Sunday, 17 November 2024

अब हाईटेक होती ‘‘वैवाहिक रस्में’’

                 अब हाईटेक होती ‘‘वैवाहिक रस्में’’

हमारे देश में शादी का जश्न किसी त्योहार से कम नहीं होता है। किसी घर में शादी का माहौल हो तो मानों सारी खुशियां उसी घर में बसती है। आजकल तो वैसे भी भव्य शादियों का ट्रेंड हैं. और यही भव्य ट्रेंड हमारी पुरानी रीति-रिवाज रस्मों को निगल रही है। सोशल मीडिया के इस दौर में शादी से पहले प्री से पोस्ट वेडिंग तक का फोटो सेशन वीडियोग्रफी चलन में पारंपरिक रस्में इतिहास बनती जा रही है। चाहे वो टीका गोद भराई का हो या चाक पूजा, हल्दी, हलदात, मढ़हा, मेंहदी, सुहाग की पिटारी, वर की घुडचढ़ी, द्वारचार, वर-माला, सात फेरे, मांग में सिंदूर, गठजोड़, हाथ पीले करना, जूते छुपाना, विदाई, धन-धान्य फेंकना, वधू द्वारा चावल का कलश गिराना, चावल फेंकना, वधू के पैरों की छाप, मुंह दिखाई, द्वार रोकना, गांठ खोलना, ध्रुव-तारा दिखाना, जुआ के रुप मं अंगूठी ढूढ़ना, सुहागरात से लेकर सहबल्ला तक सभी रस्में अब आधुनिक हो चली है। या यूं कहें विवाह के हर रस्म को ग्रैंड और आकर्षक रूप दिया जा रहा है। हाल यह है कि शहर में होने वाली लक्जरी शादियों में महिला संगीत, हल्दी, मेंहदी में ही लाखों रुपये खर्च किए जा रहे हैं। हल्दी मेंहदी सेरेमनी भी म्यूजिकल कांॅन्सर्ट की तरह आयोजित हो रहे है। इसके लिए अलग-अलग राज्यों से कलाकार, ड्रमर, म्यूजिशियन रहे हैं। क्रिस्टल प्रॉप्स, मेनीक्वींस, मूविंग लाइट्स को शामिल किया जा रहा है। कई वेडिंग्स में बैक डांसर्स को भी बुलाया जा रहा है। बारात में मुंबई, दिल्ली, गोवा से डीजे बीट बेंड, ड्रमर्स सिंगर्स को बुलाया जा रहा है। हर रस्म में सेल्फी बूथ बन रहे है। अलग-अलग प्रकार के क्रिस्टल, एनिमल प्रॉप्स को भी शामिल किया जा रहा है। मतलब साफ है आधुनिक शोर-शराबे के बीच गुम होती जा रहीं वैवाहिक परंपराएं। वैवाहिक कार्यक्रम के दौरान निभाई जाने वाली अधिकांश रश्मों को भूलती जा रही युवा पीढ़ी। वर और वधू पक्ष के परिवारों को माटी से जोडऩे वाली अधिकांश परंपराएं समाप्त हो चुकी हैं या विलुप्त होने की कगार पर हैं 

                  सुरेश गांधी

बेशक, जिंदगी का सबसे हसीन पलविवाहएक ऐसा संस्कार है जो दो दिलों को एक करता है। विवाह वो खूबसूरत कविता है, जिससे जुड़ी रस्में उसकी मिठास भरी धुन हैं। या यूं कहे रीति-रिवाजों के इस प्रांगण में रस्मों की परंपराएं, वह चाहे बारात की अगवानी के समय दुल्हन द्वारा दूल्हेराजा के चेहरे पर चावल फेंकने की हो या फिर सासू मां द्वारा अपनी प्यारी बहू की मुंह दिखाई की हो या कभी मेंहदी की रस्म..., कभी हाथ पीले करना..., कभी अंगूठी ढूढ़ना..., कभी सांस द्वारा दुल्हें की नाक खींचना..., कभी साले द्वारा जीजा का कान मरोड़ना...हर रस्म के साथ के साथ प्यार का बंधन बंधता चला जाता है। साथ ही दो परिवारों और कितने ही अन्य लोगों को रिश्तों की कड़ी में पिरोता है। लेकिन लेकिन आधुनिकता के इस दौर में प्यार, उल्लास और मौज-मस्ती के इस माहौल को ताउम्र यादों में बसाए रखने वाली रस्में इवेंट का रुप ले चकी है।

