Saturday, 16 October 2021

’परे भूमि नहिं उठत उठाए, बर करि कृपासिंधु उर लाए‘

परे भूमि नहिं उठत उठाए, बर करि कृपासिंधु उर लाए‘ 

    ‘लीन्ह मनुज अवतारयानी ईश्वर ने स्वयं मनुष्य का रूपाकार ग्रहण कर राम के रूप में पृथ्वी पर अवतरित हुए। इसकी जीती-जागती मिसाल तीनों लोकों में न्यारी भगवान शिव की नगरी काशी के नाटी इमली भरत मिलाप में देखने को मिलता है। त्याग, अपनत्व, बन्धुत्व की अनूठी पवित्रतम निर्मल भाव निहित इस भरत-मिलाप में उस भरत का राम से मिलन दर्शाया जाता है जो राम का वनवास सुनकर पिता की मृत्यु क्षण भर के लिए ही सही भूल से गए, “भरतहि बिसरेहु पितु मरन, सुनत राम वन गौनु आंखों में काजल, माथे पर चंदन, सिर पर लाल पगड़ी में सज-धज युवाओं के बीच गोधूली बेला में जब भगवान राम, लक्ष्ण, भरत शत्रुघ्न आपस में गले मिलते है, इस मनोरम दृश्य देख लोगों की आंखे भर आती है। राजा रामचंद्र समेत चारों भाईयों के जयकारे से पूरा परिसर गूंजायमान हो उठता है। इसके बाद रथ पर सवार राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान, भरत, शत्रुघ्न समेत अन्य देवी-देवताओं को पूरे बनारस में घुमाया जाता है। लोग चारों भाईयों को भगवान की प्रतिमूर्ति मानकर उन्हें नमन करते है। कहते है इस दिन जब सूरज डूबता है तब भगवान का अंश यहां के राम लक्ष्मण में जाता है। खासियत यह है कि यहां बनने वाले राम, लक्ष्मण, भरत शत्रुघ्न सप्ताहभर पहले से अन्न सहित अन्य भोग विलासता वाली वस्तुओं का त्याग कर देते है। गंगा स्नान, पूजा-पाठ फल आदि का ही सेवन करते है  

सुरेश गांधी

परे भूमि नहिं उठत उठाए, बर करि कृपासिंधु उर लाए। स्यामल गात रोम भए ठाढ़े, नव राजीव नयन जल बाढ़े।। कहते है इस दिन जब सूरज डूबता है तब भगवान का अंश यहां के राम लक्ष्मण में जाता है। खासियत यह है कि यहां बनने वाले राम, लक्ष्मण, भरत शत्रुघ्न सप्ताहभर पहले से अन्न सहित अन्य भोग विलासता वाली वस्तुओं का त्याग कर देते है। गंगा स्नान, पूजा-पाठ फल आदि का ही सेवन करते है। लगभग 478 वर्षो से चली रही परंपरा शनिवार को भी धर्म एवं आस्था की नगरी काशी में विश्व प्रसिद्ध नाटी इमली के भरत मिलाप का मंचन बड़े ही धूमधाम से किया गया। आंखों में काजल, माथे पर चंदन, माथे पर लाल पगड़ी में सज-धज युवाओं के बीच गोधूली बेला में जब भगवान राम, लक्ष्ण, भरत शत्रुघ्न आपस में गले मिले तो इस मनोरम दृश्य देख लोगों की आंखे भर आई। राजा रामचंद्र की जय समेत चारों भाईयों के जयकारे से पूरा परिसर गूंजायमान हो गया। चारों भाईयों के इस पांच मिनट की अलौकिक मनोरम दृश्य को निहारने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं का रेला उमड़ा था। क्या गलियां, क्या दीवारें, क्या घर, क्या छत। जिधर नजर जा रही थी, उधर आस्थावानों का रेला ही रेला। हर तरफ ठसाठस। घंटों इंतजार, मगर क्या मजाल कि कोई किसी को उसके स्थान से इंच भर भी डिगा दे।

इस मौके पर काशी नरेश के वंशज कुंवर अनन्त नारायण सिंह के हाथों ठीक 4.40 बजे गोधूली बेला में सोने की गिन्नी सौंप कर शुरुवात की गयी। भगवान को गिन्नी देने की परम्परा बरसों से चली रही है। प्रभु श्रीराम का रथ खीचने वाले बंधुओं द्वारा जयश्रीराम जयश्रीराम का उद्घोष पूरे वातावरण को भक्तिरस से सराबोर कर रहा था। आसपास के घरों की छतों से फूलों की वर्षा होती रही। मैदान में भरत मिलाप एवं राम के राजतिलक प्रसंग की प्रस्तुति दी गई। और जब आया भगवान श्रीराम भाई भरत के मिलाप का नयनाभिराम दृश्य, भीग उठीं हर किसी की पलकें। श्रीरामचंद्र का जयकारा और आस्था इस कदर परवान चढ़ी पूरा वातावरण भक्तिरस में सराबोर हो गया। पांच मिनट के इस दृश्य को नजरों में साल भर बसा लेने को हर कोई आतुर दिखा। बच्चे, जवान, बूढ़े, महिलाएं सब के सब इस अद्भूत मिलन को एकटक निहारते रहे। इस नयनाभिराम दृश्य को जनसमूह ने तो सजल नेत्रों से देखा ही, परंपरागत ढंग से राज घराने के सदस्यों के साथ-साथ काशी नरेश महाराज कुंवर अनंत नारायण सिंह ने भी इस अविस्मरणीय दृश्य को अपनी पलकों में कैद किया। इस मौके पर राज्य तंत्री नीलकंठ तिवारी, राज्यमंत्री रवीन्द्र जायसवाल के पुत्र आयुश जायसवाल सहित बड़ी संख्या में गणमान्य नागरिक भी मौजूद थे। 

