‘सत्य’
का ‘मार्ग’
दिखाने वाला ही सर्वश्रेष्ठ ‘गुरु’
हमारा
भारत
देश
पूरे
विश्व
में
अपनी
संस्कृति,
आचरण
व
शिष्टाचार
से
जाना
जाता
है।
यहां
पर
माता-पिता
और
गुरु
को
भगवान
का
रूप
समझा
जाता
है।
इसके
लिए
एक
दोहा
भी
बेहद
प्रचलित
है-
गुरुब्रह्र्मा
गुरुर्विष्णुः
गुरुर्देवो
महेश्वरः।
गुुरुः
साक्षात्
परं
ब्रह्म
तस्मै
श्री
गुरवे
नमः।।
अर्थात
गुरु
ब्रह्मा
है,
गुरु
विष्णु
है,
गुरु
ही
शंकर
है
व
गुरु
ही
साक्षात
परब्रह्म
है
और
उन्हीं
सद्गुरु
को
हम
प्रणाम
करते
हैं।
गुरु
को
भगवान
इसलिए
माना
जाता
है
क्योंकि
गुरु
ही
हमें
संसार
रूपी
भव
सागर
को
पार
करने
में
हमारी
मदद
करते
हैं।
गुरु
से
हमें
ज्ञान
प्राप्त
होता
है
और
उनके
द्वारा
दिखाए
गए
मार्ग
पर
चलने
से
मोक्ष
की
प्राप्ति
होती
है।
सुरेश गांधी
आत्मा को सशक्त
करो। पास
कोई धरोहर है
तो वह है
विचारों की शक्ति।
मस्तिष्क में तरह
तरह की घटनाओं
का आभास होता
है। ऐसी शक्ति
मन में पैदा
होना चाहिये। कभी-कभी निराश
होकर आदमी बेवश
हो जाता है।
यह तब होता
है, जब मन
अशांत होता है।
दिल से टूटा
व्यक्ति सबकुछ से निराश
हो जाता है।
मन को शुद्ध,
स्वच्छ रखना जरूरी
है। मन को
निराश करना, घबराना
सेहत के लिए
अच्छा नहीं है।
अपनी बुद्धि को
शुद्ध रखो। अकेले
में जहां तक
संभव हो सके,
भगवान का स्मरण
करो। धीरज रखना
काफी कठिन काम
है। चिंतन मन
शरीर को शुद्ध
रखता है, लेकिन
उप चेतन मन
में परमात्मा की
शक्ति है। जिंदगी
विश्वास पर चलता
है। सफलता जीवन
की सबसे बड़ी
उपलब्धि है। हम
धरती पर आये
हैं तो सब
कुछ कर लेंगे,
यह संभव नहीं
है। जहां तक
संभव हो सके
मन में शांति
लाने का प्रयास
करना चाहिये। सत्संग
से तन और
मन की शुद्धि
होती है व
विवेक जागृत होता
है। सत्संग व
सेवा के माध्यम
से मनुष्य ईश्वर
को रिझाता है।
हम अपने कर्तव्यों
को पुर्ण करते
हुए गुरुवचनों के
अनुसार जीवन जीते
हुए सहज तरीके
से ईश्वर तक
पहुंच सकते हैं।
यह गुरु ज्ञान
वाराणसी के गढ़वाघाट
आश्रम के महंत
संतश्री स्वामी सरनानंद जी
महराज के है।
दुनिया में सबसे
कीमती रिश्ता भगवान
का है और
भगवान का मंत्र
ही गुरुमंत्र है।
गुरुमंत्र को सिद्ध
कर लेने पर
वह कवच बन
जाता है। गुरुमंत्र
में अनलिमिटेड पावर
है, बाकि सब
लिमिटेड। सच्चे गुरु का
आशीर्वचन मिलना भी सौभाग्य
की बात है।
श्री सरनानंद का
मानना है जिस
किसी ने गुरु
की महत्ता को
समझा, परखा व
अनुशरण किया है
उसे जरुर ईश्वर
का साक्षात दर्शन
कर लिया होगा।
वैसे भी भारत
में गुरु-शिष्य
की महान परंपरा
रही है। ऋषि
संदीपन और शिष्य
भगवान कृष्ण, विश्वामित्र
और श्री राम,
द्रोणाचार्य और अर्जुन
के बारे में
सब जानते हैं,
लेकिन ऋषि धौम्य
के शिष्यों आरुणि,
उद्दालक और उपमन्यु
को जो स्थान
अपने गुरु की
सेवा से मिला,
वह सनातन धर्म
में सर्वोत्कृष्ट है।
सूफी इस्लाम में
भी जिन महान
गुरु-शिष्यों की
परंपरा भारत में
प्रसिद्ध रही है
वे हैं: मोइनुद्दीन
चिश्ती और उनके
शिष्य कुतुबुद्दीन बख्तियार
काकी, काकी के
शिष्य निजामुद्दीन औलिया,
औलिया के शिष्य
अमीर खुसरो। अमीर
खुसरो की गुरु
