Sunday, 18 August 2019

कृष्ण जन्माष्टमी विशेष : कण-कण में बसते हैं श्रीकृष्ण


कृष्ण जन्माष्टमी विशेष : कण-कण में बसते हैं श्रीकृष्ण
माधव, केशव, कान्हा, कन्हैया जैसे नामों से पुकारे जाने वाले भगवान श्रीकृष्ण का जन्म दिनजन्माष्टमीके रूप में मनाया जाता है। भगवान विष्णु के आठवें अवतार माने जाने वाले श्रीकृष्ण की ना केवल भारत में बल्कि पूरे जगत में अपार महिमा है। उन्हें मानने वालों की संख्या करोड़ों में है। यही कारण है कि ना केवल देश में बल्कि विदेशों में भी यशोदा के कान्हा के कई मंदिर स्थापित हैं। कहते हैं कि अपने भक्तों के लिए भगवान श्रीकृष्ण सृष्टि के हर कण में बसे हैं। चाहे वह वृंदावन हो या ब्राजील या बेल्जियम यह कृष्ण के प्रति हमारी भक्ति का ही उत्कर्ष है कि विभिन्न सदियों में जगह-जगह उनके मंदिर बनाये गये हैं और आगे भी बनाये जाते रहेंगे
सुरेश गांधी
यशोदा-नन्द के लाला और देवकी-वसुदेव के पुत्र कन्हैया का जन्म रोहिणी नक्षत्र में भाद्रपद माह की अष्टमी तिथि को मध्य रात्रि वृष लग्न में हुआ था। यह संयो 23 अगस्त को है। हालांकि जन्माष्टमी को लेकर मतभेद है। कुछ पंडित 23 तो कुछ 24 अगस्त को मनाने की बात कर रहे है। दरअसल, कुछ पंडितों का मत है कि भगवान कृष्ण का जन्म अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र में हुआ था। 23 अगस्त को यह दोनों ही योग रात 12 बजे जन्मोत्सव के समय विद्यामान रहेंगे, जबकि कुछ पंडितों का मत है कि अष्टमी तिथि 24 अगस्त को सूर्योदय काल से रहेगी और यह अष्टमी नवमी युक्त रहेगी, इसलिए इस दिन पर्व मनाना उचित नहीं होगा। वैसे भी स्मार्त और शैव संप्रदाय जिस दिन जन्माष्टमी मनाते हैं, उसके अगले दिन वैष्णव संप्रदाय द्वारा जन्माष्टमी मनाई जाती है। ज्योतिषियों के अनुसार शुक्रवार, 23 अगस्त को अष्टमी तिथि रहेगी और इसी दिन रात 11.56 बजे से रोहिणी नक्षत्र शुरू हो जाएगा, इस वजह से 23 अगस्त की रात जन्माष्टमी मनाना शुभ रहेगा। भक्तों को 23 अगस्त को ही श्रीकृष्ण के लिए व्रत-उपवास और पूजा-पाठ करना चाहिए।
स्मार्त आदि धर्मग्रंथों को मानने वाले और इसके आधार पर व्रत के नियमों का पालन करते हैं। दूसरी ओर, विष्णु के उपासक या विष्णु के अवतारों को मानने वाले वैष्णव कहलाते हैं। असमंजस इसलिए है कि 23 अगस्त को उदया तिथि में रोहिणी नक्षत्र नहीं रहेगा, 24 को अष्टमी तिथि नहीं है। जबकि श्रीकृष्ण का जन्म इन्हीं दोनों योग में हुआ था। अष्टमी 23 अगस्त तड़के 313 से 24 अगस्त तड़के 317 बजे तक रहेगी। रोहिणी नक्षत्र का योग 23 अगस्त रात 1209 बजे से रहेगा। रोहिणी नक्षत्र और अष्टमी ही वह योग है, जब भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था। ऐसे में 23 अगस्त की रात 1209 बजे कृष्ण जन्म अनुष्ठान श्रेष्ठ रहेगा। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पूरे भारत वर्ष में विशेष महत्व है। यह हिन्दुओं के प्रमुख त्योहारों में से एक है। जन्माष्टमी के महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके व्रत कोव्रतराजकहा जाता है। मान्यता है कि इस एक दिन व्रत रखने से कई व्रतों का फल मिल जाता है। अगर भक्त पालने में भगवान को झुला दें, तो उनकी सारी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। संतान, आयु और समृद्धि की प्राप्ति होती है। धर्म शास्त्रों के अनुसार इस दिन जो भी व्रत रखता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है और वह मोह-माया के जाल के मुक्त हो जाता है। यदि यह व्रत किसी विशेष कामना के लिए किया जाए तो वह कामना भी शीघ्र ही पूरी हो जाती है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी आपका आत्मिक सुख जगाने का, आध्यात्मिक बल जगाने का पर्व है। जीव को श्रीकृष्ण-तत्त्व में सराबोर करने का त्यौहार है। श्रीकृष्ण का जीवन सर्वांगसंपूर्ण जीवन है। उनकी हर लीला कुछ नयी प्रेरणा देने वाली है।
ऐसा माना जाता है कि सृष्टि के पालनहार श्री हरि विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में आठवां अवतार लिया था। श्रीकृष्ण का यह अवतार भगवान विष्णु का पूर्णावतार है। ये रूप जहां धर्म और न्याय का सूचक है वहीं इसमें अपार प्रेम भी है। वे भगवान श्रीकृष्ण ही थे, जिन्होंने अर्जुन को कायरता से वीरता, विषाद से प्रसाद की ओर जाने का दिव्य संदेश श्रीमदभगवदगीता के माध्यम से दिया। तो कालिया नाग के फन पर नृत्य किया, विदुराणी का साग खाया और गोवर्धन पर्वत को उठाकर गिरिधारी कहलाये। समय पड़ने पर उन्होंने दुर्योधन की जंघा पर भीम से प्रहार करवाया, शिशुपाल की गालियां सुनी, पर क्रोध आने पर सुदर्शन चक्र भी उठाया। और अर्जुन के सारथी बनकर उन्होंने पाण्डवों को महाभारत के संग्राम में जीत दिलवायी। सोलह कलाओं से पूर्ण वह भगवान श्रीकृष्ण ही थे, जिन्होंने मित्र धर्म के निर्वाह के लिए गरीब सुदामा के पोटली के कच्चे चावलों को खाया और बदले में उन्हें राज्य दिया। इन्हीं वजहों से श्रीकृष्ण को संपूर्ण अवतार माना जाता है। संपूर्ण कभी गलत नहीं हो सकता कर सकता है, क्योंकि उसके बाहर है क्या जो उसकी समीक्षा करे? इसीलिए संपूर्ण में अच्छा-बुरा, सृजन-विध्वंस और धर्म-अधर्म सबकुछ शामिल होता है। कृष्ण का चरित्र भी ऐसा ही है। देश के सभी राज्य अलग-अलग तरीके से इस महापर्व को मनाते हैं। इस दिन क्या बच्चे क्या बूढ़े सभी अपने आराध्य के जन्म की खुशी में दिन भर व्रत रखते हैं और कृष्ण की महिमा का गुणगान करते हैं। दिन भर घरों और मंदिरों में भजन-कीर्तन चलते रहते हैं। वहीं, मंदिरों में झांकियां निकाली जाती हैं और स्कूलों में श्रीकृष्ण लीला का मंचन होता है।  बहुत से लोग मथुरा जाकर भगवान श्रकृष्ण की जन्मभूमि का दर्शन करते हैं। मान्यता है कि कृष्ण जन्माष्टमी व्रत के समय किए गए अनुष्ठान एकादशी व्रत के दौरान किए गए अनुष्ठानों के समान हैं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, श्रीकृष्ण को मारने के लिए एक बार कंस ने पूतना नामक राक्षसी को भेजा। पूतना ने कंस से वादा किया था कि वह 10 दिनों के अंदर ही कृष्ण का वध कर देगी। आदिपुराण के अनुसार पूतना कालभीरू ऋषि की पुत्री थी। उसका नाम चारुमति था और कक्षीवान ऋषि के साथ उसका विवाह हुआ था। एक बार कक्षीवान ऋषि को किसी कार्य से अपने घर से दूर जाना पड़ा। उनके चले जाने के बाद चारुमति एक शुद्र के साथ रहने लगी। जब ऋषि कक्षीवान लौटकर आये तो चारुमति के दुर्व्यवहार से बहुत दुखी हुए और उन्होंने अपने तपोबल से पूरी स्थिति जानने का प्रयास किया। सच्चाई जानने के बाद कक्षीवान बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने चारुमति को राक्षसिन होने का श्राप दिया। उसके बाद चारुमति राक्षसी बन गयी और बच्चों का मारकर उनका रक्त पीने लगी। पौराणिक कथाओं के मुताबिक श्री कृष्ण भगवान विष्णु के सबसे शक्तिशाली मानव अवतारों में से एक है। भगवान श्रीकृष्ण हिंदू पौराणिक कथाओं में एक ऐसे भगवान है, जिनके जन्म और मृत्यु के बारे में काफी कुछ लिखा गया है। जब से श्रीकृष्ण ने मानव रूप में धरती पर जन्म लिया, तब से लोगों द्वारा भगवान के पुत्र के रूप में पूजा की जाने लगी। भगवत गीता में एक लोकप्रिय कथन है- “जब भी बुराई का उत्थान और धर्म की हानि होगी, मैं बुराई को खत्म करने और अच्छाई को बचाने के लिए अवतार लूंगा।जन्माष्टमी का त्यौहार सद्भावना को बढ़ाने और दुर्भावना को दूर करने को प्रोत्साहित करता है। यह दिन एक पवित्र अवसर के रूप में मनाया जाता है जो एकता और विश्वास का पर्व है।
मातृत्व का संदेश...
