-आदमी की जरूरतों के मसले नदारद होते जा रहे हैं।

अफसोस यह है कि वोटर भी सियासत को इसी जाति समीकरण से देखते हैं। वोटरों में अधिकांश की मानसिकता यह बन चुकी है कि अगर हमारी जाति को सत्ता में भागीदारी मिलेगी, तभी हम उस दल का साथ देंगे, जो हमारे बिरादरी के व्यक्ति को मंत्री बनाएगा या फिर टिकट देगा। जबकि सच यह है कि ऐसा होने से वोटर छले जाते हैं। विचारणीय यह है कि क्या गारंटी है कि किसी एक जाति का नेता मंत्री बनकर अपनी बिरादरी के लोगों का भला ही करेगा? अब तक ऐसे तमाम उदाहरण हैं कि किसी भी जाति-बिरादरी के बल पर आगे बढ़ाकर मंत्री, एमएलए और सांसद बनाए गए नेताओं ने अपनी बिरादरी का तो नहीं, अपना भला ज्यादा किया है। दरअसल, जाति की सियासत समाज के लिए हितकारी बिल्कुल नहीं हो सकती। इससे उपेक्षित जाति में कुंठा की भावना पैदा होती है। वैसे भी, राजनीतिक दल जाति-बिरादरी को केवल सत्ता प्राप्ति का हथियार बनाते हैं और सत्ता पाकर सिर्फ अपने स्वार्थों की पूर्ति करते हैं। जाति-बिरादरी की राजनीति से कभी समाज, प्रदेश या देश का भला हुआ है, हो सकता है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि हम जाति-बिरादरी के इतर उस राजनीतिक सोच को विकसित करें, जो सर्वसमाज के हित के लिए काम करने वाली हो।

जब सबका विकास होगा तो देश का विकास होगा। हमें संकीणर्ताओं से उबरना होगा। जनता को चाहिए कि वह जाति-बिरादरी की राजनीति करने वालों का बहिष्कार करे। जो रोजी-रोटी, रोजगार का जरिया पैदा करे, शिक्षा, चिकित्सा के पर्याप्त साधन मुहैया कराए, उसकी पहचान कर, उसको चुनें। यूपी विधानसभा के मॉनसून सत्र समापन के दौरान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने विपक्ष को कुछ इसी अंदाज में जवाब दिया। खासकर सूबे में चल रही ब्राह्मण सियासत पर कटाक्ष करते हुए कहा, “चमन को सींचने में कुछ पत्तियां झड़ गई होंगी, यहीं इल्जाम लग रहा है हम पर बेवफाई का....चमन को रौंद डाला जिन्होंने अपने पैरों से, वही दावा कर रहे हैं इस चमन की रहनुमाई का।सच तो यही है सपा-बसपा कांग्रेस एक बार फिर से समाज को बांटने की कोशिश में जुट गए है। लेकिन जनता अब सब समझती है। किसने राम भक्तों पर गोलियां चलवाई, किसके शासनकाल में एक वर्ग विशेष को छूट देकर सर्वाधिक दंगे कराएं, खुलेआम पत्रकारों की हत्याएं कराएं, खनन माफियाओं के बूते करोड़ों की संपत्ति बटोरी, आजम खां जैसे भ्रष्ट नेता को संरक्षण देकर निरीह गरीबों की जमीने हड़पी, माफिया तो माफिया पुलिस को छूट देकर गुंडागर्दी कराई, जातिवाद के जहर से समाज में नफरत फैलाई और किसने लाखों करोड़ों मूर्तियों एवं पार्को में पानी की तरह बहाया और तो और कुछ लोगों के जेहन में अब भी वो दिन कौंध रहा है जब बिना किसी कारण हरिजन एक्ट के तहत सालों जेल में बिताएं।

