सपना था पीएम का, लेकिन कुनबे में ही सिमट गए मुलायम
जी
हां,
कारसेवकों
पर
गोलियां
चलाकर
मुल्ला
मुलायम
की
खिताब
हासिल
करने
वाले
मुलायम
सिंह
यादव
का
सपना
था
लोहिया
व
जयप्रकाश
नारायण
की
तरह
समाजवाद
का
पुरोधा
बनने
का,
छोटे-छोटे
दलों
को
मिलाकर
प्रधानमंत्री
बनने
का
ख्वाब
था।
इसके
लिए
उन्होंने
एक
बड़ा
वोट
बैंक
मुस्लिमों
को
खुश
रखने
के
लिए
न
सिर्फ
अपने
स्वाभिमान
की
तिलाजंलि
दी,
बल्कि
दुसरे
दलों
से
नाराज
नेताओं,
गुंडो,
माफियाओं,
बाहुबलियों
को
भी
न
चाहते
हुए
अपने
पाले
में
लाया।
हालांकि
इसका
उन्हें
भरपूर
फायदा
भी
मिला,
यादव
मुस्लिम
सहित
बैड
एलीमंट्सों
के
सहारे
तमाम
संघषो,
हुज्जतों
व
सियासी
उठापटक
के
बीच
8 बार
विधायक,
7 बार
सांसद
और
रक्षा
मंत्री
और
तीन
बार
मुख्यमंत्री
भी
बन
गए,
लेकिन
समाजवाद
के
पुरोधा
बनने
के
बजाएं
कुनबे
की
सियासत
में
ही
उलझकर
रह
गए।
अंतिम
दिनों
में
हाल
यहां
तक
पहुंच
गया
कि
पुत्रमोह
की
सियासी
सत्ता
में
अपने
कुनबे
को
भी
एकजुट
नहीं
रख
पाएं
और
तास
पत्ते
की
तरह
बिखरता
दिखा।
मतलब
साफ
है
मिट्टी
में
उपजा
समाजवाद
जिसने
’कारसेवकों’
पर
गोलियां
चलवाकर
एक
बड़ा
वोट
बैंक
के
सहारे
यूपी
में
पार्टी
का
बड़ा
ढ़ाचा
तैयार
कर
लिया,
लेकिन
कुनबे
से
उपर
नहीं
उठ
सका
सुरेश गांधी
फिरहाल, मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक उदय
भारतीय राजनीति के समाजवादी और
लोकतांत्रिक होने का जीवंत प्रमाण
है लेकिन राजनीति का चरित्र राजनेता
के चरित्र में भी हो, ये
ज़रूरी नहीं है. 80 का दशक था
जब गोरखपुर वाले वीर बहादुर सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे.
उनके विरोध में लखनऊ के बेगम हजरत
महल पार्क (अब परिवर्तन चौक)
में एक बड़ी रैली
थी। इस रैली में
समाजवाद के एक से
बढ़कर एक पुरोधा जुटे
थे। बहुगुणा जी इन बागियों
के नेता थे. सबके सब बीर बहादुर
सिंह को उखाड़ फेंकने
के नारे लगा रहे थे। उन्हीं चेहरों मे जनेश्वर मिश्र
के बगल में बैठे मुलायम सिंह यादव की दहाड़ से
सभी की निगाहे उन
पर टिक गयी। देखते ही देखते वे
समाजवादियों के हीरो बन
गए। ये वो समय
था जब साइकिल से
चलकर दंगल और मास्टरी करने
वाला सैफई का एक छोटे
कद और मजबूत देह
वाला व्यक्ति सूबे की राजनीति में
एक बड़ा प्रतिमान बन रहा था.
हाल यह रहा कि
इन समाजवादियों के साथ मुलायम
सिंह की लोकप्रियता बढ़ती
गयी और फिर राजनीति
में कभी पलटकर नहीं देखा. 1989 में अजीत सिंह से मुलायम ने
काफी चतुराई से मुख्यमंत्री पद
की कुर्सी भी छीन ली
और सूबे को एक यादव
मुख्यमंत्री मिल गया.