रस्मों में निभाई जाने वाली परिवार के सदस्यों की भूमिका अब किस्से-कहानी बन गए है। विवाह के समय खुशियों और उमंगों को दोगुना करने के लिए संगीत, हल्दी, मेंहदी, शादी और रिसेप्शन तक पर आधुनिकता का रंग इस कदर चढ़ा है कि परिवार की तो छोडिए रिश्ते-नाते भी किराएं के होते जा रहे है। भागमभरी जिंदगी में पांच दिनों तक होने वाले वैवाहिक कार्यक्रम घंटे-दो घंटे की औपचारिकता में सिमटता जा रहा है। बरातघर और मैरिज गार्डन के घनचक्कर में अब घर के आंगन कुंवारे रह जाते हैं। शहनाई की वह मधुर तान बैंड और डीजे के शोर में दब गई है। जबकि मुझे वो दौर भी याद है जब शहनाई के बगैर विवाह कार्यक्रमों की शुरुवात ही नहीं होती थी। घोड़ी और बग्घी की जगह आधुनिक कारों ने ले ली है। विवाह के नए स्वरूप में वर और वधू पक्ष के रिस्तेदार एक-दूसरे को पहचान भी नहीं पाते हैं। वधू पक्ष का कौन पैर पड़कर चला जाता है वर पक्ष के लोगों को इसका पता ही नहीं होता है। 

हालात यह होते हैं कि दूल्हे तक को पता नहीं होता है कि कौन-कौन लोग उसके पैर पड़कर चले गए। लोगों को मामा और फूफा जैसे नजदीकी रिस्तों के बारे में भी ज्यादा पता नहीं होता है। पूरा वैवाहिक कार्यक्रम दूल्हां और दुल्हन के आपपास सिमटता जा रहा है। रिस्तेदारों की भूमिका धीरे-धीरे घटती जा रही है। वैवाहिक कार्यक्रमों में मागर माटी का विशेष महत्व होता था। मागर माटी में गांव की महिलाएं गाजे-बाजे के साथ मिट्टी को खोदकर लाती थी, उसी मिट्टी से मड़वे के पास चूल्हा बनता था। इसी चूल्हे में विवाह के एक दिन पहले रौ छौकने की रश्म निभाई जाती थी। इन्हीं चूल्हों में लावा परोसने की रश्म निभाने के लिए लावा भूंजने की रश्म भी निभाई जाती थी। अब रिस्तों को आपस में जोडऩे वाली ये रश्म अब महज औपचारिकता तक सिमटकर रह गई हैं। लेकिन कड़वा सच यह है कि विवाह के दौरान होने वाले रस्म एक-दुसरे से घुलने मिलने का अवसर होता है। कन्यादान की प्रक्रिया में वधू के पिता के प्राण भी वर के प्राण से युक्त हो जाते हैं। इनके भी सात पीढिय़ों के प्राण एकाकार हो जाते हैं। दो परिवारों के मिलन का अवसर होता है। आज गंधर्व विवाह का युग आरंभ हो चुका है। कोर्ट कचहरी के चक्कर में ये रस्में हवा-हवाई हो चले है।

