Thursday, 2 December 2021

अखिलेशराज के ’दंगे’ बनाम योगी का ’विकास’

अखिलेशराज केदंगेबनाम योगी काविकास

यूपी में विधानसभा चुनाव का समय जैसे-जैसे करीब आता जा रहा है, वैसे-वैसे समीकरण साधने की कोशिशें भी तेज होती जा रही हैं। जुबानी जंग भी जोरों पर है। लेकिन सबसे बड़ी बहस अखिलेशराज के दंगे एवं योगी आदित्यनाथ के विकास पर छिड़ी है और यही एक बार फिर से चुनावी मुद्दा बनता दिख रहा है। बात आंकड़ों की हो तो 2012 में यूपी में कुल 227 दंगे हुए. 2013 में 247. 2014 में 242. 2015 में 219. 2016 में 250 से भी अधिक यानी कुल 1184 दंगे हुए। जबकि योगीराज में एक भी दंगे नहीं हुए हैं। बात सिर्फ दंगों तक हीं नहीं अखिलेशराज में सरेराह चलते लोगों की हत्याएं तो दिनचर्या बन गयी थी, लोग अपने बेडरुम में भी सुरक्षित नहीं थे, पत्रकारों की खुलेआम जिंदा जलाने से लेकर फर्जी मुकदमें दर्ज होना आम बात थी। मनबढ़ सपाई गुंडे बिना किसी कोर्ट-कचहरी के खुद फैसले सुनाकर आम लोगों को छह इंच छोटा कर दिया करते थे। बलातकार तो जैसे इनकी निजी खेती हो गयी थी। पेड़ों पर फल की जगह बालिकाओं की लाशे लटकती थी

सुरेश गांधी

फिरहाल, यह सच है साल 2014 से पहले नारा चलता था- सबका साथ, अपना विकास। पर्व-त्यौहार आते थे, व्यापार का समय होता था, तब प्रदेश में कर्फ्यू लग जाता था। हर दुसरे-तिसरे दिन कहीं कहीं दंगे होते थे। खास यह था कि ये दंगे प्रशासनिक अधिकारियों एवं सपा जनप्रतिनिधियों की मिलीभगत से होते थे और आम जनमानस को लाखों-करोड़ों की संपत्ति को आग के हवाले कर अपने विरोधियों को प्रताड़ित किया जाता था। बात भदोही की करें तो 2013 में तत्कालीन जिलाधिकारी अमृत त्रिपाठी एवं पुलिस अधीक्षक अशोक शुक्ला द्वारा मुहर्रम पर्व से पहले शांति समिति की बैठक में रास्ते के विवाद को लेकर स्थानीय सपा विधायक सहित सपा नेताओं ने लिखित आश्वासन दिया कि कोई विवाद नहीं है, लेकिन पर्व के दिन उन्हीं नेताओं एवं तत्कालीन डीएम-एपी की मौजूदगी में सिर्फ दंगे हुए बल्कि कत्लेआम हो गया। लाखों-करोड़ों की संपत्ति खाक हो गयी और अपना गला फंसता देख सपा नेताओं एवं प्रशासनिक अधिकारियों ने कई निर्दोशों के खिलाफ रपट कार्रवाई करते हुए मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया। यहअलग बात है कि 2017 के चुनाव में सपा नेताओं की हेकड़ी का जवाब जनता ने दे दिया। यह तो एक बानगी है ऐसे ही यूपी के तकरीबन हर जिले में दंगे हुए और लोगों को प्रताड़ित किया गया। मतलब साफ अगर योगी कह रहे है कि अखिलेशराज की फितरत ही दंगा थी, दंगाइयों को प्रश्रय देकर लूटपाट करवाना उनकी नियति थी तो कोई गलत नहीं है। जबकि सीएम योगी ने दंगाइयों को पहले दिन से ही संदेश दे दिया कि अगर दंगा करोगे तो अगली सात पीढ़ियां उनकी हरकतों की भरपाई करती रहेंगी। परिणाम सबके सामने है, कहीं भी दंगे नहीं हुए।

