2019 में होगा मोदी बनाम पूरा विपक्ष
जी हां,
इसके संकेत यूपी
और बिहार के
उपचुनाव भाजपा को मिली
करारी शिकस्त ने
दे दी है।
खासकर गोरखपुर व
फूलपुर के परिणाम
से साफ हो
गया है माया
व अखिलेश एक
हो गए है।
और यह भी
सोच है जब
दोनों एकसाथ लड़ेंगे
तो अमित शाह
की 2017 वाली शोशल
इंजिनियरिंग वाला फार्मूला
भी हवा में
उड़ जायेगी। ठीक
उसी तरह जैसे
1993 बीजेपी की राम
मंदिर लहर को
रोकने में मुलायम
सिंह यादव और
बसपा संस्थापक कांशीराम
के गठबंधन में
हुआ था। मतलब
साफ है उपचुनाव
परिणाम जहां 2019 की लोकसभा
चुनाव जीतने के
लिए विपक्ष को
एकजुटता की रणनीति
बनाने की नसीहत
दे रहे हैं,
वहीं एनडीए के
लिए संकेत है
कि वह मोदी
बनाम पूरा विपक्ष
से लड़ने की
तैयारी करें
सुरेश
गांधी
अगले
आम चुनाव 2019 की
उल्टी गिनती शुरु
हो चुकी है।
डिनर पार्टी के
जरिए कांग्रेस विपक्षी
एकता को धार
देने में जुटी
है। जबकि एक
के बाद एक
राज्यों में हुए
विधानसभा चुनावों की सफलता
से इतराई मोदी
एंड शाह कंपनी
या यूं कहे
एनडीए 2014 से भी
ज्यादा अतर के
साथ सत्ता में
वापस आने को
ले कर पूरी
तरह आश्वस्त दिख
रही है। लेकिन
यही आश्वस्तता भाजपा
के लिए काल
साबित हो सकती
है। इसके संकेत
यूपी के मुख्यमंत्री
योगी आदित्यनाथ की
परंपरागत सीट गोरखपुर
एवं उप मुख्यमंत्री
केशव प्रसाद मौर्य
की सीट फूलपुर
में मिली करारी
ने दे दी
है। इस करारी
शिकस्त ने बता
दिया है कि
भाजपा वालों मुगालते
में न रहो,
मुलायम कांशीराम की तर्ज
पर बनी अखिलेश
मायावती गठबंधन एकबार फिर
कम से कम
यूपी से तो
तुम्हें उखाड़ फेकेगी
ही। उधर, कांग्रेस
की विपक्ष को
एकजुट करने के
प्रयास लगातार जारी हैं।
या यू कहें
एनडीए बनाम महागठवंधन,
विपक्ष 1989 दोहराने को बेताव
चुनाव 2019 की तैयारी
कर रही है।
जद (यू) के
पूर्व प्रमुख शरद
यादव के सम्मेलन
एवं सोनिया गांधी
के डिनर पार्टी
में 17 दलों और
संगठनों के प्रतिनिधियों
का भाग लेना
यह दिखाता है
कि गैर-भाजपा
दल एनडीए गठबंधन
के किसी भी
तरह के षडयंत्र
से मुकाबले के
लिए तैयार है।
हालांकि एनडीए के लिए
यह बात राहत
हो सकती है
कि इस एकजुटता
की अगुवाई कौन
करेगा? को लेकर
सिर फट्टौवल के
पूरे आसार है।
लेकिन मोदी को
यह नहीं भूलना
चाहिए कि कांग्रेस
को मात देने
के लिए विपक्ष
देवगौड़ा व इंद्रकुमार
गुजराज जैसे को
भी अपना नेता
चुन चुका है।
यह यह अलग
बात है एनडीए
ने अपने 33 घटक
दलों को एकजुट
2019 का चुनाव मोदी के
ही नेतृत्व में
लड़ने का ऐलान
किया है।
मतलब साफ
है अगर विपक्ष
एकजुट हुआ तो
बीजेपी को हार
का सामना करना
ही पड़ेगा। इसके
पहले भी एक-दो नहीं
कई प्रमाण है
जब भी विपक्ष
एक होता है
तो बीजेपी हार
जाती है। ऐसे
में पार्टी को
ऐसी रणनीति बनानी
होगी कि विपक्ष
के गठबंधन को
हराने के लिए
किस तरह का
खुद का गठजोड़
किया जाए या
ऐसी कौन सी
सोशल इंजिनियरिंग की
जाये। बीजेपी को
देखना होगा कि
आखिर विकास क्यों
कतार में खड़े
आखिरी आदमी तक
नहीं पहुंच पा
रहा है? आखिर
क्या वजह है
कि निर्माण क्षेत्र
सुस्त है, औद्योगिक
