Monday, 23 September 2024

गया श्राद्ध से खुल जाते है स्वर्ग के द्वार

गया श्राद्ध से खुल जाते है स्वर्ग के द्वार 

सनातन में श्राद्ध, पिंडदान और तर्पण करके पूर्वजों को बताया.जाता है कि आज भी वह परिवार का हिस्सा हैं. पितृपक्ष में पूर्वजों का आशीर्वाद लेने से घर में सुख-शांति रहती है. पितृ पक्ष के दौरान पितरों की तिथि के अनुसार तर्पण किया जाता है और उनका मनपंसद भोजन तैयार किया जाता है. कहा जाता है कि इस दौरान गया में पितरों का पिंडदान करने से उन्हें मोक्ष प्राप्त होता है। गरुण पुराण के अनुसार भगवान श्रीराम, माता सीता और लक्ष्मण जी ने गया में ही अपने पिता चक्रवर्ती महाराज दशरथ को पिंडदान किया था। कहते है पितृ पक्ष के दौरान गया में श्राद्ध या पिंडदान करने से पूर्वज स्वर्ग जा सकते हैं। धार्मिक मान्यता है कि भगवान श्रीहरि यहां पितृ देवता के रूप में विराजमान हैं। इसलिए उन्हें पितृ तीर्थ भी कहा जाता है। मान्यता है कि गया जी में पिंडदान करने से 108 कुलों और 7 पीढ़ियों का उद्धार हो जाता है और सीधे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इससे उन्हें स्वर्ग में जगह मिलती है। गया के महत्व के कारण हर साल लाखों लोग अपने पूर्वजों का पिंड दान करने के लिए पहुंचते हैं। अब देश-विदेश से लोग गया पहुंचकर पिंडदान करने और अपने पूर्वजों की मुक्ति के लिए प्रार्थना करते हैं। गया बिहार का एक जिला है, जिसे लोग बड़े आदर सेगयाजीकहते हैं। गया क्षेत्र को धार्मिक नगरी के रूप में भी जाना जाता है। गया जी के हर कोने पर मंदिर हैं, उनमें स्थापित मूर्तियां प्राचीन काल की बताई जाती हैं। हालांकि, सभी की मान्यताएं अलग-अलग हैं 

सुरेश गांधी

सनातन हमारे रहन सहन के तौर तरीको से लेकर पूरे जीवन की सिर्फ एक किताब है, बल्कि उसके बगैर हमारे सोलह संस्कार भी अधूरे है। उन्हीं में से एक है पितृपक्ष। इस अवधि में हर साल पूर्वजों को श्रद्धांजलि दी जाती हैं। पितृ पक्ष में पूर्णिमा श्राद्ध, महा भरणी श्राद्ध और सर्वपितृ अमावस्या का विशेष महत्व होता है। पितृ पक्ष दिवंगत आत्माओं को समर्पित है। उन्हें प्रसन्न करने, क्षमा मांगने और पितृ दोष (पूर्वजों का श्राप) से छुटकारा पाने के लिए है। पितृ पक्ष पितरों के ऋण चुकाने का समय होता है। पितृ पक्ष के दौरान पितरों की मृत्यु तिथि पर श्राद्ध पितृ दोष से मुक्ति मिलती है और पूर्वजों की कृपा से घर में सुख-समृद्धि बनी रहती है। इस अवधि के दौरान जन्म, जीवन और मृत्यु के चक्र से दिवंगत आत्मा को प्रसन्न करने के लिए श्राद्ध, तर्पण और पिंड दान जैसे अनुष्ठान किए जाते हैं। कहते है पितृपक्ष में परलोक गए पूर्वजों को पृथ्वी पर अपने परिवार के लोगों से मिलने का अवसर प्राप्त होता है। वह पिंडदान, श्राद्ध कर्म करने की इच्छा से अपनी संतान के पास रहते हैं। पिंडदान श्राद्ध कर्म करने के लिए देशभर में 55 स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है लेकिन बिहार का गया तीर्थ सर्वोपरि है। इस तरह के अनुष्ठान फाल्गु नदी में किए जाते हैं और उसके बाद विष्णुपद मंदिर, गया में विशेष प्रार्थना की जाती है।