बता दें, साल 2017 से पहले दंगों से प्रदेश की जनता प्रताड़ित थी। झूठे मुकदमे दर्ज होते थे। जगेन्द्र जैसे जांबाज पत्रकारों को सच लिखने पर जिंदा जला दिया जाता था। फर्जी मुकदमें दर्ज कर पत्रकारों के घर-गृहस्थी लूटवा लिए जाते थे। नवरात्र दीवाली जैसे पर्वो पर जो मूर्ति बनाता था, उसकी मूर्ति नहीं बिकती थी। जो दीपक बनाता था, उसके दीपक तोड़ दिए जाते थे। पर्व-त्योहार को अंधेरे में धकेल दिया जाता था। एक खास वर्ग को खुश करने के लिए सड़के बंद कर आवागमन ठप कर दी जाती थी। दंगाइयों को प्रश्रय दिया जाता था। तत्कालीन कैबिनेट मंत्री गायत्री प्रजापति जैसे बलातकारी आजम खां जैसे भूमाफिया मुख्तार अतीक जैसे डॉन के खिलाफ आवाज उठाने वालों की जुबान हमेशा-हमेशा के लिए खामोश कर दी जाती थी। सरकारी आंकड़ों की मानें तो दंगों के मामले में यूपी देश में एक नंबर पर था। ये थानों में दर्ज केसों की बात थी, अगर सारे दंगे जोड़ दिये जायें तो डाटा कुछ और ही होता। ये दंगे सिर्फ धार्मिक नहीं थे, कहीं जमीन को लेकर, कहीं जाति को लेकर, कहीं छात्रों के दंगे सब शामिल थे इनमें। तत्कालीन यूपीए सरकार द्वारा सितंबर 2013 में सांप्रदायिक हिंसा में मारे गए लोगों के धर्म की पहचान कर आंकड़े जारी किए थे। उसके मुताबिक उस साल देश में हुए 479 दंगों में 107 लोगों की मौत हुई जिसमें 66 मुस्लिम और 41 हिंदू थे। इस रिपोर्ट में ही यह भी सामने आया कि सांप्रदायिक दंगों में सबसे ज्यादा जानें यूपी में गईं। यहां अखिलेश सरकार के पहले 9 महीनों में ही 93 छोटे-बड़े दंगे हो चुके थे जबकि 108 मौकों पर प्रदेश में तनाव के हालात बने रहे।

आंकड़े साफ करते हैं कि यूपी में कानून-व्यवस्था की हालत कितनी बदतर थी। यूपी के कई शहर मुजफ्फरनगर, मुरादाबाद, सहारनपुर, बरेली, फैजाबाद, लखनऊ, भदोही दंगों का दंश झेल चुके हैं। केवल मुजफ्फरनगर में दो समूहों में भड़की हिंसा में 48 लोगों की जान चली गई। इस दंगे को भड़काने में आजम खां जैसे नेताओं का हाथ सामने आया, लेकिन कुछ नहीं हुआ। तबके मूक प्रशासन और सरकार के ढुलमुल रवैये के बीच मथुरा, बरेली, प्रतापगढ़, इलाहाबाद मेरठ मउ में कई दिनों तक सांप्रदायिकता की आग में झुलसती रही। फरवरी 2013 में विधानसभा में सरकार ने जो जवाब दिया था, उसमें सपा सरकार के दौरान 27 दंगों की जानकारी दी गई थी। उनके शासन काल में केवल हिंसा बल्कि डकैती, बलात्कार और शारीरिक उत्पीड़न के मामले भी बेलगाम होते चले गए। उस वक्त हरकिसी की जुबान पर सिर्फ गुंडाराज था। अखिलेश जब गद्दी पर बैठे उसके तीन महीने के भीतर ही जेल में बंद कई अपराधियों को बाहर पहुंचाने का बंदोबस्त उन्होंने कर दिया गया था। कुंडा की घटना को कौन भूल सकता है जहां उन्हीं की सरकार के एक मंत्री राजा भैया पर पुलिस उपाधीक्षक जिया-उल-हक की हत्या का आरोप लगा। वैसे केवल गुंडागर्दी ही नहीं उस वक्त के आंकड़े बताते हैं कि अखिलेश के मुख्यमंत्री बनने से लेकर मार्च, 2012 से लेकर 31 दिसंबर 2012 तक कुल 27 सांप्रदायिक दंगे हो चुके हैं जिनमें 97 लोगों की मृत्यु हुई।

