एक बार फिर रिकार्ड बनायेंगे ओम बिरला?
देखा
जाएं
तो
कोई
लोकसभा
स्पीकर
दोबारा
संसद
में
नहीं
पहुंचा।
लेकिन
ओम
बिरला
कोटा
संसदीय
क्षेत्र
से
गुंजल
को
पटकनी
देकर
दोबारा
संसद
पहुंच
गए।
कुछ
ऐेसा
ही
देश
के
इतिहास
में
पहली
बार
लोकसभा
स्पीकर
के
लिए
26 जून
को
होने
वाले
चुनाव
को
लेकर
भी
कहा
जा
रहा
है।
आंकड़ों
की
मानें
तो
बहुमत
प्राप्त
एनडीए
की
ओर
से
लोकसभा
स्पीकर
के
लिए
ओम
बिरला
का
चुना
जाना
लगभग
तय
है।
इसके
बावजूद
विपक्ष
यानी
इंडी
गठबंधन
की
तरफ
से
राहुल
गांधी
ने
के.
सुरेश
का
नामांकन
स्पीकर
के
लिए
कराया
है।
उनका
कहना
है
कि
वो
इस
पद
के
लिए
एनडीए
का
समर्थन
करना
चाहते
थे,
लेकिन
वह
उन्हें
डिप्टी
स्पीकर
का
पद
नहीं
दिया
तो
अपना
प्रत्याशी
उतारा
है।
मतलब
साफ
है
सामने
हार
देखते
हुए
भी
राहुल
गांधी
ने
के.
सुरेश
को
मैदान
में
उतार
कर
दलित
कार्ड
खेलने
की
कोशिश
की
है।
जबकि
प्रधानमंत्री
नरेन्द्र
मोदी
की
तरफ
से
यह
मैसेज
देने
की
कोशिश
की
गयी
है
कि
भाजपा
ना
ही
’शर्तों’र्
वाली
राजनीति
करती
है
और
ना
ही
उसे
झुकना
पसंद
है।
फिरहाल,
विपक्ष
का
दलित
कार्ड
से
’इंडि’
कितना
मजबूत
होगी,
ये
तो
26 को
ही
पता
चलेगा।
लेकिन
ओम
बिरला
का
लगातार
दूसरी
बार
स्पीकर
चुना
तय
है
और
दूसरी
बार
लोकसभा
स्पीकर
बनकर
वह
बलराम
जाखड़
के
रिकॉर्ड
की
बराबरी
कर
सकते
हैं।
सबसे
खास
बात
यह
है
कि
मोदी
ने
विपक्ष
को
साफ
संकेत
दे
दिया
है
कि
वह
तीसरे
टर्म
में
भी
किसी
भी
दबाव
वाली
पालिटिक्स
से
समझौता
नहीं
करेंगे.
प्रस्तुत है सीनियर रिपेर्टर सुरेश गांधी की एक विस्तृत रिपोर्ट
सुरेश गांधी
फिरहाल, मोदी का तीसरा टर्म बिना किसी लाग लपेट, दबाव या शर्तों के शुरू हो गया हैं। यह अलग बात है कि बहुमत से दूर इंडि गठबंधन के नेता चाहे वह राहुल गांधी हो या मल्लिका अर्जन खरगे से लेकर शरद पवार व अखिलेश यादव हो, मोदी को दबाव में लेने से बाज नहीं आ रहे है। देश के अब तक के इतिहास में सर्वसम्मति से होने वाले स्पीकर चयन में रोड़े अटकाना भी उसी दबाव की पॉलिटिक्स का एक हिस्सा है। डिप्टी स्पीकर के पद को लेकर विपक्ष की ओर से शर्त रखी गई थी। राजनाथ सिंह से फोन पर बातचीत के दौरान कहा गया कि अगर डिप्टी स्पीकर का पद विपक्ष को मिलेगा तभी स्पीकर के पद पर एनडीए का समर्थन करेंगे। मोदी को विपक्ष की यही दबाव खटकने लगी।
