हरियाणा व घाटी के नतीजे महाराष्ट्र और झारखंड में सिर चढ़कर बोलेंगे
आतंक
और
डर
के
आगे
जम्मू
कश्मीर
में
लोकतंत्र
की
जीत
हई
है।
जबकि
हरियाणा
में
भाजपा
की
हैट्रिक
का
असर
महाराष्ट्र
और
झारखंड
के
चुनावों
में
सिर
चढ़कर
बोलेगा।
हालांकि
कांग्रेस
को
भी
जम्मू-कश्मीर
की
जीत
से
बूस्टअप
मिलने
की
उम्मीद
रहेगी.
यह
अलग
बात
है
कि
बीजेपी
भले
ही
जम्मू
कश्मीर
में
सरकार
नहीं
बना
पा
रही
है,
पर
एक
राष्ट्र
के
निर्माण
के
रूप
में
कश्मीर
में
सफलतापूर्वक
चुनाव
करवाकर
दुनिया
भर
को
संदेश
है
कि
जम्मू-कश्मीर
के
लोगों
ने
प्रचंड
बहुमत
से
भारतीय
लोकतंत्र
पर
मुहर
लगाई
है.
कश्मीर
घाटी
के
लोगों
ने
विकास,
शांति,
टूरिज़्म
की
वापसी
और
समृद्धि
की
तुलना
में
मज़हब
को
चुना.
उनका
लोकतांत्रिक
अधिकार
है.
पर
कश्मीर
भारत
का
मुकुट
है.
वहां
हार
जीत
से
परे,
भारत
की
और
संविधान
की
जीत
हुई
है।
कश्मीर
की
तरक़्क़ी
होगी
और
वह
दिन
भी
आएगा
जब
लोग
मज़हब
से
उठकर
वोट
करेंगे।
खास
यह
है
कि
योगी
ने
भिवानी,
हिसार,
नारनौंद,
पंचकुला,
फरीदाबाद,
हांसी,
जींद,
सोनीपत,
बल्लभगढ़,
पृथला,
बड़खल,
अटेली,
रादौर,
जगाधरी,
यमुनानगर,
साढोरा,
नरवाना,
राय
विधानसभा,
कलायत,
बवानीखेड़ा,
असंध
आदि
सीटों
पर
प्रचार
किया
था।
इनमें
80 फीसदी
से
अधिक
सीटों
पर
बीजेपी
की
जीत
हुई
है
सुरेश गांधी
हरियाणा और जम्मू-कश्मीर
विधानसभा चुनाव के नतीजों की
स्थिति स्पष्ट हो चुकी है.
हरियाणा में बीजेपी की
हैट्रिक लगी है, जबकि
घाटी में कांग्रेस गठबंधन
सरकार बनाते दिख रही है।
दोनों ही राज्यों में
90-90 सीटों के लिए वोटिंग
हुई थी। जम्मू-कश्मीर
में तीन फेज जबकि
हरियाणा में एक फेज
में वोटिंग हुई थी। हरियाणा
में सत्तारूढ़ बीजेपी पहले भी यह
भरोसा जता चुकी थी
कि वह लगातार तीसरे
कार्यकाल के लिए सत्ता
बरकरार रखने में कामयाब
होगी। या यूं कहे
हरियाणा में बीजेपी ने
हैट्रिक लगाकर इतिहास रचा है. 52 साल
बाद वहां कोई सरकार
लगातार तीसरी बार सत्ता में
पहुंची है. बीजेपी को
49 सीटें, जबकि कांग्रेस को
34 सीटे मिली है. परिणामों
से साफ हो चला
है कि हरियाणा के
शहरी वोटरों ने कांग्रेस को
खारिज कर दिया है.