विवाह दो परिवारों का मिलना होता ही नहीं है। वैवाहिक कार्यक्रमों में धोबिन की भी भूमिका रहती थी। जब तक धोबिन सुहागन नहीं देती थी तब तक विवाह पूर्ण नहीं माना जाता था। मौर सिराने के लिए परिवार एवं गांव की महिलाएं एक साथ गाजे  बाजे के साथ नदी जाती थी। वैवाहिक कई दिनों तक चलते थे जो अब एक दिन में हो जाते हैं। बिटिया की विदायी में पूरा गांव उमड़ पड़ता था। गांव की बिटिया को ससुराल में किसी प्रकार की परेशानी नहीं हो इसलिए गांव के लोग नकद राशि के साथ ही गृहस्थी में उपयोग होने वाली सामग्री भी उपहार में भेंट करते थे। अब तो विदाई कार्यक्रम में महज रश्म अदायगी होती है। अब तो हालात यह होते हैं कि विवाह कार्यक्रम के समापन के पूर्व ही कई रिस्तेदार जा चुके होते हैं। विदाई के दौरान वधू के परिवार के ही चंद लोग मौजूद होते हैं। बारातियों को पैर धुलाकर पंगत में बैठाकर भेजन कराने की परंपरा तो पूरी तरह खत्म हो गयी है। मड़वा के नीचे सालेय उमर के पेड़ की डगाल लगाई जाती थी। जिससे वर वधू इसके परिक्रमा लगाने के बाद जनम-जनम के साथी बन जाते थे। इसका भी वैज्ञानिक आधार होता था। आज लोग इस को नहीं मानते है जिस कारण कईयों के वैवाहिक जीवन सुखी नहीं रहते हैं।

घर के आंगन मे नौ खम्बे होते थे जिनके बीच में मड़वा होता था जिसके फेरे लगाए जाते थे वे सभी दस इंन्द्रीयों के होते थे। सालेय पेड़ प्रेम की प्रतीक है। मेहंदी हल्दी के दिन के लिए दुल्हन का आउटफिट, जूलरी सब अलग और नया अरेंज होता है। मेहंदी फंक्शन के लिए, अलग लहंगा होता है, ब्राइडल फूलों वाली जूलरी होती है, जहां मेहंदी का फंक्शन अरेंज किय गया हो, वो जगह फूलों से सजाई जाती हैं, डीजे होता है, खाना-पीना होता है, और होती हैं, दुल्हन की सजी-धजी ढेर सारी सहेलियां।द्वार छिकाई की जगह अब दरवाजे पर रिबन बांध दिया जाता है, जिसे दूल्हे को काटना होता है। पूरी शादी का सबसे इमोशल मोमेंट, सबसे इमोशनल रस्म विदायी में अब रोना-धोना खत्म हो गया है। पैरों से चावल से भरा कलश गिराना की रस्म करना तो दूर चर्चा भी नहीं होती जबकि यह उसके नए घर और नए जीवन की शुरुआत का प्रतीक माना जाता है। साथ ही घर में सम्रद्धि और सौभाग्य लाने का भी। इस रस्म को देवी लक्ष्मी के घर में प्रवेश करने का पर्याय माना जाता है। जूता चुराई में साली को सगुन देने के बजाय पैसे के लिए लड़ाई का कारण तक बन जाता है।

इवेंट्स से जुड़े लोगों का कहना है कि अब वो दौर नहीं रहा है, जब संगीत केवल अलग-अलग प्रकार की प्रस्तुतियों तक ही सीमित रहे। शहर में होने वाली लग्जरी शादियों में महिला संगीत में ही दो से 15 लख रुपए खर्च किए जा रहे हैं। महिला संगीत में अबब मशहूर गायकों, बैंड्स और फोक आर्टिस्ट की प्रस्तुतियों को शामिल किया जा रहा है। गानों की च्वाइस में भी बदलाव नजर रहा है। बॉलीवुड, हॉलीवुड गानों के साथ ही कार्निवल थीम, म्यूजिक, टॉलीवुड म्यूजिक जैसे फ्यूजन, पॉप म्यूजिक, इलेक्ट्रॉनिक्स डांस म्यूजिक, सिनेमैटिक म्यूजिक को लोग शामिल कर रहे हैं। लंदन दुबई की तरह इस बार अधिकतर संगीत सेरेमनी में अबीबा डिजाइन, स्टार कॉन्सेप्ट लाइटिंग का इस्तेमाल किया जा रहा है। घर वालों की प्रस्तुतियों के साथ ही अब कथक, भरतनाट्यम, फोक डांस, क्लासिकल डांस के लिए अलग-अलग राज्यों के मशहूर पारंपरिक डांसरों को बुलाया जा रहा है। 