पुराणों में भी पिंडदान के लिए गया को सर्वश्रेष्ठ स्थान बताया गया है. गया में पिंडदान के लिए कोई समय विशेष की बाधा नहीं है. भगवान श्रीराम भी इसी स्थान पर अपने पिता दशरथ का श्राद्ध किया था। इसके बाद कौरवों ने भी इसी स्थान पर श्राद्ध कर्म किया था।गयायां दत्तमक्षय्यमस्तु वायु पुराण में कहा गया है कि गया क्षेत्र में ऐसी कोई तिल भर भी जगह नहीं है, जो तीर्थ ना हो. मत्स्य पुराण में तो गया को पितृतीर्थ तक कहा गया है. इस ग्रंथ में गया तीर्थ में जहां-जहां पितरों की स्मृति में पिंडदान होता है, उसे पिंड वेदी की संज्ञा दी गई है. करीब एक हजार साल पहले तक यहां कुल पिंड वेदियों की संख्या 365 थी. हालांकि अब इनकी संख्या महज 50 रह गई है. इनमें श्री विष्णुपद, फल्गु नदी और अक्षयवट शामिल है. पुराणों में गया तीर्थ को पांच कोस यानी 15 किमी का बताया गया है. मान्यता है कि इस 15 किमी के दायरे में किए गए पिंडदान से 101 कुल और सात पीढ़ियों की तृप्ति होती है. ऐसा होने पर वंशजों को पितरों का आशीर्वाद मिलता है. पिंडदान से पितृदोष दूर होते हैं तो वंशजों का कल्याण होता है. पितृपक्ष के दौरान गया में हर साल एक बार ही मेला लगता है, जिसे पितृ पक्ष मेला कहा जाता है। हिंदुओं के साथ-साथ गया तीर्थ बौद्ध धर्म के लोगों के भी पवित्र स्थल है। बोधगया को भगवान बुद्ध की भूमि भी कहा जाता है। बौद्ध धर्म के अनुयायियों ने अपनी शैली में यहां कई मंदिरों का निर्माण करवाया है। जहां तक गया में बालू से पिंडदान करने के महत्व का सवाल है तो वाल्मीकि रामायण के अनुसार पितृ पक्ष के दौरान भगवान राम, माता सीता और लक्ष्मण पिंडदान करने के लिए गया धाम पहुंचे थे। श्राद्ध करने के लिए कुछ सामग्री लेने नगर की ओर जा रहे थे, तभी आकाशवाणी हुई कि पिंडदान का समय निकला जा रहा है। तभी माता सीता को राजा दशरथ ने दर्शन दिए और पिंडदान के लिए कहा। इसके बाद माता सीता ने फल्गु नदी, वटवृक्ष, केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर फल्गु नदी के किनारे पिंडदान कर दिया। पिंडदान से राजा दशरथ की आत्मा को शांति मिली और आशीर्वाद देकर मोक्ष के लिए चली गई। मान्यता है तभी से यहां बालू का पिंडदान देने की परंपरा शुरू हुई।

गया में पिंडदान की कथा

पुराणों के अनुसार भस्मासुर के वंश में गयासुर नामक राक्षस ने कठिन तपस्या कर ब्रह्माजी को प्रसन्न किया। उसने यह वर मांगा कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाए। उसके दर्शन से सभी पाप मुक्त हो जाएं। ब्रम्हाजी से वर प्राप्त होने के बाद लोग पाप करने के बाद भी गयासुर के दर्शन करके स्वर्ग पहुंच जाते थे। जिससे स्वर्ग पहुंचने वालों की संख्या तेजी से बढऩे लगी। इस समस्या से बचने के लिए देवताओं ने यज्ञ के लिए पवित्र स्थल की मांग गयासुर से की। गयासुर ने अपना शरीर देवताओं को यज्ञ के लिए दे दिया। जब गयासुर लेटा तो उसका शरीर पांच कोस तक फैल गया। इससे प्रसन्न देवताओं ने गयासुर को वरदान दिया कि इस स्थान पर जो भी तर्पण करने पहुंचेगा उसे मुक्ति मिलेगी।

