Monday, 16 June 2025

खतरे में ‘लोकतंत्र’ की ‘लोकध्वनि’

खतरे मेंलोकतंत्रकीलोकध्वनि’ 

जो ज़मीन से जुड़ी पत्रकारिता करते थे, अब खुद ज़मीन तलाश रहे हैं. या यूं कहे कभी देश के कोने-कोने से उठने वाली लोकध्वनि मानी जाने वाली आंचलिक और छोटे समाचारपत्रों की आज हालत दयनीय है। वे जिनकी स्याही में गांव, गली और कस्बे की समस्याएं दर्ज होती थीं, आज गुमनामी के गर्त में समा रहे हैं। कॉरपोरेट मीडिया के विस्तार और डिजिटल मीडिया की आंधी ने जैसे इनकी सांसें ही रोक दी हों। बड़े मीडिया हाउस जहां राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खबरों की चकाचौंध में लिपटे हैं, वहीं छोटे अखबार ही वो थे जोबिजली नहीं रही’, ‘गांव में डॉक्टर नहीं’, ‘पंचायत में घोटाला हुआ हैजैसी खबरों को महत्व देते थे। ये आम जन की आवाज थे। आज वे या तो बंद हो चुके हैं या फिर किसी तरह अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद में लगे हैं. मतलब साफ है छोटे समाचारपत्र कोईछोटा माध्यमनहीं, बल्कि लोकतंत्र के उन खंभों में से हैं जो जनता और सत्ता के बीच सेतु का काम करते हैं। अगर ये अखबार बंद होते रहे, तो हम एक ऐसा भारत खो देंगे जो गांव से बोलता था, मिट्टी से सांस लेता था और जनता के दर्द को स्याही में दर्ज करता था। अब भी वक्त है, जागिए, नहीं तो अगली पीढ़ी को हम सिर्फपुराने लोकल अख़बारों की कहानियांही सुनाते रह जाएंगे 

सुरेश गांधी

छोटे समाचारपत्रों को सरकारी विज्ञापनों में लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है। डीएवीपी और राज्य सरकारों की विज्ञापन नीति इतनी कठोर होती जा रही है कि छोटे अखबारों को उसमें जगह मिलना लगभग असंभव है। इससे सिर्फ उनकी आर्थिक रीढ़ टूट रही है, बल्कि स्थानीय पत्रकारों के लिए रोज़गार के अवसर भी खत्म होते जा रहे हैं। जबकि बड़े मीडिया संस्थान बाज़ार और ब्रांड की प्रतिस्पर्धा में सच्चाई से समझौता कर रहे हैं, तब छोटे समाचारपत्रों की स्वतंत्रता और निर्भीकता लोकतंत्र के लिए उम्मीद की किरण थी। अब जब वही बुझ रही है, तो यह सिर्फ पत्रकारिता का संकट है, बल्कि लोकतंत्र का भी। देखा जाएं तो छोटे अखबार डिजिटल परिवर्तन के साथ कदम मिला पा रहे हैं, पाठकों को नई तकनीक के साथ जोड़ पा रहे हैं। उनके पास वेबसाइट्स हैं, सोशल मीडिया की प्रभावी पहुंच। ऊपर से कागज, प्रिंटिंग, और वितरण लागत में बेतहाशा वृद्धि। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है आखिर वे टिकें तो कैसे? क्या अब भी बचाया जा सकता है यह स्वर? बिलकुल

अगर सरकार छोटे समाचारपत्रों के लिए विशेष विज्ञापन नीति बनाए, डिजिटल बदलाव के लिए प्रशिक्षण और तकनीकी सहयोग दे, और पत्रकार सुरक्षा अधिनियम जैसी योजनाएं लागू करे तो यह परंपरा फिर से फल-फूल सकती है। अब भी उस मिट्टी की स्याही में गांव-गिरांव की सच्चाई बया कर सकते हैं. वैसे भी जब लोकतंत्र की बात होती है तो संसद, न्यायालय और मंत्रालय के साथ एक चौथा स्तंभ भी याद आता है, पत्रकारिता। लेकिन आज इस स्तंभ की सबसे नींव की ईंटें, यानी छोटे समाचारपत्र और आंचलिक पत्रकार, गुमनामी और संकट के गर्त में समा रहे हैं। गांव, कस्बे और तहसील स्तर पर वर्षों से समाज की धड़कन बने ये अखबार अब इतिहास की किताबों में दर्ज होने के कगार पर हैं। उत्तर प्रदेश में ही सरकार द्वारा जारी विज्ञापनों का 90 फीसदी से ज्यादा हिस्सा बड़े मीडिया घरानों को मिल रहा है। वहीं छोटे अखबार, जो गांवों में सच की रिपोर्टिंग कर रहे हैं, वे या तो प्रशासन के दरवाजे खटखटाते हैं या प्रिंटिंग ही बंद कर देते हैं। आंकड़ों के मुताबिक 2023-24 में सरकारी विज्ञापनों का मात्र 3.8 फीसदी ही छोटे समाचारपत्रों को मिला। जबकि 2019 से लेकर अब तक अखबारी कागज़ की कीमत में 45 फीसदी तक बढ़ोतरी हो चुकी है। ऐसे में एक ओर लागत आसमान छू रही है, दूसरी ओर विज्ञापन और सब्सक्रिप्शन दोनों दम तोड़ रहे हैं। वाराणसी, मिर्जापुर, गाजीपुर, बलिया, भदोही और सोनभद्र जैसे ज़िलों में सैंकड़ों छोटे अखबार या तो बंद हो चुके हैं या अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद में हैं। 