स्थानीय
कलाकारों को भी रोजगार के बेहतर अवसर मिल रहे हैं और अपने हुनर को दुनिया के सामने दिखने का मौका भी मिल रहा है। साधारण कोरियोग्राफी छोड़ नवदंपति जोड़े अलग-अलग स्टोरी पर आधारित प्रस्तुतियों की तैयारी कर रहे हैं। संगीत सेरेमनी, हल्दी, मेहदी वैवाहिक मौकों पर सेल्फी प्वाइंट भी बनाए जा रहे हैं। इसमें अलग-अलग प्रकार के क्रिस्टल, एनिमल को भी शामिल किया जा रहा है। एंट्रेंस से लेकर स्टेज तक अलग-अलग प्रकार की क्रिस्टल मिनी क्वींस का इस्तेमाल किया जा रहा है। स्टेज पर इस्तेमाल होने वाले प्रॉप्स में कॉस्मिक लव थीम को शामिल किया जा रहा है। एलीट शादियों में संगीत के लिए कंसर्ट की तरह सैटअप्स बनाए जा रहे हैं। बॉलीवुड की तरह ही डीम लाइटिंग, एक्रेलिक थीम्स, एमआइ बार मूविंग लाइट्स, काइनेटिक बॉल्स, क्रिस्टल पॉप, सेल्फी पॉप्स, एनिमल प्रॉप्स, मेनीक्वींस पर लोग सबसे अधिक निवेश कर रहे है। 

लड़की की शादी में भाई की जिम्मेदारी काफी अहम मानी जाती है। सगांई से लेकर विदाई तक भाई हर वक्त साथ रहता है। फेरे के वक्त वधू का भाई नवदंपति के हाथों में खील देता है, जिसे वह विवाह की वेदी में अर्पित करती है। कन्यादान के दौरान भी माता-पिता की तरह भाई की भूमिका बेहद अहम होती है। विवाह के बाद पगफेरे की रस्म के लिए वधू का भाई ही उसकी ससुराल जाता है और वह उसी के साथ पहली बार मायके आती है। बारात निकलने से पहले दूल्हे के जीजा उसके सिर पर सेहरा बांधते हैं। वधू की बहनों की भागीदारी तो जगजाहिर है कि वे किस तरह जीजाजी के जूते चुराकर उनसे पैसे वसूलती हैं। इसी तरह जब भाई नववधू को लेकर घर में प्रवेश कर रहा होता है तो बहनें भाई-भाभी का रास्ता रोककर माहौल को खुशनुमा बना देती है। शादी की ज्यादातर रस्में बुआ के द्वारा ही निभाई जाती हैं। इस दौरान बुआ को माता- पिता नेग के रूप में गहने, कपड़े और रुपए देते हैं।

शादी के रोज वर-वधू को खिलाने के लिए विशेष भोजन तैयार करने का काम भी बुआ ही करती है। बंदनवार सजाने की जिम्मेदारी वर या वधू के फूफा को निभानी होती है।शादी में वर-वधू दोनों के ननिहाल पक्ष की, खास तौर से मामा की जरूरी भूमिका होती है। मामा पक्ष की ओर से वर-वधू सहित उनके परिवार के लोगों के लिए कपड़े, गहने, फल, मिठाइयां, मेवे आदि भेजे जाते हैं। पंजाब में शादी के एक रोज पहले वधू को चूड़ा पहनाने की रस्म भी मामा-मामी द्वारा ही निभाई जाती है। सभी प्रांतों में बहन के बच्चों के विवाह के अवसर पर भाई द्वाराभात देनेजैसी रस्मों की रवायत है। शादी से पहले बारात निकालने की परंपरा लगभग सभी जगह है। हमेशा दूल्हे के साथ किसी खूबसूरत और घर के छोटे-बच्चे को बिठाया जाता है। माना जाता है कि बच्चे के बैठने से बहू पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और भविष्य में वह भी ऐसे ही बच्चे की मां बने इसकी कामना की जाती है। 

