“अहिल्या बाई होल्कर : जिनके जीवन में गूंजा ’धर्मो रक्षति रक्षितः’“
जब
इतिहास
की
पुस्तकों
में
वीरों
की
गाथाएं
गायी
जाती
हैं,
तब
कुछ
ऐसे
नाम
भी
उभरते
हैं
जो
तलवार
से
नहीं,
अपने
सेवा,
करुणा
और
न्यायप्रियता
से
दिल
जीत
लेते
हैं।
अहिल्याबाई
होल्कर
ऐसी
ही
एक
महान
शासिका
थीं,
जिन्होंने
18वीं
शताब्दी
में
नारी
नेतृत्व
की
नई
परिभाषा
गढ़ी।
अहिल्याबाई
होल्कर
न
केवल
एक
कुशल
शासिका
थीं,
बल्कि
भारतीय
नारी
शक्ति
की
एक
जीती-जागती
मिसाल
थीं।
उन्होंने
धर्म,
संस्कृति,
सेवा,
न्याय
और
करुणा
के
माध्यम
से
नारी
नेतृत्व
की
एक
प्रेरणादायक
छवि
प्रस्तुत
की।
आज
भी
उन्हें
इतिहास
की
सबसे
महान
और
आदर्श
शासिकाओं
में
गिना
जाता
है.
अहिल्या
बाई
होलकर
का
जीवन
इस
बात
का
प्रमाण
है
कि
जब
कोई
शासक
धर्म,
न्याय
और
लोककल्याण
को
सर्वोपरि
रखता
है,
तो
न
केवल
उसका
राज्य
समृद्ध
होता
है,
बल्कि
उसका
नाम
युगों
तक
श्रद्धा
से
लिया
जाता
है।
रानी
अहिल्याबाई
ने
उस
काल
में
देश
के
धार्मिक
स्थलों
की
पुनर्स्थापना
कर
“धर्मो
रक्षति
रक्षितः”
की
वैदिक
भावना
को
एक
जीवंत
दर्शन
बना
दिया।
उनका
जीवन
आज
भी
समाज
को
प्रेरणा
देता
है
सुरेश गांधी
भारतीय इतिहास में अनेक ऐसी
विभूतियां हुई हैं जिन्होंने
न केवल शासन किया,
बल्कि संस्कृति, धर्म और लोककल्याण
की मिसालें कायम कीं। मराठा
साम्राज्य की प्रसिद्ध महारानी
अहिल्या बाई होलकर उन
गिने-चुने शासकों में
से एक थीं, जिनके
जीवन और शासन में
वैदिक सूत्र “धर्मो रक्षति रक्षितः“ (जो धर्म की
रक्षा करता है, धर्म
उसकी रक्षा करता है) प्रत्यक्ष
रूप से झलकता है।
अहिल्या बाई का शासनकाल
न केवल न्यायप्रियता और
कुशल प्रशासन के लिए जाना
जाता है, बल्कि उनकी
धर्मनिष्ठा और सेवा भावना
के लिए भी विख्यात
रहा। या यूं कहे
अहिल्याबाई होल्कर सिर्फ एक शासिका नहीं
थीं, वे एक विचार
थीं. सेवा का, न्याय
का, और अध्यात्म का।
उन्होंने दिखाया कि सच्चा नेतृत्व
तलवार से नहीं, करुणा,
धैर्य और धर्म से
होता है। वे भारतीय
इतिहास में नारी शक्ति
की अमिट छवि हैं,
जिनकी गाथा युगों तक
सुनाई जाती रहेगी। शासन
करते हुए अपने न्याय,
करुणा और धर्मनिष्ठता से
इतिहास में एक अनूठा
स्थान प्राप्त किया।
अहिल्याबाईआ होलकर, 17
वीं शताब्दी की
वह महिला थी,
जिन्होंने किसी
राजघराने में जन्म नहीं
लिया था फिर भी
एक दिन उनके हाथ
में एक राज्य की
सत्ता आई और न
सिर्फ कई सालों तक
शासन किया बल्कि आज
भी उनका नाम सम्मान
से लिया जाता है.