मोदी समझ गए विपक्ष की एक शर्त मानने का मतलब है पूरे कार्यकाल तक दबाव में रहकर काम करना पड़ेगा। जबकि उनके पास एनडीए का बहुमत है। इसी सोच के साथ एनडीए की तरफ से ओम बिडला नाम आगे बढ़ाया गया औ बता दिया गया मोदी पहले की तरह बड़े और कड़े फैसले लेते रहेंगे, जैसा कि उन्होंने जीत के बाद और चुनावी भाषण में कहा था. उधर विपक्ष ने भी सामने हार के समीकरण को देखते हुए भी दलित कार्ड खलते हुए के. सुरेश को उम्मीदवार के तौर पर उतारा है। लेकिन विपक्ष भूल गया िअब देश का वोटर सब समझता है। यदि दलित कार्ड का इतना ही असर होता तो मोदी द्वारा आदिवासी महिला द्रोपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाने के बाद भी वह लाभ नहीं मिला, जिसकी उन्हें उम्मींद थी। हालिया लोकसभा चुनाव में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला। ओमप्रकाश राजभर, अनुप्रिया पटेल व संजय निषाद जैसे जातिय पार्टियों के वोट उसके खाते में नहीं आएं। फिरहाल, संख्या बल के आधार पर ओम बिड़ला का अध्यक्ष बनना तय माना जा रहा है।
बता दें, राजस्थान
की कोटा लोकसभा सीट
से बीजेपी प्रत्याशी ओम बिरला तीसरी
बार चुनाव में विजयी रहे।
लोकसभा अध्यक्ष रहते फिर से
चुनाव जीतने वाले सांसदों की
सूची में दो दशक
बाद ओम बिरला का
नाम दर्ज हुआ है।
बिरला मोदी-2 सरकार में लोकसभा स्पीकर
रहे। पुरानी संसद से नई
संसद तक बिरला स्पीकर
की कुर्सी पर बैठे। बिरला
ने यह चुनाव 41974 वोट
से जीता है। साल
1999 के बाद कोई भी
लोकसभा अध्यक्ष दोबारा चुनाव जीतकर लोकसभा सदन में नहीं
पहुंचा था। कहा जा
सकता है कोटा से
चुनाव जीतकर 20 साल का रिकॉर्ड
तोड़ने वाले ओम बिरला
एक बार फिर दो
दशक बाद दोबारा चुने
गए स्पीकरों की सूची में
शामिल हो गए हैं।
संघ से जुड़े बिरला
बलराम जाखड़ के कार्यकाल
के बाद दुसरे स्पीकर
बनने वाले है। एनडीए
ने स्पीकर पद के लिए
ओम बिरला को उम्मीदवार बनाया
है. वहीं, विपक्षी इंडिया ब्लॉक ने कांग्रेस सांसद
के सुरेश को स्पीकर चुनाव
में उतारा है. नंबरगेम एनडीए
के पक्ष में है.
ऐसे में स्पीकर चुनाव
के लिए वोटिंग महज
औपचारिकता मानी जा रही
है. तीसरी बार के बीजेपी
सांसद ओम बिरला दूसरी
बार स्पीकर बनेंगे. लोकसभास्पीकर के रूप में
अपने पहले कार्यकाल के
दौरान ओम बिरला की
छवि सदन की कार्यवाही
का संचालन बेहतर तरीके से, सबको साथ
लेकर करने वाले स्पीकर
के रूप में बनी.
4 दिसंबर 1962 को जन्मे ओम
बिरला ओम बिरला ने
स्कूल से ही राजनीति
की शुरुआत कर दी थी.
वह साल 1978-79 में मल्टीपरपज स्कूल
में छात्रसंघ अध्यक्ष रहे. इसके बाद
कॉमर्स कॉलेज में उन्होंने छात्रसंघ
का चुनाव लड़ा था, लेकिन
हार गए थे. इसके
बाद 1987 से 1991 तक भारतीय जनता
युवा मोर्चा कोटा के अध्यक्ष
रहे. तीन बार राजस्थान
विधानसभा के सदस्य भी
रहे हैं.