अकाल मृत्यु से मरने वाले पूर्वजों का पिंडदान


प्रेतशिला नाम का पर्वत गया से लगभग 10 किमी की दूरी पर स्थित है. इस पर्वत के शिखर पर प्रेतशिला नाम की वेदी है. प्रेतशिला पर्वत की कुल ऊंचाई 876 फीट है. प्रेतशिला की वेदी पर पिंडदान करने के लिए लगभग 400 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं. ऐसी मान्यता है कि अकाल मृत्यु से मरने वाले पूर्वजों का प्रेतशिला की वेदी पर श्राद्ध और पिंडदान करने का का विशेष महत्व है. इस पर्वत पर पिंडदान करने से पूर्वज सीधे पिंड ग्रहण करते हैं. ऐसा होने के बाद कष्टदायी योनियों में पूर्वजों को जन्म लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती है. प्रेतशिला पर्वत के शिखर पर एक चट्टान है. जिस पर भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों की की मूर्ति बनी है. पर्वत की चोटी पर स्थित इस चट्टान की श्रद्धालुओं द्वारा परिक्रमा कर के सत्तु से बना पिंड उस पर उड़ाया जाता है. प्रेतशिला पर्वत पर सत्तू से पिंडदान करने की परंपरा काफी पुरानी है. इस चट्टान के चारों तरफ 5 से 9 बार परिक्रमा करके सत्तू चढ़ाने से अकाल मृत्यु में मरे पूर्वजों को प्रेत योनि से मुक्ति मिल जाती है

इस प्रेतशिला के पास एक वेदी भी है जिसके ऊपर भगवान विष्णु के चरण चिह्न बने हुए हैं. इसके पीछे की कथा यह है कि यहां भगवान विष्णु गयासुर की पीठ पर बड़ी सी शिला रखकर स्वयं खड़े हुए थे. प्रेतशिला के पास स्थित पत्थरों में विशेष प्रकार की छिद्र और दरारें हैं. इसके बारे में कहा जाता है कि इन पत्थरों के उस पार रोमांच और रहस्य की ऐसी दुनिया है जो लोक और परलोक के बीच कड़ी का काम करती है. इन दरारों के बारे में ये कहा जाता है कि प्रेतात्माएं इनसे होकर आती और अपने परिजनों द्वारा किए गए पिंडदान को ग्रहण करके वापस चली जाती हैं. कहा जाता है कि लोग जब यहां पिंडदान करने पहुंचते हैं तो उनके पूर्वजों की आत्माएं भी उनके साथ यहां चली आती हैं. ये आत्माएं सूर्यास्त के बाद विशेष प्रकार की ध्वनि, छाया या फिर किसी और प्रकार से अपने होने का अहसास भी करावाती हैं. कहा जाता है कि पर्वत पर आज भी भगवान ब्रह्मा के अंगूठे से खींची गई दो रेखाएं देखी जा सकती हैं. कर्मकांड को पूरा करने के बाद पिंडदानी इसी वेदी पर पिंड को अर्पित करते हैं. प्रेतशिला का नाम पहले प्रेतपर्वत हुआ करता था, लेकिन भगवान श्रीराम के यहां आकर पिंडदान करने के बाद इस स्थान का नाम प्रेतशिला हो गया. इस शिला के ऊपर यमराज का मंदिर, श्रीराम दरबार (परिवार) देवालय के साथ-साथ श्राद्धकर्म सम्पन्न करने के लिए दो भी कक्ष बने हुए हैं.