भक्ति के बारे
में तो कहा
जाता है कि
वह अपने गुरु
निजामुद्दीन औलिया के निधन
से इतने व्यथित
हो गए थे
कि उनके साथ
ही यह कहते
हुए चल बसे
कि ‘गोरी सोवै
सेज पर, मुख
पर डारे केस,
चल खुसरो घर
आपने, अब रैन
भई चहुं देस।’ गुरु पूर्णिमा पर जिस
किसी ने भी
सच्चे मन से
गुरु का दर्शन
पूजन कर लिया
उसे जरुर मिलेगी
गुरु की कृपा।
उसे मिल जायेगा
धन-दौलत का
आर्शीवाद।
इस दिन
माता-पिता की
सेवा करने वालों
सेभी परमात्मा प्रसन्न
होते हैं। हालांकि
गुरु एवं माता
पिता की सेवा
गुरुपूर्णिमा ही नहीं
हर रोज करनी
चाहिए। लेकिन गुरु पूर्णिमा
पर भक्तों की
झोली भरते है
गुरुजन। धर्म जीवन
में तभी सुख
दे सकता है,
जब धर्म करने
वाले में असहाय
एवं निर्बल के
प्रति दया कि
भावना हो। सत्य
का मार्ग दिखाने
वाला ही सर्वश्रेष्ठ
गुरु होता है।
क्योंकि पूर्णिमा के चंद्रमा
की तरह हैं
होते है गुरु।
यही वजह है
कि गुरु के
त्याग और तप
को समर्पित है
गुरु पूर्णिमा। शास्त्रों
मे ऐसा कहा
गया है कि
अगर आपको ईश्वर
श्राप दे देते
हैं तो आपके
गुरु ही आपकी
रक्षा कर सकते
हैं, लेकिन अगर
आपको आपके गुरु
ने श्राप दे
दिया तो भगवान
भी आपकी रक्षा
नही कर सकते
हैं और न
उस पाप से
आपको बचा सकते
हैं। गुरु की
महिमा सिर्फ पौराणिक
काल में ही
नहीं थी, कबीर
ने भी गुरु
की महिमा का
गान किया है।
कबीर कहते हैं
- गुरु गोविन्द दोऊ खड़े,
काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपनो,
गोविंद दियो बताय।।
शास्त्रों में ’गु“ का अर्थ बताया
गया है- अंधकार
या मूल अज्ञान
और ’रु“ का अर्थ
किया गया है-
उसका निरोधक। गुरु
को गुरु इसलिए
कहा जाता है
कि वह अज्ञान
तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण
कर देता है।
अर्थात अंधकार को हटाकर
प्रकाश की ओर
ले जाने वाले
को ’गुरु“ कहा जाता
है। ’अज्ञान तिमिरांधश्च
ज्ञानांजन शलाकया, चक्षुन्मीलितम तस्मै
श्री गुरुवै नमः।“ गुरु तथा देवता
में समानता के
लिए एक श्लोक
में कहा गया
है कि जैसी
भक्ति की आवश्यकता
देवता के लिए
है वैसी ही
गुरु के लिए
भी। बल्कि सद्गुरु
की कृपा से
ईश्वर का साक्षात्कार
भी संभव है।
गुरु की कृपा
के अभाव में
कुछ भी संभव
नहीं है। गुरु
आत्मा-परमात्मा के
मध्य का संबंध
होता है। गुरू
से जुड़कर ही
जीव अपनी जिज्ञासाओं
को समाप्त करने
में सक्षम होता
है तथा उसका
साक्षात्कार प्रभु से होता
है। हम तो
साध्य हैं किंतु
गुरू वह शक्ति
है जो हमारे
भितर भक्ति के
भाव को आलौकिक
करके उसमे शक्ति
के संचार का
अर्थ अनुभव कराती
है और ईश्वर
से हमारा मिलन
संभव हो पाता
है।
परमात्मा को देख
पाना गुरू के
द्वारा संभव हो
पाता है। यहां
गुरु की भूमिका
सिर्फ शिक्षा तक
ही सीमित नहीं
है। गुरु व्यक्ति
को जीवन के
हर संकट से
बाहर निकलने का
मार्ग बताने वाला
मार्गदर्शक भी है।
गुरु से जुड़कर
ही जीव अपनी
जिज्ञासाओं को शांत
करने में सक्षम
होता है तथा
उसका साक्षात्कार प्रभु
से होता है।
हम तो साध्य
हैं किंतु गुरु
वह शक्ति है
जो हमारे भीतर
भक्ति के भाव
को आलौकिक करके
उसमे शक्ति के
संचार का अनुभव
