सोनभद्र नरसंहार में जांच टीम को मिली खामियां ही खामियां
आरोपी तो पकड़े गए लेकिन घटना के जिम्मेदार पुलिस
व
प्रशासनिक
अफसर
सुरक्षित।खास बात यह है कि जिस जमीन के नरसंहार में इतनी मौते हुई, उससे जुड़े मूल दस्तावेज ही गायब हैं। भूमि को सोसाइटी के नाम करने का तहसीलदार का आदेश ही गायब हो गया है
सुरेश गांधी
देश की
ऊर्जा राजधानी
कहे जाने
वाले सोनभद्र
में सप्ताह
भर पहले
हुए नरसंहार
की गुत्थी
सुलझने के
बजाय उलझती
नजर आ
रही है।
माना मुख्यमंत्री
योगी आदित्यनाथ
के एक्शन
में आने
पर कार्रवाई
तेज हुई
है। धड़ाधड़
आरोपी पकड़े
जा रहे
है। अब
तक 35 से
अधिक लोग
जेल भेजे
जा चुके
है। लेकिन
जांच में
अजीबोगरीब पुलिसिया लापरवाही सबकी होश
उड़ा देने
वाले है।
जमीनी विवाद
की इस
जंग में
10 लोगों की
हत्या के
मामले में
सोनभद्र के
उम्भा गांव
पहुंची जांच
कमेटी की
अगुवा अपर
मुख्य सचिव
रेणुका कुमार
को एक
दो नहीं
कई खामिया
मिली है।
इस वाकये
में 16 नामजद
हैं। खास
बात यह
है कि
जिस जमीन
के नरसंहार
में इतनी
मौते हुई,
उससे जुड़े
मूल दस्तावेज
ही गायब
हैं। भूमि
को सोसाइटी
के नाम
करने का
तहसीलदार का
आदेश ही
गायब हो
गया है।
तहसीलदार ने
किस आदेश
व नियम
के तहत
भूमि को
सोसाइटी के
नाम दर्ज
की इस
आदेश की
कापी ही
नहीं मिल
रही है,
जबकि भूमि
से संबंधित
अन्य सभी
आवश्यक कागजात
मौजूद हैं
और उसे
जांच के
लिए शासन
को भेजा
गया है।
गौरतलब है
कि घोरावल
तहसील व
मूर्तिया ग्राम
पंचायत की
1995 से अब
तक की
भूमि के
मामले की
जांच शुरू
हो गई
है। इसके
लिए शासन
ने उभ्भा
गांव की
639 बीघे जमीन
के साथ
ही सभी
पत्रावलियों को तलब किया तो
पता चला
कि 17 दिसंबर
1955 को बिहार
के मुजफ्फरपुर
निवासी महेश्वरी
प्रसाद नारायण
सिन्हा ने
जिस भूमि
को आदर्श
कोआपरेटिव सोसाइटी बनाकर उसके नाम
कराई उसके
लिए किए
गए तहसीलदार
के आदेश
की पत्रावली
ही गायब
है। जिसे
लेकर प्रशासनिक
महकमे में
हलचल मच
गई। जिलाधिकारी
अंकित कुमार
अग्रवाल से
इसके बारे
में जानकारी
ली गई
तो पता
चला कि
1955 में जिला
सोनभद्र नहीं
था। जिसका
मुख्यालय मीरजापुर
ही रहा।
1989 में जब
जिला सोनभद्र
बना तो
वहां से
अभिलेख जिले
में आए
लेकिन जो
अभिलेख आए
हैं उनमें
तहसीलदार ने
किस आदेश
व नियम
के तहत
उभ्भा गांव
की 639 बीघा
जमीन आदर्श
कोआपरेटिव सोसाइटी के नाम की
वह आदेश
ही नहीं
है। इसके
अलावा जमीन
के सोसाइटी
के नाम
दर्ज होने
सहित अन्य
सभी कागजात
मौजूद हैं।
ऐसे में
सवाल उठता
है कि
आखिर वह
कागजात कहां
गया? जब
1955 से यह
मामला विवाद
में चल
रहा था
तो इसकी
जांच क्यों
नहीं की
गई? जमीन
के बैनामे
व दाखिल
खारिज के
समय भी
इस पर
आपत्ति लगी
लगी थी
लेकिन राजस्व
विभाग के
अधिकारियों द्वारा इस पर ध्यान
न देकर
639 बीघे जमीन
में से
148 बीघा जमीन
प्रधान के
नाम बैनामा
होने के
बाद दाखिल
खारिज में
उसके नाम
भी चढ़ा
दिया गया।
सबसे चौकाने
वाली बात
यह है
कि उभ्भा
गांव में
भूमि पर
कब्जा करने
के चक्कर
में नरसंहार
हुआ उसी
जमीन पर
कब्जा पाने
के लिए
ग्राम प्रधान