उन्होंने देशभर में अनेक मंदिरों
का निर्माण कराया,
जिनमें काशी विश्वनाथ,
सोमनाथ,
द्वारका,
उज्जैन महाकालेश्वर जैसे तीर्थ स्थलों
का पुनरुद्धार शामिल है। उनका राज्य
धार्मिक सहिष्णुता,
सामाजिक समरसता और आर्थिक समृद्धि
का प्रतीक था। उन्होंने विधवाओं,
निर्धनों,
ब्राह्मणों और तीर्थयात्रियों के
कल्याण हेतु योजनाएं बनाईं
और हर वर्ग के
लिए राज्य के द्वार खुले
रखे। अहिल्या बाई ने अपने
दरबार को धर्म और
नीति के सिद्धांतों पर
चलाया। वे स्वयं प्रजा
की समस्याएं सुनतीं और निष्पक्ष न्याय
देतीं। उनके निर्णय धर्मसंगत
और समयानुकूल होते थे,
जिससे
वे जन-
न्याय की
आदर्श शासक बनीं।
उस विशाल और
विराट व्यक्तित्व के प्रति भारत
की सनातन धर्म की पवित्र
परंपरा ने उन्हें ’
पुण्यश्लोक’
के रूप में सादर
नमन करते हुए उनके
प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की है। हर
साल की तरह इस
बार भी 31
मई को महारानी
अहिल्याबाई होलकर की जयंती है.
लेकिन इस बार भाजपा
ने उनकी जयंती के
मौके को खास बनाने
की तैयारी की है। पार्टी
21
से 31
मई तक देशभर
में “
अहिल्याबाई होल्कर स्मृति अभियान“
चलाएगी। अभियान के दौरान बैठकें,
गोष्ठियां और सांस्कृतिक कार्यक्रम
होंगे। कार्यक्रमों का उद्देश्य रानी
अहिल्याबाई होल्कर के जीवन दर्शन,
सांस्कृतिक पुनरुद्धार में योगदान तथा
महिला सशक्तिकरण की भावना को
जन-
जन तक पहुंचाना
है। जयंती वर्ष के दौरान
महिला सशक्तिकरण पर विशेष फोकस
रहेगा। छात्राओं के लिए विद्यालयों
और महाविद्यालयों में दौड़,
भाषण,
निबंध,
रंगोली व चित्रकला प्रतियोगिताएं
कराई जाएंगी। रानी अहिल्याबाई के
जीवन पर आधारित संगोष्ठियाँ
भी आयोजित होंगी। काशी के जिन
घाटों और मंदिरों का
जीर्णोद्धार रानी अहिल्याबाई ने
कराया था,
वहां विशेष
आरती का आयोजन होगा। खास यह है
कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी
काशी विश्वनाथ धाम कॉरिडोर में
उनकी प्रतिमा की स्थापना करते
हुए उन्हें प्राचीनता और आधुनिकता का
संगम बताया था। उन्होंने कहा
था कि काशी से
लेकर सोमनाथ तक जिन तीर्थों
का जीर्णोद्धार अहिल्याबाई ने कराया, वह
आज देश के लिए
प्रेरणा है। राजश्री से
राजर्षि तक की यात्रा
महारानी अहिल्याबाई होलकर का व्यक्तित्व व
कृतित्व उन्हें विश्व की श्रेष्ठतम महिलाओं
की पंक्ति में अग्रणी बनाता
है। भारत के इतिहास
और जनमानस पर उनका विशेष
प्रभाव रहा है। महारानी
का जीवन एवं शासन
शैली संवेदनशील,
सादगी,
सहजता,
धर्मनिष्ठ,
न्यायप्रिय एवं लोक कल्याणकारी
थीं। इन्हीं गुणों के कारण उनकी
प्रजा उन्हें सदैव लोकमाता के
रूप में देखती थी।
उनके अप्रतिम गुणों को देखकर ब्रिटिश
इतिहासकार जॉन केयस ने
उन्हें दार्शनिक रानी की उपाधि
दी। वह सभी धर्मों
का सम्मान करती थीं और
