Saturday, 11 January 2025

...जब नागाओं ने महाकुंभ में आक्रांता औरंगजेब को खदेड़ा!

...जब नागाओं ने महाकुंभ में आक्रांता औरंगजेब को खदेड़ा

महाकुंभ में नागा साधुओं का पदार्पण हो चुका है। संसार के मोहमाया के बंधनों से इतर को नागा साधुओं की निष्ठा को देखते हुए आज भी इन्हें सम्मानपूर्वक प्रथम शाही स्नान की अनुमति दी जाती है। पूरे महाकुंभ में नागा साधु आकर्षण के केंद्र बने हैं, इनकी जीवन शैली और पहनावा लोगों के लिए किसी सातवें अजूबे से कम नहीं है। बात 1666 की है जब महाकुंभ के दौरान औरंगजेब की सेना ने आक्रमण किया था. कहते है तब नागा संन्यासियों ने उससे लड़ने के लिए मोर्चा संभाला था. कई दिनों तक चले युद्ध के बाद नागाओं ने औरंगजेब उसकी सेना को खदेड़कर संगम स्नान करने आएं श्रद्धालुबओं की रक्षा की थी। इतना ही मुगलकाल ब्रतानियां हुकूमत में जब जब सनातन धर्म पर आक्रमण किया, नागा संन्यासियों ने अपनी जान देकर धर्म की रक्षा की है. लेकिन सच यह भी है कि आजादी के बाद से नागा साधुओं ने शस्त्र उठाने का फैसला लिया। क्योंकि देश की रक्षा के लिए हमारे वीर जवान अपनी जिम्मेदारी संभाल चुके थे. यह अलग बात है कि आज भी नागा साधुओं को उनके गुरुओं द्वारा शस्त्र चलाने की शिक्षा दी जाती है. खास यह है कि इनके कड़े नियम कायदे, कठिन जीवन शैली हर व्यक्ति को हैरान करती है। दूर से भले ही हमें लगे की नागा और इनके अखाड़े अव्यवस्थित हैं, लेकिन ये हर कार्य को पूरी व्यवस्था के साथ करते हैं। नागा साधु बनने की प्रक्रिया शुरू से अंत तक नियमों के तहत ही होती है। बहुत कम ही लोग यह बात जानते होंगे कि, नागा साधुओं को दीक्षा देने के बाद उन्हें एक विशेष श्रेणी में रखा जाता है। 

सुरेश गांधी

नागा साधुओं के बिना कुंभ की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। उनके प्रति आदर सम्मान कितना है इसका अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है महाकुंभ में उनके सभी अखाड़े सिर्फ शाही स्नान में हिस्सा लेते हैं, बल्कि इन्हें सबसे पहले शाही स्नान की अनुमहित दी जाती हैं। लंबे बाल और जटाओं के साथ ये सबसे पहले हर-हर गंगे के जयघोष के साथ संगम में डूबकी लगाते है। उसके बाद आम आदमी मोक्ष के लिए स्नान करता है. सांसारिक मोहमाया त्याग हिमालय की कंदराओं में रहने वाले नाग साधुओं के शरीर पर एक भी वस्त्र नहीं होता है। देवों के देव महादेव को अपना आराध्य मानने वाले इन नागा साधुओं के शरीर पर सिर्फ और सिर्फ राख के लेप होते हैं। इन पर मौसम का भी कोई असर नहीं दिखता है. वह कड़कड़ाती ठंड में भी नग्न अवस्था में ही रहते हैं। वह शरीर पर धुनी या भस्म लगाकर घूमते हैं। नागा का मतलब होता है नग्न। नागा संन्यासी पूरा जीवन नग्न अवस्था या यूं कहे बचपन अवस्था में ही रहते हैं। वह अपने आपको भगवान का दूत मानते हैं। हर अखाडे़ की अपनी मान्यता और पंरपरा होती है और उसी के मुताबिक, उनको दीक्षा दी जाती है। कई अखाड़ों में नागा साधुओं को भुट्टो के नाम से भी बुलाया जाता है। अखाड़े में शामिल होने के बाद इनको गुरु सेवा के साथ सभी छोटे काम करने के लिए दिए जाते हैं। नागा साधू बनने के बाद वह गांव या शहर की भीड़भाड़ भरी जिंदगी को त्याग देते हैं और रहने के लिए पहाड़ों पर जंगलों में चले जाते हैं। उनका ठिकाना उस जगह पर होता है, जहां कोई भी आता जाता हो।