शहरी हरियाणा में बीजेपी को
30 में से 21 सीटें मिली हैं। जबकि
कांग्रेस को सिर्फ़ 5 सीटों
पर संतोष करना पउ़ा है।
गांवों में बराबरी की
टक्कर दिखी है. यह
अलग बात है कि
जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस
और कांग्रेस सरकार बनाने जा रही है।
एनसी-कांग्रेस को 52 सीटों मिली है जबकि
बीजेपी 27 सीटें। बता दें, हरियाणा
में जाटों ने भी बीजेपी
का साथ दिया है.
2019 में बीजेपी 30 फीसदी जाट सीट जीती
और 2024 में 51 फीसदी जाट सीटों पर
बढ़त मिली है. उधर,
जम्मू-कश्मीर में भी बीजेपी
अच्छा प्रदर्शन करते हुए 27 सीटे
हथियाने में सफल रही
है। महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी
को सिर्फ 2 सीटों ही मिली है.
फिरहाल, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर
विधानसभा चुनावों के परिणाम घोषित
होने के बाद देशभर
के लोगों की निगाह अब
महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा
चुनावों की घोषणा होने
पर लग गई है।
सूत्रों का कहना है
कि अगले सप्ताह तक
चुनावों की घोषणा होने
की उम्मीद है। इसी के
साथ ही 46 विधानसभा और दो लोकसभा
सीटों पर भी उपचुनाव
होने की घोषणा की
जा सकती है। वैसे
भी झारखंड विधानसभा का कार्यकाल अगले
साल 5 जनवरी 2025 को खत्म होना
है। जबकि महाराष्ट्र विधानसभा
का कार्यकाल 26 नवंबर को खत्म हो
रहा है। ऐसे में
महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव
26 नवंबर से पहले कराए
जाने हैं, लेकिन झारखंड
के लिए थोड़ा वक्त
है। लेकिन, जानकारों का कहना है
कि दोनों राज्यों के चुनाव लगभग
एक साथ ही कराए
जाएंगे। इसका एक और
बड़ा कारण दिसंबर-जनवरी
में अधिक ठंड का
पड़ना भी रहेगा। जहां
तक हरियाणा के नतीजों का
सवाल है तो वहां
भाजपा के खिलाफ एंटी
इनकंबेंसी, किसानों का गुस्सा, केंद्र
सरकार की उपेक्षा, पूर्व
सीएम मनोहरलाल खट्टर की अलोकप्रियता, खिलाड़ियों
के खिलाफ अन्याय पर रोष व
अग्निवीर योजना पर आक्रोश जैसे
कांग्रेस के मुद्दे हवा
हो गए। जबकि कांग्रेस
इन्हीं मुद्दों को लेकर अपने
जीत के प्रति आश्वस्त
थी। कांग्रेस को उम्मीद थी
कि जाट बीजेपी के
खिलाफ एकजुट होकर उन्हें वोट
करेंगे. जाटों की राज्य में
आबादी लगभग 25 फीसदी है.
लगभग 40 सीटों पर उनका सीधा
प्रभाव है. कृषि कानूनों
के खिलाफ किसानों का गुस्सा, विनेश
फोगाट, साक्षी मलिक जैसे खिलाड़िययों
के खिलाफ हुए अन्याय पर
रोष, पिछली दो सरकारों में
जाटों की उपेक्षा का
दंश जैसी वजहों से
जाट भाजपा के खिलाफ थे.
उनके इस गुस्से को
कांग्रेस अपने पक्ष में
मानकर चल रही थी.
इन सभी बातों से
कांग्रेस को लगा कि
जाटों का एकमुश्त वोट
उन्हें ही जाने वाला
है. लेकिन वे यह नहीं
समझ पाए कि भाजपा
ने पिछली दो सरकारें इन्हीं
जाटों के खिलाफ गैर
जाट जातियों को एकजुट करके
बनाई थीं. इन जातियों
में बनिया-ब्राह्मण-राजपूत प्रमुख तौर पर हैं.