गया में पिंडदान के बाद करें ये काम

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, जो लोग पितृ पक्ष में अपने पूर्वजों के लिए तर्पण करने जाते हैं, उनके लिए कुछ नियम होते हैं जिनका उन्हें वहां से लौटते समय पालन करना होता है। ऐसा कहा जाता है कि जब कोई व्यक्ति घर आता है तो उसे श्रीहरि की पूजा करनी चाहिए और सत्यनारायण कथा पढ़नी या सुननी चाहिए। साथ ही भगवान विष्णु के नाम पर गरीब ब्राह्मणों और उनके परिवारों को भोजन कराना चाहिए। इसके बाद ही श्राद्ध पूर्ण माना जाता है और इसके लाभकारी परिणाम सामने आते हैं। पितृ दोष से भी मुक्ति मिलती है। पितृ पक्ष के दौरान मांसाहारी भोजन का सेवन सख्त वर्जित है। प्याज, लहसुन, चना, जीरा, काला नमक, काली सरसों, खीरा, बैगन और मसूर की दाल, काली उड़द की दाल जैसी सामग्री का सेवन बिल्कुल नहीं करना चाहिए। ज्योतिषियों के अनुसार, गया में पितृ तर्पण के बाद, घर पहुंचने पर कुछ काम करने आवश्यक है। घर पहुंचकर सबसे पहले भगवान विष्णु की पूजा करें और सत्यनारायण कथा सुनें। साथ ही भगवान विष्णु के नाम से प्रार्थना करें। अपने पितरों के नाम पर ब्राह्मणों और उनके परिवारों को भोजन कराएं। इसे गया श्राद्ध भी कहा जाता है। इस विधि से श्राद्ध करने से तर्पण समाप्त माना जाता है और आपको सुखद परिणाम मिलता है।

गया में कभी भी किया जा सकता है पिंडदान

वैसे तो पिंडदान के लिए शास्त्रों में कुछ समय निर्धारित किए गए हैं, लेकिन गया में पिंडदान के लिए कोई काल निषिद्ध नहीं है. इस स्थान पर अधिकमास, जन्मदिन, गुरु-शुक्र के अस्त होने पर, गुरु वृहस्पति के सिंह राशि में होने पर पिंडदान किया जा सकता है. जबकि बाकी किसी भी स्थान पर इस समय में पिंडदान और तर्पण वर्जित है. विभिन्न पौराणिक ग्रंथों में गया में पिंडदान के लिए कुछ विशेष समय का उल्लेख किया गया है. गरुड़ पुराण के मुताबिक जब सूर्य मीन, मेष, कन्या, धनु, कुंभ और मकर में हों तो गया में किया गया पिंडदान अधिक फलदायी होता है. इसी प्रकार हर साल भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन के अमावस 16 दिनों तक किया गया पिंडदान भी विशेष भलदायी होता है. इन 16 दिनों को ही मिलाकर पितृपक्ष कहा गया है. साल के बाकी दिनों में तो ज्ञात पितरों को तर्पण किया जाता है, लेकिन पितृ पक्ष में सभी ज्ञात-अज्ञात पितर पिंडदान ग्रहण करते हैं.

सावधानियां

पुराण के अनुसार गया में श्राद्ध करने वालों को कई नियम का पालन करना अनिवार्य होता है. कैसा आचरण करना, किस प्रकार रहना, जब गया तीर्थ आए तो श्राद्ध भूमि को नमस्कार करना, एकांतवास करना, जमीन पर सोना, पराया अन्न नहीं खाना, पितृ स्मरण या देवता स्मरण में रहना सब श्राद्ध में विधान बताया गया है. जो श्रद्धालु गया तीर्थ यात्रा करने जाते है उन्हें इन नियमों का पालन करना आवश्यक है. गया तीर्थ यात्रा अपने पितरों के उत्तम लोक के प्राप्ति हेतु कर रहे हैं इसलिए उन्हें एकांतवास में रहना या किसी अन्य स्थल पर रह कर श्राद्ध कार्य पूरा कर सकते हैं. इसलिए कोई भी तीर्थ यात्री अपने निजी सगे-संबंधी के घर नहीं रह सकते.