वैश्य बिरादरी से आने वाले
ओम बिरला 1992 से 1995 तक वह राष्ट्रीय
सहकारी संघ लिमिटेड के
उपाध्यक्ष रहे. सहकारी राजनीति
से मुख्यधारा की चुनावी राजनीति
में आए ओम बिरला
की पत्नी अमिता बिरला पेशे से चिकित्सक
हैं. बतौर सांसद 2014 से
2019 के अपने पहले कार्यकाल
के दौरान ओम बिरला कई
संसदीय समितियों में भी रहे.
वह राजस्थान सरकार में संसदीय सचिव
भी रहे हैं और
इस दौरान उन्होंने लीक से हटकर
कई कार्य किए. बिरला अब
तक लड़े 6 बड़े चुनाव में
अजेय रहे हैं. पारिवारिक
पृष्ठभूमि की बात की
जाए तो बिरला का
नाता मध्यमवर्गीय परिवार से था. उनके
पिता श्रीकृष्ण बिरला स्टेट टैक्स विभाग में सरकारी कार्मिक
और मां शकुंतला देवी
गृहणी थीं. बिरला 6 भाई
और तीन बहने हैं.
उनके दो बड़े भाई
राजेश कृष्ण बिरला और हरिकृष्ण बिरला
सहकारी बोर्ड में अध्यक्ष भी
हैं. उनकी दो बेटियां
हैं, जिनमें से बड़ी बेटी
आकांशा विवाहित हैं और चार्टर्ड
अकाउंटेंट हैं. छोटी बेटी
अंजली प्रशासनिक सेवा में हैं.
बिरला ने कोटा में
कई सामाजिक और सांस्कृतिक अभियान
छेड़े हैं, जिनमें देशभक्ति
से लेकर सामाजिक सरोकार
के कार्यक्रम थे. बिरला की
बात की जाए तो
उन्होंने कंबल निधि, सुपोषित
मां अभियान, श्रमवीरों शीतल छांव, सहायक
उपकरण वितरण, हॉस्पिटल ऑन व्हील, परिधान
उपहार केंद्र, प्रसादम प्रोजेक्ट के जरिए भोजन,
मेडिसिन बैंक प्रोजेक्ट, सीएसआर
फंडिंग के जरिए वर्किंग
वुमन और ग्रहणियों की
मदद से मातृत्व ज्ञान
केंद्र, मजदूरों के लिए रैन
बसेरा संचालित करना, कोटा में तिरंगा
यात्राएं निकालना, सीनियर सिटीजन और रिटायर्ड लोगों
का सम्मान समारोह, पौधारोपण के लिए ग्रीन
कोटा कैंपेन भी उन्होंने चलाया
है.
'हारें या जीतें पता नहीं, लेकिन लड़ेंगे...'.
नतीजा सबको पता है
लेकिन अपने सारे कार्ड
इस्तेमाल करना हर पक्ष
चाह रहा है. क्योंकि,
सियासत में हमेशा आपका
सिक्का न सिर्फ चलता
रहे बल्कि आपका सितारा चमकता
भी रहे इसके लिए
जरूरी है कि आप
न सिर्फ अपने दोस्तों बल्कि
अपने विरोधी खेमे
की नब्ज पर भी
पकड़ बनाकर रखें. अमेरिका में राष्ट्रपति जॉन
एफ. केनेडी के नाना जॉन
फिज्जेराल्ड के लिए इस
टर्म का इस्तेमाल किया
जाता था. उनके बारे
में कहा जाता था
कि वह तो उड़ती
चिड़िया से भी अपने
लिए वोट डलवा लें.
सीनेटर और मेयर का
पद उनकी जेब में
माना जाता था. गठबंधन
के दम पर तीसरी
बार सत्ता में आई बीजेपी
किसी भी कीमत पर
विपक्ष को नया मंच
नहीं देना चाहती, यहां
तक कि डिप्टी स्पीकर
पद के लिए भी.