बता दें, “मौनी अमावस्या के पावन पर्व पर श्रीमती प्रियंका गांधी वाड्रा प्रयागराज के संगम पर स्नान किया। सहारनपुर के किसान महापंचायत में शिरकत करने से पूर्व शाकुम्भरी देवी के मंदिर में दर्शन और ध्यान किया। माथे पर तिलक के साथ ही उन्होंने किसान सभा संबोधित की। उससे पहले देहरादून एयरपोर्ट पर उनके हाथ में रुद्राक्ष की माला दिखी जिस पर सोशल मीडिया में खूब चकल्लस हुई। अब उसी तर्ज पर अखिलेश यादव भी ताल ठोककर हिंदुत्व की पिच पर दांव खेलने को तैयार है। अखिलेश यादव ने पिछले दिनों चित्रकूट, अयोध्या और अन्य तीर्थों की यात्रा कर डाली है और खुद को राम भक्त बताया है। लेकिन अब जब यूपी भ्रष्टाचार और गुंडाराज से मुक्त होने को है, मुख्तार, अतीक विनय जैसे माफिया एक-एक कर ढेर हो रहे है, विकास के मामले में देश के अग्रणी राज्यों में शामिल होने को है, उस बयार में विपक्ष कहां टिकेगा, यह सवाल तो है ही। वैसे भी बीजेपी सबका साथ सबका विकास के अलावा वह अयोध्या, काशी और मथुरा का जिक्र करना नहीं भूल रही है। या यूं कहे इन तीनों तीर्थ स्थलों के नामों का भाजपा की राजनीति में महत्व और इनके राजनीतिक अर्थों को आसानी से समझा जा सकता है। बीजेपी अध्यक्ष नड्डा अपने भाषण की शुरुआत ही इसी से करते है कि भगवान राम की नगरी अयोध्या, बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी और भगवान कृष्ण की नगरी मथुरा को याद किए बगैर उत्तर प्रदेश की संकल्पना अधूरी है।

जयंत चौधरी का जाति फॉर्मूला

एक तरफ दलितों-पिछड़ों को केंद्र में सरकार में शामिल कर बीजेपी ने जाति का सहारा लिया है तो बसपा ने ब्राह्मण सम्मेलन शुरू कर दिया है। वहीं, सपा के साथ हाथ मिलाने के बाद आरएलडी प्रमुख जयंत चौधरी ने भी चुनावी शंखनाथ फूंक दिया है। आरएलडी अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन को दोबारा से हासिल करने के लिए जाट-मुस्लिम के साथ-साथ अन्य जातियों को जोड़कर सोशल इंजीनियरिंग का नया  खड़ा करना चाहते हैं। बता दें कि पश्चिम यूपी की सियासत में एक समय जयंत चौधरी के दादा चौधरी चरण सिंकिंगमेकर की भूमिका में ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश के सीएम से लेकर देश के पीएम तक बने। चौधरी चरण सिंह ने प्रदेश और देश की सियासत में अपनी जगह बनाने के के लिएअजगर’ (अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत) औरमजगर’ (मुस्लिम, जाट, गुर्जर और राजपूत) फॉर्मूल बनाया था। कांग्रेस के खिलाफ चौधरी चरण सिंह का यह फॉर्मूला पश्चिम यूपी ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेश में सफल रहा। आरएलडी के इस जातीय समीकरण को झटका तब लगा, जब चौधरीअजित सिंह और मुलायम सिंह यादव के बीच अनबन हुई। चौधरी चरण के जातीय फॉर्मूले से पहले यादव अलग हुआ और फिर राजपूत समुदाय ने नाता तोड़ा। इसके बाद 2013 के मजफ्फरनगर दंगे के बाद सामाजिक ताना-बाना ऐसे टूटा कि जाट और मुस्लिम अलग हो गए। इतना ही नहीं, जब 2014 के बाद बीजेपी-मोदी की आंधी चली तो आरएलडी का पूरा समसमीकरण ही बिखर गया। अब चौधरी अजित सिंह के निधन के बाद आरएलडी की कमान अब उनके बेटे जयंत चौधरी के हाथ में है। ऐसे में जयंत अपनी खोई हुई सियासी जमीन को पाने के लिए हरसंभव कोशिश में जुटे हैं। जयंत चौधरी जाट और मुस्लिम समीकरण के साथ गुर्जर, सैनी, कश्यप और ब्राह्मण समाज को भी जोड़ने की कवायद में हैं। यूपी में जाट करीब 4 फीसदी है, जबकि पश्चिमी यूपी में यह 17 फीसदी के करीब हैं। वहीं 20 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले यूपी के पश्चिमी उत्तर प्रदेश की विधानसभा सीटों पर मुस्लिम समाज की आबादी 35 से 50 फीसदी तक है। इसके अलावा पश्चिम यूपी में गुर्जर-सैनी दो-दो फीसदी, ब्राह्मण तीन फीसदी, कश्यप दो फीसदी वोटर काफी अहम हैं। मौजूदा समय में गुर्जर, सैनी, कश्यपऔर ब्राह्मण बीजेपी का परंपरागत वोटर हैं, लेकिन अब इन्हें साधकर आरएलडी अपनी राजनीतिक नैया पार लगाना चाहती है।