ओबीसी जातियों को सीएम सैनी
ने इस बार भी
जाटों के खिलाफ गोलबंद
किया. जैसे ही जाटों
की एकजुटता के बारे में
गैर जाट जातियों को
अहसास हुआ वे काउंटर
पोलराइज हो गईं. साथ
ही इस बार भी
जाट वोट बांटने के
लिए जेजेपी, इनेलो जैसी पार्टियां भी
मैदान में थीं. चूंकि
राज्य में दलित जातियां
भी लगभग 19 फीसदी हैं. इनके लिए
17 सीटें रिजर्व हैं. पिछली बार
भाजपा ने 4 सीटों पर
ही जीत हासिल की
थी जबकि इस बार
पार्टी 7 सीटें जीतने में सफल हो
गई. ऐसा भी माना
जा सकता है कि
इनेलो, जेजेपी और बसपा, आजाद
समाजवादी पार्टी जैसी पार्टियों के
गठबंधन ने भी दलितों
के वोट काटे. पिछले
लोकसभा इलेक्शन में राज्य में
कांग्रेस 5 लोकसभा सीटें जीतने में कामयाब हो
गई थी जिसके पीछे
दलित वोटों का बड़ा हाथ
माना गया था. इस
बार ऐसा लगता है
कि दलित, ओबीसी, सवर्ण गठजोड़ के माध्यम से
भाजपा पिछली बार छिटके वोटबैंक
की साधने में कुछ हद
तक सफल रही.
जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस
और कांग्रेस गठबंधन बहुमत मिला है। बीजेपी
27 सीटे ही जीत सकी।
महबूबा मुफ्ती हवा हो गयी।
निर्दलीय और छोटी पार्टियों
को 9 सीटे हाथ लगी
है। जम्मू पहले की तरह
बीजेपी को बढ़त मिली
है. जम्मू रीजन में जब
सीटों की सख्या कम
होती थी तब भी
बीजेपी लगातार कई चुनावों से
25 से 26 सीटों को जीतती रही
है. 2014 और 2007 में जब सीटें
बढ़ाकर 43 सीटें कर दी गई
तो भी बीजेपी 27 सीटे
जीती है। जबकि, कश्मीर
घाटी में बीजेपी एक
भी सीट पर आगे
नहीं है. मतलब साफ
है कि बीजेपी अनुच्छेद
370 को जम्मू कश्मीर से हटाकर भी
जहां थी वही हैं.
बीजेपी के लिए यह
चिंता का विषय हो
सकता है पर एक
देश और राष्ट्र के
रूप में यह खुशी
की वजह है. मोदी
सरकार ने वादा किया
था कि वह जम्मू-कश्मीर को अलग-थलग
पड़ने नहीं दिया जाएगा.
सरकार बहुत पहले से
कहती रही है कि
जम्मू कश्मीर में चुनाव जल्द
ही होंगे. इस बीच सुप्रीम
कोर्ट का आदेश आ
गया कि जम्मू कश्मीर
में सरकार अतिशीघ्र चुनाव करवाए. सरकार चाहती तो कानून व्यवस्था
का हवाला देकर चुनाव में
अड़ंगा लगा सकती थी.
पर सरकार ने न चाहते
हुए भी अपना वादा
पूरा किया. सरकार जानती थी कि चुनाव
जीतने के उनकी पार्टी
ने उचित तैयारी अभी
नहीं की है। फिर
भी कश्मीर मे चुनाव संपन्न
करवाया गया. बीजेपी भले
ही जम्मू कश्मीर में सरकार नहीं
बना पा रही है
पर एक राष्ट.के
निर्माण के रूप में
कश्मीर में सफलतापूर्वक चुनाव
करवाना दुनिया भर को संदेश
है कि भारत ने
कश्मीर पर अवैध कब्जा
नहीं किया हुआ है.
कश्मीर में शांतिपूर्ण चुनाव
होते हैं और सभी
को अपना मनपसंद जनप्रतिनिधि
चुनने का अधिकार है.