विद्वानों को संरक्षण देती
थीं। नारी सशक्तिकरण की
मिसाल बनी,
विधवाओं के
लिए सुरक्षित आवास,
महिलाओं को संपत्ति अधिकार,
लड़कियों की शिक्षा को
समर्थन,
साहित्य और कला को
बढ़ावा,
संस्कृत और मराठी के
कवियों को संरक्षण,
मंदिरों
में संगीत,
भजन,
और कीर्तन
की परंपरा को प्रोत्साहन आदि
कार्य उन्होंने किया था।
12 साल की उम्र में उन्हें मालवा की महारानी का ताज पहनाया गया
हिल्याबाई होल्कर का जन्म 31
मई
1725
को महाराष्ट्र के अहमदनगर में
हुआ था,
जिसका नाम
अब अहिल्याबाई नगर कर दिया
गया है। जिस वक्त
महिलाएं विद्यालय नहीं जाती थीं,
उस वक्त उनके पिता
ने उन्हें स्कूल भेजा। सूबेदार मल्हारराव होल्कर जब एक मंदिर
पहुंचे थे तब उन्होंने
अहिल्याबाई होल्कर को देखा था।
अहिल्या किसी राजघराने से
संबंध नहीं रखती थीं
लेकिन उनके तेज को
देखकर मल्हारराव ने अपने पुत्र
खंडेराव से उनकी शादी
करवाई। मल्हारराव अपनी बहु को
भी राज-
काज की
चीजें सीखाते रहते थे। अहिल्याबाई
होल्कर के पति खांडेराव
होलकर 1754
में हुए कुम्भेर
के युद्ध में शहीद हो
गए थे। इसके 12
साल
बाद ही ससुर मल्हार
राव होलकर का भी निधन
हो गया। इसके बाद
अहिल्याबाई को मालवा की
महारानी का ताज पहनाया
गया। जब राज्य का
कार्यभार संभाला तो उस समय
राज्य की स्थिति काफी
नाजुक थी। चोर और
डाकुओ का आतंक था,
राज्य की कानून व्यवस्था
संभालना उनके लिए प्रथम
कार्य था,
साथ ही
राज्य की आय को
भी बढ़ाना था। अहिल्या बाई
ने महेश्वर को अपना मुख्यालय
बनाया पर वे इंदौर
को नहीं भूली थी।
इंदौर का इस्तेमाल सैनिक
छावनी के रूप में
होता था। देवी अहिल्या
बाई ने अपना संपूर्ण
राज्य शिव को समर्पित
कर उनकी संरक्षिता बन
कर राज किया था।
अपने जीवनकाल में ही इन्हें
जनता ‘
देवी’
समझने और कहने लगी
थी. 13
अगस्त 1795
को 70
वर्ष की आयु
में अहिल्याबाई की मृत्यु हो
गई थी.
अहिल्याबाई होल्कर
ने साल 1767
से लेकर सन
1795
तक मराठा साम्राज्य की कमान संभाली
थी। उन्होंने अपने 28
वर्ष के शासन
काल के दौरान कई
वर्षों तक मुगलों और
अन्य दुश्मनों से अपने साम्राज्य
की रक्षा की। वह खुद
भी अपनी सेना के
साथ युद्ध लड़ने जाया करती
थीं। उन्होंन बेहतरीन तरीके से राज्य का
संचालन किया। उन्होंने महेश्वर को अपनी राजधानी
बनाई थी। समाज सुधार
में अपनी एक महत्वपूर्ण
छाप बनाने वाली अहिल्याबाई होलकर
ने अपने शासनकाल में
कई कठिनाईयों का सामना भी
किया। किसी राजा या
रानी के इतने लंबे
समय के बाद याद
करने के विरले ही
उदाहरण होंगे। ब्रिटिश प्रशासक और अंग्रेज अधिकारी
सर जॉन मालकम ने
मालवा के इतिहास पर कार्य
किया था,
उन्होंने देवी
अहिल्या बाई को होल्कर
राजवंश की श्रेष्टतम शासिका
के रूप में उल्लेखित
किया है।
अध्यात्म और धार्मिक सेवा की प्रतीक
देवी अहिल्या बाई