यहां तमाम पुरानी बातों की जिक्र करने
से पहले यहां जान लेना जरुरी है कि अयोध्या
में कारसेवकों पर गोली चलवाने
का मुलायम सिंह यादव का फैसला उनके
राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा
और सबसे विवादित फैसला रहा है. 1990 में कारसेवकों पर दो बार
गोली चली थी. पहली बार 30 अक्टूबर, 1990 को कारसेवकों पर
गोलियां चली. इसमें 5 लोगों की मौत हुई
थी. इसके दो दिन बाद
ही 2 नवंबर को उस वक्त
गोली चली जब हजारों कारसेवक
बाबरी मस्जिद के बिल्कुल करीब
हनुमान गढ़ी के पास पहुंच
गए थे. इसमें करीब ढेड़ दर्जन लोगों की मौत हो
गई. ये सरकारी आंकड़ा
है. खास बात यह है कि
इस पर उन्हें जरा
सा अफसोस भी नहीं हुआ
और कुछ दिनों में मुल्ला-मौलवियों ने मुल्ला मुलायम
का खिताब दे दिया। हालांकि
इसका उन्हें बड़ा राजनीतिक फायदा हुआ था. इससे उनकी मुस्लिम परस्त छवि बनी थी, परिणाम यह रहा कि
तब से लेकर अब
तक कभी कांग्रेस का वोटबैंक रहा
मुस्लिम उसकी तरफ देखा तक नहीं और
सायकिल की सवारी करता
रहा। हालांकि बीच-बीच में भाजपा की बढ़ती ताकत
को देखते हुए बसपा का साथ देने
में भी गुरेज नहीं
किया। बता दें, पूर्व सीएम और समाजवादी पार्टी
के संरक्षक मुलायम सिंह यादव का सोमवार यानी
10 अक्टूबर को सुबह 8.16 बजे
लंबी बीमारी के बाद निधन
हो गया. तीन बार सीएम के पद और
केंद्र सरकार में रक्षा मंत्री रहे मुलायम सिंह को देश के
वरिष्ठ और दिग्गज राजनेताओं
के रूप में जाना जाता है.
केंद्र में चंद्रशेखर सरकार और यूपी में
मुलायम सिंह की सरकार गिरने
के बाद 1991 में हुए लोकसभा के आम चुनाव
और यूपी के विधानसभा चुनाव
में चंद्रशेखर की पार्टी के
जलवा खत्म हो गया था.
तब राज्य में कल्याण सिंहके नेतृत्व में बीजेपी की सरकार बनी
था. साल 1992 में बाबरी मस्जिद गिरनेके बाद मुलायम सिंह ने जनता दल
(समाजवादी) से अलग होकर
समाजवादी पार्टी के रूप में
अपनी अलग पार्टी बनाई. तब तक वो
पिछड़ी जातियों औरअल्पसंख्यकों के बीच खासे
लोकप्रिय हो चुके थे.
उस वक्त मुलायम सिंह काये एक बड़ा क़दम
था. ये उनके राजनीतिक
जीवन के लिए मददगार
साबित हुआ. 2012 का विधानसभा चुनाव
पूर्ण बहुमत से जीतने जीतने
से पहले वो तीन बार
राज्य के मुख्यमंत्री रहे.
लेकिन व कभी अपना
कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए. राज्य
की राजनीति में धाक जमाने के साथ ही
मुलायम सिंह केंद्र की राजनीतिमें भी
अहम भूमिका निभाते रहे. यहां तक कि तीसरे
मोर्चे में वोप्रधानमंत्री पद के प्रबल
दावेदारों में शुमार किए जाते रहे. 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद
गिरने के बाद 1993 में
हुए विधानसभा चुनावमें बसपा के साथ गठबंधन
का मुलायम सिंह का फैसला उनके
राजनीतिक जीवन मेंमील का पत्थर साबित
हुआ. राम लहर के बीच हुए
चुनाव में मुलायम के इसदांव ने
बीजेपी को चारों खाने
चित्त कर दिया था.
पिछड़ी जातियों औरदलितों का गठबंधन बीजेपी
की कमंडल की राजनीति पर
भारी पड़ा था. तब एकनारा उछला
था, मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय
श्रीराम.हालांकि बाद में मायावती गठबंधन तोड़कर बीजेपी के समर्थन से
मुख्यमंत्रीबन गईं थी. लेकिन मुलायम सिंह यादव का ये फैसला
राजनीतिक इतिहास में अपनीखास जगह रखता है.
1999 में मुलायम सिंह यादव ने सोनिया गांधी
के विदेशी मूल का मुद्दा उठाकरएक
बार फिर चौंकाया. दरअसल उस समय अटल
बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वालीएनडीए
की पहली सरकार एक वोट से
गिर गई थी. इसे
गिराने में जयललिता औरसोनिया गांधी ने अहम भूमिका
निभाई थी. तब कुछ विपक्षी
दलों ने सोनियागांधी को
प्रधानमंत्री बनाने की कोशिश की
थी. बीजेपी ने सोनिया गांधी
केविदेशी मूल का मुद्दा उठाते
हुए इसका विरोध किया था. मुलायम सिंह ने भीबीजेपी के
सुर में सुर मिलाकर सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनने
के लिएसमर्थन देने से इंकार कर
दिया था. बाद में कांग्रेस में शरद पवार ने भी येमुद्दा
उठाते हुए बगावत कर दी थी.
वो पीए संगमा और तारिक अनवर
के साथअपनी अलग पार्टी बनाई थी. तब माना ज
रहा था कि इससे
मुलायम सिंह कोराजनीतिक रूप से नुकसान होगा.