श्रीमद् भागवत के 6ठे अध्याय में बताया गया है कि पूतना नामक क्रूर राक्षसी ने बालक श्रीकृष्ण को मारने हेतु अपनी गोद में लेकर उनके मुंह में अपना स्तन दे दिया जिसमें बड़ा भयंकर और किसी प्रकार पच सकने वाला विष लगा हुआ था। निशाचरी पूतना को स्तनों में इतनी पीड़ा हुई कि वह अपने को छिपा सकी, राक्षसी रूप में प्रकट हो गई। उसके शरीर से प्राण निकल गए, मुंह फट गया, बाल बिखर गए और हाथ-पांव फैल गए। पूतना के भयंकर शरीर को सबके सब ग्वाल और गोपियों ने देखा कि बालक श्रीकृष्ण उसकी छाती पर निर्भय होकर खेल रहे हैं, तब वे थोड़ी घबराईं और श्रीकृष्ण को उठा लिया। जिस तरह वर्तमान में माताएं अपने बच्चों को बुरी नजर से बचाने के लिए टोने-टोटके, प्रार्थना आदि रक्षास्वरूप करती हैं, ठीक उसी तरह प्राचीन समय में भी रक्षास्वरूप उपाय किए जाते थे जिसमें ममत्व की झलक विद्यमान होती थी। यशोदा और रोहिणी के साथ गोपियों ने गाय की पूंछ घुमाना आदि उपायों से बालक श्रीकृष्ण के अंगों की सब प्रकार से रक्षा की। पूतना एक राक्षसी थी जिसके स्तन का दूध भगवान ने बड़े प्रेम से पिया। उन गायों और माताओं की बात ही क्या है, वे भगवान श्रीकृष्ण को अपने पुत्र के रूप देखती थीं, फिर जन्म-मृत्युरूपी संसार के चक्र में कभी नहीं पड़ सकतीं। पूतना को परमगति प्राप्त होना यानी पूतना-मोक्ष भी मातृत्व का संदेश है।
जन्माष्टमी व्रत की विधि
व्रत के दिन मध्याह्न में स्नानकर माता देवकी के लिए सूतिका गृह बनाएं। उसे फूलों से सजाएं। इस सूतिका गृह में बाल गोपाल समेत माता देवकी की मूर्ति स्थापित करें। सुयोग्य पंडित की सहायता से विभिन्न मंत्रों द्वारा माता देवकी, बाल गोपाल कृष्ण, नन्दबाबा, यशोदा माता, देवी लक्ष्मी आदि की पूजा करनी चाहिए। इसके बाद आधी रात को गुड़ और घी से वसोर्धारा की आहुति देकर षष्ठीदेवी की पूजा करनी चाहिए। नवमी के दिन माता भगवती की पूजा कर ब्राह्मणों को दक्षिणा देनी चाहिए और व्रत का पारण करना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य के सातों जन्मों का पाप खत्म होता है और वह वैकुण्ठ लोक में स्थान पाता है।
श्रीकृष्ण के 13 चमत्कारी मंत्र जपने से दूर होंगे सभी कष्ट
कृं कृष्णाय नमः... यह श्रीकृष्ण का बताया मूलमंत्र है जिसके प्रयोग से व्यक्ति का अटका हुआ धन प्राप्त होता है। इसके अलावा इस मूलमंत्र का जाप करने से घर-परिवार में सुख की वर्षा होती है। यदि आप इस मंत्र का लाभ पाना चाहते हैं तो प्रातःकाल नित्यक्रिया और स्नानादि के पश्चात एक सौ आठ बार इसका जाप करें। ऐसा करने वाले मनुष्य सभी बाधाओं एवं कष्टों से सदैव मुक्त रहते हैं। इस मंत्र से कहीं भी अटका धन तुरंत प्राप्त होता है।
ऊं श्रीं नमः श्रीकृष्णाय परिपूर्णतमाय स्वाहा... यह मंत्र श्रीकृष्ण का सप्तदशाक्षर महामंत्र है। इस महामंत्र का पांच लाख जाप करने से ही सिद्धी प्राप्त होती है। जिस व्यक्ति को यह मंत्र सिद्ध हो जाता है उसे करोड़पति होने से कोई नहीं रोक सकता।
गोवल्लभाय स्वाहा... इस सात अक्षरों वाले मंत्र से अपार धन प्राप्ति होती है। उठते-बैठते, चलते-फिरते... हर समय इस मंत्र का उच्चारण सही रूप से करने से लाभ होता है।
गोकुल नाथाय नमः... इस आठ अक्षरों वाले श्रीकृष्णमंत्र से सभी इच्छाएं अभिलाषाएं पूर्ण होती हैं।
क्लीं ग्लौं क्लीं श्यामलांगाय नमः... आर्थिक स्थिति को सुधारने वाले इस मंत्र का प्रयोग जो भी साधक करता है उसे संपूर्ण सिद्धियों की प्राप्ति होती है। 
नमो भगवते श्रीगोविन्दाय...यह ऐसा मंत्र है जो विवाह से जुड़ा है। जो जातक प्रेम विवाह करना चाहते हैं लेकिन किन्हीं कारणों से हो नहीं रहा तो वे प्रातः काल में स्नान के बाद ध्यानपूर्वक इस मंत्र का 108 बार जाप करें। कुछ ही दिनों में उन्हें चमत्कारी फल प्राप्त होगा।
ऐं क्लीं कृष्णाय ह््रीं गोविंदाय श्रीं गोपीजनवल्लभाय स्वाहा र्ह्सो... यह मंत्र उच्चारण में थोड़ा कठिन जरूर है लेकिन इसका प्रभाव उतना ही तेज है। यह मंत्र वाणी का वरदान देता है।
श्रीं ह््रीं क्लीं श्रीकृष्णाय गोविंदाय गोपीजन वल्लभाय श्रीं श्रीं श्री... यह 23 अक्षरों वाला श्रीकृष्ण मंत्र है जो जीवन में किसी भी प्रकार की बाधा को दूर करने में सहायक सिद्ध होता है। धन की बाधा नहीं होती।
नमो भगवते नन्दपुत्राय आनन्दवपुषे गोपीजनवल्लभाय स्वाहा...यह श्रीकृष्ण का 28 अक्षरों वाला मंत्र है, जिसका जाप करने से मनोवांछित फल प्राप्ति होते हैं। जो भी साधक इस मंत्र का जाप करता है उसको समस्त अभीष्ट वांछित वस्तुएं प्राप्त होती हैं।
लीलादंड गोपीजनसंसक्तदोर्दण्ड बालरूप मेघश्याम भगवन विष्णो स्वाहा... श्रीकृष्ण के इस मंत्र में उन्तीस (29) अक्षर हैं, जिसका जो भी साधक एक लाख जप के साथ घी, शक्कर तथा शहद में तिल अक्षत को मिलाकर हवन भी करे तो उसे स्थिर लक्ष्मी अर्थात स्थायी संपत्ति की प्राप्ति होती है।
नन्दपुत्राय श्यामलांगाय बालवपुषे कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा... श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया यह मंत्र 32 अक्षरों वाला है। इस मंत्र के जाप से समस्त आर्थिक मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। यदि आप किसी आर्थिक तंगी से गुजर रहे हैं तो सुबह स्नान के बाद कम से कम एक लाख बार इस मंत्र का जाप करें। आपको जल्द ही सुधार देखने को मिलेगा।
कृष्ण कृष्ण महाकृष्ण सर्वज्ञ त्वं प्रसीद मे. रमारमण विद्येश विद्यामाशु प्रयच्छ में... 33 अक्षरों वाले इस मंत्र में ऐसी चमत्कारी शक्तियां हैं जिस पर आप विश्वास नहीं कर पाएंगे। इस श्रीकृष्ण मंत्र का जो भी साधक जाप करता है उसे समस्त प्रकार की विद्याएं निःसंदेह प्राप्त होती हैं। यह मंत्र गोपनीय माना गया है इसे करते समय किसी को पता नहीं चलना चाहिए।
कृष्णःकर्षति आकर्षति सर्वान जीवान् इति कृष्णः। ओम् वेदाः वेतं पुरुषः महंतां देवानुजं प्रतिरंत जीव से।। श्रीकृष्ण के इस मंत्र में तैंतीस (33) अक्षर हैं, जिसके नियमित जाप से धन से संबंधित किसी भी प्रकार का संकट टल जाता है।
श्रीकृष्ण कथा