खास यह है कि सरकार और विज्ञापनदाता अब डिजिटल उपस्थिति मांगते हैं, वेबसाइट, ऐप, रील्स, यूजर एनालिटिक्स! लेकिन एक गांव का छोटा रिपोर्टर, जिसकी आय महीने में ₹3000 भी नहीं है, वो यह सब कैसे जुटाए? स्थानीय पत्रकारों के लिए डिजिटल युग अवसर नहीं, एक नई चुनौती बन गया है। अनेक जिलों में छोटे पत्रकारों पर हमले होते हैं, उन्हें धमकियां मिलती हैं, लेकिन कोई मान्यता नहीं, बीमा, कानूनी सहारा. परिणाम यह है कि भदोही, गाजीपुर, चंदौली और प्रतापगढ़ सहित पूरे पूर्वांचल यूपी में हुए पत्रकार हमलों की आज तक न्यायिक सुनवाई तक नहीं हो पाई। यह संकट केवल एक उद्योग का नहीं, बल्कि सूचना और लोकतंत्र की बुनियाद का है। ऐसे में छोटे अखबारों को डिजिटल और आर्थिक सहायता, विज्ञापन नीति में संशोधन, पत्रकार सुरक्षा अधिनियम, हर जिले में मीडिया सहयोग केंद्र के लिए सरकार को पहल करनी होगी। अगर समय रहते सरकार और समाज नहीं जागे, तो आने वाली पीढ़ियां सिर्फ बड़े शहरों की आवाज़ ही पढ़ेंगी, गांव की नहीं। क्योंकि छोटे अखबारों का संघर्ष, महज एक आर्थिक कहानी नहीं है, बल्कि यह उस लोकतांत्रिक आत्मा का सवाल है जो किसी चैनल की हेडलाइन बनती है, सरकार की प्राथमिकता। मतलब साफ है जब गांव की खबर नहीं बचेगी, तब गांव भी इतिहास बन जाएगा। 

काशी पत्रिका“, “जनधारा“, “पूर्वांचल प्रहरी“, “कुशीनगर केसरी“, “मऊ संदेश“, “सुलतानपुर दर्शनजैसे नाम कभी लोगों की ज़ुबान पर होते थे। ये वो अख़बार थे जिनमें कलम बिकती थी, खबरें। लेकिन आज यही छोटे अख़बार जीविका, मान्यता, और सम्मान कृ तीनों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इन पत्रों के पास बड़े प्रेस थे, स्टूडियो, टीवी चैनलों जैसी टीम। लेकिन इनकी रिपोर्टिंग में वोधरती की गंधथी जो लोगों को जोड़ती थी। वाराणसी में 1970 दशक के, जो कभी गांडीव अखबार के चीफ रिपोर्टर, 2007 से 2010 तक उत्तर प्रदेश जनर्लिस्ट एसोसिएशन के प्रदेश अध्यक्ष 2002 से 2004 तक मान्यता समिति के सदस्य आज के पूर्वांचल आजकल अखबार के संपादक डॉ. राधारमण चित्रांसी उस दौर को याद करते हैं, “हमने साइकिल से गांवों में जाकर खबरें इकट्ठा कीं, पन्ने अपने हाथ से सेट किए, और छपवाकर अख़बार बांटे। लेकिन आज उसी मेहनत को मान्यता नहीं मिलती।जहां तक छोटे अखबारों का सवाल है तो धर्म एवं आस्था की नगरी काशी में कभी बनारस, काशीवाणी संसार जैसे समाचार पत्रो की तूजी बोलती थी, लेकिन आज वो गुमनामी के शिकार हो गए है। उत्तर प्रदेश सूचना विभाग की डीजीआई लिस्ट में अधिकांश छोटे पत्र अब शामिल नहीं हैं। मान्यता के लिए जरूरी शर्तें (5 हज़ार प्रतियों की प्रसार संख्या, रजिस्ट्रेशन, प्रेस में मुद्रण) ऐसे पत्रों को बाहर कर देती हैं जो गाँवों में 2-3 हज़ार की सीमा में सीमित हैं।