ब्राह्मणों को अपने पाले में लाने की होड़

सपा बसपा में भाजपा से नाराज ब्राह्मणों को अपने पाले में लाने की होड़ मची है। एक तरफ सपा जिलों में ब्रह्मण भाईचारा सम्मेलन कर रही है तो दुसरी तरफ बसपा अपने ब्राह्मण चेहरे और पार्टी महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा के नेतृत्व में अयोध्या सेप्रबुद्ध सम्मेलनोंकी एक श्रृंखला शुरू कर चुकी है। दोनों भाजपा सरकार के कार्यकाल के दौरान ब्राह्मणों के उत्पीड़न की दुहाई दे रहे है। बसपा सुप्रीमों मायावती का दावा है कि चुनाव में ब्राह्मण सत्तारूढ़ भाजपा को वोट देने के बजाय 2007 की तर्ज पर उन्हें देंगे। जबकि भाजपा के पास नेताओं और राजनेताओं की कमी नही है। उसके पास मनोज सिन्हा, केशव प्रसाद मौर्य, राजनाथ सिंह, स्वतंत्रदेव सिंह जैसे कई नेता है जिनकी अपनी-अपनी जाति का जनाधार तो है ही जाति से ऊपर हिंदूत्व के नाम पर योगी आदित्यनाथ बड़ा ब्रांड है। बीते चार सालों में योगी आदित्यनाथ ने कल्याण सिंह कीहिंदू हृदय सम्राटवाली छवि को पूरी तरह से आत्मसात कर लिया है। योगी आदित्यनाथ अपने मुख्यमंत्री के कार्यकाल में संन्यासी से राजनेता और अब जननेता बन चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद भाजपा के स्टार प्रचारकों की लिस्ट में जो सबसे पहला नाम सामने आता है वो योगी आदित्यनाथ का है। योगी आदित्यनाथ की सियासत की धुरी गोरखपुर में स्थित गोरखनाथ मठ के इर्द-गिर्द घूमती है। गोरखनाथ मठ की परंपरा में जाति बंधन मायने नहीं रखते हैं। यही वजह है कि जाति से ठाकुर होने के बावजूद योगी आदित्यनाथ इस मठ के महंत हैं।

भाजपा का भी है अपना जाति समीकरण

यूपी की सियासत में धर्म और जाति दो सबसे बड़े फैक्टर हैं। योगी आदित्यनाथ की छवि लोगों के बीच एक संन्यासी के साथ ही तेज-तर्रार प्रशासक की है। प्रदेश में अपराधियों के खिलाफजीरो टॉलरेंसकी नीति अपनाने वाले योगी आदित्यनाथ कीहिंदुत्वके मुद्दे पर भी यही रणनीति रही है। हालांकि, इसके पीछे राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ की उत्तर प्रदेश में वर्षों से जारी सोशल इंजीनियरिंग का भी अहम रोल है। सूबे में योगी आदित्यनाथ के रूप में लोगों के सामने एकजातिविहीनचेहरा भाजपा के लिए संजीवनी का काम करेगा। योगी आदित्यनाथ के सहारे भाजपा को यूपी में जाति को किनारे रखते हुए हिंदू वोटों को एकसाथ लाने का मौका मिलेगा। भाजपा की सियासत के केंद्र में दशकों से राम मंदिर का मुद्दा अहम रहा है। सुप्रीम कोर्ट से फैसले के बाद यह भाजपा के लिएतुरुप का पत्ताबन गया है। राम मंदिर निर्माण की नींव रख दी गई है। भाजपा ने देशभर में समर्पण निधि अभियान के जरिये लोगों की धार्मिक चेतना में इस मुद्दे कोसुसुप्तावस्थामें जाने से रोकने का सफल प्रयास भी कर दिखाया है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के सियासी माहौल को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाला मुद्दा राम मंदिर हो सकता है। योगी आदित्यनाथ कीसंन्यासीछवि से राम मंदिर के मुद्दे को और धार मिलेगी। यूपी में हर आयु वर्ग के लोगों और खासकर बुजुर्गों को राम मंदिर निर्माण का मुद्दा सबसे अधिक प्रभावित करेगा।