प्रदर्शन कमजोर है, मुख्य
क्षेत्रों में उत्पादन
नकारात्मक है और
अन्य पैमाने भी
सकारात्मक नहीं हैं।
नौकरी दिलाने, बेरोजगारी
घटाने और युवाओं
के जीवन स्तर
को ऊपर उठाने
के वादे क्यों
नहीं पूरे हुए
हैं। ताजा आर्थिक
सर्वेक्षण ने 2017-18 के लिए
जीडीपी विकास दर 6.75 रहने
का अनुमान किया
है। इसका मतलब
है कि वास्तविक
अर्थों में यह
4.75 रहेगी। यूपीए सरकार की
जीडीपी विकास दर के
मुकाबले मोदी सरकार
ने 2015 में जीडीपी
तय करने का
नया पैमाना शुरू
कर लिया जो
विकास के आंकड़े
को दो प्रतिशत
बढ़ा देता है।
सिर्फ कृषि उत्पादन
के आंकड़े ही
सकारात्मक हैं, लेकिन
किसानों के सामने
बड़ी समस्याएं हैं
और वे भारी
दबाव में हैं।
हालांकि सरकारी आंकड़ों में
महंगाई घट रही
है, लेकिन आम
लोग इन हवाई
दावों को स्वीकार
करने के मूड
में नहीं दिखाई
दे रहे है।
संक्षेप में कहें
तो भाजपा को
इसका आर्थिक रिकार्ड
देखते हुए कोई
बहुत बड़ी चुनावी
बढ़त मिलती दिखाई
नहीं दे रही।
युवा और अन्य
वर्ग के लोगों
के जीवन में
किसी बेहतरी की
झलक तो दिखाई
दे नहीं रही,
ऐसे में भाजपा
भावनात्मक मुद्दों पर ही
ध्यान लगाने वाली
है। इस लिहाज
से काफी संकेत
पहले से ही
मिल रहे हैं।
अयोध्या में राम
मंदिर बनाने और
धारा 370 को खत्म
करने के साथ
ही धारा 35 (ए)
को समाप्त करने
की चर्चा तेज
की जा रही
है, भीड़ के
हमले में होने
वाली दलितों और
मुसलमानों की हत्या
बढ़ रही है।
हालांकि प्रधानमंत्री इनकी निंदा
भी करते हैं।
लेकिन भाजपा-शासित
राज्य इस तरह
की निंदा पर
ध्यान नहीं दे
रहे, ऐसे में
मोदी के शब्द
अर्थहीन हो रहे
हैं और इनका
कोई प्रभाव नहीं
दिख रहा। कुल
मिलाकर सिर्फ तीन सीटों
के नतीजों ने
पूरे 2019 के लोकसभा
चुनावों को दिलचस्प
बना दिया है।
मौका विपक्ष के
पास है और
बीजेपी को इसकी
काट तलाशनी है।
2014 के लोकसभा
चुनाव में भाजपा
का चुनावी प्रदर्शन
शीर्ष पर था।
तब इसने गोवा,
गुजरात, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान,
उत्तराखंड और दिल्ली
में सारी सीटें
जीती थीं। जबकि
भाजपा के चुनावी
गठबंधन ने बिहार
की 40 में से
31, छत्तीसगढ़ की 11 में से
10, झारखंड की 14 में से
12, मध्य प्रदेश की 29 में
से 27, महाराष्ट्र की 48 में
से 41 और उत्तर
प्रदेश की 80 में से
71 सीटें जीतीं। राजस्थान, मध्य
प्रदेश, छत्तीसगढ़ और अन्य
भाजपा शासित राज्यों
में सत्ता विरोध
या एंटी इनकंबेंसी
तेजी से बढ़
रहा है, जिसकी
वजह से इन
राज्यों में विधानसभा
चुनावों और अगले
लोकसभा चुनाव में वैसी
ही कामयाबी पाना
असंभवन नहीं तो
मुश्किल जरूर दिख
रहा है। कहा
जा सकता है
हाल की चुनावी
लड़ाइयों में बहुकोणीय
मुकाबला भाजपा के पक्ष
में गया है।
भाजपा को लोकसभा
की 282 सीटें और 31 फीसदी
वोट तो मिल
गए, लेकिन अगर
सबसे बड़े राज्य
उत्तर प्रदेश में
सपा, बसपा और
कांग्रेस एक साथ
मिल कर लड़ने
को तैयार हो
गए तो यहां
से 73 सीटें निकालना
असंभव भी हो
सकता है। इसी
तरह बिहार में
राजद, कांग्रेस और
जद (यू) के
शरद यादव खेमे
के बीच चुनावी