बेशक, जम्मू कश्मीर में पिछले कई
दशकों से जो चुनाव
हो रहे हैं वो
आतंक के साये में
होते रहे हैं. तमाम
आतंकी गुटों की दहशत के
साये में चुनाव सही
मायने में चुनाव नहीं
थे. क्योंकि बहुत से लोग
वोट नहीं करते और
बहुत से लोग चुनाव
नहीं लड़ते थे. कई
बार वोटिंग परसेंटेज इतना कम होता
था कि वो पूरी
आबादी का 10 परसेंट भी मतदान नहीं
करते थे। बीजेपी के
’नया कश्मीर’ में सुरक्षा पर
ज्यादा जोर दिया गया.
सरकार ने आतंकवाद, अलगाववाद
और.पत्थरबाजी के खिलाफ जो
कार्रवाई की, उसका लोगों
ने स्वागत किया. हालांकि बीजेपी को इसकी कीमत
भी चुकानी पड़ी. क्योंकि बहुत
से लोगों को ऐसा भी
महसूस किया गया कि
अभिव्यक्ति की आजादी को
दबाया जा रहा है.
बीजेपी इस आम धारणा
को बदलने में कामयाब नहीं
हो सकी कि असहमति
को दबाने के लिए डराया
जा रहा है. आतंकी
गुटों को भी लगा
कि अगर निष्पक्ष चुनाव
हो रहें हैं तो
उसका लाभ उठाना चाहिए.
बीजेपी पर प्रतिबंधित जमाते
इस्लामी को कश्मीर में
बढ़ावा देने, टेरर फंडिंग के
आरोपित सांसद इंजीनियर रशीद की पर्दे
के पीछे मदद करने
का भी आरोप लगा
पर चुनाव में हर पक्ष
को अपनी बात कहने
का मौका मिला. प्रतिबंधित
जमात-ए- इस्लामी जो
चुनाव बहिष्कार का हिस्सा रही
है, वह अब लोकतंत्र
का गुणगान करती देखी गई.तमाम प्रतिबंधित संगठनो
के ऐसे लोग जो
पहले आतंकवादी घटनाओं में लिप्त रहे
हैं उन्हें भी लोकतंत्र के
इस उत्सव में भाग लेने
का मौका मिला.
सबसे बड़ी बात
ये रही कि जिन
लोगों को भारतीय संविधान
में विश्वास नहीं था कम
से कम इस चुनाव
के बहाने उन्होंने भारतीय संविधान को स्वीकार किया.
चुनावी फायदे के लिए बीजेपी
ने अल्ताफ बुखारी की अपनी पार्टी
और सज्जाद लोन की पीपुल्स
कॉन्फ्रेंस जैसी पार्टियों के
साथ गठबंधन कर नेशनल कॉन्फ्रेंस
और पीडीपी का खास दबदबा
कम करने की कोशिश
की. हालांकि इन पार्टियों के
साथ गठबंधन बीजेपी के लिए कुछ
खास फायदेमंद साबित नहीं रहा. अनुच्छेद
3.70 की समाप्त कर केंद्र ने
जम्मू कश्मीर के चुनावों को
पहले से अधिक लोकतांत्रिक
बना दिया. पहली बार जम्मू
कश्मीर में अनुसूचित जनजातियों
के लिए नौ सीटें
आरक्षित की गईं हैं,
जबकि अनुसूचित जातियों के लिए सात
सीटें आरक्षित की गईं हैं.
यही नहीं जम्मू कश्मीर
के चुनावों में वाल्मीकि, गुरखा,
भारत पाक विभाजन के
समय पश्चिमी पाकिस्तान से आकर बसे
नागरिकों को वोट डालने
का अधिकार नहीं था. कोई
भी लोकतंत्र अगर अपने सभी
नागरिकों को वोटिग राइट
नहीं देता है तो
वह अधूरा ही कहलाएगा. यहां
जिक्र करना जरुरी है
कि राजीव गांधी की सरकार ने
1987 में कश्मीरी मुस्लिम आबादी को चुनाव में
वोट देने से वंचित
कर दिया था. कश्मीर
में संघर्ष के पीछे के
कारकों में से एक
बहुत बड़ा कारण था.