मुजफ्फरनगर दंगा

यहां हुए दंगों में 62 लोग मारे गये। जिस वक्त हजारों लोग विस्थापित होकर टेंट में रह रहे थे, अखिलेश सैफई में सलमान खान का डांस देख रहे थे। जब आवाज उठी तो बुलडोजर से सारे टेंट गिरा दिये गये कि इमेज खराब हो रही है। दंगे बस इतने ही नहीं थे। ये तो बहुत बड़े पैमाने पर था। 2012 में यूपी में कुल 227 दंगे हुए। 2013 में 247 2014 में 242 2015 में 219 2016 में भी 200 के ऊपर। दंगों के मामले में यूपी देश में एक नंबर पर रहा।

मथुरा का रामवृक्ष कांड

280 एकड़ सरकारी जमीन पर अतिक्रमण हटाने गई पुलिस टीम पर हमला हो गया। एसपी और एसएचओ मारे गये। 23 पुलिसवाले अस्पताल में भर्ती हुए। जवाहर पार्क में रामवृक्ष यादव ने कब्जा जमा रखा था। पूरी सेना बना रखी थी। पुलिस के साथ लड़ाई चली। कुल 24 लोग मारे गये। चारों ओर से खुसुर-फुसुर होने लगी कि रामवृक्ष को सपा नेताओं का आशीर्वाद प्राप्त था। क्योंकि बिना उसके इतनी बड़ी घटना नहीं हो सकती।

दादरी कांड

जब धर्मांध लोगों ने अखलाक को घर से खींचकर मार डाला तो अखिलेश सरकार ने ऐसे रिएक्ट किया जैसे सरकार कहीं से भी इस मामले से जुड़ी नहीं है। ऐसा नहीं होता है। ऐसी घटनाएं शॉर्ट नोटिस पर नहीं होती। प्लानिंग होती है। सरकार के रवैये को भांपकर अंजाम दिया जाता है। क्या अखिलेश सरकार वोट के चक्कर में धर्मांध लोगों को शह दे रही थी। हर बार सपा के लोग सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने की बात करते हैं. पर सवाल ये है कि कौन सांप्रदायिक है। क्या अखिलेश सरकार सांप्रदायिक नहीं है? क्या सांप्रदायिक ना होने का मतलब ये होता है कि किसी भी संप्रदाय को नहीं बचाना है?

बदायूं रेप कांड

दो नाबालिक लड़कियों का रेप और मर्डर हुआ। वो क्या सांप्रदायिक ताकतों ने किया था? आरोप तो सपा सांसद के नजदीकी लोगों पर लगा था। उन लोगों की हिम्मत कैसे हुई? क्या सांसद ने उन लोगों से पल्ला झाड़ा?

पत्रकार को जिंदा जलाया गया

शाहजहांपुर के पत्रकार जगेंद्र सिंह को जिंदा जलाया गया। इसमें भी सपा के एक मंत्री का नाम आया। क्या वो मंत्री जेल गया। जबकि मरते हुए जगेंद्र ने बयान दिया था कि मंत्री राममूर्ति वर्मा की शह पर पुलिस ने जलाया था।