नागा साधू बनने की प्रक्रिया में 6 साल बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। इस दौरान वह नागा साधू बनने के लिए जरूरी जानकारी हासिल करते हैं। इस अवधि में वह सिर्फ लंगोट पहनते हैं। वह कुंभ मेले में प्रण लेते हैं जिसके बाद लंगोट को भी त्याग देते हैं और पूरा जीवन कपड़ा धारण नहीं करते हैं। नागा साधू बनने की प्रक्रिया की शुरुआत में सबसे पहले ब्रह्मचर्य की शिक्षा लेनी होती है। इसमें सफलता प्राप्त करने के बाद महापुरुष दीक्षा दी जाती है। इसके बाद यज्ञोपवीत होता है। इस प्रकिया को पूरी करने के बाद वह अपना और अपने परिवार का पिंडदान करते हैं जिसे बिजवान कहा जाता है। वह 17 पिंडदान करते हैं जिसमें 16 अपने परिजनों का और 17 वां खुद का पिंडदान होता है। अपना पिंडदान करने के बाद वह अपने आप को मृत सामान घोषित करते हैं जिसके बाद उनके पूर्व जन्म को समाप्त माना जाता है। पिंडदान के बाद वह जनेऊ, गोत्र समेत उनके पूर्व जन्म की सारी निशानियां मिटा दी जाती हैं। इसके कारण नागा साधुओं के लिए सांसारिक जीवन का कोई महत्व नहीं होता है। नागा संन्यासी अपने समुदाय को ही अपना परिवार मानते हैं। वह कुटिया बनाकर रहते हैं और इनकी कोई विशेष जगह और घर नहीं होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि नागा साधू सोने के लिए बिस्तर का भी इस्तेमाल नहीं करते हैं। नागा साधुओं के शव को नहीं जलाया जाता है। नागा संन्यासियों का मृत्यू के बाद भू-समाधि देकर अंतिम संस्कार किया जाता है। नागा साधुओं को सिद्ध योग की मुद्रा में बैठाकर भू-समाधि दी जाती है।

संगम की रेती पर अपनी धूनी रमाएं ये नागा साधु पूरे कुंभ अवधि तक कल्पवास के महत जप-तप करते है. बता दें, नागा साधुओं का एक योद्धा रूप के रूप में जिक्र किताबों में भले ही कम मिलता हो लेकिन इतिहास गवाह है कि जब-जब धर्म को बचाने की अंतिम कोशिशें बेकार होती दिखी हैं, तब-तब नागा साधुओं ने धर्म की रक्षा के लिए ना सिर्फ हथियार उठाए हैं, बल्कि उनका डटकर मुकाबला भी किया है। धर्म रक्षा के मार्ग पर चलने के लिए ही नागा साधुओं ने अपने जीवन को इतना कठिन बना लिया है ताकि विपरीक्ष परिस्थितियों का सामना कर चुनौतियों से निपटा जा सके. क्योंकि जब कोई अपने जीवन में संघर्ष नहीं करेगा तो वह धर्म की रक्षा कैसे कर पाएगा. कहा यह भी जाता है कि जब 18वीं शताब्दी में अफगान लुटेरा अहमद शाह अब्दाली भारत विजय के लिए निकला तो उसकी बर्बरता से इतना खून बहा कि आजतक इतिहास के पन्नों में अब्दाली का जिक्र दरिंदे की तरह किया जाता है. उसने जब गोकुल और वृंदावन जैसी आध्यात्मिक नगरी पर कब्जा करके दरिंदगी शुरू की तब राजाओं के पास भी वो शक्ति नहीं थी जो उससे टकरा पाते. लेकिन ऐसे में हिमालय की कंदराओं से निकली नागा साधुओं ने ही अब्दाली की सेना को ललकारा था. उस दौर के गजेटियर में यह भी लिखा है कि 1751 के आसपास अहमद खान बंगस ने कुंभ के दिनों में इलाहाबाद के किले पर चढ़ाई की और उसे घेर लिया. हजारों नागा संन्यासी उस समय स्नान कर रहे थे, उन्होंने पहले सारे धार्मिक संस्कार पूरे किए फिर अपने शस्त्र धारण कर बंगस की सेना पर टूट पड़े. तीन महीने तक जमकर युद्ध चला, अंत में पवित्र नगरी प्रयागराज की रक्षा हुई और अहमद खां बंगस की सेनाको हार मानकर पीछे लौटना पड़ा. नागा साधु पूरे भारतवर्ष में जहां जो काम ना होता हो वहां पर अड़कर के उस कार्य को सफल कर देते हैं. चाहे रिद्धि के द्वारा, या फिर तन के द्वारा.

