Wednesday, 4 April 2018

आंदोलन की आड में आग की साजिश


आंदोलन की आड में आग की साजिश
इसमें कोई दो राय नहीं है कि दलित समाज के उपेक्षित वर्गो में से एक हैं। उनकी दीनहीन दशा को ही देखते हुए ही आरक्षण का प्रावधान किया गया। इसके पीछे मकसद था उनके उपर जुल्म हो, उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ा जाएं। उत्पीड़न को रोकने के लिए एससी एसटी एक्ट के तहत कानून बनाया गया। लेकिन यह भी सच है कि इस कानून का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग भी किया जाता रहा। इस दुरुपयोग को रोकने के लिए ही सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से पहले 11 साल पूर्व 19 मई 2007 को मायावती ने ही बदल दिया था। तब इतनी होहल्ला, तोड़फोड़, आगजनी की वारदातें नहीं हुई। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है कि क्या आंदोलन की आड़ में कहीं 2019 जीतने की साजिश तो नहीं रची गयी
सुरेश गांधी
फिरहाल, सुप्रीम कोर्ट ने तो साफ कहा किहम एससी एसटी एक्ट के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन किसी बेकसूर को सजा नहीं मिलनी चाहिए। इसी के मद्देनजर ही सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च को एससी एसटी एक्ट, 1989 के सख्त प्रावधान में यह व्यवस्था दी कि अब इस मामले में तत्काल गिरफ्तारी नहीं होगी। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाबत मनन करने के बजाय दुसरे ही दिन भारत बंद का आह्वान किया गया। इसके पीछे मंशा सियासत चमकाने का था या मोदी सरकार को बदनाम करने के लिए देश को आग के हवाले किया गया यह तो जांच के बाद पता चलेगा। लेकिन सच तो यही है दलित आंदोलन की आड़ में 2019 जीतने की रुपरेखा तैयार की गयी। ऐसा इसलिए कि क्योंकि जहां कहीं भी आंदोलन के आग की ज्वाला दहकी वहां सुप्रीम कोर्ट के फैसले का नहीं मोदी विरोधी ही नारे लगते रहे।
हो जो भी कम से कम इससे तो इंकार नहीं किया जा सकता है कि एससी एसटी एक्ट के झूठे मुकदमों में अब भी हजारों लाखों लोग जेल में है। लोग अपनी दुश्मनी साधने के लिए बेकसूरों पर फर्जी केस करवाते है। इसी झूठ को देखते हुए मायावती ने 29 अक्टूबर 2007 को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम में कई बड़े बदलाव किए थे। आदेश जारी किए गए थे कि इस एक्ट में किसी निर्दोष को फंसाया जाए। झूठे मुकदमे लिखाने वालों के खिलाफ आईपीसी की धारा 182 में कार्रवाई किया जाय। जांच के दौरान पाया गया था कि कई मामलो में दबंगों ने दलितों को मोहरा बना कर अपने विरोधियों पर मुकदमे करा दिए थे। लेकिन अफसोस है कि राजनीति के बदलते इस दौर में पिछले लोकसभा चुनाव में खाता नहीं खोल पाने वाली मायावती ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में भारत बंद का मौन समर्थन किया। परिणाम यह हुआ कि देश के अन्य हिस्सों की तरह यूपी के भी कई शहरों में तोड़ फोड़, हिंसा और आगजनी की घटनाएं घटित हुई।
बता दें, इस आंदोलन में मायावती ही नहीं बल्कि मोदी विरोधी सभी राजनीतिक पार्टिया एक साथ खड़ी हो गयी। उन्हें लगा कि इस आंदोलन के जरिए दलितों की सत्रह फीसदी वोटबैंक को अपने पक्ष में किया जा सकता है। यही वजह भी है कि दो अप्रैल को दलितों के भारत बंद आंदोलन के दौरान सैकड़ों की संख्या में भीड़ ने हिंसक प्रदर्शन किया। यूपी, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में सबसे ज्यादा हिंसा हुई। प्रदर्शनों के दौरान 12 लोगों की मौत हो गई। मोदी विरोधी पार्टियों ने ‘’बाबा साहेब के बताएं रास्ते पर चलने के बजाएं तोड़फोड़ आगजनी का सहारा लिया। जबकि बीजेपी ने ट्वीट के जरिए कांग्रेस पर निशाना साधा और कहा, ‘’आजादी के दशकों बाद तक कांग्रेस ने कभी बाबासाहेब को सम्मान नहीं दिया। बीजेपी का बाबासाहेब के प्रति समर्पण ही है कि सरकार में आते ही बाबासाहेब के जीवनकाल के पांच स्थलों को भव्यपंचतीर्थके रूप में विकसित किया गया। इसी सच्चे समर्पण से दलित वोटों के तथाकथित ठेकेदार बौखला गए हैं।’’ दलित आंदोलनों के नेताओं का आरोप है कि सरकार ने कोर्ट में एससी-एसटी के पक्ष को नहीं रखा, जो देश की आबादी की एक चैथाई है।