चूंकि इसी विशेष तिथि की घनघोर अंधेरी आधी रात को रोहिणी नक्षत्र में मथुरा के कारागार में वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से भगवान श्रीकृष्ण ने जन्म लिया था, अतः इस दिन भगवान कृष्ण के जन्म के कथा भी सुनी एवं सुनाई जाती है, जो इस प्रकार है - ’द्वापर युग में भोजवंशी राजा उग्रसेन मथुरा में राज्य करता था। उसके आततायी पुत्र कंस ने उसे गद्दी से उतार दिया और स्वयं मथुरा का राजा बन बैठा। कंस की एक बहन देवकी थी, जिसका विवाह वसुदेव नामक यदुवंशी सरदार से हुआ था। एक समय कंस अपनी बहन देवकी को उसकी ससुराल पहुंचाने जा रहा था। रास्ते में आकाशवाणी हुई- ’हे कंस, जिस देवकी को तू बड़े प्रेम से ले जा रहा है, उसी में तेरा काल बसता है। इसी के गर्भ से उत्पन्न आठवां बालक तेरा वध करेगा।यह सुनकर कंस वसुदेव को मारने के लिए उद्यत हुआ। तब देवकी ने उससे विनयपूर्वक कहा- ’मेरे गर्भ से जो संतान होगी, उसे मैं तुम्हारे सामने ला दूंगी। बहनोई को मारने से क्या लाभ है?’ कंस ने देवकी की बात मान ली और मथुरा वापस चला आया। उसने वसुदेव और देवकी को कारागृह में डाल दिया। वसुदेव-देवकी के एक-एक करके सात बच्चे हुए और सातों को जन्म लेते ही कंस ने मार डाला। अब आठवां बच्चा होने वाला था। कारागार में उन पर कड़े पहरे बैठा दिए गए। उसी समय नंद की पत्नी यशोदा को भी बच्चा होने वाला था। उन्होंने वसुदेव-देवकी के दुखी जीवन को देख आठवें बच्चे की रक्षा का उपाय रचा। जिस समय वसुदेव-देवकी को पुत्र पैदा हुआ, उसी समय संयोग से यशोदा के गर्भ से एक कन्या का जन्म हुआ, जो और कुछ नहीं सिर्फमायाथी। जिस कोठरी में देवकी-वसुदेव कैद थे, उसमें अचानक प्रकाश हुआ और उनके सामने शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किए चतुर्भुज भगवान प्रकट हुए। दोनों भगवान के चरणों में गिर पड़े। तब भगवान ने उनसे कहा- ’अब मैं पुनः नवजात शिशु का रूप धारण कर लेता हूं। तुम मुझे इसी समय अपने मित्र नंदजी के घर वृंदावन में भेज आओ और उनके यहां जो कन्या जन्मी है, उसे लाकर कंस के हवाले कर दो। इस समय वातावरण अनुकूल नहीं है। फिर भी तुम चिंता करो। जागते हुए पहरेदार सो जाएंगे, कारागृह के फाटक अपने आप खुल जाएंगे और उफनती अथाह यमुना तुमको पार जाने का मार्ग दे देगी।उसी समय वसुदेव नवजात शिशु-रूप श्रीकृष्ण को सूप में रखकर कारागृह से निकल पड़े और अथाह यमुना को पार कर नंदजी के घर पहुंचे। वहां उन्होंने नवजात शिशु को यशोदा के साथ सुला दिया और कन्या को लेकर मथुरा गए। कारागृह के फाटक पूर्ववत बंद हो गए। अब कंस को सूचना मिली कि वसुदेव-देवकी को बच्चा पैदा हुआ है। उसने बंदीगृह में जाकर देवकी के हाथ से नवजात कन्या को छीनकर पृथ्वी पर पटक देना चाहा, परंतु वह कन्या आकाश में उड़ गई और वहां से कहा- ’अरे मूर्ख, मुझे मारने से क्या होगा? तुझे मारनेवाला तो वृंदावन में जा पहुंचा है। वह जल्द ही तुझे तेरे पापों का दंड देगा।यह है कृष्ण जन्म की पवित्र कथा।
देश-विदेश के सभी मंदिरों की है अपनी-अपनी विशेषताएं
ब्रज मंडल के कण-कण में कृष्ण बसे हैं। यहां हर जगह किशन कन्हैया के अद्भुत मंदिर मिल जायेंगे और सभी मंदिरों की अपनी-अपनी विशेषता है। इस क्षेत्र का सबसे अलौकिक और प्राचीन श्री बांके बिहारी मंदिर के बारे में मान्यता है कि अगर कोई बांके बिहारी जी के मुखारविंद को लगातार देखता रहे, तो प्रभु उसके प्रेम से मंत्रमुग्ध होकर उसके साथ चल देते हैं। इसीलिए मंदिर में उन्हें परदे में रख कर उनकी क्षणिक झलक ही भक्तों को दिखायी जाती है। यह मंदिर शायद अपनी तरह का पहला मंदिर है, सुबह में घंटे इसलिए नहीं बजाये जाते, ताकि बांके बिहारी की नींद में व्यवधान पड़ जाये। उन्हें हौले-हौले एक बालक की तरह दुलार कर उठाया जाता है। इसी तरह संध्या आरती के समय भी घंटे नहीं बजाये जाते। वृंदावन में ही स्थित है श्री राधारमण मंदिर। राधारमण का मतलब है, जो राधा रानी को प्यार करते हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्य श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी ने 1542 ईस्वी में इस मंदिर की स्थापना की थी। गोपाल भट्ट गोस्वामी को गंडक नदी में एक शालिग्राम मिला। वे उसे वृंदावन ले आये और केशीघाट के पास मंदिर में प्रतिष्ठित कर दिया। उसी वर्ष वैशाख पूर्णिमा के दिन शालिग्राम से राधारमण की दिव्य प्रतिमा प्रकट हो गयी। वर्तमान मंदिर में इनकी स्थापना सन 1884 में की गयी। सबसे विशेष बात यह है कि जन्माष्टमी को जहां दुनिया के सभी कृष्ण मंदिरों में रात्रि बारह बजे उत्सव पूजा-अर्चना, आरती होती है, वहीं राधारमणजी का जन्म अभिषेक दोपहर बारह बजे होता है। मान्यता है कि ठाकुरजी सुकोमल होते हैं, अतः उन्हें रात्रि में जगाना ठीक नहीं। बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि बरसाना के श्रीजी मंदिर में कान्हा के बेशकीमती हीरे-जवाहरात, सोना-चांदी, कपड़े, मुकुट, कमरबंद, बाजूबंद, बांसुरी और खाने-पीने के बरतन रखे हुए हैं। कमरे का ताला पिछले 150 वर्षों से खोला नहीं गया है। इसलिए खजाने को अभी तक किसी ने देखा नहीं है। मंदिर से जुड़े पुराने लोग बताते हैं कि इस कमरे को खास तरीके से बनाया गया है। दान-पात्र के रूप में यहां एक झीरी बनायी गयी है, जहां से भक्त दान के रूप में सोना-चांदी वगैरह डाल देते हैं. इस मंदिर का निर्माण राजा टोडरमल ने करवाया था। वृंदावन में श्रीकृष्ण का प्रेम मंदिर भी बड़ा मशहूर है। यहां की दीवारों पर हर तरफ राधा-कृष्ण की रासलीला नजर आती है। यहां श्रीकृष्ण और राधारानी की भव्य मूर्तियां भी हैं। इसे कृपालुजी महाराज ने बनवाया था। 54 एकड़ में बना यह मंदिर 125 फुट ऊंचा, 122 फुट लंबा और 115 फुट चौड़ा है। यहां सुंदर बगीचे, फव्वारे, श्रीकृष्ण और राधा की मनोहर झांकियां, श्रीगोवर्धन धारणलीला, कालिया नाग दमनलीला प्रस्तुत की गयी हैं। विशेष लाइटिंग से शाम होते ही मंदिर का रंग हर 30 सेकेंड में बदलता है। वृंदावन का ही रंगजी मंदिर उन गिने चुने मंदिरों में से एक है, जो श्रेष्ठ द्रविड वास्तुशिल्प शैली में बना है। इसे 1851 में बनवाया गया था और इसमें मुख्य देवता के रूप में श्री रंगनाथ या रंगजी विराजमान हैं। काफी ऊंची दीवारोंवाले इस मंदिर के सामने का हिस्सा बेहद भव्य है। यह मंदिर वृंदावन के बड़े और भगवान विष्णु को समर्पित मंदिरों में से एक है। मथुरा में स्थित कृष्ण जन्मभूमि का इतिहास भी अनूठा है। जहां आज यह स्थित है, वहां लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व राजा कंस का कारागार हुआ करता था। इसी कारागार में भाद्रपद कृष्णपक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में आधी रात को भगवान कृष्ण ने देवकी के गर्भ से जन्म लिया था। कंस का वह कारागार, जहां भगवान श्रीकृष्ण ने जन्म लिया था, उसे केशवदेव