धार्मिक ग्रंथों में इस बात का जिक्र है कि आठवीं शताब्दी में सनातन धर्म की मान्यताओं और मंदिरों को खंडित किया जा रहा था। यह देखकर आदि गुरु शंकराचार्य ने चार मठों की स्थापना की और वहीं से सनातन धर्म की रक्षा का दायित्व संभाला। इसके बाद आदि गुरु शंकराचार्य को लगा कि सनातन परंपराओं की रक्षा के लिए सिर्फ शास्त्र ही काफी नहीं हैं, शस्त्र की भी जरूरत है। तब उन्होंने अखाड़ा परंपरा की शुरुआत की। इसमें धर्म की रक्षा के लिए मर-मिटने वाले संन्यासियों को प्रशिक्षण देनी शुरू की गई। नागा साधुओं को उन्हीं अखाड़ों का धर्म रक्षक माना जाता है। बताया जाता है कि नागा साधुओं के पास रहस्यमयी शक्तियां होती हैं। वह कठोर तपस्या करने के बाद इन शक्तियों को हासिल करते हैं। हालांकि वह कभी भी अपनी इन शक्तियों का गलत इस्तेमाल नहीं करते हैं। वह अपनी शक्तियों से लोगों की समस्याओं का समाधान करते हैं। नागा साधु किस जगह कहा दीक्षा लेगा ये महंतों के द्वारा निश्चित किया जाता है। इसके बाद नागा साधु बनने से पहले किसी भी व्यक्ति को शुरुआत में तीन सालों तक महंत की सेवा करनी होती है। इस दौरान उनकी ब्रह्मचर्य की भी परीक्षा होती है। अगर ब्रह्मचर्य व्रत को साधु पूरा कर लेता है तो उसे आगे बढ़ने का मौका मिलता है। आक्रामक नागा साधुओं को उज्जैन में दीक्षा दी जाती है। इन्हें कई रातों तक नमः शिवायमंत्र का जप करना होता है। इसके बाद अखाड़े के प्रमुख महामंडलेश्वर द्वारा विजया हवन करवाया जाता है। हवन पूरा होने के बाद साधु को शिप्रा नदी में 108 बार फिर से डुबकी लगानी होती है। इसके बाद उज्जैन में कुंभ मेले के दौरान अखाड़े के ध्वज के नीचे नागा साधु को दंडी त्याग करवायी जाती है। यह प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही एक नागा साधु पूर्ण रूप से आक्रामक नागा साधु बनता है। जिस तरह उज्जैन में दीक्षित होने वाले नागा साधु को आक्रामक कहा जाता है, उसी तरह हरिद्वार में दीक्षा ग्रहण करने वाले साधु को बर्फानी नागा साधु कहते हैं। हालांकि छल-कपट और बैर किसी के प्रति इनके मन में नहीं होता। इन साधुओं को नागाओं की सेना कहा जाए तो गलत नहीं होगा। धर्म की रक्षा के लिए ये हमेशा आगे रहते हैं, धर्म रक्षा के लिए अपनी बलि देने और दूसरों की बलि लेने से भी ये पीछे नहीं हटते।

सज-धज कर करते है शाही स्नान

शाही स्नान के दौरान श्रृंगार पूरा ध्यान रखते हैं। शाही स्नान में शामिल होने से पहले नागा साधु 17 श्रृंगार करते हैं। भभूत, लंगोट, चंदन, पैरों में कड़ा (चांदी या लोहे का), पंचकेश, अंगूठी, फूलों की माला (कमर में बांधने के लिए), हाथों में चिमटा, माथे पर रोली का लेप, डमरू, कमंडल, गुथी हुई जटा, तिलक, काजल, हाथों का कड़ा, विभूति का लेप रुद्राक्ष इनका श्रृंगार है। ये श्रृंगार करके नागा साधु संगम में डुबकी लगाते हैं। उस वक्त मंत्रोच्चारण होता है, शंख ध्वनि बजती है और धूप-दीप से वातावरण आध्यात्मिक और भक्तिमय हो जाते हैं, मानों आत्मा का परमात्मा से मिलन यहीं हो रहा हो. महाकुंभ के दौरान ही 12 साल के कड़े तप के बाद नागा साधुओं की दीक्षा भी पूर्ण होती है। नागा साधु महाकु्ंभ में तब डुबकी लगाते हैं जब उनकी साधना पूरी होती है और उनका शुद्धिकरण हो चुका होता है। इसके ठीक उलट आम लोग गंगा में डुबकी लगाने के बाद शुद्ध होते हैं। नागा साधुओं को एक दिन में सिर्फ सात घरों से भिक्षा मांगने की इजाजत होती है। अगर उनको इन घरों में भिक्षा नहीं मिलती है, तो उनको भूखा ही रहना पड़ता है। नागा संन्यासी दिन में सिर्फ एक बार ही भोजन करते हैं।