वर्ष 2023 में राज्य सरकार के कुल विज्ञापन बजट ₹325 करोड़ में से मात्र 3 फीसदी ही आंचलिक पत्रों को मिले, जबकि यही पत्र ग्रामीण जनता तक सीधा संवाद स्थापित करते हैं। माना कि डिजिटल मीडिया के जमाने में लोग तेज़ खबरें चाहते हैं, लेकिनतेज़हमेशासटीकनहीं होती। बड़े मीडिया हाउस राजनीति और मेट्रो केंद्रित हो गए हैं। जबकि छोटे अख़बार आज भी यह बताने की ताकत रखते हैं कि किस ब्लॉक में कितनी राशन की चोरी हुई, किस पटवारी ने रिश्वत ली, और किस गाँव में बच्चियों को स्कूल नहीं जाने दिया जा रहा। खास यह है कि इन पत्रों के पत्रकारों को पीएफ मिलता है, पहचान पत्र से सुरक्षा। 2021-24 के बीच यूपी में 22 स्थानीय पत्रकारों पर हमले दर्ज हुए, जिनमें 11 छोटे समाचारपत्रों से जुड़े थे। एक बड़ा सवाल यह भी है कि लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ, अपने सबसे जड़ों वाले स्वरूप में, इतना असुरक्षित क्यों? उनका कहना है कि सरकार यदि चाह ले तो छोटे समाचारपत्रों को पुनर्जीवित किया जा सकता है. डिजिटल इंडिया मिशन के तहत इन्हें ऑनलाइन संस्करण और पोर्टल खोलने में तकनीकी सहायता दी जाए। डीएवीपी/राज्य विज्ञापन में इन्हें आरक्षित कोटा मिले। पत्रकार सुरक्षा कानून खासतौर पर ग्रामीण पत्रकारों को ध्यान में रखकर लागू किया जाए। पत्रकार प्रशिक्षण केंद्रों में स्थानीय भाषा, मोबाइल रिपोर्टिंग, सोशल मीडिया लेखन का पाठ पढ़ाया जाए। देखा जाएं तो छोटे समाचारपत्र लोकतंत्र की रीढ़ हैं। ये कहीं किसी पक्के प्रेस में नहीं, बल्कि लोगों की ज़ुबान और ज़मीन की हकीकत में बसते हैं। 

अगर ये खो गए, तो भारत कीमूल पत्रकारिताइतिहास की किताबों में सिमट कर रह जाएगी। अभी भी समय है, सरकार और समाज अगर चाहें, तो ये अलख फिर से जल सकती है। नहीं तो गांव की खबरें, सिर्फ शहर के एसी कमरों में बनाई जाएंगी, ज़मीनी नहीं दिखेंगी... कल्पना की जाएंगी।

अब नहीं बनते गांव की समस्याएं मुद्दे

सीनियर पत्रकार हरेन्द्र उपाध्याय कहते है कभी उत्तर प्रदेश की धरती पर पत्रकारिता सिर्फ लखनऊ, प्रयागराज या वाराणसी तक सीमित नहीं थी। गाँव-देहात, कस्बे, तहसीलें, हर जगह अपनी एक आवाज़ थी, जिसे छोटे-छोटे अख़बारों ने पन्नों पर उतारा। इसे ही कहते हैं आंचलिक पत्रकारिता, और इसका दौर वास्तव में स्वर्णकाल था। भोजपुर से लेकर बलिया, देवरिया से लेकर गोंडा तक, ऐसे सैकड़ों अख़बार निकले जिन्होंनेविकास“, “जन सरोकार“, “गांव की सच्चाईऔरप्रशासनिक जवाबदेहीको अपनी स्याही बनाया। गोरखपुर मेंअंचल संदेशये सिर्फ नाम नहीं, जनता की आत्मा का प्रतिबिंब थे। लेकिन ऐसे छोटे अख़बारों को कोई कॉर्पोरेट फंडिंग मिलती थी, विज्ञापन की लाइन लगती थी। रिपोर्टर एक पुरानी डायरी में नोट्स लेता था, पन्ने प्रेस में खुद सेट करता था, और फिर साइकल से बाँटने निकलता था। 