इस दौरान भव्य चारों भाईयों की शोभायात्रा निकाली गई। रथ पर सवार राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान, भरत, शत्रुघ्न समेत अन्य देवी-देवताओं का जगह-जगह स्वागत किया गया। लोगों ने शोभायात्रा में शामिल चारों भाईयों को भगवान की प्रतिमूर्ति मानकर उन्हें नमन किया। कहते है जब 14 वर्षों तक पादुकाओं का पूजन कर चुके भरत अंतिम दिन विरह सागर में डूब कर प्राणांत करना चाहते थे, पर प्रभु ने इस दर्द को समझ लिया। तब हनुमान जी को भेज कर अपने आगमन का मंगल संदेश दिया और भूमि पर प्रणाम कर रहे भरत को गले से लगा लिया। कहते है इस दिन जब सूरज डूबता है तब भगवान का अंश यहां के राम लक्ष्मण में जाता है। खासियत यह है कि यहां बनने वाले राम, लक्ष्मण, भरत शत्रुघ्न सप्ताहभर पहले से अन्न सहित अन्य भोग विलासता वाली वस्तुओं का त्याग कर देते है। गंगा स्नान, पूजा-पाठ फल आदि का ही सेवन करते है। सदियों पुरानी परंपरा का निर्वहन करते हुए यादव समुदाय के बहुत से लोग मिलकर खास तरह की लकड़ियों से तैयार 10 टन वजन के पुष्पक विमान को अपने कंधों पर उठाते हैं। आंखों में काजल, माथे पर चंदन, माथे पर लाल पगड़ी में सज-धज सफेद पोशाक पहने यादव बंधु विमान को अपने कंधों से खींच कर लीला स्थल पर चारों दिशाओं में भगवान के दर्शन को घंटों से व्याकुल श्रद्धालु नजदीक से दर्शन कराते हैं। विमान पर भवान राम एवं उनके भाइयों का नजदीक से दर्शन करने वाले लोग अपने को सौभ्यशाली मानते हैं और इसी वजह से वे घंटों पहले लीला स्थल पर पहुंच जाते हैं।

मान्यता है कि संत सिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास ने इस परंपरा की शुरूवात की थी। गोस्वामी तुलसीदास के शरीर त्यागने के बाद उनके समकालीन संत मेधा भगत काफी विचलित हो उठे थे। एक बार तुलसीदास ने उन्हें सपने में दर्शन दिए। उनकी प्रेरणा से संत मेधा भगत ने नाटी इमली में रामलीला के मंचन की शुरुआत की। तभी से यह परंपरा लगातार चली रही है। यहां जैसे ही राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न एक-दूसरे को गले लगाते है मौजूद लोगों की आंखे छलछला जाती है। भगवान को अपने बीच पाकर भक्तों का रोम रोम पुलकित हो उठता है। चारों भाइयों के अलौकिक रूप की झलक पाकर पूरा माहौल जयकारे से गूंजायमान हो उठता है। खास बात यह है कि भरत मिलाप के निर्वासन के 14 साल और उसके भाई भरत के साथ अपने पुनर्मिलन के बाद भगवान राम के अयोध्या लौटने की स्मृति में मनाये जाने वाले नाटी इमली में भरत मिलाप लीला के मंचन के सम्मान में काशी के सभी जगहों की रामलीलाएं बंद कर दी जाती है। 

माना जाता है जिस चबूतरे पर भरत मिलाप का मंचन होता है, वहां कभी भगवान राम ने संत मेधा भगत को साक्षात दर्शन दिए थे। भरत-मिलाप एक संक्षिप्त लीला या झाँकी मात्र है। इसमें राम-जानकी एवं लक्ष्मण बनवासी वेश में एक मंच पर खड़े रहते हैं, उनके आगमन को सुनकर भरत जो राम के समान ही तपस्वी वेश में हैं तथा शत्रुघ्न आते हैं और राम के चरणों पर गिर जाते हैं। राम एवं लक्ष्मण उन्हें उठाते हैं तथा चारों परस्पर मिलते हैं। तत्पश्चात पांचों स्वरुपों को विमान या रथ पर बिठाकर ढोया जाता है। विमान को काशी के व्यापारी वर्ग इस विश्वास से ढोते हैं कि उनका व्यापार अच्छा चलेगा। ऐसा विश्वास किया जाता है कि भरत-मिलाप के समय मेधाभगत को स्वरुपों में साक्षात भगवान के दर्शन हुए थे। आज भी क्षण भर के लिए स्वरुपों में ईश्वरत्व जाता है, ऐसा विश्वास है। इस लीला की महिमा ही है कि स्वयं काशी नरेश अपने रामनगर स्थित राजमहल से निकल कर प्रभु के दर्शन और परिक्रमा के लिए हाथी पर सवार होकर लीला में श्रद्धा व्यक्त करते हैं। चित्रकूट रामलीला की प्राचीनता ही इसकी धरोहर है।

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