महिला नागा साधु भी होती है कुंभ का हिस्सा

पुरुषों की तरह ही महिला नागा साधू भी होती हैं। महिला नागा साधू भी अपने जीवन को पूरी तरह से ईश्वर को समर्पित कर देती हैं। इनकी भी जीवन लीला सबसे निराला और अलग होता है। गृहस्थ जीवन से दूर इनके भी दिन की शुरुआत और अंत दोनों पूजा-पाठ के साथ ही होती है। इनका जीवन कई तरह की कठिनाइयों से भरा होता है। महिला नागा साधु बनने के बाद सभी साधु-साध्वियां उन्हें माता कहकर पुकारती हैं। माई बाड़ा में महिला नागा साधु होती हैं जिसे अब विस्तृत रूप देने के बाद दशनाम संन्यासिनी अखाड़ा का नाम दिया गया है। साधु-संतों में नागा एक पदवी होती है। साधुओं में वैष्णव, शैव और उदासीन संप्रदाय हैं। इन तीनों संप्रदायों के अखाड़े नागा साधु बनाते हैं। पुरुष नागा साधु नग्न रह सकते हैं, लेकिन महिला नागा साधु को इसकी इजाजत नहीं होती है। पुरुष नागा साधुओं में वस्त्रधारी और दिगंबर (निर्वस्त्र) होते हैं। महिलाओं को भी दीक्षा दी जाती है और नागा बनाया जाता है, लेकिन वह सभी वस्त्रधारी होती हैं। महिला नागा साधुओं को अपने मस्तक पर तिलक लगाना जरूरी होता है। लेकिन वह गेरुए रंग का सिर्फ एक कपड़ा पहन सकती हैं जो सिला हुआ नहीं होता है। इस वस्त्र को गंती कहा जाता है। नागा साधु बनने कि लिए इनको कड़ी परीक्षा से गुजरना होता है। 

नागा साधु या संन्यासनी बनने के लिए 10 से 15 साल तक कठिन ब्रह्मचर्य का पालन करना जरूरी होता है। नागा साधु बनने लिए अपने गुरु को यकीन दिलाना होता है कि वह इसके लिए योग्य हैं और अब ईश्वर के प्रति समर्पित हो चुकी हैं। इसके बाद गुरु नागा साधु बनने की स्वीकृति देते हैं। नागा साधु बनने से पहले महिला की बीते जीवन के बारे में जाना जाता है। यह देखा जाता है कि वह ईश्वर के प्रति समर्पित है या नहीं। नागा साधु बनने के बाद कठिन साधना कर सकती है या नहीं। नागा साधु बनने से पहले महिला को जीवित रहते अपना पिंडदान करना होता है और मुंडन कराना पड़ता है। इसके बाद महिला को नदी में स्नान कराया जाता है। महिला नागा साधु पूरा दिन भगवान का जाप करती हैं और सुबह ब्रह्ममुहुर्त में उठ कर शिवजी का जाप करती हैं। शाम को दत्तात्रेय भगवान की पूजा करती हैं। दोपहर में भोजन के बाद वह शिवजी का जाप करती हैं। अखाड़े में महिला नागा साधु को पूरा सम्मान दिया जाता है। नागा साधुओं के साथ ही महिला साधु भी शाही स्नान करती हैं। हालांकि, पुरुष नागा के स्नान करने के बाद वह नदी में स्नान करती हैं। अखाड़े की महिला नागा साध्वियों को माई, अवधूतानी या नागिन कहकर बुलाया जाता है। लेकिन माई या नागिनों को अखाड़े के किसी प्रमुख पद के लिए नहीं चुना जाता है।

 

 

 

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