तालमेल हो गया
तो 40 में से
31 सीटें हासिल करने का
प्रदर्शन दुहराना असंभवन नहीं
तो मुश्किल जरूर
हो जाएगा। मोदी-शाह ने
मध्य प्रदेश, राजस्थान
और छत्तीसगढ़ में
अगले चुनाव मौजूदा
मुख्यमंत्रियों के नेतृत्व
में ही लड़ने
का फैसला किया
है, यह तथ्य
अपने आप में
इन राज्यों में
मौजूद भ्रष्टाचार की
स्वीकारोक्ति है। साथ
ही यह कमजोरी
को स्वीकार करने
का भी संकेत
है। शाह ने
मध्य प्रदेश में
कहा है कि
भाजपा अगले 50 साल
तक राज करने
वाली है। ऐसे
दावे कार्यकर्ताओं में
तो जोश भर
सकते हैं, लेकिन
वास्तव में ये
वोट भी दिलवा
सकेंगे इस पर
अभी संदेह है।
गठबंधन है
मायावती
की
मजबूरी
लोकसभा चुनाव में
खाता नहीं खुलने
और विधानसभा चुनाव
में मात्र 19 सीटों
तक सिमट जाने
के बाद अन्य
नेताओं की तरह
बसपा सुप्रीमो मायावती
को अहसास हो
गया है कि
भाजपा से अकेले
दम पर निपटना
संभव नहीं है।
कुछ ऐसा ही
अखिलेश के साथ
भी है। यही
वजह है कि
मायावती अखिलेश दोनों साथ
आने को बेताब
थे और गोरखपुर
व फूलपुर की
सफलता ने मुहर
लगा दी है।
एक साल पहले
प्रचंड बहुमत के साथ
सत्ता में आई
योगी सरकार के
19 मार्च को एक
साल पूरे हो
रहे हैं, लेकिन
इससे ठीक चार
दिन पहले ही
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ
को यूपी की
जनता ने बड़ा
झटका दिया है।
हाल के समय
में मिली तमाम
चुनावी सफलताओं पर इन
दो सीटों की
हार भारी दिख
रही है। बता
दें कि 2014 के
लोकसभा चुनाव और यूपी
के विधानसभा चुनावों
में बीजेपी ने
सपा और बसपा
को करारी मात
दी थी। लोकसभा
में बीजेपी को
80 में से 71 सीटों पर
जीत मिली थी,
जबकि विधानसभा की
403 सीटों में से
बीजेपी को 312 सीटें मिलीं.
सपा को 47 जबकि
बसपा के हिस्से
में महज 19 सीटें
आईं।
मोदी के
बगैर
योगी
नहीं
जीत
सकते
चुनाव
जीत के
बाद मुख्यमंत्री बने
योगी आदित्यनाथ ने
कानून व्यवस्था से
लेकर गौ रक्षा
के मुद्दे पर
जमकर अभियान चलाया।
साथ ही अपराधियों
पर नकेल कसने
के लिए योगी
ने पुलिस को
खुली छूट दी
और प्रदेश में
हर रोज एनकाउंटर
होने लगे। योगी
सरकार ने महिलाओं
के खिलाफ अपराध
को रोकने के
लिए एंटी रोमियो
अभियान चलाया। लगभग हर
मौके पर हर
मंच पर योगी
सरकार ने इसका
श्रेय लिया और
प्रदेश में बेहतर
कानून व्यवस्था होने
की बात कही।
हालांकि योगी सरकार
के इन फैसलों
की खूब आलोचना
हुई और लेकिन
विपक्ष की आवाज
नक्कारखाने में तूती
की तरह रही।
योगी सरकार ने
प्रदेश में पर्यटन
को बढ़ावा देने
के लिए अयोध्या
में दीवाली का
आयोजन किया, तो
मथुरा में होली
खेली. यूपी विधानसभा
में योगी ने
खड़े होकर कहा
कि मैं हिंदू
हूं और ईद
नहीं मनाता। मुझे
इस पर गर्व
है। या यूं
कहें योगी अपने
धर्म की चाशनी
में लिपटी राजनीति
को यूपी में
फैलाते रहे। सरकार
का दावा था
यूपी में बीजेपी
सरकार आने के
बाद प्रदेश में
सड़कें बनी हैं
और बिजली की
सप्लाई भरपूर हो रही
है। योगी सरकार
ने फरवरी 2018 में
यूपी इंवेस्टमेंट समिट
का आयोजन किया।
सरकार ने दावा
किया कि चार
लाख करोड़ से
ज्यादा के एमओयू
साइन हुए हैं.