के मंदिर के रूप में बनवाया गया। इसी मंदिर के आसपास आज की मथुरा नगरी विकसित हुई। इतिहासकारों की मानें तो मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि के स्थान पर अब तक चार बार मंदिर का निर्माण हो चुका है। यह भी माना जाता है कि कभी यहां बहुत विशाल और भव्य मंदिर हुआ करता था, जो औरंगजेब के शासन के दौरान तोड़ डाला गया। अब बात करें ब्रज मंडल के बाहर स्थित भगवान श्रीकृष्ण के मंदिरों की। इस सूची में पहला नाम आता है गुजरात के श्री द्वारकाधीश मंदिर का। इसे जगत मंदिर भी कहा जाता है। यहां के प्रवेश द्वार को स्वर्ग द्वार और मोक्ष द्वार भी कहते हैं। गुजरात का द्वारका शहर वह स्थान है, जहां पांच हजार वर्ष पूर्व भगवान कृष्ण ने मथुरा छोड़ने के बाद द्वारका नगरी बसायी थी। जिस स्थान पर उनका निजी महल हरि गृह था, वहां आज प्रसिद्ध द्वारकाधीश मंदिर है। द्वारका नगरी आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित देश के चार धामों और पवित्र सप्तपुरियों में से एक है। द्वारकाधीश मंदिर के गर्भगृह में चांदी के सिंहासन पर भगवान कृष्ण की श्यामवर्णी चतुर्भुजी प्रतिमा विराजमान है। यहां इन्हेंरणछोड़ जीभी कहा जाता है। इसके दूसरी ओर, ओडिशा स्थित जगन्नाथपुरी भी हिंदू धर्म के चार धामों में से एक है और यहां भगवान विष्णु साक्षात विराजमान हैं। कहते हैं कि जिसने सच्चे मन से यहां आकर भगवान के चरणों में अपनी मन्नत मांग ली, वह पूरी होती है। ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार, पुरी में भगवान विष्णु ने पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतार लिया था। वह यहां सबर जनजाति के परम पूज्य देवता बन गये। सबर जनजाति के देवता होने की वजह से यहां भगवान जगन्नाथ का रूप कबीलाई देवताओं की तरह है। जगन्नाथ मंदिर की महिमा देश में ही नहीं, विश्व में भी प्रसिद्ध है। अन्य मंदिरों में केरल के गुरुवायुर मंदिर का स्थान खास है। मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित पांच हजार पुराना यह मंदिर भूलोक, यानी धरती का वैकुंठ है। केरल में सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह भगवान गुरुवायुरप्पन का मंदिर है, जो बाल गोपाल श्रीकृष्ण का बालरूप हैं। मंदिर में स्थापित प्रतिमा मूर्तिकला का एक बेजोड़ नमूना है। कहते हैं कि इस प्रतिमा को भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी को सौंप दिया था। कई धर्मों को मानने वाले लोग भी भगवान गुरुवायुरप्पन के परम भक्त रहे हैं। यहां आने वाले अधिकतर भक्त शारीरिक विकलांगता, विभिन्न रोगों और चोटों से उपचार के लिए श्रीकृष्ण से प्रार्थना करते हैं और ऐसा विश्वास है कि कृष्ण उनकी पुकार सुनते हैं। झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 230 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नगर उंटारी प्रखंड का वंशीधर मंदिर। इस मंदिर में सोने की छतरी के नीचे वंशीधर राधा रानी के साथ बांसुरी बजाते हुए विराजमान हैं। उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और बिहार की सीमा के बहुत नजदीक होने के कारण इस मंदिर में फाल्गुन माह में हर वर्ष लगने वाले मेले में लाखों लोगों की भीड़ उमड़ती है। इस मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण की 32 मन वजनी प्रतिमा स्थापित है। कहते हैं यह पूरी प्रतिमा सोने से बनी हुई है और बिना किसी पॉलिश के प्रयोग के इस प्रतिमा की चमक अद्वितीय है। सन 1884 में नगर उंटारी के महारानी शिवमनी कुंवर ने शिवपहरी पहाड़ी में दबी इस प्रतिमा के बारे में सपने में देखा था। अगले दिन उन्होंने खुदाई कर श्रीकृष्ण की प्रतिमा निकाली गयी। प्रतिमा केवल श्रीकृष्ण की ही थी, इसलिए वाराणसी से राधा रानी की अष्टधातु की प्रतिमा बनवाकर मंदिर में एक साथ स्थापित करायी गयी। श्रीकृष्ण के मंदिरों में अगला नाम है उडुपी श्रीकृष्ण मंदिर का। कर्नाटक राज्य के उडुपी शहर में स्थित भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित यह मंदिर रहने के लिए बने एक आश्रम जैसा है। यह रहने और भक्ति के लिए एक पवित्र स्थान है। श्री कृष्ण मठ के आसपास कई मंदिर हैं, सबसे अधिक प्राचीन मंदिर 1500 वर्षों के मूल की बुनियादी लकड़ी और पत्थर से बना है। कृष्ण मठ को 13वीं सदी में वैष्णव संत श्री माधवाचार्य द्वारा स्थापित किया गया था। किंवदंती है कि एक बार भगवान कृष्ण के समर्पित भक्त कनकदास को मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं मिली। बजाय परेशान होने के, उन्होंने और अधिक तन्मयता के साथ प्रार्थना की। भगवान कृष्ण उनसे इतने प्रसन्न हुए कि अपने भक्त को अपना स्वर्गीय रूप दिखाने के लिए मठ (मंदिर) के पीछे एक छोटी सी खिड़की बना दी। आज तक, भक्त उसी खिड़की के माध्यम से भगवान कृष्ण की अर्चना करते हैं, जिसके द्वारा कनकदास को एक छवि देखने का वरदान मिला था। इसी तरह राजस्थान के करौली किले में कान्हा जी यानी मदन मोहनजी का मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण महाराजा गोपाल सिंह ने सन 1725 में कराया था। इस मंदिर में भगवान कृष्ण और देवी राधा की प्रतिमाएं हैं। मदन मोहन की प्रतिमा को जयपुर के आमेर से करौली ले जाकर स्थापित किया गया है। मदन मोहन मंदिर में स्थापित कृष्ण जी की ऊंचाई तीन फुट है, जबकि राधा जी की प्रतिमा दो फुट ऊंची है। दोनों मूर्तियां अष्टधातु की बनी हैं और इनकी सुंदरता अद्भुत है। मंदिर में भगवान मदन मोहन को दिन में सात बार भोग लगाया जाता है। उन्हें मिष्ठान काफी प्रिय है। खास मौकों पर मदन मोहन जी को 56 भोग लगाये जाते हैं। आंध्र प्रदेश में पुट्टपर्थी में स्थित देवी सत्यभामा के मंदिर की कहानी रोचक है। सत्यभामा भगवान कृष्ण की आठ पटरानियों में से एक थीं। पुराणों में दिये गये वर्णन के अनुसार, देवी सत्यभामा को इच्छाशक्ति की देवी माना जाता है। अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए और भगवान कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए हर साल यहां कई भक्त आते हैं। मंदिर में देवी सत्यभामा की लगभग तीन फीट ऊंची एक मूर्ति है। इसके अलावा मंदिर के गर्भगृह में देवी सत्यभामा की मूर्ति के आस-पास भगवान कृष्ण की कई तसवीरें लगी हुई हैं। भगवान कृष्ण के भक्तों को यह जानकर प्रसन्नता होगी कि कान्हा की नगरी वृंदावन में दुनिया का सबसे बड़ा मंदिर बनने जा रहा है। यह दुनिया की सबसे ऊंची इमारत होगी। इस मंदिर का नाम चंद्रोदय है। इस्कॉन द्वारा वृंदावन में बनाये जा रहे इस 70 मंजिला मंदिर की ऊंचाई 210 मीटर होगी और यह एक पिरामिड के आकार में बनाया जायेगा। इसे बनाने की तैयारियां वर्ष 2006 से चालू हैं और 2022 तक इसके पूरे हो जाने का अनुमान है। प्राकृतिक आपदा के लिहाज से भी इसे काफी मजबूत बनाया जा रहा है और आठ रिक्टर स्केल से अधिक तीव्रता का भूकंप भी इसे क्षति नहीं पहुंचा सकेगा। कुल 511 पिलर्स वाला यह मंदिर नौ लाख टन भार सहने की क्षमता वाला होगा और 170 किमी की तीव्रता के तूफान को भी झेलने में सक्षम होगा। परंपरागत द्रविड़ और नगर शैली में बनाया जा रहा यह मंदिर, 200 वर्षों में अब तक का सबसे आधुनिक मंदिर होगा, जिसमें 4डी तकनीक द्वारा देवलोक और देवलीलाओं के दर्शन भी किये जा सकेंगे।