कराती है और
ईश्वर से हमारा
मिलन संभव हो
पाता है। गुरु
व्यक्ति को अंधकार
से प्रकाश में
ले जाने का
कार्य करता है,
सरल शब्दों में
गुरु को ज्ञान
का पुंज कहा
जा सकता है।
आज भी इस
तथ्य का महत्व
कम नहीं है।
विद्यालयों और शिक्षण
संस्थाओं में विद्यार्थियों
द्वारा आज भी
इस दिन गुरू
को सम्मानित किया
जाता है। मंदिरों
में पूजा होती
है, पवित्र नदियों
में स्नान होते
हैं, जगह जगह
भंडारे होते हैं
और मेलों का
आयोजन किया जाता
है। पहले विद्यार्थी
आश्रम में निवास
करके गुरू से
शिक्षा ग्रहण करते थे
तथा गुरू के
समक्ष अपना समस्त
बलिदान करने की
भावना भी रखते
थे, तभी तो
एकलव्य जैसे शिष्य
का उदाहरण गुरू
के प्रति आदर
भाव एवं अगाध
श्रद्धा का प्रतीक
बना जिसने गुरू
को अपना अंगुठा
देने में क्षण
भर की भी
देर नहीं की।
दुनिया के तमाम धर्मों और समाजों में पथ-प्रदर्शकों
को सबसे ज्यादा अहमियत दी जाती रही है। उस व्यक्ति की वंदना की जाती रही है जो हमें
अपने जीवन के उद्देश्यों से अवगत कराए, हमें जीवन की सार्थकता का बोध कराए, हमारे जीवन
को अर्थपूर्ण बनाए। उस पथ-प्रदर्शक को कहीं ईसाई धर्म में मास्टर कहा गया है तो इस्लाम
में पीर, तो सनातन धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म में गुरु की उपमा दी जाती रही है।
समस्त धर्मों में गुरु को माता-पिता से भी ऊंचा स्थान मिला है। गुरु की महानता की वजह से उन्हें तुलसी ने ‘गुरु
शंकर रुपिणे’ कह कर उनका मान बढ़ाया है। गुरु की महत्ता सगुण-निर्गुण में ही नहीं,
नास्तिक, न्याय और सांख्य परंपरा में भी उतनी ही रही है। यहां तक अवैदिक बौद्ध, सिख
और जैन परंपराओं में भी गुरु को ईश्वर तुल्य स्थान दिया गया है। इसकी वजह यह है कि
गुरु ज्ञान का स्रोत है। बिना ज्ञान के मनुष्य पशु के समान है। माता-पिता जन्म तो देते
हैं, लेकिन ज्ञान लब्ध और लक्ष्य से परिपूर्ण बनाने का कार्य गुरु ही करता है। वही
हमें ईश्वर से परिचय कराता है और प्रकाश रूपी ईश्वर की तरफ ले जाता है।
गुरु पूर्णिमा
गुरू पूजन के दिन प्रातः काल स्रान पूजा आदि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर उत्तम और
शुद्ध वस्त्र धारण कर गुरु के पास जाना चाहिए। गुरु को ऊंचे सुसज्जित आसन पर बैठाकर
पुष्पमाला पहनाकर अगुंष्ठ पूजा कर वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर तथा धन भेंट करना
चाहिए। इस प्रकार श्रद्धापूर्वक पूजन करने से गुरु का आशीर्वाद प्राप्त होता है। गुरु
के आशीर्वाद से ही विद्यार्थी को विद्या आती है। उसके हृदय की अज्ञानता का अन्धकार
दूर होता है। गुरु का आशीर्वाद ही प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी, ज्ञानवर्धक और मंगल
करने वाला होता है। संसार की संपूर्ण विद्याएं गुरु की कृपा से ही प्राप्त होती हैं
और गुरु के आशीर्वाद से ही दी हुई विद्या सिद्ध और सफल होती है। गुरु पूर्णिमा पर व्यासजी
द्वारा रचे हुए ग्रंथों का अध्ययन-मनन करके उनके उपदेशों पर आचरण करना चाहिए
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