योगी है भ्रष्टाचार मुक्त

 चार बार सत्ता के शीर्ष पर काबिज हो चुकीं बसपा सुप्रीमो मायावती हों या फिर सपा मुखिया अखिलेश यादव, इन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ही तरह योगी आदित्यनाथ पर भी व्यक्तिगत तौर पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं है। यह योगी आदित्यनाथ का सबसे मजबूत पक्ष कहा जा सकता है। वहीं, भ्रष्टाचार के मामले पर भी सीएम योगी नेजीरो टॉलरेंसकी नीति अपनाई हुई है। हाल ही में जमीन घोटाले में दोषी पाए गए तीन एसडीएम को योगी सरकार ने तहसीलदार के पद पर डिमोट कर दिया। भ्रष्टाचार का मुद्दा लोगों को बहुत अंदर तक हिट करने वाला होता है। इस मामले पर योगी की साफ-सुथरी छवि भाजपा के लिए वरदान से कम नहीं है। कहना गलत नही होगा कि केवल इस वजह से ही कई अन्य प्रशासनिक कमजोरियां भी काफी गौड़ साबित हो जाती हैं।

मुस्लिमों की एकजुटता से बढ़ेगी परेशानी

योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ने पर मुस्लिम वोटों के एकतरफा हो जाना लाजिमी है। भाजपा की हिंदुत्व की उग्र रणनीति की वजह से ही पश्चिम बंगाल में मुस्लिम वोट एकमुश्त सीएम ममता बनर्जी के खाते में गिरे थे। कुछ ऐसा ही यूपी में होगा। यूपी में मुस्लिम वोटों की संख्या करीब 20 फीसदी के आसपास है। 403 विधानसभा सीटों में करीब 130 सीटों पर मुस्लिम वोट चुनावी नतीजों में अहम भूमिका निभाते हैं। कांग्रेस की ओर से सॉफ्ट हिंदुत्व के साथ ही बड़े स्तर पर मुस्लिम वोटों को साधने की कवायद में जुटी हुई है। सलमान खुर्शीद, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, इमरान मसूद और इमरान प्रतापगढ़ी जैसे नेताओं के सहारे और डॉ. कफील खान के मुद्दे को लगातार उछालकर कांग्रेस लगातार मुस्लिमों के बीच पैंठ बनाने की कोशिश कर रही है। बसपा ने भी पार्टीविरोधी गतिविधियों में शामिल लालजी वर्मा को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने के बाद शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली को विधानमंडल दल का नेता नियुक्त किया है। सपा के नेताओं एसटी हसन और शफीकुर रहमान बर्क ने बयानों में कोरोना की आपदा को शरीयत से छेड़छाड़ की वजह बताया है। इसे भी मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण से जोड़कर देखा जा रहा है।