युवाओं के प्रेरणास्रोत है श्रीकृष्ण के संदेश
वैसे भी श्रीकृष्ण अवतार से जुड़ी हर घटना और उनकी हर लीला निराली है। श्रीकृष्ण के मोहक रूप का वर्णक कई धार्मिक ग्रंथों में किया गया है। सिर पर मुकुट, मुकुट में मोर पंख, पीतांबर, बांसुरी और वैजयंती की माला। ऐसे अद्भूत रूप को जो एकबार देख लेता था, वो उसी का दास बनकर रह जाता था। श्रीकृष्ण को दूध, दही और माखन बहुत प्रिय था। इसके अलावा भी उन्हें गीत-संगीत, राजनीति, प्रेम, दोस्ती समाजसेवा से विशेष लगाव था। जो आज हमारे लिए प्रेरणाश्रोत और सबक भी है। उनकी बांसुरी के स्वरलहरियों का ही कमाल था कि वे किसी को भी मदहोश करने की क्षमता रखते थे। उन्होंने कहा भी है, अगर जिंदगी में संगीत नहीं तो आप सुनेपन से बच नहीं सकते। संगीत जीवन की उलझनों और काम के बोझ के बीच वह खुबसूरत लय है जो हमेसा आपको प्रकृति के करीब रखती है। आज के दौर में कर्कश आवाजें ज्यादा है। ऐसे में खुबसूरत ध्वनियों की एक सिंफनी आपकी सबसे बड़ी जरुरत हैं। जहां तक राजनीति का सवाल है श्रीकृष्ण ने किशोरावस्था में मथुरा आने के बाद अपना पूरा जीवन राजनीतिक हालात सुधारने में लगाया। वे कभी खुद राजा नहीं बने, लेकिन उन्होंने तत्कालीन विश्व राजनीति पर अपना प्रभाव डाला। मिथकीय इतिहास इस बात का गवाह है कि उन्होंने द्वारका में भी खुद सीधे शासन नहीं किया। उनका मानना था कि अपनी भूमिका खुद निर्धारित करो और हालात के मुताबिक कार्रवाई तय करो। महाभारत युद्ध में दर्शक रहते हुए भी वे खुद हर रणनीति बनाते और आगे कार्रवाई तय करते थे। जबकि आज पदो ंके पीछे भागने की दौड़ में राजनीति अपने मूल उद्देश्य को भूल रही है। ऐसे में श्रीकृष्ण की राजनीतिक शिक्षा हमें रोशनी देती हैं।
पशु-पक्षियों से बेहद लगाव, तो समाजसेवा में भी आगे 
वृंदावन में गोपियों के साथ रास रचाने वाले श्रीकृष्ण को पशुओं और प्रकृति से बेहद लगाव था। उनका बचपन गायों और गांवों के जीवों के इर्द-गिर्द बीता, लेकिन जब मौका आया तो उन्होंने अपने नगर के लिए समुद्र के करीब का इलाके को चुना। जहां पहाड़, पशु, पेड़, नदी-समुद्र कृष्ण की पूरी कहानी का जरुरी हिस्सा हैं। यानी श्रीकृष्ण ने जिसे चाहा टूटकर चाहा और अपने प्रिय के लिए वे किसी भी हद से गुजरे। साथ ही अपने काम को भी नहीं भूले। वे अपने सबसे प्रिय लोगों को किशोवय में छोड़कर मथुरा आएं, काम की खातिर। कहा जा सकता है प्रेम और काम के बीच उलझे आज के दौर में श्रीकृष्ण वह राह सुझाते हैं जहां दोनों के बीच तार्किक संतुलन हैं। बतौर दोस्त श्रीकृष्ण के दो रुप दिखाई देते हैं। एक सुदामा के दोस्त है, दुसरे अर्जुन के। तत्कालीन परिस्थितियों में उन्हें अर्जुन जैसे दोस्त की दरकार थी, लेकिन वे सुदामा के प्रति अपनी जिम्मेदारी को भी नहीं भूलते। यह श्रीकृष्ण की देस्ती का फलसफा हैं। मतलब साफ है दोस्त को जरुरत से ज्यादा खुद पर निर्भर मत बनाओं। अर्जुन को कृष्ण लड़ने लायक बनाते है, उसके लिए खुद नहीं लड़ते। सुदामा को भी आर्थिक मदद ही करते हैं। यानी दोस्ती की छीजती सलाहियत के बीच कृष्ण दोस्त की पहचान पर जोर देते हैं। समाजसेवा के लिए श्रीकृष्ण किसी काम को छोटा नहीं समझते। अगर अर्जुन के सारथी बने तो चरवाहा या यूं कहे ग्वाला भी बनें। सुदामा के पैर धोए तो युधिष्ठिर से धुलवाया, तो उनकी पत्तल भी उठाएं। कर्म प्रधानता का पूरा शास्त्र गीता इसका बड़ा उदाहरण है। यानी काम करो, बस काम, जो भी सामने हो, जैसा भी हो। या यूं कहे कृष्ण अकर्मण्यता के खिलाफ थे। मतलब साफ है  शार्टकट और पहले परिणाम जानने की दौर में श्रीकृष्ण के मार्ग ज्यादा अहम् हो जाते हैं। वे परिणाम से ज्यादा कर्म को तवज्जों देते हैं। जन्माष्टमी के मौके पर जब कोई भी भक्त उनके आदर्शो या बताएं मार्गो का अनुशरण करता है या उनकी सच्चे दिल से प्रार्थना करता है, बाल-गोपाल कन्हैया उसकी इच्छा जरूर पूरी करते हैं।
गरम दूध कृष्ण ने पीया और छाले पड़े राधा को
एक दिन रुक्मणी ने भोजन के बाद, श्री कृष्ण को दूध पीने को दिया। दूध ज्यादा गरम होने के कारण श्री कृष्ण के हृदय में लगा और उनके श्रीमुख से निकला- ‘हे राधे!‘ सुनते ही रुक्मणी बोलीं- प्रभु! ऐसा क्या है राधा जी में, जो आपकी हर सांस पर उनका ही नाम होता है? मैं भी तो आपसे अपार प्रेम करती हूं... फिर भी, आप हमें नहीं पुकारते!! श्री कृष्ण ने कहा -देवी! आप कभी राधा से मिली हैं? और मंद मंद मुस्काने लगे...अगले दिन रुक्मणी राधाजी से मिलने उनके महल में पहुंचीं। राधाजी के कक्ष के बाहर अत्यंत खूबसूरत स्त्री को देखा... और, उनके मुख पर तेज होने कारण उसने सोचा कि ये ही राधाजी हैं और उनके चरण छुने लगीं! तभी वो बोली -आप कौन हैं ? तब रुक्मणी ने अपना परिचय दिया और आने का कारण बताया...तब वो बोली- मैं तो राधा जी की दासी हूं। राधाजी तो सात द्वार के बाद आपको मिलेंगी। रुक्मणी ने सातों द्वार पार किये... और, हर द्वार पर एक से एक सुन्दर और तेजवान दासी को देख सोच रही थी कि अगर उनकी दासियां इतनी रूपवान हैं... तो, राधारानी स्वयं कैसी होंगी? सोचते हुए राधाजी के कक्ष में पहुंचीं... कक्ष में राधा जी को देखा- अत्यंत रूपवान तेजस्वी जिसका मुख सूर्य से भी तेज चमक रहा था। रुक्मणी सहसा ही उनके चरणों में गिर पड़ीं... पर, ये क्या राधा जी के पूरे शरीर पर तो छाले पड़े हुए हैं! रुक्मणी ने पूछा- देवी आपके शरीर पे ये छाले कैसे? तब राधा जी ने कहा- देवी! कल आपने कृष्णजी को जो दूध दिया... वो ज्यादा गरम था! जिससे उनके ह््रदय पर छाले पड गए... और, उनके ह््रदय में तो सदैव मेरा ही वास होता है..!!