गया में पिंडदान का महत्व

ब्रह्मा जी ने गयासुर को वरदान दिया था, जो भी लोग गया में पितृपक्ष के अवधि में इस स्थान पर अपने पितर को पिंडदान करेगा उनको मोक्ष मिलेगा. गया क्षेत्र में तिल के साथ समी पत्र के प्रमाण पिंड देने से पितर का अक्षयलोक को प्राप्त होता है. यहां पर पिंडदान करने से ब्रह्महत्या सुरापान इत्यादि घोर पाप से मुक्त होता है. गया में पिंडदान करने से कोटि तीर्थ तथा अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है. यहां पर श्राद्ध करने वाले को कोई काल में पिंड दान कर सकते है. साथ ही यहां ब्राह्मणों को भोजन करने से पितर की तृप्ति होती है. गया में पिंडदान करने के पहले मुंडन कराने से बैकुंठ को जाते है, साथ ही काम, क्रोध, मोक्ष को प्राप्ति होती है. गयाजी में उपस्थित फल्गू नदी, तुलसी, कौआ, गाय, वटवृक्ष और ब्राह्मण उनके द्वारा किए गए श्राद्धकर्म की गवाही देते है.

क्यों किया जाता है पिंडदान?

पिंडदान का प्रसंग सबसे पहले गरुड़ पुराण में आया है. इसमें मृत्यु के अगले दिन से लेकर 10 दिनों तक पिंडदान की बात कही गई है. कहा जाता है कि शुरू के नौ दिनों तक किए गए पिंडदान से मृतात्मा को एक हाथ के नए शरीर का निर्माण होता है और 10वें दिन के पिंडदान से उसे ताकत मिलती है. इसी ताकत के दम पर वह यमलोक का सफर तय करता है. अब यहां मृतात्मा को पिंडदान का कितना लाभ होगा, इसका निर्धारण पूर्व जन्म में किए गए उसके कर्मों से होता है. यदि व्यक्ति के जीवन काल में अच्छे कर्म होंगे तो उसे सभी पिंड प्राप्त होंगे और वह सहज तरीके से अपने सफर पर निकल सकेगा. वहीं यदि कर्म बुरे होंगे तो यमदूत उसे पिंड हासिल नहीं करने देते. ऐस हालात में कमजोर देह के साथ वह धक्का खाते हुए अपने सफर में आगे बढ़ता है. चूंकि मृतात्मा को 16 नगरों से होते हुए 86 हजार योजन की दूरी 47 दिनों में तय करनी पड़ती है. इसके बाद आत्मा को पुर्नजन्म में 40 दिन का समय लगता है.

कौन किसको कर सकता है पिंडदान?

गरुड़ पुराण में पिंडदान के अधिकार के बारे में बताया गया है. इसमें कहा गया है कि पिंडदान का पहला अधिकार पुत्र या पति को है. यदि पुत्र या पति हो तो मृतक के भाई या परिवार के अन्य लोग तर्पण कर सकते हैं. यहां उत्तराधिकारी के रूप में पौत्र और प्रपौत्र द्वारा भी पिंडदान का वर्णन मिलता है. अक्सर यहां सवाल उठता है कि पिंडदान बेटियां कर सकती हैं कि नहीं, तो इस सवाल पर गरुड़ पुराण में कहीं अनुमति तो नहीं दी गई है, लेकिन कोई मनाही भी नहीं है. ऐसे में इस संबंध में फैसला लोक व्यवहार के आधार पर लिया जा सकता है.