मोदी का पिछड़ा दांव

सूत्रों की माने तो मोदी सरकार एक ऐसा बिल लाने की तैयारी में है जिसके जरिए वो एक तीर से कई शिकार करेगी। ये बिल पिछड़ो के आरक्षण की मांग को और मजबूती देगा जिसके जरिए यूपी जैसे बड़े राज्य में भाजपा ओबीसी वोटों के बिखराव को रोकने में कामयाब होगी। दरअसल मोदी सरकार संविधान के 102 वें संशोधन को बदलने का बिल लाने वाली है, जिसके जरिए हर राज्य अपने अनुसार ओबीसी वर्ग को चिन्हित कर सकेगा। इसके लिए सामाजिक न्याय मंत्रालय ने एक कैबिनेट नोट भी तैयार कर लिया है। इस नोट के अनुसार बनने वाले बिल में यह प्रावधान होगा कि राज्य अपने क्षेत्र में किसी जाति को पिछड़ा वर्ग के अंदर ले सकता है। 5 मई 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने मराठा आरक्षण को असंवैधानिक करार दे दिया था और उसके बाद ही राज्यों द्वारा पिछड़े वर्ग के निर्धारण की शक्तियां भी खत्म हो गई थी। यानि पिछड़े वर्ग में किसी जाति को लेने का फैसला केंद्र और राज्य नहीं बल्कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के पास सुरक्षित हो गया था। यह व्यवस्था भी मोदी सरकार ने ही 2018 में की थी। और संविधान के 102वे संशोधन के जरिए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग बनाया गया जिसपर राष्ट्रपति ने संसद की मंजूरी के बाद इस संविधान संशोधन पर हस्ताक्षर कर दिए। लेकिन इस फैसले के बाद सरकारों के सामने एक राजनीतिक मुश्किल भी खड़ी हो गई। उसके हाँथ से आरक्षण देने की शक्ति निकल  गई। इस बिल के पास हो जाने के बाद यूपी की भाजपा सरकार अपने समीकरणों के अनुसार कुछ जातियों को पिछड़े आरक्षण का लाभ दे कर अपने सबसे प्रबल प्रतिद्वंद्वी सपा को चित्त कर सकती है और दूसरी तरफ राजभर और निषाद सरीखे वोटों पर जातीय नेताओं का वर्चस्व खत्म कर उन्हे अपने अंदर समेट सकती है। और दूसरा फायदा यह होगा कि फिलहाल पेगासस जासूसी कांड, किसान आंदोलन और कोरोना की असफलता सहित कई मुद्दे पीछे चले जाएंगे, चुनावी बिसात पर जातीय समीकरण एक बार फिर भारी पड़ेंगे। नरेंद्र मोदी अपने अचानक लिए फैसलों से हमेशा विपक्ष को मात देते रहे हैं। यदि वे एक बार फिर ऐसा करे तो आश्चर्य नहीं होगा। वैसे भी 5 अगस्त का दिन करीब रहा है और बीते कई सालों से यह दिन मोदी के बड़े राजनीतिक दांव लगाने वाले दिन के रूप में पहचान जा रहा है।

छोटे दलों के गठबंधन से फायदे में रही भाजपा

छोटे दलों से गठबंधन का ही नतीजा रहा कि भाजपा 2014, 2017 2019 में यूपी में नंबर वन रही। अपना दल जो कि कुर्मी जाति की पार्टी है जिसकी राज्य में करीब 3.5 फीसदी आबादी है और जिसकी प्रमुख अनुप्रिया पटेल हैं। यह अलग बात है कि बीजेपी का ट्रंप कार्ड पीएम मोदी खुद है। ओबीसी नेता के रूप में नरेंद्र मोदी (जो तेली जति से आते हैं) को पेश करके और विकास के मजबूत एजेंडे के साथ बीजेपी बिखरे हुए पिछड़े वोटों को अपने पक्ष में करने में अब तक लगातार कामयाब होते रहे है। उन्हें अति पिछड़ों में करीब 60 फीसदी का जबरदस्त समर्थन मिला। यह पहली बार नहीं था जब बीजेपी ने अति सशक्त वोट बैंक के रूप में अति पिछड़ा वर्ग की क्षमता को पहचाना था। 1980 के दशक के आखिर में अयोध्या में राम मंदिर के लिए आंदोलन के दौरान वह बड़ी संख्या में एकजुट हुए थे, लेकिन आंदोलन का नेतृत्व ओबीसी नेताओं कल्याण सिंह और उमा भारती को दे दिया गया जो लोध जाति के हैं। कल्याण सिंह दो बार यूपी के मुख्यमंत्री बने, पहली बार 1991 में और फिर 1997 में। धीरे-धीरे राम मंदिर निर्माण आंदोलन कमजोर पड़ गया और बीजेपी के हाथ से सत्ता चली गई और पिछड़ी जातियों पर इसकी पकड़ भी ढीली पड़ गई और वो मायावती और सपा की तरफ चले गए। लेकिन एक बार फिर बीजेपी के सामने 2022 के चुनाव में इस वोट बैंक को बनाए रखने की चुनौती है। पार्टी ने अति पिछड़े वर्ग के नेताओं को महत्वपूर्ण पद देकर इसकी नींव रखनी शुरू की। जैसे केशव प्रसाद मौर्य जो कि कुशवाहा जाति के हैं और लोकसभा सांसद हैं, को पार्टी ने उप मुख्यमंत्री बनाया। पिछड़े वर्ग का चेहरा माने जाने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य को कैबिनेट मंत्री। कुछ ऐसा ही सपना बसपा से अलग होने के बाद सपा भी देख रही है। यही वजह है कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव और शिवपाल यादव के बीच चली रही दुश्मनी की जमी बर्फ पिघलने लगी है। इसकी बानगी उस वक्त देखने को मिली जब परिवार की प्रतिष्ठा बचाने के लिए चाचा-भतीजे साथ आकर इटावा में बीजेपी को रोकने में कामयाब रहे और सपा जिला पंचायत अध्यक्ष निर्विरोध जीतने में सफल रही। कहा जा सकता है प्रदेश की सत्ता में पार्टी दोबारा से वापसी के लिए हरसंभव कोशिशों में जुट गई है।