पक्ष रखने के चलते ही सुप्रीम कोर्ट को यह फैसला देना पड़ा कि अग्रिम जमानत मिलेगी और चूंकि सरकार कह चुकी है कि फर्जी मामले भी होते हैं, ऐसे में अदालत ने कहा कि बिना प्रारंभिक जांच के गिरफ्तारी नहीं होगी। यह अलग बात है कि जिस दिन आंदोलन था, उसी दिन पुनर्विचार याचिका डाली गई। जबकि सुप्रीम कोर्ट के नियमों के मुताबिक कोई भी पुनर्विचार याचिका उसी बेंच में जाती है जिस बेंच का फैसला होता है। अब सरकार ने दबाव में रिव्यू पिटीशन डाली है तो दोनों न्यायाधीशों के सामने दो विकल्प हैं- या तो वे फैसले पर बरकरार रहें या उसे बदलें। दोनों ही स्थितियों में सुप्रीम कोर्ट की विश्वसनीयता खंडित होती है। जजों को दुविधा में डाला गया कि आपने अपना फैसला सही लिया है या नहीं लिया। इसकी जगह सरकार को चाहिए था कि इस पर अध्यादेश लाती। संसद में राजनीतिक चर्चा होती, सारे पक्ष सुने जाते और एक राय बनती। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। भला क्यों करे वह इस बात को अच्छी तरह समझती है कि जो लोग इस समय आंदोलित हैं, वे आमतौर पर बीजेपी के वोटर नहीं हैं।
यह अलग बात है कि उसके दलित जोड़ों अभियान को झटका जरुर लग सकता है। जहां तक विपक्षी दलों का सवाल है तो वे इस प्रदर्शन के जरिए यह साबित करने का प्रयास किया है कि बीजेपी दलितों को निशाना बना रही है। इसके चलते अब बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार पर इस ऐक्ट के प्रावधानों को कड़ा करने का दबाव है। कोर्ट का यह मानना था कि कई लोग इस ऐक्ट का इस्तेमाल ईमानदार सिविल सेवकों को ब्लैकमेल करने के लिए झूठे मामले में फंसाने के इरादे से भी कर रहे हैं। इसलिए इस कानून के जरिये तत्काल गिरफ्तारी के प्रावधान को कोर्ट ने नरम कर दिया। लेकिन कुछ लोगों द्वारा ऐसी अफवाह फैलाई गई कि यह सरकार आरक्षण खत्म करना चाहती है। निःसंदेह समय के साथ कानूनों में सुधार के सिलसिले को इसलिए नहीं रोका जा सकता कि उससे कुछ दलों को राजनीतिक रोटियां सेंकने में सहूलियत होती है, लेकिन इसी के साथ एससी-एसटी एक्ट के मामले में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को यह भरोसा दिलाने की भी जरूरत है कि उनके साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं होने दिया जाएगा।
क्योंकि दलितों का उत्पीड़न एक हकीकत है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक, देश में दलितों पर अत्याचार की रोजाना करीब 123 घटनाएं हो रही हैं। दलित शिक्षा, नौकरी और संपत्तियों में हिस्सेदारी में भी औरों से काफी पीछे हैं। इतिहास गवाह है कि दलितों को पढ़ने और लिखने का मौका बहुत देर से मिला है। अपनी बात बहुत लोगों तक पहुंचाने के लिए जिन माध्यमों और जिस कौशल की जरूरत होती है, वह उनके पास कुछ दशक पहले तक नहीं था। ऐसे में दलित राष्ट्रपति का होना दलितों की बहुसंख्यक आबादी के लिए क्या मायने रखता है? मतलब साफ है उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। यह बहुत कुछ किया जाना तभी संभव होगा जब अराजक राजनीति पर लगाम लगेगी। दुर्भाग्य से यही नहीं हो रहा है। भारत बंद के दौरान जैसा उत्पात देखने को मिला वह सभ्य समाज को शर्मिदा करने और साथ ही देश की छवि पर कालिख मलने वाला रहा। आज के युग में ऐसे भारत की कल्पना नहीं की जाती जहां जाति, वर्ग या क्षेत्र के हित के नाम पर अराजकता का सहारा लिया जाए। दुर्भाग्य से एक अर्से से यही हो रहा है। भारत बंद के दौरान हुए उपद्रव ने पाटीदारों के उग्र आंदोलन और करणी सेना के उत्पात की याद ताजा कर दी। अपने देश में विरोध जताने अथवा अधिकारों की मांग के नाम पर अराजकता का प्रदर्शन इसीलिए बढ़ता जा रहा है, क्योंकि इसके लिए जिम्मेदार राजनीतिक-गैर राजनीतिक तत्वों के खिलाफ कोई कठोर कार्रवाई मुश्किल से ही हो पाती है। क्या इस बार होगी? कहना कठिन है, लेकिन अगर अराजक विरोध को इसी तरह सहन किया जाता रहा तो कानून के शासन की रक्षा करना मुश्किल होगा।
दलितों की हालत में तभी दूरगामी परिवर्तन सकता है जबकि राजनीति, न्यायपालिका, नौकरशाही, उद्योंगो, यूनिवर्सिटी, सिविल सोसाइटी और मीडिया में एक इंडस्ट्री के तौर दलितों को उनकी आबादी के अनुपात में निर्णायक प्रतिनिधित्व मिले। इसके साथ-साथ संसाधनों में भी प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए, जब तक यह नहीं होता, उनका सशक्तीकरण नहीं हो सकता है। हर चीज में दलितों के निर्णायक प्रतिनिधित्व के बगैर बदलाव मुमकिन नहीं है क्योंकि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद दलितों की कितनी मुखर आवाज बन पाएंगे, यह तो भविष्य ही तय करेगा। आज देश में दलित हितों से गहरे जुड़ाव वाली कोई स्वतंत्र दलित राजनीति नहीं है और दुर्भाग्य से, दलित नेताओं ने अपने पिछड़ेपन को तो खूब भुनाया मगर दलितों की जिंदगी से जुड़े मुद्दों पर कभी ध्यान नहीं दिया। इसी तरह आरक्षण की व्यवस्था से उभरे मध्यवर्ग के हित दलित जनता से कुछ अलग किस्म के बन गए। वह अपने हितों के लिए सुविधाजनक ढंग से आंबेडकर के उद्धरण और सांस्कृतिक मसलों को तो उठाता है लेकिन दलितों की जीविका के मुद्दों से कोई वास्ता नहीं रखता। 



No comments:

Post a Comment