टीका गोद भराई

विवाह निश्चित हो जाने पर शुभ मुहूर्त देखकर कन्या पक्ष वर का टीका करके उसके मंगल की कामना करते हैं। वर पक्ष की महिलाएं कन्या की गोद भराई की रस्म करती हैं। इस मौके पर उसे कपड़े, आभूषण, मिठाई आदि भेंट की जाती हैं। कन्या को चुनरी ओढ़ाकर उसका श्रृंगार किया जाता है। साथ ही उसकी गोद में एक गुड्डा भी बैठाया जाता है। इस तरह वे उसे विवाह के बाद वंशवृद्धि का आर्शीवाद देती हैं। इस मौके पर वर-कन्या एक दुसरे को अंगूठी भी पहनाते हैं।

चाक पूजा

शादी से पूर्व वर वधू के यहां चाक पूजा होती है। चाक मिट्टी को किसी भी रुप में ढाल सकता है। चाक पूजकर इस बात का आर्शीवाद मांगा जाता है कि वर-वधू एक सांचे में ढल जाएं और उनका जीवन सुखद रहे।

हलदात

यह रस्म भी कन्या वर के घर में अलग-अलग होती हैं। इसमें उन्हें पटले पर बैठकार उनके सामने एक ओखली में जौ, नमक हल्दी की गांठ रखी जाती हैं। उसमें दो मूसल भी रखी जाती हैं। घर की दो-दो महिलाएं मिलकर उसे सात-सात बार मूसल से कूटती हैं। यह ध्यान रखा जाता है कि मूसला आपस में टकराएं नहीं। इसके पीछे यही कामना होती है कि वर कन्या आपस में मिल-जुलकर रहें। मतभेद होने पर भी लड़ाई-झगड़ा हो, बाद में इस सामाग्री का उबटन बनाकर विवाह योग्य अविवाहित लड़कियों को दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि जो लड़कियां यह उबटन लगाएंगी, उनका विवाह भी जल्दी हो जायेगा।

मढ़हा

विवाह से पूर्व मंत्रोचार के साथ पंडित जी यह रस्म कराते हैं। सभी के घर में अलग-अलग ढंग से मडहा गाड़ने की प्रक्रिया होती है। मगर हर कहीं इस रस्म को पूरा करने के लिए ननदोई या दामाद की भूमिका अहम् होती है और इस काम के लिए उन्हें नेग भी दिया जाता है। ऐसा करके घर में समृद्धि की कामना की जाती है।  

मेंहदी

मेंहदी का रंग जितना गहरा होगा, ससुराल में उतना ही प्यार मिलेगा। यही वजह है दुल्हन की मेहदीं शादी से पहले रचाई जाती है।

सुहाग की पिटारी

फेरों से पहले वर पक्ष वधू के लिए सुहाग पिटारी बरी देते हैं। सुहाग पिटारी में सोलह श्रृंगार की सामाग्री बरी में वधू के लिए वस्त्र और उसके भाई-बहनों के लिए खेल-खिलौने होते हैं। इसका अर्थ है कि ससुराल में उसे कभी किसी चीज की कमी नहीं होगी।

वर की घुडचढ़ी

घोडी सभी जानवरों में सबसे अधिक चंचल और कामूक मानी जाती है। इसीलिए वर को घोडी की पीठ पर बैठकार बारात निकाली जाती है जिससे वह इन दोनों बातों को स्वयं पर हावी होने दें बल्कि अपने नियंत्रण में रखें। घोडी को प्रसंन करने के लिए घर के दामाद उसे चने की भीगी दाल खिलाते हैं और इसके लिए भी दामाद को नेग मिलता है।

द्वारचार

द्वारचार में वरपक्ष कन्यापक्ष से मिलता है, ताकि वे दोनों एक-दूसरे को समझ सकें। इस परंपरा का अर्थ है कि पूरे शहर में बारात को घुमाकर लोग यह जान जाएं कि दूल्हा कैसा है, साथ ही जो बारात आई है वह तयशुदा है। बारात द्वार पर पहुंचने पर दुल्हें की आरती के बाद एक दिलचस्प रिवाज है। तिलक करते हुए सांसू मां दुल्हें की नाक पकड़ने कोशिश करती हैं। कहा जाता है कि दामाद की नाक सास ने पकड़ ली तो वह जीवन भर उनकी बिटिया का कहना मानेगा। वर के भाई जीजा उन्हें ऐसा करने से रोकने का प्रयत्न करते हैं। कई जगह ससुर या उसका शाला दुल्हें को अपनी बांहों में भरकर मंडप या स्टेज तक लेकर जाते हैं।