जाति के इर्द-गिर्द घूमती यूपी की राजनीति

कहा जा सकता है देश के सबसे अहम राज्य उत्तर प्रदेश की सियासत में जीत की सबसे बड़ी भूमिका जाति और धर्म से जुड़े समीकरण तय करते हैं। जातीय राजनीति के सच को उत्तर प्रदेश के चुनाव में अनदेखा नहीं किया जा सकता है। इतिहास कहता है कि यूपी में अब तक हुए चुनावों में पिछड़े वर्ग का वोट जिसके पाले में गया है सत्ता का स्वाद उसी दल ने चखा है। यूपी के जातिगत समीकरणों पर नजर डालें तो इस राज्य में सबसे बड़ा वोट बैंक पिछड़ा वर्ग है। प्रदेश में सवर्ण जातियां 18 फीसद हैं, जिसमें ब्राह्मण 10 फीसद हैं। पिछड़े वर्ग की संख्या 39 फीसद है, जिसमें यादव 12 फीसद, कुर्मी, सैथवार आठ फीसद, जाट पांच फीसद, मल्लाह चार फीसद, विश्वकर्मा दो फीसद और अन्य पिछड़ी जातियों की तादाद 7 फीसद है। इसके अलावा प्रदेश में अनुसूचित जाति 25 फीसदी है और मुस्लिम आबादी 18 फीसद है। वोट बैंक के लिहाज़ से देखें तो मुस्लिम वोट बैंक सपा का कोर वोटर माना जाता रहा है, मुस्लिम समुदाय की खासियत यह है कि इनका वोट ज्यादा बंटता नहीं है। इन्होंने बीते 15 सालों से सपा का हाथ थाम रखा है। 2012 में 16 वीं विधानसभा के लिए हुए चुनाव में भी सपा को 60 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम वोट मिले थे। वहीं, सपा के पास महज अपना परंपरागत 9 फीसद यादव वोट है जो किसी और पार्टी को नहीं जाता है, लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए ये काफी नहीं हैं। यूपी में दलितों की आबादी 20 फीसदी है, जिनका वोट एकतरफा मायावती को जाता है। दलित वोट के साथ-साथ अगर अधिकांश मुस्लिम वोट भी मायावती को मिला तो बीएसपी को यूपी चुनाव में नंबर एक पार्टी बनने से कोई नहीं रोक सकता है। यहां पर ये याद रखना जरूरी है कि सपा की अंतर्कलह से मुस्लिम वोटों में जबरदस्त बिखराव हो सकता है। भाजपा को यूपी में आने से रोकने के लिए मुस्लिम समुदाय उस पार्टी को वोट देगी जो उनको कड़ा मुकाबला दे सके। ये मत अगर बंटते हैं तो सीधे सीधे बसपा, निर्दलीय या छोटे दलों को फायदा होगा।