द्वारा अपने कार्यकाल में
देशभर में 8527
धार्मिक स्थल, 920
मस्जिदों
और दरगाह, 39
राजकीय
अनाथालय का निर्माण कराया।
साथ ही उनके कार्यकाल
में धर्मशालाओं,
नर्मदा किनारे,
देश में प्रमुख
धर्मस्थलों पर नदियों किनारे
के घाटों,
कुंए,
तालाब,
बाबड़ियों और गोशालाओं (
उस
समय इसे पिंजरापोल कहा
जाता था)
के निर्माण
में आर्थिक मदद
दी गई थी। अहिल्या
बाई के कार्यकाल में
होल्कर राजवंश में ही नहीं,
बल्कि पूरे भारत में
उनके द्वारा कार्य किए गए,
जिनकी
फेहरिस्त लंबी है। इसके
अलावा भारत के ऐसे
तमाम मंदिर जिन्हें कभी मुगलों ने
तबाह कर दिया था
उन्हें वापस से बनवाने
का श्रेय अहिल्याबाई होल्कर को ही जाता
है।
उन्होंने अपने राज में
काशी के विश्वनाथ मंदिर,
गुजरात के सोमनाथ मंदिर
समेत देश के विभिन्न
हिस्सों में मंदिरों का
पुनर्निर्माण करवाया। 17वीं शताब्दी के
अंत में काशी में
गंगा किनारे मणिकर्णिका घाट का निर्माण
करवाने का श्रेय भी
अहिल्याबाई होल्कर को ही जाता
है। मांडू में नीलकंठ महादेव
मंदिर भी उन्हीं की
देन है। इसके अलावा
उन्होंने देश के ज्यादातर
जरूरी जगहों पर भोजनालय और
विश्रामगृह आदि की स्थापना
करवाई थी। उन्होंने कलकत्ता
से बनारस तक की सड़क
का भी निर्माण करवाया
था। अहिल्याबाई होल्कर जी ने सत्ता
संभालने के बाद बहुत
ही स्पष्ट उद्घोषणा की थी कि
मेरा पथ धर्म का
पथ है, धर्म का
पथ ही न्याय का
पथ है। न्याय का
पथ हमें सर्वशक्तिमान और
समर्थ बनाने में सहायक हो
सकता है और उसी
भाव के साथ उन्होंने
उस कालखंड में
सनातन धर्म
की पुनर्स्थापना में अपना योगदान
दिया था। होल्कर वंश
के प्रथम शासक मल्हारराव ने
प्रथम पेशवा बाजीराव से आग्रह किया
था की मेरी पत्नी
को कुछ जागीर प्रदान
की जाए,
उन्होंने उनकी
पत्नी गौतमा बाई को खासगी
(
राज्य के कुछ गांवों
से कर वसूली और
रानियों को दी जाने
वाली राशि,
व्यक्तिगत संपत्ति)
प्रदान की जिससे उन्हें
आय होने लगी थी।
20
जनवरी 1734
के एक पत्र
अनुसार गौतमाबाई को खासगी से
आरम्भ में आमदनी 2
लाख
99
हजार 10
रुपए हुई थी।
गौतमाबाई के निधन के
बाद खासगी की आय का
काम अहिल्या बाई देखती थीं।
खासगी की अधिकांश आय
का व्यय धार्मिक कार्यों
पर होता था। यह
खासगी ट्रस्ट आज की कायम
है जो धार्मिक स्थलों
की व्यवस्था देखता है। उनके शिव
के प्रति स्नेह और आदर भाव
का पूर्ण ध्यान रखा गया। नर्मदा
किनारे उन्होंने घाटों का निर्माण
करवाया,
उन्होंने देश भर के
विद्वानों को महेश्वर में
स्थाई रूप से बसाया
और उन्हें वंशानुगत जागीरें भी प्रदान की
थी। अहिल्या बाई ने संपूर्ण
देश के विद्वानों को
महेश्वर में नर्मदा तट
पर संरक्षण दिया जिनमें मल्हार भट्ट मुल्ये,
जानोबा
पुराणिक,
रामचंद्र रानाडे,
काशीनाथ शास्त्री,
दामोदर शास्त्री,
निहिल भट्ट,
भैया शास्त्री,
मनोहर