वर-माला  

वरमाला के समय पहले लड़की वर के गले में जयमाल पहनाकर विवाह के लिए अपनी स्वीकृति प्रदान करती है। उसके बाद वर भी वधू को जयमाल पहनाकर स्वीकृति पर मोहर लगाता है।  

सात फेरे  

विवाह पूरा तभी माना जाता है जब वर-वधू अग्नि के चारों ओर सात फेरे लेते हैं। सात फेरे लेने का यह अर्थ माना जाता है कि पति-पत्नी का साथ सात जन्मों का होता हैं। हर फेरे में पति-पत्नी कुछ कसमें भी खाते हैं, जिन्हें उन्हें जीवनभर निभाना होता है।

मांग में सिंदूर भरना

विवाह मंडप में पगफेरों के समय दूल्हा अपनी दुल्हन की मांग में लाल रंग का सिंदूर भरता है, ताकि वह सदा सुहागन रहे समाज में उसकी पत्नी के रूप में जानी जाए। मांग में भरा सिंदूर इस बात का प्रतीक है कि पति का प्रेम सदा वधू के साथ हैं। यानी प्रतीकात्मक रूप से दुल्हन  द्वारा माथे पर सिंदूर लगाया जाता है कि वह शादीशुदा है और सिंधूर वधू को मर्यादा में रहने का संदेश देता है।   

गठजोड़

फेरों के समय बहन द्वारा वर-वधू की गांठ जोड़ी जाती है। यह इस बात का एहसास कराता है कि शादी से पूर्व वर-वधू अलग-थलग थे। अब इस बंधन में बंधकर एक हो गए हैं, इसलिए वैवाहिक जीवन में वे सभी एक-दुसरे से मिलकर काम करेंगे।

हाथ पीले करना

कन्यादान से पहले कन्या के माता-पिता वर-वधू के हाथ पीले करते हैं क्योंकि कन्या को लक्ष्मी का रुप माना जाता है और लक्ष्मी का प्रतीक है हल्दी। इसलिए लक्ष्मी समान कन्या विष्णु स्वरुप वर को दी जाती है। वैसे भी हल्दी का लेप हथेलियों पर लगाने से उसकी सुगंध शवास और रोमछिद्रो द्वारा शरीर में प्रवेश करती है और इससे शरीर के रोगाणु नष्ट हो जाते हैं।

जूते छुपाना

दूल्हे की सालियों हरे दुपट्टे वालियों जूते दे दो पैसे ले लो...‘ जीजा-साली की प्यारभरी नोकझोंक से भरा फिल्महम आपके हैं कौनका यह गाना आपने जरूर सुना होगा। इसमें सालियां अपने प्यारे जीजाजी को परेशान करने के लिए उनके जूते छुपाती हैं और बदले में पैसों की मांग करती हैं। लेकिन जीजा उनके दोस्त अपनी नखरैली सालियों को छेड़ने के चक्कर में उन्हें पैसे नहीं देते और जूतों को ढूंढ़ने की कोशिश करते हैं। वैवाहिक समारोहों के ये रस्मो-रिवाज केवल फिल्मों में ही नहीं, अपितु आम जीवन में भी हंसी-ठिठोली के रूप में लोगों द्वारा निभते चले आए हैं। इस रस्म से दूल्हे का मूल्यांकन भी किया जाता है।  

विदाई

भींगी आंखों से करती सवाल वो कातर स्वर में रोती क्यों कर दिया पराया आंगन? क्यों दिया मुझे देश निकाला? रहती, रचती-बसती मैं भी काश! आज मैं बेटी होती। सुन बेटी की अंतर्नाद आंखों ही आंखों में कहती मां उससे, सुन मेरी आंखों की ज्योति जनक रख पाएं सीता हिम रोक सके थे बेटी हम क्यों करते तुझे जो जग में रहकर मजबूर करते। ये घर पराया द्वार बंद हैं हृदय कपाट खुले है सबके आहट तेरी जब पाएंगे हम, सब तुमको साथ मिलेंगे सुख हो दुख हो याद किया तो तेरे संग-संग हम भी चलेंगे साथ तुम्हारे हम भी चलते जो मर्यादा होती। फूलों की डोली में तुझको एक नई बगिया भेजा है महके जीवन तेरा, तू महकाएं सबका। सबके दिल पर राज करे उस घर का भी श्रृंगार बने तू सुन ले बात मेरी यह बेटी रहे कहीं भी जाकर अपनी जाई कभी पराई नहीं होती.