आजीवन रहे युवा
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्रीकृष्ण 119 वर्ष की आयु तक जीवित रहे। दिलचस्प बात यह है कि कृष्ण 119 वर्ष में भी युवा ही दिखते थे। भगवान के युवा दिखाई देने का रहस्य उनके जन्म से लेकर विष्णुलोक जाने के क्रम में छिपा हुआ है। दरअसल कान्हा का जन्म मथुरा में हुआ। लालन-पालन और बचपन गोकुल, वृंदावन, नंदगांव, बरसाना में बीता। जब वह किशोर हुए तो मथुरा पहुंचे। वहां उन्होंने अपने क्रूर मामा कंस का वध किया। और फिर वह द्वारिका में रहने लगे। किंवदंती है कि सोमनाथ मंदिर के नजदीक ही उन्होंने अपनी देह त्यागी थी। उनकी मृत्यु एक बहेलिया के तीर लगने के कारण हुई थी। हुआ यूं था कि बहेलिया ने उनके पैर को हिरण का सिर समझ तीर चलाया और तीर सीधा उनके पैर के तलुए में जा लगा। इस तरह उन्होंने अपनी देह त्याग दी। पौराणिक ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि जब श्रीकृष्ण विष्णु लोक पहुंच गए तब उनके मानवीय शरीर पर तो झुर्रियां पड़ीं थीं और ही उनके केश सफेद हुए थे। वह 119 उम्र में भी एक युवा की तरह ही दिखाई देते थे।
श्रीकृष्ण के शरीर का नीला रंग
श्रीकृष्ण के शरीर का रंग आसमान के रंग की तरह था। जिसे हम श्याम रंग भी कहते हैं। यह रंग काला, नीला और सफेद रंग का मिश्रिण होता है। जब श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था तब उनके शरीर का रंग सामान्य मनुष्य की तरह ही था। कहते है जब श्रीकृष्ण बचपन में अपने ग्वाल सखाओं के साथ नदी किनारे गेंद से खेल रहे थे। तभी उनकी गेंद नदी में जा गिरी। गेंद को नदी से निकालने के लिए उन्होंने नदी में गए। उस नदी में कालिया नाग रहता था जिसके विष के प्रभाव से उनके शरीर का रंग श्याम हो गया था। जबकि कुछ लोग का मत है कि पूतना द्वारा बाल रूप में जब श्रीकृष्ण को स्तनपान करा रही थी उस वक्त विष पान करने से उनके शरीर का रंग श्याम वर्ण का हो गया था।
श्रीकृष्ण को पाने की सरल राह है भक्ति
राम जहां जीवन का आदर्श हमारे सामने उपस्थित करते हैं तो श्रीकृष्ण की लीलाएं भारतीय जनमानस को अपनी ओर खींचती है। यही वजह है कि प्रत्येक भारतीय के मन में श्रीकृष्ण हैं। इस देश में ऐसा एक भी राज्य नहीं होगा जहां श्रीकृष्ण का मंदिर हो। कीर्ति, लक्ष्मी, उदारता, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य ये छः उच्च गुण जिनमें निवास करते हैं ऐसे हैं योगेश्वर श्रीकृष्ण। यही वजह है कि श्रीकृष्ण भारतीयों के मन में बसते हैं। वे सर्वाधिक आकर्षित करने वाले भगवान हैं। योगेश्वर रूप में वे जीवन का दर्शन देते हैं तो बाल रूप में रची उनकी लीलाएं भक्तों के मन को लुभाती है। अपने विभिन्न रूपों में वे भक्तों का मार्गदर्शन करते हैं। श्रीकृष्ण भगवान विष्णु के आठवें अवतार माने जाते हैं। यह भगवान विष्णु का सोलह कलाओं से पूर्ण भव्यतम अवतार है। भगवान विष्णु के दस अवतारों में श्रीराम सातवें थे और श्रीकृष्ण आठवें। भारतीय जनमानस को उत्सवप्रिय श्रीकृष्ण अपने ज्यादा निकट प्रतीत होते हैं। कृष्ण यानी आकर्षण। वे जनमानस को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। श्रीकृष्ण भक्ति पर रीझते हैं और भक्तों को संतुष्टि प्रदान करते हैं। भगवदगीता में भगवत प्राप्ति के तीन योग बताए हैं कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग। इनमें भक्तियोग श्रीकृष्ण को सर्वाधिक प्रिय है। उन तक पहुंचने का यह सबसे सरल मार्ग है। श्रीकृष्ण कह गए हैं, कलयुग में जो भी व्यक्ति माता-पिता को ईश्वर मान सेवा करेगा मुझे सबसे प्रिय होगा। कर्मयोग और भक्तियोग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भक्ति मन की वह सरल अवस्था है। यह व्यक्ति की आत्मा को आश्वस्त करती है कि परमात्मा और आत्मा एक है।
मार्शल आर्ट के जन्मदाता थे श्रीकृष्ण
मार्शल आर्ट युद्ध कला है। कहते हैं कि इसका प्रयोग सर्वप्रथम भगवान श्रीकृष्ण ने किया था। कई पौराणिक ग्रंथों में इस बात की जानकारी मिलती है, लेकिन कई पौराणिक ग्रंथ में यह भी उल्लेख मिलता है कि मार्शल आर्ट की आरंभ कलरीपायट्टु नाम से भगवान परशुराम द्वारा किया गया था। कलरीपायट्टु शस्त्र विद्या है जिसे आज के युग में मार्शल आर्ट के नाम से जाना जाता है। कलरीपायट्टु दुनिया का सबसे पुराना मार्शल आर्ट है और इसे सभी तरह के मार्शल आर्ट का जनक भी कहा जाता है। इस विद्या के माध्यम से ही श्रीकृष्ण ने चाणूर और मुष्टिक जैसे दैत्य मल्लों का वध किया था तब उनकी उम्र 16 वर्ष की थी। मथुरा में दुष्ट रजक के सिर को हथेली के प्रहार से काट दिया था। मान्यताओं के अनुसार श्रीकृष्ण ने मार्शल आर्ट का विकास ब्रज क्षेत्र के वनों में किया था। डांडिया रास उसी का एक नृत्य रूप है। कालारिपयट्टू विद्या के प्रथम आचार्य श्रीकृष्ण को ही माना जाता है। हालांकि इसके बाद इस विद्या को अगस्त्य मुनि ने प्रचारित किया था। इस विद्या के कारण हीनारायणी सेना( नारायणी सेना यानी नारायण श्रीकृष्ण की सेना। द्वापरयुग में जब दुर्योधन और अर्जुन दोनों श्रीकृष्ण से सहायता मांगने गए, तो श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को पहला अवसर प्रदान किया। श्रीकृष्ण ने कहा कि वह उसमें और उसकी सेना नारायणी सेना में एक चुन लें। दुर्योधन ने नारायणी सेना का चुनाव किया। अर्जुन ने श्रीकृष्ण का चुनाव किया था। इसे चतुरंगिनी सेना भी कहते हैं।) उस समय यह सबसे प्रहारक सेना मानी जाती थी। श्रीकृष्ण ने ही कलारिपट्टू की नींव रखी, जो बाद में बोधिधर्मन से होते हुए आधुनिक मार्शल आर्ट में विकसित हुई। बोधिधर्मन के कारण ही यह विद्या चीन, जापान आदि बौद्ध देशों में पहुंची। वर्तमान में कलरीपायट्टु विद्या विद्या केरल और कर्नाटक में प्रचलित है।
सबसे प्रिय रहे अर्जुन
भक्तियोग में अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा, श्जो भक्त आपके प्रेम में डूब रहकर आपके सगुण रूप की पूजा करते हैं वे आपको प्रिय हैं या फिर जो आपके शाश्वत, अविनाशी और निराकार रूप की पूजा करते हैं वे? दोनों में से कौन श्रेष्ठ हैं? श्रीकृष्ण बोले, श्जो लोग मुझमें अपने मन को एकाग्र करके निरंतर मेरी पूजा और भक्ति करते हैं तथा खुद को मुझे समर्पित कर देते हैं वे मेरे परम भक्त होते हैं। जो मन-बुद्धि से परे सर्वव्यापी, निराकार की आराधना करते हैं वे भी मुझे प्राप्त कर लेते हैं। मगर जो भक्त मेरे निराकार स्वरूप पर आसक्त होते हैं, उन्हें बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ता है क्योंकि सशरीर जीव के लिए उस रास्ते पर चलना बहुत कठिन है। मगर हे अर्जुन, जो भक्त पूरे विश्वास के साथ अपने मन को मुझमें लगाते हैं और मेरी भक्ति में लीन रहते हैं उन्हें मैं जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त कर देता हूं।
मुश्किल घड़ी में साथ होते हैं उनके आदर्श 