1987 में चुनावों में की गई
ज़बरदस्त हेराफेरी, उन कई कारकों
में से एक थी,
जिनमें पाकिस्तान और उसकी खुफिया
एजेंसी आईएसआई द्वारा की गई हेराफेरी
भी शामिल थी, जिसके कारण
जम्मू-कश्मीर में व्यापक आक्रोश
पैदा हुआ और परिणामस्वरूप
1989 तक घाटी में उग्रवाद
और आतंकवाद का उदय हुआ.
दरअसल जम्मू और कश्मीर के
राज्यपाल जगमोहन ने 1986 में गुलाम मोहम्मद
शाह के नेतृत्व वाली
अवामी नेशकॉन्फ्रेंस सरकार को बर्खास्त कर
दिया, जिससे घाटी में गुस्सा
भड़क उठा. जगमोहन की
कार्रवाई को कश्मीर की
मुस्लिम बहुल पहचान को
कमजोर करने केरूप में
देखा गया. इन चुनावों
में इतने बड़े पैमाने
पर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने धांधली करवाई
थी कि सज्जाद लोन
के पिता अब्दुल गनी
लोन ने दुखी होकर
कहा इससे भारत सरकार
के खिलाफ लोगों की भावनाएं और
गहरी होंगी. अगर लोगों को
वोट डालने की अनुमति नहीं
दी जाएगी, तो उनका जहर
राष्ट्र-विरोधी भावनाओं की अभिव्य.क्ति
के अलावा और कहां जाएगा?
घाटी के विभिन्न भागों
से जिला आयुक्तों के
कार्यालयों में चुनावी धांधली
की खबरें आईं. घाटी के
विभिन्न भागों में पार्टी मुख्यालयों
और जिला आयुक्तों के
कार्यालयों में चुनावी हेराफेरी
और बलपूर्वक तरीकों की खबरें आती
रहीं. पट्टन में मतदान केंद्रों
से नेशनल कॉन्फ्रेंस के लिए पूर्व-मुद्रित सम्पूर्ण मतपत्र पुस्तिकाएं बरामद की गईं, जिनमें
से सभी मतपत्रों के
काउन्टरफॉयल मौजूद थे. रिपोर्ट के
अनुसार, इसी प्रकार की
पूर्व-स्टाम्प लगी हुई पुस्तकें
एमयूएफ एजेंटों को ईदगाह, हंदवाड़ा
और चौदुरा में मतदान अधिकारियों
से मिलीं। एमयूएफ उम्मीदवारों ने खान साहिब
और हजरतबल में बूथ कैप्चरिंग
का भी आरोप लगाया
था, जहां नेशनल कॉन्फ्रेंस
(एनसी) के कार्यकर्ताओं के
गिरोह मेटाडोर वैन में सवार
होकर मतदान केंद्रों में घुस गए
और पुलिस असहाय होकर देखती रही.
हालांकि, सरकारी ने आरोपों और
शिकायतों पर आंखें मूंद
लीं और इसके बजाय
विपक्षी नेताओं पर कार्रवाई शुरू
कर दी. परिणामस्वरूप, चुनावों
में फारूक अब्दुल्ला की जम्मू-कश्मीर
नेशनल कॉन्फ्रेंस और प्रधानमंत्री राजीव
गांधी के नेतृत्व वाली
कांग्रेस के गठबंधन को
भारी जीत मिली. कांग्रेस
ने जहां सभी 26 सीटों
पर जीत हासिल की,
वहीं नेशनल कॉन्फ्रेंस को 46 सीटों पर चुनाव लड़कर
40 सीटों पर विजयी घोषित
किया गया. फिलहाल केंद्र
सरकार ने भारत सरकार
के उस पाप को
धुल दिया है. जिसके
दूरगामी परिणाम होना निश्चित है.
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