ने बकायदा
पुलिस विभाग
में पैसा
जमा किया
था। इसकी
रसीद कटवाकर
कब्जा दिलाने
के लिए
तिथि भी
सुनिश्चित कराई थी, लेकिन उस
दौरान राजस्व
विभाग ने
ऐन वक्त
पर हाथ
खींच लिया
और मामला
ठंडे बस्ते
में चला
गया। अंततः
प्रधान ने
जमीन पर
स्वयं कब्जा
करने की
कोशिश किया
और नरसंहार
हुआ। प्रधान
को कब्जा
पाने की
इतनी जल्दबाजी
थी कि
वह खारिज
दाखिल होने
से पहले
ही जमीन
पर कब्जा
पाने के
लिए परेशान
था। सूत्रों
की मानें
तो 17 अक्टूबर
2017 को आशा
मिश्रा व
विनिता शर्मा
से कुल
तीन खाता
संख्या की
जमीन 13 लोगों
के नाम
बैनामा हुई।
उसमें खाता
संख्या 79 व 81 जो उम्भा में
है इसके
कुल 112 बीघा
भूमि पर
ग्रामीण काबिज
थे। प्रधान
पक्ष के
लोग जमीन
लिखवाने के
बाद उस
पर कब्जा
पाना चाहते
थे। ऐसे
में एसडीएम
के यहां
प्रार्थना पत्र देकर कहा कि
उक्त जमीन
पर अतिक्रमण
है उसे
हटवाया जाए।
इस पर
एसडीएम ने
11 अक्टूबर 2018 को तहसीलदार घोरावल को
पत्र लिखकर
जरूरी कार्रवाई
के लिए
कहा।
नया मामला
भाजपा के
दुद्धी विधायक
हरिराम चेरो
की ट्वीट
का है।
जो मुख्यमंत्री
योगी आदित्यनाथ
के नाम
14 जनवरी 2019 को लिखा खत सोशल
मीडिया पर
तेजी से
वायरल हो
रहा है।
इस खत
में विधायक
ने मुख्यमंत्री
को जमीनी
विवाद को
लेकर पहले
ही आगाह
कर दिया
था। आरोप
लगाया था
कि भूमाफिया
आदिवासियों की पैतृक भूमि जबरदस्ती
हड़पने के
चक्कर में
हैं। पत्र
में साफ
कहा गया
था कि
यहां के
गरीब आदिवासी
गोड़ जाति
के लोग
जो आजादी
के पहले
से ही
ग्राम उभ्भा
में रहकर
ग्राम समाज
की जमीन
पर मकान
बनाकर खेती
कर रहे
हैं। इस
ग्राम समाज
की जमीन
पर उभ्भा
गांव के
1200 लोग अपने
परिवार का
भरण पोषण
कर रहे
हैं। इन
आदिवासियों के पूर्वज गरीब और
अशिक्षित होने
के कारण
जमीन अपने
नाम नहीं
करा पाये
हैं।
इसका फायदा
भू-माफिया
महेश्वरी प्रसाद
नारायण सिन्हा
ने एक
सहकारी समिति
बनाकर तत्कालीन
उप जिलाधिकारी
व तहसीलदार
से साठगांठ
कर करीब
छह सौ
बीघा गोड़
आदिवासियों के कब्जे वाली ग्राम
समाज की
जमीन 17 दिसंबर
1955 को अपनी
सोसाइटी आदर्श
को-आपरेटिव
सोसाइटी लिमिटेड
के नाम
करा लिए।
उस सोसाइटी
की जिले
में एक
भी शाखा
नहीं है,
न ही
प्रतिनिधि है। इससे यह प्रतीत
होता है
कि यह
सोसाइटी फर्जी
है। वर्तमान
में उस
जमीन में
से करीब
दो सौ
बीघा जमीन
माहेश्वरी नारायण सिन्हा के वारिस
आशा मिश्रा
एवं विनिता
शर्मा ने
अधिकारियों से मिलीभगत कर ग्राम
मूर्तिया के
वर्तमान प्रधान
यज्ञदत्त भूर्तिया
एवं ग्राम
प्रधान के
रिश्तेदारों को बेच दिया है।
ग्राम प्रधान
के साथ
अन्य लोग
व आशा
मिश्रा एवं
विनिता जमीन
को कब्जा
करने के
लिए उभ्भा
ग्राम के
आदिवासियों पर फर्जी मुकदमे कर
रहे हैं।
विधायक ने
पत्र में
अनुरोध किया
था कि
जनहित व
आदिवासी पर
हो रहे
अन्याय को
ध्यान में
लेते हुए
इस प्रकरण
की किसी
बड़ी एजेंसी
से निष्पक्ष
जांच कराकर
दोषियों के
खिलाफ कड़ी
से कड़ी
कार्रवाई की
जाए।
समूचा सोनभद्र
सन 1996 से
लेकर 2012 तक नक्सल आंदोलन से
जूझता रहा
था। इसके
पीछे जल-जंगल-जमीन