गया के अलावा भी कई जगह होता है पिंडदान 

उत्तर पौराणिक ग्रंथों में गया के अलावा भी पिंडदान के लिए कुछ स्थान बताए गए हैं. इनमें पहले स्थान पर देवभूमि हरिद्वार में नारायणी शिला का नाम आता है. मान्यता है कि यहां तर्पण करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है. इसी प्रकार मथुरा में यमुना किनारे बोधिनी तीर्थ, विश्रंती तीर्थ और वायु तीर्थ पर भी पिंडदान किया जाता है. मान्यता है कि यहां तर्पण करने से पितर खुश होते हैं और वंशजों पर कृपा करते हैं. इसी क्रम में तीसरा स्थान महाकाल नगरी उज्जैन में शिप्रा के तट पर पिंडदान का महत्व है. प्रयागराज के त्रिवेणी तट पर भी पिंडदान का विशेष महत्व बताया गया है. मान्यता है कि यहां स्नान और पिंडदान से पितरों के पाप धुल जाते हैं और उन्हें जन्म मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है. इसी क्रम में अयोध्या में सरयू तट पर भात कुंड और काशी में गंगा तट पर भी पितरों के लिए पिंडदान का महत्व बताया गया है. उत्तर पौराणिक ग्रंथों के मुताबिक यहां पिंडदान ग्रहण करने के बाद पितर भगवान के परम धाम को चले जाते हैं. इसी प्रकार जगन्नाथ पुरी को भी पिंडदान के लिए श्रेष्ठ स्थान माना गया है. इन स्थानों के अलावा राजस्थान में पुष्कर और हरियाणा में कुरुक्षेत्र के ब्रह्मसरोवर में भी पिंडदान का महत्व उत्तर पौराणिक ग्रंथों में मिलता है. कहा तो यह भी गया है कि यदि कोई व्यक्ति ऊपर बताए गए स्थानों पर नहीं जा पा रहा तो वह अपने निकटतम सरोवर या नदी के किनारे भी पिंडदान कर सकता है. वाराणसी भगवान शिव की बहुत पवित्र नगरी है. दूर-दूर से लोग आकर यहां पर अपने पूर्वजों का पिंडदान  करते हैं. बनारस के कई घाटों पर अस्थि विसर्जन और श्राद्ध के कर्म कांड किए जाते हैं. चारों धामों में से एक बद्रीनाथ को श्राद्ध कर्म के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है. बद्रीनाथ के ब्रह्मकपाल घाट पर श्रद्धालु सबसे ज्यादा संख्या में पिंडदान करते हैं. यहां से निकलने वाली अलकनंदा नदी पर पिंडदान किया जाता है. भगवान कृष्ण मथुरा में पैदाहुए थे इसलिए इस पवित्र स्थान का पुराणों में बहुत महत्व है. मथुरा में भगवान कृष्ण के अनेक धार्मिक स्थल मौजूद हैं. यहां पर वायुतीर्थ पर पिंडदान किया जमथुरा में तर्पण कर लोग अपने पूर्वजों को प्रसन्न करते हैं. एक पौराणिक कथा के अनुसार गयासुर नामक असुर ने ब्रह्मा जी को यज्ञ के लिए अपना शरीर दिया था. जिसके फलस्वरूप गयासुर नामक असुर के मुंह वाले हिस्से पर बिहार का गया पितृ तीर्थ, नाभि वाले हिस्से पर जाजपुर का पितृ तीर्थ और गयासुर के पैर वाले हिस्से पर राजमुंदरी का पीठापुरम पितृ तीर्थ है. इस तीर्थस्थल को लेकर कहा जाता है कि गयासुर नाम एक असुर था. ये असुर होकर भी लोगों की भलाई किया करता था, यज्ञ में भाग लिया करता था. कहते हैं कि इस राक्षस ने ब्रह्मा जी के कहने पर अपना शरीर यज्ञ के लिए दिया था. मान्यता के अनुसार ब्रह्मा जी ने सबसे पहले गया को श्रेष्ठ तीर्थ मानकर यज्ञ किया था. पौराणिक मान्यता के अनुसार ओडिशा का जाजपुर नाभि गया क्षेत्र कहा गया है.  एक कथा के अनुसार ब्रह्मा जी के कहने पर गयासुर ने यज्ञ के लिए जब अपना शरीर दिया था तो इसी जगह पर उसकी नाभि थी. इस स्थान को भी श्राद्ध और तर्पण के लिए उत्तम माना गया है. पीठापुरम आंध्रप्रदेश में स्थित है. इस पीठापुरम को पिष्टपुरा भी कहते हैं. यज्ञ के लिए शरीर देने पर पीठापुरम में ही गयासुर का पैर था. इसलिए इसे पद गया नाम से भी जाना जाता है. पीठापुरम त्रिगया क्षेत्रों में से एक है. इसकी विशेष मान्यता है.