तो वहीं कांग्रेस भी
हर मंच का इस्तेमाल
कर ये बताना चाहती
है कि उसका नंबरगेम
इस बार पिछले दो
कार्यकाल की तरह कमजोर
नहीं है और ना
ही विपक्षी खेमा इस बार
पहले की तरह बंटा
हुआ है. कांग्रेस जानती
है कि स्पीकर चुनाव
में जेडीयू और टीडीपी के
समर्थन के बूते बीजेपी
अपना उम्मीदवार आराम से जीता
ले जाएगी लेकिन कांग्रेस के लिए ये
लड़ाई नंबरगेम में सत्ता पक्ष
को हराने की नहीं, बल्कि
विपक्षी एकता और बदली
हुई स्थिति का एहसास कराना
है. शह-मात के
इस खेल में कौन
हावी रहेगा, जंग अब इस
बात की है. इसलिए
हर कोई आयरिश स्विच
गेम की तरह अपना
हर कार्ड इस्तेमाल कर लेना चाहता
है. क्योंकि हर जंग जीतने
के लिए ही नहीं
बल्कि कुछ जंग नई
परिपाटी शुरू करने के
लिए भी लड़ी जाती
है, कुछ जंग दूरगामी
संदेश देने के लिए
भी लड़ी जाती है.
वैसे भी कहा जाता
है कि राजनीति में
चाल बदलती रहनी चाहिए, हवा
का रुख देखकर. सियासत
में हर चाल के
पीछे कोई न कोई
रणनीति होती है. अब
स्पीकर चुनाव को लेकर जंग
छिड़ गई है तो
उसके अपने नफा नुकसान
होंगे हर दल के
लिए. लेकिन आदर्शस्थिति तो तब होती
जब लोकतंत्र के सबसे संसदीय
पद के लिए इस
जंग की नौबत ही
नहीं आती. आज से
करीब 2000 साल पहले चाइनीज
दार्शनिक सन त्जु ने
अपनी किताब 'द आर्ट ऑफ
वॉर' में लिखा कि
सबसे बड़ी जीत वह
है जिसके लिए किसी लड़ाई
की आवश्यकता ही नहीं हो...'.
सन त्जु की यह
बात हर क्षेत्र में
सदियों से लागू है.
चाहे वो युद्ध का
मैदान हो, सियासत का
अखाड़ा हो या रोजमर्रा
की जीवन. यहां बीस वही
पड़ता है जो गेम
के रूल में फिट
होता रहे. यानी अपने
दांव से अपना मैसेज
देने और अपना पावर
बैलेंस साधने में जिसकी गोटी
फिट हो वही असली
विजेता..
बिरला तोड़गे बलराम जाखड़ का रिकॉर्ड!
लोकसभा स्पीकर के रूप में
लगातार दो टर्म राजस्थान
के ही बलराम जाखड़
रहे हैं. वे साढ़े
9 साल से ज्यादा लोकसभा
स्पीकर रहे हैं. इसमें
पहला कार्यकाल 22 जनवरी 1980 से लेकर 15 जनवरी
1985 तक था. इसके बाद
वो दोबारा लोकसभा स्पीकर चुने गए और
16 जनवरी 1985 से 18 दिसंबर 1989 तक स्पीकर रहे
हैं. इसके बाद वो
मध्य प्रदेश और अन्य जगहों
के राज्यपाल भी रहे हैं.
इसके पहले नीलम संजीव
रेड्डी भी दो बार
लोकसभा के स्पीकर रहे
हैं, लेकिन उनके कार्यकाल में
बीच में कुछ सालों
का अंतर भी रहा
है. उनका कार्यकाल भी
महज ढाई साल के
आसपास रहा है. बिरला
5 साल लोकसभा स्पीकर रह चुके हैं,
अब दोबारा उन्हें एनडीए ने कैंडिडेट बनाया
है और स्पीकर बनने
के पूरे चांस हैं.
ऐसे में वो बलराम
जाखड़ का रिकॉर्ड भी
तोड़ देंगे.
कई महत्वपूर्ण बिल पास कराने का है रिकार्ड
बिरला जून 2019 में 17वीं लोकसभा के
अध्यक्ष बने थे. लगभग
सभी दलों की सर्वसम्मति
से अध्यक्ष चुना गया था.
कई राजनीतिक दलों ने बिरला
को सदन का नेता
चुनने के लिए प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव
का समर्थन किया था. स्पीकर
बनने के बाद लोकसभा
के संचालन में बिरला की
सब तरफ से तारीफ
हुई है. उनके स्पीकर
रहते कई महत्वपूर्ण बिल
पास हुए हैं. साथ
ही लोकसभा में उत्पादकता भी
बढ़ी है. पहली बार
के सांसद, महिला व युवा सांसदों
को भी सवाल पूछने
और बात रखने का
पूरा मौका दिया गया.