बर्वे,
गणेश भट्ट,
त्रियम्बक
भट्ट,
महंत सुजान गिरी
गोसाबी,
हरिदास आनंद राम प्रमुख
थे।
न्याय देवी थी अहिल्याबाई
उन्हें न्याय की देवी भी
कहा जाता था। कहते
है एक बार जब
अहिल्याबाई के बेटे मालोजीराव
अपने रथ से सवार
होकर राजबाड़ा के पास से
गुजर रहे थे। उसी
दौरान मार्ग के किनारे गाय
का छोटा-सा बछड़ा
भी खड़ा था। जैसे
ही मालोराव का रथ वहां
से गुजरा अचानक कूदता-फांदता बछड़ा रथ की
चपेट में आ गया
और बुरी तरह घायल
हो गया। थोड़ी देर
में तड़प-तड़प कर
उसकी वहीं मौत हो
गई। इस घटना को
नजरअंदाज कर मालोजीराव आगे
बढ़ गए। इसके बाद
गाय अपने बछड़े की
मौत पर वहीं बैठ
गई। वो अपने बछड़े
को नहीं छोड़ रही
थी। कुछ ही समय
बाद वहां से अहिल्याबाई
भी वहां से गुजर
रही थी। तभी उन्होंने
बछड़े के पास बैठी
हुई एक गाय को
देखा, तो रुक गईं।
उन्हें जानकारी दी गई। कैसे
मौत हुई कोई बताने
को तैयार नहीं था। अंततः
किसी ने डरते हुए
उन्हें बताया कि मालोजी के
रथ की चपेट में
बछड़ा मर गया। यह
घटनाक्रम जानने के बाद अहिल्या
ने दरबार में मालोजी की
धर्मपत्नी मेनाबाई को बुलाकर पूछा
कि यदि कोई व्यक्ति
किसी की मां के
सामने उसके बेटे का
कत्ल कर दे तो
उसे क्या दंड देना
चाहिए? मेनाबाई ने तुरंत जवाब
दिया कि उसे मृत्युदंड
देना चाहिए। इसके बाद अहिल्याबाई
ने आदेश दिया कि
उनके बेटे मालोजीराव के
हाथ-पैर बांध दिए
जाएं और उन्हें उसी
प्रकार से रथ से
कुचलकर मृत्यु दंड दिया जाए,
जिस प्रकार गाय के बछड़े
की मौत हुई थी।
इस आदेश के बाद
कोई भी व्यक्ति उस
रथ का सारथी बनने
को तैयार नहीं था। जब
कोई भी उस रथ
की लगाम नहीं थाम
रहा था तब अहिल्याबाई
खुद आकर रथ पर
बैठ गईं। वो जब
रथ आगे बढ़ा रही
थी, तब एक ऐसी
घटना हुई, जिसने सभी
को हैरान कर दिया। वही
गाय रथ के सामने
आकर खड़ी हो गई
थी। जब अहिल्याबाई के
आदेश के बाद उस
गाय को हटाया जाता
तो वो बार-बार
रथ के सामने आकर
खड़ी हो जाती। यह
देश दरबारी मंत्रियों ने महारानी से
आग्रह किया कि यह
गाय भी नहीं चाहती
है कि किसी और
मां के बेटे के
साथ ऐसी घटना हो।
इसलिए यह गाय भी
दया करने की मांग
कर रही है। गाय
अपनी जगह पर रही
और रथ वहीं पर
अड़ा रहा। राजबाड़ा के
पास जिस स्थान पर
यह घटना हुई थी,
उस जगह को आज
सभी लोग ‘आड़ा बाजार’
के नाम से जानते
है।
शिव का आदेश माना जाता था
होलकर राज्य की निशानी और
देवी अहिल्याबाई के शासन में
बनवाई गईं चांदी की
दुर्लभ मुहरें अब भी मल्हार
मार्तंड मंदिर के गर्भगृह में
रखी हुई हैं। इन
मोहरों का उपयोग अहिल्या
के समय में होता
था। अहिल्या के आदेश देने
के बाद मुहर लगाई
जाती थी, आदेश पत्र
शिव का आदेश ही
माना जाता था। छोटी-बड़ी चार तरह
की मुहरें अब भी मंदिर
में सुरक्षित हैं।
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