कौए को भोजन, पितरों को मिलती है संतुष्टि

पितृ पक्ष में कौए, गाय, कुत्ते और चींटी को भोजन कराने से पितरों को शांति मिलती है. इससे पितरों का आशीर्वाद मिलता है। परिवार पर उनका आशीर्वाद..बना रहता है. पितरों की आत्मा को संतुष्टि मिलती है. मान्यता है कि अगर कौए ने श्राद्ध का भोजन खा लिया है तो इसका मतलब है कि पितरों ने भी भोजन ग्रहण कर लिया है। पितरों के लिए बनाए गए भोजन में से पंचबली भोग यानी कौए, गाय, कुत्ते, चींटी और देवों का भोग निकालना जरूरी माना जाता है। कहते हैं कि पितृ उनके रूप में धरती पर आते हैं। गरुड़ पुराण में कौए को यम का प्रतीक माना गया है। अगर कौए श्राद्ध का भोजन ग्रहण कर लें तो पितरों की आत्मा तृप्त हो जाती है। इतना ही नहीं कौए को भोजना कराने से यमराज प्रसन्न होते हैं और पितरों की आत्मा को भी शांति मिलती है। गरुड़ पुराण के अनुसार, यम देवता ने कौए को वरदान दिया था कि अगर पितृ पक्ष में किसी ने भोजन खिलाया तो उसे कई गुना अधिक लाभ प्राप्त होगा। हिंदू धर्म में कौओं को पितरों का दर्जा दिया गया है. यही वजह है कि पितृ पक्ष हो या कोई भी शुभ कार्य पितरों को याद करते हुए लोग कौओं को भोजन कराते हैं. कौवों को पितरों का प्रतीक माना जाता है, क्योंकि यह मान्यता है कि पितरों की आत्माएं कौए के रूप में आकर अपने वंशजों से भोजन और पूजा ग्रहण करती हैं. कौए बिना थके लंबी दूरी की यात्रा तय कर सकते हैं. ऐसे में किसी भी तरह की आत्मा कौए के शरीर में वास कर सकती है और एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकती है. इन्हीं कारणों के चलते पितृ पक्ष में कौए को भोजन कराया जाता है. धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक, जब किसी व्यक्ति की मौत होती है तो उसका जन्म कौआ योनि में होता है.पौराणिक कथा के मुताबिक, इंद्र देव के बेटे जयंत ने कौए का रूप धारण किया था. राम जी ने जब कौए की एक आंख में तिनका चला दिया, तो कौए ने श्रीराम से माफी मागी. इसके बाद, भगवान राम ने उसे आशीर्वाद दिया कि पितृ पक्ष में कौए को दिया गया भोजन पितरों को मिलेगा. ऐसा माना जाता है कि कौवे को भविष्य में होने वाली घटनाओं का थोड़ा-थोड़ा आभास हो जाता है. कौवे को अतिथि के आगमन का संकेत भी माना जाता है.

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