से दलितों-आदिवासियों व
गरीबों की
बेदखली प्रमुख
कारण रहा।
लेकिन जब
नक्सलवाद अपने
चरम पर
था, तब
भी इस
तरह का
जघन्यतम नरसंहार
नहीं हुआ
था। यह
नरसंहार किसी
बड़ी साजिश
की तरफ
इशारा करता
है। समूचे
जनपद में
व्यापक स्तर
पर जमीनों
की हेराफेरी
करके लोगों
को लाभ
पहुंचाया जाता
है, जिसमें
बाहुबली से
लेकर मंत्री-संत्री सब
शामिल होते
हैं। सोनभद्र
में जो
जमीन कभी
कौड़ियों के
दाम मिलती
थी, आज
सोना हो
चुकी है।
इसीलिए इस
अंचल में
नेताओं और
अधिकारियों की संवेदनाएं आदिवासियों के
लिए नहीं,
बल्कि अवैध
खनन-परिवहन
और जमीनों
पर कब्जे
के लिए
उमड़ती हैं।
राजस्व विभाग
ने सर्वे
सेटलमेंट के
नाम पर
करीब डेढ़
लाख हेक्टेयर
सरकारी-गैर
सरकारी जमीन
पर सफेदपोशों
और राजनीतिक
रुतबा रखने
वालों से
कब्जा करा
दिया है।
सोचने की
बात है
कि अगर
सरकारी नुमाइंदों
और पुलिस
प्रशासन की
मिलीभगत न
होती तो
क्या इतनी
बड़ी संख्या
में दिनदहाड़े
हमलावरों के
ट्रक और
ट्रैक्टर जैसे
बड़े वाहन
सड़कों पर
धूल उड़ाते
हुए आदिवासियों
के खेतों
तक पहुंच
जाते और
पुलिस को
कानोंकान खबर
भी न
होती। वैसे
तो सोनभद्र
ऊर्जा राजधानी
होने के
बावजूद जिले
के अंधेरे
में डूबे
होने के
लिए कुख्यात
है लेकिन
यहां का
मूल मसला
आदिवासियों की पीढ़ियों से कब्जे
वाली जमीन
का विवाद
न सुलझ
पाना ही
रहा है।
आज से
40 साल पहले
गांधीवादी समाजसेवी प्रेमभाई ने सुप्रीम
कोर्ट के
सीजेआई पीएन
भगवती को
मात्र एक
पोस्टकार्ड भेजकर आदिवासियों को भूमि
अधिकार बहाल
करने का
अनुरोध किया
था। सीजेआई
ने पोस्टकार्ड
को ही
जनहित याचिका
मानकर सोनभद्र
में सर्वे
सेटलमेंट का
आदेश दे
दिया। लेकिन
दुर्भाग्य देखिए कि इसका लाभ
आदिवासियों को पीछे छोड़कर बाहुबलियों,
उद्योगपतियों और सामंतों ने उठा
लिया। दशकों
बाद वनाधिकार
कानून से
आदिवासियों को अपनी भूमि पर
काबिज की
उम्मीद जागी
थी, लेकिन
देखने में
आया कि
वन विभाग
इसे लागू
ही नहीं
करना चाहता।
इस आदिवासी
बाहुल्य जनपद
में सदियों
से आदिवासियों
के जोत-कोड़ को
तमाम नियमों
के आधार
पर नजरअंदाज
किया जाता
रहा है।
तमाम सर्वे
के बावजूद
अधिकारियों की संवेदनहीनता उन्हें भूमिहीन
बनाती रही
है। उम्भा
गांव के
खूनी संघर्ष
से बिहार
के रहने
वाले बंगाल
काडर के
पूर्व आईएएस
अधिकारी प्रभात
कुमार मिश्रा
के तार
जुड़ रहे
हैं। उसने
तत्कालीन ग्राम
प्रधान की
मिलीभगत से
गांव की
करीब 600 बीघा
जमीन अपने
नाम कराने
का प्रयास
शुरू कर
दिया था।
आईएएस की
बेटी इस
जमीन पर
हर्बल खेती
करवाना चाहती
थी। लेकिन
जमीन पर
कब्जा न
मिल पाने
की वजह
से उसका
प्लान फेल
हो गया।
ऐसे में
आईएएस ने
इसी में
से करीब
200 बीघा जमीन
17 अक्टूबर 2010 को आरोपी यज्ञदत्त भूरिया
और उसके
रिश्तेदारों के नाम औने-पौने
दामों बेच
दी। पिछले
70 वर्ष से
अधिक समय
से खेत
जोत रहे
गोंड़ जनजाति
के लोग
प्रशासन से
गुहार लगाते
रहे लेकिन
उन्हें उनकी
जमीन पर
अधिकार नहीं
दिया गया।
आखिरकार भूरिया
ने उन्हें
बेदखल करने
के लिए
यह नरसंहार
करा दिया!
No comments:
Post a Comment