यहां तक कि प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने भी
बिरला की सराहना की
थी.
ओम बिरला के जीतने से मजबूत होगी एनडीए
अगर स्पीकर पद
का चुनाव जीत जाते हैं
तो सदन में एनडीए
की स्थिति और मजबूत हो
जाएगी. अगर सदन में
एनडीए का स्पीकर होगा
तो इससे विपक्ष के
मनोबल पर प्रभाव पड़ेगा.
बिरला की जीतने पर
न सिर्फ सरकार का आत्मविश्वास बढ़ेगा,
बल्कि एनडीए सहयोगी दलों में एकजुटता
भी दिखेगी. अगर स्पीकर के
चुनाव में ओम बिरला
को जीत नहीं मिलती
है तो यह सरकार
के लिए बड़ा झटका
होगा, क्योंकि टीडीपी और जेडीयू के
पासा पलटे बिना बिरला
का हारना मुश्किल है. इतना ही
नहीं बिरला अगर चुनाव हारते
हैं तो ऐसा संदेश
जा सकता है कि
बीजेपी के पास सरकार
चलाने के लिए पर्याप्त
बहुमत नहीं है. इसके
अलावा अगर ऐसा होता
है तो बीजेपी पर
हमेशा सरकार गिरने का खतरा बना
रहेगा और वह विपक्ष
के दबाव में रहेगी.
एनडीए का स्पीकर नहीं
होने से सरकार के
सामने सबसे बड़ी समस्या
विधायी कामों में आएगी. साथ
ही सरकार को सदन चलाने
और नए विधेयकों को
पास कराने में दिक्कत होगी.
बहुमत एनडीए के पास है
543 सदस्य वाली लोकसभा में
बीजेपी के पास 240 सीटें
हैं, लेकिन एनडीए के पास कुल
293 सीट हैं. बीजेपी के
बाद एनडीए में टीडीपी और
जेडीयू सबसे बड़े दल
हैं, जिनके पास क्रमशः 16 और
12 सीट हैं. वहीं, अगर
बात करें इंडिया ब्लॉक
की तो इंडिया गठबंधन
के पास 234 सीटें हैं. इसमें कांग्रेस
सबसे बड़ी पार्टी है,
जिसके पास 99 सीट हैं इसके
बाद सपा का नंबर
है, जिसके पास 37 सीट हैं. वहीं
टीएमसी के पास 29 और
डीएमके के पास 22 सांसद
हैं.
15 सांसद चुनाव में निभायेंगे महती भूमिका
लोकसभा में एनडीए और
इंडिया गठबंधन के अलावा 15 ऐसे
भी सांसद हैं, जो लोकसभा
में ताकत समीकरण में
खास भूमिका निभा सकते हैं,
बशर्ते कि वो किसी
ओर रहें. हालांकि वाईएसआर इस बार एनडीए
को इसलिए समर्थन नहीं देगी, क्योंकि
आंध्र की उसकी मुख्य
प्रतिद्वंद्वी पार्टी टीडीपी मोदी सरकार के
एनडीए गठबंधन में शामिल है.
हालांकि मोदी सरकार के
पिछले टर्म में वाईएसआर
कांग्रेस हर पग पर
सत्ता पक्ष के साथ
ही खड़ी नजर आई
थी. इसके अलावा संसद
में 15 ऐसे सांसद हैं,
जो किसी भी गठबंधन
खेल बना या बिगाड़
सकते हैं. इस सदन
में 07 निर्दलीय हैं. जिन्हें 14 दिनों
के अंदर तय करना
होगा कि वो किसी
पार्टी में शामिल होंगे
या फिर अपनी यही
स्थिति बनाकर रखेंगे. इसके अलावा बाकी
सदस्य अन्य दलों के
हैं. इनमें वाईएसआर के 4, अकाली दल, एआईएमआईएम, आजाद
समाज पार्टी और वायस ऑफ
पीपुल्स पार्टी के एक-एक
सदस्य हैं.