धन-धान्य फेंकना

विदाई के वक्त लड़की दोनों हथेलियों में चावल, बताशे और पैसे भरकर पीछे फेंकती है। इस रस्म के पीछे धारणा यही होती है कि लक्ष्मी रुपा बेटी की विदाई के बाद भी मायका धन-धान्य से भरा रहे।

वधू द्वारा चावल का कलश गिराना

बधू के गृह प्रवेश के समय उसके पैर से चावल से भरा कलश गिराया जाता है। ऐसा करने के पीछे मान्यता है कि आज से वह इस घर की अन्नपूर्णा है और भोजन पर ध्यान रखने का दायित्व अब उसका है।

चावल फेंकना

दूल्हे के स्वागत के समय दुल्हन स्वागत स्थल पर आकर दूल्हे का मुंह देखकर हल्दी के चावल उसके ऊपर फेंकती है, ताकि वह अपने भावी जीवनसाथी को विवाह पूर्व देख सके कि वह उसके अनुकूल है या नहीं।  

वधू के पैरों की छाप

विवाह के बाद गृहप्रवेश के सयम वधू को गेरु या कुमकुम के घोल वाली परात में पैर रखकर घर में प्रवेश कराया जाता है क्योंकि वधू को लक्ष्मी का रुप माना जाता है और उसके पैरों की छाप को लक्ष्मी के चरण माना जाता है।

मुंह दिखाई

मुंह दिखाई की रस्म में सासू मां पड़ोस की महिलाएं नववधू का घूंघट खोलकर उसे नेग देती हैं कि कहीं उनकी प्यारी वधू को नजर लग जाए, इसलिए बलैया लेती हैं। यह परंपरा बहू के चेहरे को देखने के लिए शुरू की गई।

द्वार रोकना 

शादियों में वर-वधू का द्वार सालियां बहनें रोकती हैं। इसके चलते दूल्हे द्वारा उन्हें नेग दिया जाता है। इसका एक पक्ष ससुराल में बहन द्वारा अपनी भाभी से परिचय करना भी है, जिससे दोनों के बीच अपनत्व की भावना पनप सके।  

गांठ खोलना

इस रोचक रिवाज में दुल्हा-दुल्हन एक-दुसरे की हाथ में बंधे कंगन की गांठों को खोलते हैं। इसमें दुल्हें को एक हाथ से गांठ खोलना होती है और दुल्हन दोनों हाथों को काम में ले सकती हैं। जो पहले गांठ खोलता है वह जीतता है। यह माना जाता है कि जीतने वाला जीवन में आने वाली समस्याओं को सुलझाने में अधिक सफल होगा।

ध्रुव-तारा दिखाना

विवाह के बाद वर-वधू को रात में ध्रूवतारें के दर्शन कराएं जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि वे अपने गृहस्थ जीवन में ध्रुव-तारे की तरह स्थिर रहें।

अंगूठी ढूढ़ना

यह रस्म विवाह के बाद दुल्हें के परिवार के बीच खेली जाती है। एक परात को दूध पानी से भर दिया जाता है फिर उसमें अंगूठी डाली जाती है और दुल्हा-दुल्हन दोनों उसे ढूढ़ते हैं। ऐसा माना जाता है कि जो पहले अंगूठी ढूढ़ता है, वैवाहिक जीवन में उसी की चलती हैं।