श्री कृष्ण व्यक्ति नहीं वरन सद्प्रवृत्तियों के आदर्श के रूप में हमारे सम्मुख हैं। हर विपरीत घड़ी में उनके आदर्श हमारे सामने होते हैं। महाभारत के युद्ध में जीत का श्रेय उन्होंने अर्जुन और भीम को दिया तो प्रत्येक स्त्री को उसके प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग का श्रेय देने से भी वे नहीं चूके। जबकि इस पूरे युद्ध के महानायक श्रीकृष्ण ही थे। अपने मित्र सुदामा के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाए बिना ही उन्होंने उसके मन की बात जान ली थी। वे प्रमाण के साथ दूसरों को सबक भी सिखा देते थे। जब बहन सुभद्रा ने द्रौपदी के प्रति उनके विशेष लगाव की बात की तो बात के पीछे छिपे ईर्ष्याभाव की गहराई को वे समझ गए और उसी वक्त उन्होंने सुभद्रा को सीख देने का विचार कर लिया था। एक मौके पर सुभद्रा और द्रौपदी की मौजूदगी में श्रीकृष्ण की उंगली में छोटा-सा घाव हो गया तो पट्टी के लिए कपड़े का टुकडा तलाशते सुभद्रा इधर-उधर देखने लगी जबकि द्रौपदी ने पलभर का विलंब किए बगैर पहनी हुई बेशकीमती साड़ी का पल्लू फाड़ घाव पर बांध दिया। इसी के वशीभूत होकर श्रीकृष्ण ने भरी सभा में द्रौपदी की लाज बचाई। कृष्ण बहुत थोड़े से प्रेम में बंध जाते हैं। श्रीकृष्ण ने भगवदगीता में भगवत प्राप्ति के तीन योग बताए हैं कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग। इनमें भक्तियोग उन्हें सर्वाधिक प्रिय है। जो उन तक पहुंचने का सबसे सरल मार्ग है। श्रीकृष्ण कह गए हैं, कलयुग में जो भी व्यक्ति माता-पिता को ईश्वर मान सेवा करेगा मुझे सबसे प्रिय होगा। कर्मयोग और भक्तियोग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भक्ति मन की वह सरल अवस्था है जो व्यक्ति की आत्मा को आश्वस्त करती है कि परमात्मा और आत्मा एक है।
आकर्षक था श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व
श्रीकृष्ण में तथा अन्य किशोरों में यही तो अंतर है कि उनकी काया सतोप्रधान तत्वों की बनी हुई थी, वे पूर्ण पवित्र संस्कारों वाले थे और उनका जन्म काम-वासना के भोग से नहीं हुआ था। मीराबाई ने तो श्रीकृष्ण की भक्ति के कारण आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया। इस बात में कोई दो राय नहीं हैं की श्रीकृष्ण भारतीयों के रोम-रोम में बसे हुये हैं, और इसीलिए ही उनके जन्मोत्सव अर्थातजन्माष्टमीको भारत के हर नगर में बहुत ही उत्साह और उल्लास के साथ मनाया जाता है। श्रीकृष्ण सभी को इसलिए इतने प्रिय लगते हैं क्योंकि उनकी सतोगुणी काया, सौम्य चितवन, हर्षित मुखत और उनका शीतल स्वभाव सबके मन को मोहने वाला है और इसीलिए ही उनके जन्म, किशोरावस्था और बाद के भी सारे जीवन को लोग दैवी जीवन मानते हैं। परंतु फिर भी श्रीकृष्ण के जीवन में जो मुख्य विशेषतायें थीं और जो अनोखे प्रकार की महानता थी उसको लोग आज यथार्थ रूप में और स्पष्ट रीति से नहीं जानते। उदाहरण के तौर पर वे यह नहीं जानते कि श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व इतना आकर्षक क्यों था और वे पूज्य श्रेणी में क्यों गिने जाते हैं? एक बार फिर, उन्हें यह भी ज्ञात नहीं है कि श्रीकृष्ण ने उस उत्तम पदवी को किस उत्तम पुरूषार्थ से पाया। अतः जब तक हम उन रहस्यों को पुर्णतः जानेंगे नहीं, तब तक श्रीकृष्ण दर्शन जैसे हमारे लिए अधुरा ही रह जायेगा। अमूमन किसी नगर या देश की जनता जन्मदिन उसी व्यक्ति का मनाती की जिनके जीवन में कुछ महानता रही हो। परंतु आप देखेंगे कि महान व्यक्ति भी दो प्रकार के हुए हैं। एक तो वे जिनका जीवन जन-साधारण से काफी उच्च तो था परंतु फिर भी उनकी मनसा पूर्ण अविकारी नहीं थी, उनके संस्कार पूर्ण पवित्र थे, वे विकर्माजीत भी नहीं थे और उनकी काया सतोप्रधान तत्वों की बनी हुई नहीं थी। अब दूसरे प्रकार के महान व्यक्ति वे हैं जो पूर्ण निर्विकारी थे। जिनके संस्कार सतोप्रधान थे और जिनका जन्म भी पवित्र एवं धन्य था अर्थात कामवासना के परिणामस्वरूप नहीं अपितु योगबल से हुआ था। श्रीकृष्ण और श्रीराम ऐसे ही पूजन योग्य व्यक्ति थे। यहां ध्यान देने के योग्य बात यह है कि पहली प्रकार के व्यक्तियों के जीवन बाल्यकाल से ही गायन या पूजने के योग्य नहीं होते बल्कि वे बाद में कोई उच्च कार्य करते हैं जिसके कारण देशवासी या नगरवासी उनका जन्मदिन मनाते हैं। परंतु श्रीकृष्ण तथा श्रीराम जैसे आदि देवता तो बाल्यावस्था से ही महात्मा थे। वे कोई संन्यास करने या शिक्षा-दीक्षा लेने के बाद पूजने के योग्य नहीं बने और इसीलिए ही उनके बाल्यावस्था के चित्रों में भी उनको प्रभामण्डल से सुशोभित दिखाया जाता है जबकि अन्यान्य महात्मा लोगों को संन्यास करने के पश्चात अथवा किसी विशेष कर्तव्य के पश्चात ही प्रभामण्डल दिया जाता है। यही वजह हैं की श्रीकृष्ण की किशोरावस्था को भी मातायें बहुत याद करती हैं और ईश्वर से मन ही मन यही प्रार्थना करती हैं कि यदि हमें बच्चा हो तो श्रीकृष्ण जैसा। श्रीकृष्ण में तथा अन्य किशोरों में यही तो अंतर है कि उनकी काया सतोप्रधान तत्वों की बनी हुई थी, वे पूर्ण पवित्र संस्कारों वाले थे और उनका जन्म योगबल द्वारा हुआ था और उनका जन्म काम-वासना के भोग से नहीं हुआ था। मीराबाई ने तो श्रीकृष्ण की भक्ति के कारण आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया और इसके लिए विष का प्याला भी पीना सहर्ष स्वीकार कर लिया। जबकि श्रीकृष्ण की भक्ति के लिए, उनका क्षणिक साक्षात्कार मात्र करने के लिए और उनसे कुछ मिनट रास रचाने के लिए भी काम-विकार का पूर्ण बहिष्कार जरूरी है।
जैसी झांकी वैसा वरदान
लोग घरों में झांकिया सजाते हैं। इन झांकियों में कन्हैया के बाल रूप और उस दौरान घटी घटनाओं को अलग-अलग तरीके से पेश किया जाता है। लेकिन सबसे खास होती है मंदिर की सजावट, जहां नन्हे बाल-गोपाल की पूजा की जाती है। कहते है जिसकी जितनी अच्छी झांकी होती है भगवान का उतना ही प्यारा वरदान होता है। इसलिए झांकी को काफी अनोखे भव्यता रुप में सचना चाहिए। इसके लिए जरुरी है कुछ सावधानियां -
-मंदिर को फूलों से सजाएं। जितने ज्यादा रंग के फूल मिल सकें, उतना अच्छा रहेगा। मंदिर के अंदर वाले हिस्से को गेंदे के पीले फूलों से सजाएं।
-रंग बिरंगे पर्दे खरीद लें। लाल, पीले, नीले या फिर गोल्डन कलर के पर्दे से मंदिर के पिछले हिस्से को ढक दें। इससे पिछला हिस्सा ढक भी जाएगा और खूबसूरत भी नजर आएगा।
-मोगरे की मालाओं को बाहरी हिस्से पर लगाएं। इससे मंदिर के चारों ओर खुशबू बनी रहेगी, वो भी लंबे समय तक।
-मंदिर की सफाई कर, निचले हिस्से पर कोई चमकीला पेपर चिपका दें। इसके बाद भगवान की मूर्तियों को साफ करके एक क्रम में लगाएं। धूप और अगरबत्ती का स्टैंड बीच में रखें। पूजा से पहले ही प्रसाद और पूजा की बाकी सामग्री को एक बड़ी पूजा थाली में सजा लें।
-कन्हैया के लिए कपड़ों का चयन अच्छा होना चाहिए। चटक रंगों वाले और गोटापट्टी के काम वाले कपड़े ही आज के दिन सुंदर लगेंगे। बाल-गोपाल के लिए एक छोटा सा मुकुट भी खरीदें। आप चाहें तो फूलों से भी मुकुट तैयार कर सकते हैं। मुकुट में मोर पंख लगाना बिल्कुल भूलें।