आठ बार के सांसद है के. सुरेश
के. सुरेश आठ
बार के सांसद रह
चुके हैं। केवल स्पीकर
पद को लेकर ही
नहीं इससे पहले प्रोटेम
स्पीकर के पद को
लेकर भी सरकार और
विपक्ष के बीच विवाद
देखा गया था। जब
सरकार ने भर्तृहरि महताब
को प्रोटेम स्पीकर बना दिया था।
विपक्ष का आरोप था
कि सरकार ने के. सुरेश
की वरिष्ठता को नजरअंदाज किया
है। इसी के साथ
देश में लंबे समय
से चली आ रही
परंपरा टूट गई। दरअसल,
पहले लोकसभा सत्र को छोड़
दें तो अब तक
निचले सदन में अध्यक्ष
सर्वसम्मति से ही चुना
जाता रहा है। पिछली
बार भी ऐसा ही
हुआ था। हालांकि, इस
बार दोनों ओर से उम्मीदवारों
के नामांकन के साथ ही
सर्वसम्मति से इस पद
पर होने वाली निर्वाचन
की बीते 16 लोकसभा से जारी परंपरा
टूट जाएगी। बता दें, 15 मई
1952 को पहली लोकसभा के
अध्यक्ष का चुनाव हुआ
था। इस चुनाव में
सत्ता पक्ष के जीवी
मावलंकर उमीदवार थे। उनका मुकाबला
शंकर शांतराम मोरे से हुआ
था। मावलंकर के पक्ष में
394 वोट, जबकि 55 वोट उनके खिलाफ
पड़े थे। इस तरह
मावलंकर आजादी से पहले देश
के पहले लोकसभा स्पीकर
बने थे।
असीम है लोकसभा अध्यक्ष की ताकत
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 93 में
लोकसभा के अध्यक्ष के
चुनाव का जिक्र किया
गया है। अनुच्छेद 93 के
अनुसार, लोकसभा को अध्यक्ष और
उपाध्यक्ष की भूमिका के
लिए दो सदस्यों को
चुनने का अधिकार है,
जब भी ये पद
खाली होते हैं। लोकसभा
अध्यक्ष के पद का
हमारे संसदीय लोकतंत्र में एक महत्वपूर्ण
स्थान है। अध्यक्ष उस
सदन की गरिमा और
शक्ति का प्रतीक है
जिसकी वह अध्यक्षता करता
है। पद और वरीयता
के संबंध में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति,
प्रधानमंत्री, अपने-अपने राज्यों
के राज्यपाल और पूर्व राष्ट्रपति,
उप प्रधानमंत्री के बाद छठे
स्थान पर भारत के
मुख्य न्यायाधीश के साथ लोकसभा
अध्यक्ष का पद आता
है।
कैसे होता है लोकसभा स्पीकर का चुनाव?
एक बार जब
लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव की
तिथि राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित हो जाती है
और लोकसभा सचिवालय द्वारा अधिसूचित हो जाती है,
तो कोई भी सदस्य
महासचिव को संबोधित करते
हुए लिखित रूप में प्रस्ताव
दे सकता है कि
किसी अन्य सदस्य को
सदन का अध्यक्ष चुना
जाए। लोकसभा में अध्यक्ष का
चुनाव इसके सदस्यों में
से सभा में मौजूद
और मतदान करने वाले सदस्यों
के साधारण बहुमत द्वारा किया जाता है।
अध्यक्ष के चुनाव के
लिए कोई विशेष योग्यता
निर्धारित नहीं की गई
है और संविधान में
मात्र यह अपेक्षित है
कि वह सभा का
सदस्य होना चाहिए। सामान्यतः
सत्तारूढ़ दल के सदस्य
को ही अध्यक्ष निर्वाचित
किया जाता है। उम्मीदवार
के संबंध में एक बार
निर्णय ले लिए जाने