सुहागरात

यह एक ऐसी कड़ी है जिसमें लोगों के जहन में सिर्फ एक ही तस्वीर बनती है कि एक प्रेमी जोड़ा रोमांस करते दिखता है। सुहागरात पति और पत्नी के मिलने की पहली रात होती है। इस रात पर दूध देने की परंपरा भी काफी पुरानी है। दरअसल दूध स्वांस्य्जा की दृष्टि से काफी फायदेमंद होता है। इसे पीने से शारीरिक शक्ति मिलती है। इसीलिए दूल्हा इस दिन एक गिलास दूध जरूर पीता है। दूल्हन-दुल्हन के कमरे को फूलों से सजाने की परंपरा भी सालों से चली रही है। फूलों की महक से नवविवाहित जोड़े के मन में एक-दूसरे के प्रति प्रेम उमड़ता है। साथ ही फूलों से वातावरण भी रोमांटिक बनता है।

रस्मों में रिश्ते की महती भूमिका

किसी घर में शादी का माहौल हो तो मानों सारी खुशियां उसी घर में बसती है। इसमें बिना रिश्तेदारों के शादी की रस्में अधूरी हैं। इसीलिए इस मौके पर भाई, बुआ, दीदी, जीजा आदि रिश्तों को अधिक महत्व दिया जाता है। वैसे भी रस्मों की शुरुआत लड़के और लड़की की सगाई से ही होती है। वधू के भाई द्वारा तिलक लगाकर सगाई की रस्म अदा की जाती है। इसी तरह लड़की की ओली भराई की रस्म लड़के की मां के द्वारा पूरी की जाती है। सास अपने परिवार की वंश परंपरा को आगे बढ़ाने और घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियां निभाने का दायित्व अपने हाथों से बहू को सौंपती है।

भाई

लड़की की शादी में भाई की जिम्मेदारी काफी अहम मानी जाती है। सगांई से लेकर विदाई तक भाई हर वक्त साथ रहता है। फेरे के वक्त वधू का भाई नवदंपति के हाथों में खील देता है, जिसे वह विवाह की वेदी में अर्पित करती है। कन्यादान के दौरान भी माता-पिता की तरह भाई की भूमिका बेहद अहम होती है। विवाह के बाद पगफेरे की रस्म के लिए वधू का भाई ही उसकी ससुराल जाता है और वह उसी के साथ पहली बार मायके आती है।

बहन और जीजा 

बारात निकलने से पहले दूल्हे के जीजा उसके सिर पर सेहरा बांधते हैं। वधू की बहनों की भागीदारी तो जगजाहिर है कि वे किस तरह जीजाजी के जूते चुराकर उनसे पैसे वसूलती हैं। इसी तरह जब भाई नववधू को लेकर घर में प्रवेश कर रहा होता है तो बहनें भाई-भाभी का रास्ता रोककर माहौल को खुशनुमा बना देती है।

बुआ

शादी की ज्यादातर रस्में बुआ के द्वारा ही निभाई जाती हैं। इस दौरान बुआ को माता- पिता नेग के रूप में गहने, कपड़े और रुपए देते हैं। शादी के रोज वर-वधू को खिलाने के लिए विशेष भोजन तैयार करने का काम भी बुआ ही करती है। बंदनवार सजाने की जिम्मेदारी वर या वधू के फूफा को निभानी होती है।

मामा

शादी में वर-वधू दोनों के ननिहाल पक्ष की, खास तौर से मामा की जरूरी भूमिका होती है। मामा पक्ष की ओर से वर-वधू सहित उनके परिवार के लोगों के लिए कपड़े, गहने, फल, मिठाइयां, मेवे आदि भेजे जाते हैं। पंजाब में शादी के एक रोज पहले वधू को चूड़ा पहनाने की रस्म भी मामा-मामी द्वारा ही निभाई जाती है। सभी प्रांतों में बहन के बच्चों के विवाह के अवसर पर भाई द्वाराभात देनेजैसी रस्मों की रवायत है। 

सहबल्ला

शादी से पहले बारात निकालने की परंपरा लगभग सभी जगह है। हमेशा दूल्हे के साथ किसी खूबसूरत और घर के छोटे-बच्चे को बिठाया जाता है। माना जाता है कि बच्चे के बैठने से बहू पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और भविष्य में वह भी ऐसे ही बच्चे की मां बने इसकी कामना की जाती है।

 

 


No comments:

Post a Comment