-कन्हैया के लिए तैयार झूले को फूलों की लड़ियों और गोटे से सजा सकते हैं। झूले के भीतर रखने के लिए मलमल का कपड़ा ही सबसे अच्छा रहेगा।
-अगर जगह हो तो बिजली वाले झालर भी लगा सकते हैं। 
सुसज्जति बांसुरी
श्रीकृष्ण को उनकी बांसुरी अत्यंत प्रिय है। एक छंद में तो राधा ने श्रीकृष्ण की बांसुरी के भाग्य को अपने भाग्य से कहीं श्रेष्ठ बताया है क्योंकि वो उनके अधरों को छूती है। श्रीकृष्ण की बांसुरी की मीठी धुन सुनकर सारी गोपियां, ग्वाल-बाल, गायें, जीव-जंतु, पेड़-लता थम से जाते थे। बांसुरी सरलता और मीठास का प्रतीक है। जन्माष्टमी के मौके पर श्रीकृष्ण की मूर्ति सजाते समय बांसुरी रखना भूलें।
मोरपंख
भगवान श्रीकृष्ण अपने मुकुट में मोरपंख धारण करते हैं। मोर पंख सम्मोहन और भव्यता का प्रतीक है। ये दुखों को दूर कर जीवन में खुशहाली का सूचक है। कान्हा के मुकुट की सजावट मोर पंख के बिना अधूरी है।
मिश्री की मीठास
कृष्ण को माखन मिश्री बहुत ही प्रिय है। मिश्री मीठास का प्रतीक है। जीवन में मीठास का होना बेहद जरूरी है। श्रीकृष्ण ने सदैव प्रेम करने की सीख दी। प्रेम हर उस चीज से जो हमारे इर्द-गिर्द मौजूद है।
वैजयंती की माला
भगवान श्रीकृष्ण अपने गले में सदैव वैजयंती की माला धारण किए रहते हैं। पूजा के समय श्रीकृष्ण को वैजयंती की माला पहनाना भूलें।
पीतांबर और चंदन का तिलक
श्रीकृष्ण सदैव पीतांबर धारण किया करते थे। माथे पर चंदन का तिलक। भगवान की पूजा करने से पहले उन्हें चंदन समर्पित करें।
8 पटरानियां थी
भगवान श्रीकृष्ण की 16,100 रानियां और 8 पटरानियां थी। जो कि क्रमशः रुक्मणि, जाम्बवन्ती, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रवृंदा, सत्या, रोहिणी तथा लक्ष्मणा हैं। कृष्ण की प्रमुख पटरानी के रूप में रूक्मिणी का नाम लिया जाता है। दरअसल श्रीकृष्ण की 16,100 रानियां को वेदों की ऋचाएं माना गया है। वहीं, ब्रह्मवैवर्त्त पुराण के अनुसार कृष्ण की प्रेमिकाएं भी थीं जिनके नाम चन्द्रावली, श्यामा, शैव्या, पद्या, राधा, ललिता, विशाखा तथा भद्रा। पौराणिक मान्यता के अनुसार ललिता नाम की प्रेमिका को मोक्ष नहीं मिल पाया था, इसीलिए बाद में उन्होंने मीरा के नाम से जन्म लिया।
मनुष्य को इन 3 बातों से होता है दुरूख
मनुष्य को दुःख तीन बातों से होता है - एक कंस से दुःख होता है, दूसरा काल से और तीसरा अज्ञान से दुःख होता है। मथुरा के लोग कंस से दुःखी थे, यह संसार ही मथुरा है। कंस के दो रूप हैं - एक तो खपे-खपे (और चाहिए, और चाहिए...) में खप जाय और दूसरे का चाहे कुछ भी हो जाय, उधर ध्यान दे। यह कंस का स्थूल रूप है। दूसरा है कंस का सूक्ष्म रूप - ईश्वर की चीजों में अपनी मालिकी करके अपने अहं की विशेषता मानना किमैं धनवान हूँ, मैं सत्तावान हूँ...यह अंदर में भाव होता है।
यदुवंशी थे श्रीकृष्ण
श्री कृष्ण का जन्म यदुवंशी क्षत्रिय कुल में राजा वृष्णि के वंश में हुआ था। पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु के आठवें अवतार के रूप में विष्णु ने श्रीकृष्ण अवतार लिया। 8वें मनु वैवस्वत के मन्वंतर के 28वें द्वापर में श्रीकृष्ण के रूप में देवकी के गर्भ से 8वें पुत्र के रूप में मथुरा के कारागार में जन्म लिया था।
भक्त यदि सच्चा हो तो उसके बुलाने पर आते हैं कृष्ण
एक बार एक गरीब किसान था। उसने अपनी बेटी की शादी के लिए सेठ से पांच सौ रुपए उधार लिए। गरीब किसान ने अपनी बेटी की शादी के बाद धीरे-धीरे सब पैसा ब्याज समेत चुकता कर दिया। लेकिन उस सेठ के मन में पाप गया। उसने सोचा ये किसान अनपढ़ है। इसे लूटा जाए। गरीब किसान ने कहा की मैंने आपका सारा रुपया-पैसे चुकता कर दिया है। अब सेठ गुस्सा हो गया और कोर्ट के द्वारा उस पर मुकदमा कर दिया। जब कोर्ट में हाजिर हुआ बांके बिहारी का परम भक्त। जज बोले की आप कह रहे हो की आपने एक एक रुपए पैसा चुकता कर दिया। आपके पास कोई गवाह है? लेकिन गांव के किसी भी व्यक्ति ने सेठ के डर से किसी ने भी गवाही नही दी। उसने कहा की मेरे गवाह तो बिहारी लाल हैं। जज ने पूछा की, कहां रहता है बिहारी लाल? किसान ने कहा, वो वृन्दावन में रहता है। कोर्ट से सम्मन लेकर कोर्ट का व्यक्ति वृन्दावन में बिहारी पूरा पहुंचा। और साइकिल पर सबसे पूछता घूम रहा है की यहां कोई बिहारी लाल रहता है। लेकिन कोई नही जानता। फिर वह व्यक्ति बांके बिहारी मंदिर के पीछे पहुंचा। वहां पर एक हाथी की सूंड बनी हुई है जहां से बांके बिहारी के चरणों का चरणा मृत टपकता है। और लोग उसे अपने सर पर धारण करते हैं। वहीं पर एक 75 वर्ष के वृद्ध आए। जिनके हाथ में लाठी थी। और उस कोर्ट के कर्मचारी ने उससे पूछा की यहां कोई बिहारी लाल नाम का व्यक्ति रहता है? उस बूढ़े आदमी ने कहा मेरा नाम ही बिहारी लाल है। कर्मचारी ने कहा की आपके नाम सम्मन है। उसने सम्मन ले लिया और अपने हस्ताक्षर कर दिए। उस दिन कोर्ट में यही चर्चा थी की ऐसा कौन सा व्यक्ति बिहारी लाल है? जो इसकी ओर से गवाही देगा। गांव के लोग भी इस चीज को देखने के लिए कचहरी में उपस्थित थे। सारा गांव एकत्र हुआ है। वो किसान भी आया। उसके लिए तो बिहारी लाल और कोई नही बांके बिहारी जी ही थे। जब मुकदमा नंबर पर आया तो कोर्ट में नाम बुलाया गया। बिहारी लाल हाजिर हो। बिहारी लाल हाजिर हो। दो बार आवाज लगी तो कोई नही आया। फिर आवाज लगी बिहारी लाल हाजिर हो। तो वही वृद्ध व्यक्ति कोर्ट में लाठी टेकता हुआ हाजिर हो गया। और उसने जज के सामने कहा की हुजूर, इस किसान ने महाजन का पाई पाई चुकता कर दिया है। जज ने कहा की इसका सबूत (प्रमाण) क्या है? उस वृद्ध व्यक्ति ने कहा इसके घर में, फलाने कमरे में, अलमारी में, इतने नंबर की बही (हिसाब किताब वाली फाइल) रखी गई है। ये महाजन झूठ बोल रहा है। कोर्ट का कर्मचारी उसी समय महाजन के घर गया और वो बही लेकर आया।जब जज ने वो फाइल देखी तो सारा का सारा हिसाब-किताब चुकता था। लोग इस बात को देखकर बड़े अचम्भे में पड़े हुए थे। आपस में चर्चा कर रहे थे। लेकिन वो बिहारी लाल कोर्ट से अंतर्ध्यान हो चुके थे।जज ने किसान से पूछा- आपने ये बिहारी लाल नाम बताया। ये कौन हैं ? आपके कोई रिश्तेदार हैं क्या? किसान ने कहा- हुजूर, मैं सच कहता हूँ की मुझे नही मालूम ये कौन थे ? जज ने कहा फिर आपने गवाही में बिहारी लाल नाम किसका लिखवाया? किसान ने कहा की गांव से कोई भी व्यक्ति मेरी और से गवाही देने को तैयार नही हुए। तो मेरा तो एक ही आश्रय थे। वो बांके बिहारी ही मेरे बिहारी लाल थे। और किसी बिहारी लाल को मैं नही जानता हूं। ये सुनते ही उस जज की आँखों में आंसू भर गए और जज ने कोर्ट में रिजाइन ने दिया। जिसकी कोर्ट में मुझे जाना था वो मेरी कोर्ट में आए। उसी समय वो वृन्दावन की यात्रा पर निकल पड़े। और वो जज, जज बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुए। वहीँ वृन्दावन में बिहारी जी के मंदिर पर पड़े रहते थे। और बांके बिहारी में उनका अनन्य प्रेम हो गया।

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