पर आमतौर पर प्रधानमंत्री और
संसदीय कार्य मंत्री द्वारा उसके नाम का
प्रस्ताव किया जाता है।
प्रस्तुत किए गए प्रस्तावों
का आवश्यकता के अनुसार, सभा
में मत विभाजन द्वारा
फैसला किया जाता है।
यदि कोई प्रस्ताव स्वीकृत
हो जाता है तो
पीठासीन अधिकारी घोषणा करेगा कि प्रस्तावित सदस्य
को सभा का अध्यक्ष
चुन लिया गया है।
नतीजा घोषित किए जाने के
बाद नवनिर्वाचित अध्यक्ष को प्रधानमंत्री और
विपक्ष के नेता द्वारा
अध्यक्ष आसन तक ले
जाया जाता है। इसके
बाद सभा में सभी
राजनैतिक दलों और समूहों
के नेताओं द्वारा अध्यक्ष को बधाई दी
जाती है और उसके
जवाब में वह सभा
में धन्यवाद भाषण देता है
और इसके बाद नया
अध्यक्ष अपना कार्यभार ग्रहण
करता है।
महत्वपूर्ण होता है स्पीकर का पद
भारत में लोकसभा
अध्यक्ष सभा का संवैधानिक
और औपचारिक प्रमुख होता है। वह
सभा का प्रमुख प्रवक्ता
होता है। लोकसभा की
कार्यवाही के संचालन का
उत्तरदायित्व अध्यक्ष पर ही होता
है। लोकसभा अध्यक्ष को संसद के
अपने कर्त्तव्यों के निर्वहन में
आने वाली वास्तविक आवश्यकताओं
और समस्याओं का समाधान करना
पड़ता है। सदन का
संचालन, प्रश्न और अभिलेख, ध्वनि
मत, विभाजन, अविश्वास प्रस्ताव, मतदान और सदस्यों की
अयोग्यता जैसे अहम मामले
अध्यक्ष की शक्तियों में
आते हैं।
मीरा कुमार बनीं पहली महिला लोकसभा अध्यक्ष
उप-प्रधानमंत्री स्वर्गीय
बाबू जगजीवन राम की पुत्री
मीरा कुमार 2009 से 2014 तक लोकसभा की
15वीं अध्यक्ष रहीं। इस पद पर
आसीन होने वाली वे
पहली महिला थीं। मीरा कुमार
कांग्रेस की सदस्य हैं।
भाजपा की सुमित्रा महाजन
16वीं लोकसभा की अध्यक्ष थीं।
वे इस पद पर
आसीन होने वाली भारत
की दूसरी महिला हैं। राजस्थान के
कोटा से भाजपा के
सांसद ओम बिड़ला 17वीं
लोकसभा के अध्यक्ष निर्वाचित
हुए थे।
अब तक के स्पीकर
गणेश वासुदेव मावलंकर
लोकसभा के पहले अध्यक्ष
थे। कांग्रेस के लोकसभा सांसद
मावलंकर का कार्यकाल मई
1952 से फरवरी 1956 तक था। एम.
अनन्तशयनम अय्यंगार देश के दूसरे
लोकसभा अध्यक्ष बने। उन्होंने लोकसभा
के प्रथम अध्यक्ष जी.वी. मावलंकर
के आकस्मिक निधन के बाद
अध्यक्ष पद का दायित्व
ग्रहण किया था। कांग्रेस
पार्टी के सांसद अय्यंगार
के दो कार्यकाल रहे,
जिसमें पहला मार्च 1956 से
मई 1957 तक और दूसरा
मई 1957 से अप्रैल 1962 तक
रहा। सरदार हुकम सिंह अप्रैल
1962 से मार्च 1967 के बीच लोकसभा
के तीसरे स्पीकर थे। वर्ष 1962 के
आम चुनावों में हुकम सिंह
को कांग्रेस के टिकट पर
पटियाला सीट से चुना
गया था। डॉ. नीलम
संजीव रेड्डी ने लोकसभा के
चौथे अध्यक्ष के रूप में
काम किया। रेड्डी के भी दो
कार्यकाल रहे, जिसमें पहला
मार्च 1967 से जुलाई 1669 तक
और दूसरा मार्च 1977 से जुलाई 1977 तक
रहा। रेड्डी चौथी लोकसभा के