यादव सिंह का भ्रष्टाचार

नोएडा के चीफ इंजीनियर यादव सिंह पर सैकड़ों करोड़ की संपत्ति बनाने का आरोप लगा। पहले तो सरकार आना-कानी करती रही। फिर बाद में 2014 में सस्पेंड कर दिया गया। पर फरवरी 2015 में वन-मैन जुडिशियल इंक्वायरी बैठाई गई। क्योंकि इसे मैनेज करना आसान था। इलाहाबाद हाई कोर्ट में पेटीशन फाइल की गई कि सीबीआई इंक्वायरी हो। अखिलेश सरकार ने इसका विरोध किया। पर कोर्ट ने ऑर्डर दे दिया। इसके बाद अखिलेश सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई। पर वहां पर भी हाई कोर्ट का ही फैसला माना गया। अखिलेश सरकार बेशर्मों की तरह काम कर रही थी। किसको बचा रही थी, कैसे छुपा है।

बुंदेलखंड की क्राइसिस

2015 में बुंदेलखंड में फरवरी और अप्रैल में बारिश हो गई। फसलें खराब हो गईं। किसान मरने लगे। बहुतों ने आत्महत्या कर ली और कई हार्ट अटैक से मर गये। क्योंकि सरकार ने फसल खराब होने को लेकर कोई फैसला नहीं दिया था। किसी भी तरह के मुआवजे की बात नहीं की थी। साल खत्म होने पर अखिलेश सरकार ने चैक बांटने शुरू किये। लोगों को 23-23 रुपये के चैक बांटे गये। बुंदेलखंड में ये क्राइसिस अचानक नहीं हो गई थी। वहां तीन साल से सूखा भी पड़ा था।

अखिलेश का जिन्ना प्रेम

बुद्धिजीवियों के एक वर्ग का कहना है कि यूं तो पहले भी अखिलेश यादव के पिता और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव पर मुस्लिम परस्ती के आरोप लगते रहे हैं और अब वे भी उसी राह पर है। अपने पांच साल के शासनकाल में हुए दंगों कोसिर्फ 400 दंगेकहकर संबोधित करना इस बात का प्रमाण है कि अखिलेश सरकार हिन्दू-मुस्लिम दंगों को रोकने की बजाय उन्हें भड़कने में लगी रही। जिससे एक समुदाय को ताकतवर होने का पूरा-पूरा मौका मिलता रहा। जबकि दंगा कोई भी हो उसमें नुकसान दोनों पक्षों का होता है। लेकिन एक बार फिर चुनावी बेला में अखिलेश जिन्ना राग अलाप रहे है। लोग सवाल कर रहे है क्या जिन्ना के अनुयायियों से फिर दंगा करवाने की योजना है। ऐसे में सवाल तो यही है क्या यूपी में विपक्ष को जिन्ना प्रेम महंगा पड़ेगा? क्या जिन्ना और दंगे पर होगा यूपी चुनाव? बहरहाल, यूपी में अखिलेश की चुनावी बोतल से निकला जिन्ना का जिन्न, लगता है वोट पड़ने के बाद ही अंदर जाएगा। एक-दो बयानों के बाद अखिलेश तो अब इस पर खामोश हो गए हैं लेकिन बीजेपी ने उनके बयान को ऐसा लपका जैसे एक कैच पर पूरी टीम ही आउट कर देगी। अखिलेश का ये बयान विरोधी पार्टी बीजेपी के मनमाफिक था, उसे फायदा पहुंचाने वाला था, ये अखिलेश समेत सभी को पता था तो सवाल उठता है उन्होंने चुनावी पिच पर जानबूझकर कमजोर शॉट क्यों खेला? अब सवाल उठता है कि यूपी के चुनाव में अचानक से जिन्ना कहां से प्रकट हो गए। शुरुआत अखिलेश ने की थी, 31 अक्टूबर की हरदोई की रैली में, जाहिर है सवाल भी उन्हीं से होंगे। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ चुका एक नेता यूं ही तो कुछ बयान दे नहीं देगा। लिहाजा माना यही जाएगा कि उन्होंने जो कुछ कहा सोच समझकर कहा।

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