लेकिन 1999 के लोकसभा चुनाव
में समाजवादीपार्टी 1998 में जीती 20 सीटों के मुकाबले 25 सीटें
जीती थी. दरअसलमुलायम सिंह ने जनभावनाओं को
भांपकर सोनिया विरोधी बीजेपी के वोटों मेंसेंधमारी
की थी. मुलायम सिंह यादव ने 1993 के चुनाव में
कल्याण सिंह के नेतृत्व मेंबीजेपी
को पटखनी दी थी. साल
2002 में बीजेपी से अलग होने
के बाद कल्याणसिंह ने अपनी अलग
पार्टी राष्ट्रीय क्रांति पार्टी का गठन किया
था. इसकेबाद 2009 लोकसभा चुनाव से पहले सपा
और राष्ट्रीय क्रांति पार्टी ने हाथमिला लिया
था. कल्याण सिंह से हाथ मिलाने
को लेकर मुलायम सिंह यादव कोपार्टी के भीतर मतभेदों
का सामना करना पड़ा था. इसे लेकर मुलायम सिंहयादव ने बाद में
माफी भी मांगी थी.
एक समारोह में मुलायम सिंह यादव नेकहा था कि बीजेपी
नेता और यूपी के
पूर्व सीएम कल्याण सिंह से हाथ मिलानामेरी
सबसे बड़ी गलती थी. इसकी वजह पार्टी को भारी नुकसान
हुआ था, जिसकेचलते उन्होंने कल्याण सिंह से अपना रिश्ता
खत्म कर लिया था.
साल 2009 के लोकसभा चुनाव
के बाद मुलायम सिंह ने अपने सबसे
भरोसेमंद औरपार्टी के सबसे कद्दावर
मुस्लिम चेहरा आजम खान को पार्टी से
निकाल दियाथा. आजम पर रामपुर में
सपा प्रत्याशी जयाप्रदा को हरवाने के
लिए काम करनेका आरोप था. माना जाता है कि मुलायम
सिंह ने अमर सिंह
के दबाव में येफैसला किया था. उस वक्त सपा
में अमर सिंह की तूती बोलती
थी. साल भर बादजब अमर
सिंह का सपा से
पत्ता साफ हुआ तो मुलायम ने
आजम का निलंबन रद्दकरके
उन्हें फिर पार्टी में वापस बुला लिया. मुलायम सिंह ने फरवरी 2010 में
अपनी पार्टी के सबसे कद्दावर
नेता अमरसिंह को पार्टी से
निकालकर उनकी अमरकथा का अंत कर
दिया था. हालांकिइससे पहले अमर सिंह पार्टी के सभी पदों
से इस्तीफा दे चुके थे.
अमर सिंहके खिलाफ निष्कासन की कार्रवाई काफी
चौंकाने वाली थी. अमर सिंह के चलतेही मुलायम
सिंह ने आजम खान,
राज बब्बर और बेनी प्रसाद
वर्मा जैसे अपने कईभरोसेमंद नेताओं को खोया था.
लिहाजा अमर को पार्टी से
निकालने का उनकाफैसला काफी
अहम था. अमर सिंह को पार्टी ने
निकालने पर मुलायम सिंह
पर येतंज किया गया था, ‘सब कुछ लुटा
कर होश में आए तो क्या
किया.’
साल 2012 में उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में 403 में से 226सीटें जीतकर मुलायम सिंह ने अपने आलोचकों
को एक बार फिर
करारा जवाब दियाथा. ऐसा लग रहा था
कि मुलायम सिंह चौथी बार राज्य के मुख्यमंत्री पद
कीकमान संभालेंगे, लेकिन उन्होंने अपने बेटे अखिलेश यादव को मुख्यमंत्रीबनाकर समाजवादी पार्टी
की राजनीति के भविष्य को
एक नई दिशा देने
की पहलकर दी थी. हालांकि,
उनके राजनीतिक सफ़र में उनके हमसफ़र रहे उनके भाईशिवपाल यादव के लिए ये
फैसला सुखद नहीं रहा. इस फैसले से
उनके परिवार मेंदरार पड़ी. बाद में शिवपाल ने अलग पार्टी
बनाई. पार्टी में वर्चस्व कोलेकर जंग हुई. मुलायम को अपने सबसे
करीबी और भरोसेमंद रामगोपाल
यादव कोपार्टी से निलंबित करने
का फैसला करना पड़ा. अखिलेश ने मुलायम सिंह
को हीपार्टी के अध्यक्ष पद
से हटा दिया. बाद में शिवपाल की वापसी हुई
लेकिनअखिलेश ने उन्हें खुले
दिल से स्वीकार नहीं
किया. लेकिन मुलायम सिंह इसदांव से अपने बेटे
अखिलेश के राजनीति में
स्थापित कर गए.
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