लिए आंध्र प्रदेश के हिन्दुपुर सीट
से निर्वाचित हुए थे। नीलम
संजीव रेड्डी ऐसे एकमात्र अध्यक्ष
हैं जिन्होंने अध्यक्ष पद का कार्यभार
सम्भालने के बाद अपने
दल से औपचारिक रूप
से त्यागपत्र दे दिया था।
अध्यक्ष पद पर चुने
जाने के तुरन्त बाद
उन्होंने कांग्रेस की अपनी 34 वर्ष
पुरानी सदस्यता से त्यागपत्र दे
दिया। उनका यह मानना
था कि अध्यक्ष का
संबंध सम्पूर्ण सभा से होता
है, वह सभी सदस्यों
का प्रतिनिधित्व करता है और
इसलिए उसे किसी दल
से जुड़ा नहीं होना
चाहिए या यों कहें
कि उसका संबंध सभी
दलों से होना चाहिए।
वह ऐसे एकमात्र लोकसभा
अध्यक्ष भी थे जिन्हें
सर्वसम्मति से राष्ट्रपति चुने
जाने का सौभाग्य प्राप्त
हुआ। नीलम संजीवा रेड्डी
द्वारा राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने
के लिए लोकसभा अध्यक्ष
पद से त्यागपत्र दिए
जाने पर डॉ. गुरदयाल
सिंह ढिल्लों को अगस्त 1969 में
सर्वसम्मति से लोकसभा अध्यक्ष
चुना गया। जब ढिल्लों
इस पद के लिए
निर्वाचित हुए तो वे
उस समय तक लोकसभा
के जितने अध्यक्ष हुए थे उनमें
से सबसे कम उम्र
के अध्यक्ष थे। कांग्रेस नेता
ढिल्लों ने दो बार
लोकसभा अध्यक्ष के रूप में
कार्य किया। पहला कार्यकाल अगस्त
1969 से मार्च 1971 तक और दूसरा
मार्च 1971 से दिसंबर 1975 तक
रहा। ढिल्लों द्वारा अध्यक्ष पद से त्यागपत्र
दिए जाने के बाद
रिक्त हुए पद पर
जनवरी 1976 में बली राम
भगत को पांचवीं लोकसभा
के अध्यक्ष के रूप में
निर्वाचित किया गया। कांग्रेस
से आने वाले नेता
का कार्यकाल मार्च 1977 को समाप्त हुआ
था। छठी लोकसभा के
अध्यक्ष के रूप में
कावदूर सदानन्द हेगड़े का चुनाव किया
गया। केएस हेगड़े का
कार्यकाल जुलाई 1977 से जनवरी 1980 तक
रहा। यह भी दिलचस्प
था कि हेगड़े 1977 में
जनता पार्टी के टिकट पर
पहली बार निर्वाचित हुए
और अपने प्रथम कार्यकाल
के दौरान ही उन्हें लोकसभा
अध्यक्ष का पद मिल
गया। डॉ. बलराम जाखड़
ने सातवीं लोकसभा के लिए अपने
सर्वप्रथम निर्वाचन के तुरंत बाद
अध्यक्ष पद हासिल किया।
उन्हें लगातार दो बार लोकसभा
अध्यक्ष चुना गया। कांग्रेस
से आने वाले जाखड़
का पहला कार्यकाल जनवरी
1980 से जनवरी 1985 तक और जनवरी
1985 से दिसंबर 1989 तक रहा। एक
हेलीकाप्टर दुर्घटना में तत्कालीन लोक
सभा अध्यक्ष जीएमसी बालायोगी की दुखद मृत्यु
के बाद मनोहर जोशी
मई 2002 में लोकसभा अध्यक्ष
बने थे। शिवसेना से
ताल्लुक रखने वाले जोशी
जून 2004 तक पद पर
बने रहे। जून 2004 में
14वीं लोकसभा के अध्यक्ष के
रूप में सोमनाथ चटर्जी
का सर्वसम्मति से निर्वाचन हुआ।
यह पहली बार था
जब सामयिक अध्यक्ष (प्रोटेम स्पीकर) का लोकसभा अध्यक्ष
के रूप में निर्वाचन
किया गया था। सोमनाथ
चटर्जी माकपा से जुड़े थे।
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