प्रदेश में सुधरी
कानून व्यवस्था का
असर दिख रहा
है, निवेशक यूपी
में निवेश को
तैयार हैं। हालांकि
यहां भी योगी
सरकार पर आंकड़ों
में हेराफेरी करने
और चीजों को
बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने
के आरोप लगे,
लेकिन योगी अपने
ही अंदाज में
चल रहे थे।
खासकर पिछड़ों और
अति पिछड़ों को
सत्ता में वो
भागीदारी नहीं दी
गयी जिसकी उम्मीद
थी। सरकार के
चेहरे के तौर
पर देखें तो
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ
के अलावा दिनेश
शर्मा, श्रीकांत शर्मा, रीता
बहुगुणा जोशी, ब्रिजेश पाठक,
सुरेश खन्ना, सिद्धार्थनाथ
सिंह, सतीश महाना
ही नजर आते
हैं। केशव मौर्य
उपमुख्यमंत्री जरूर हैं
पर सरकार में
उतने सहज नहीं
दिखते। ओबीसी मंत्री स्वामी
प्रसाद मौर्य, और दलित
नेता दीनानाथ भास्कर
जैसे नेता उपेक्षित
हैं। बीजेपी संगठन
में भी अध्यक्ष
महेंद्र नाथ पाण्डेय
हैं और संगठन
मंत्री सुनील बंसल। मतलब
साफ है सवर्णों
के दम पर
यूपी में कोई
सरकार नहीं बना
सकता। क्योंकि प्रदेश
में करीब 50 फीसदी
आबादी ओबीसी की
है। 2002 से लगातार
15 साल बीजेपी ब्राह्मण, ठाकुर
और बनियों की
पार्टी रही और
इसीलिए सत्ता से बाहर
रही। इसके पहले
कल्याण सिंह के
नेतृत्व में जरूर
ओबीसी बीजेपी से
जुड़ा था और
इसका असर भी
दिखा था। अब
ओबीसी ने इन
दो उपचुनावों में
बीजेपी को फिर
आइना दिखाया है।
चंद नेताओं के
हाथ में ही
ताकत, कार्यकर्ता उपेक्षित-
यूपी बीजेपी के
ज्यादातर बड़े फैसले
राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह,
मुख्यमंत्री योगी और
संगठन मंत्री सुनील
बंसल लेते हैं।
इन तीनों तक
बीजेपी के मंत्रियों
और विधायकों की
ही पहुँच आसानी
से नहीं है,
आम कार्यकर्ता की
कौन कहे। दूसरी
और 15 साल बाद
सत्ता पाने के
बाद बीजेपी मंत्रियों
का मिजाज भी
सरकार में ही
रम गया है।
आम लोगों से
उनकी दूरियां साफ
दिख रही हैं।
योगी को छोड़कर
कोई प्रदेश स्तर
का नेता नहीं-
बीजेपी ने 2014 और 2017 का
चुनाव नरेन्द्र मोदी
के नाम पर
जीते थे। सरकार
बनने के बाद
प्रदेश के नेताओं
को जमीन पर
अपनी पकड़ बनानी
थी जो उन्होंने
नहीं बनायीं। कई
मंत्रियों और नेताओं
का जनाधार तो
अपनी विधानसभा तक
ही है। ऐसे
में जब मोदी
ने चुनाव प्रचार
से हाथ खींच
लिया, बीजेपी धराशायी
हो गई। गोरखपुर
और फूलपुर में
मोदी ने प्रचार
नहीं किया था।
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