वो पत्रकार सिर्फ खबरें नहीं, अपनी आत्मा भी छाप रहा होता था। गांव में बिजली आई या नहीं, राशन की दुकान पर गड़बड़ी, प्रधान का भ्रष्टाचार, सरकारी स्कूल में मास्टर की गैरहाज़िरी, नहर टूटी, फसलें सूख गईं जैसे मुद्दे को लेकर जहां बड़े अख़बार या चैनल नहीं पहुंचते थे, वहां ये पत्र सत्य की मशाल बनते थे। इन अख़बारों की एक प्रति पूरे गांव में घूमती थी। लोग अखबारों को संभालकर रखते थे, पंचायतों में सबूत के रूप में पेश करते थे, और बहुत बार इन्हीं खबरों पर प्रशासनिक कार्रवाई होती थी। एक वाकया याद आता है, बलिया केजन संदेशमें एक बीडीओ की भ्रष्टाचार की रिपोर्ट छपी, जिसके बाद जिलाधिकारी ने संज्ञान लेकर जांच बैठाई और अधिकारी निलंबित हुआ। इन अख़बारों में काम करने वाले पत्रकार भले तनख्वाह लें, लेकिन उन्हें सम्मान जरूर मिलता था। गांव का बुज़ुर्ग उनके पैर छूता था, प्रधान उनसे डरता था, और एसडीएम तक जवाब देता था, सिर्फ इसलिए क्योंकि पत्रकारिता जनता की नज़र थी। आज जो गांवों की समस्याएं सरकारी फ़ाइलों में भी दर्ज नहीं हैं, वे छोटे अख़बारों के संग्रहालयी पन्नों में मौजूद हैं। 

ये पन्ने सिर्फ खबरें नहीं, समय के गवाह हैं. कहने का अभिप्राय यह है कि आंचलिक पत्रकारिता का स्वर्णकाल वो था जब पत्रकारटीआरपीनहीं, “सच्चाईके लिए लिखता था। जब खबरें बिकती नहीं थीं, बनती थीं। और जब अख़बार सिर्फ सूचना नहीं, आत्मा का दस्तावेज़ हुआ करता था। अब जबकि ये परंपरा संकट में है, हमें उस स्वर्णकाल की याद इसलिए ज़रूरी है, ताकि हम ये समझ सकें कि क्या खोने जा रहे हैं... और क्यों इसे बचाना ज़रूरी है।  

क्यों उजड़ रहा है आंचलिक पत्रकारिता का आंगन

आंचलिक पत्रकारिता का वह स्वर्णकाल अब बीते दिनों की बात हो चला है। आज उत्तर प्रदेश से लेकर देश भर के छोटे समाचारपत्र अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं। यह संकट महज़ आर्थिक नहीं, बल्कि नीति, तकनीक और पाठक प्रवृत्ति से उपजा एक बहुआयामी हमला है।

उत्तर प्रदेश में सूचना विभाग और डीएवीपी द्वारा दिए जाने वाले सरकारी विज्ञापनों में छोटे पत्रों के लिए लगभग शून्य-सी स्थिति बन गई है। इसकी बड़ी वजह कठोर मान्यता नियम (उच्च प्रसार संख्या, रंगीन छपाई, ऑनलाइन संस्करण आदि) है. प्रशासनिक लापरवाही स्थानीय अधिकारियों की अनदेखी, बड़े मीडिया घरानों की लॉबिंग का परिणाम है कि छोटे अखबार या तो विज्ञापन के लिए हाथ पसारते हैं या बंद हो जाते हैं। बड़े समाचार समूहों ने डिजिटल विस्तार, मोबाइल ऐप, मल्टीप्लेटफॉर्म रिपोर्टिंग से पूरा परिदृश्य अपने कब्जे में ले लिया है। स्थानीय खबरों पर भी अब बड़े ब्रांड का मोनॉपॉली है। यानी अब गांव के पटवारी की घूसखोरी की खबर लखनऊ से तय होती है कृ वह भी तब, जब सोशल मीडिया में वायरल हो जाए। इससे खबरेंस्थानीयनहीं रह जातीं, मुद्दे हाशिए पर चले जाते हैं और छोटे अखबार अप्रासंगिक हो जाते हैं

प्रिंटिंग प्रेस, पेज सेटिंग, स्याही और डिस्ट्रीब्यूशन का खर्च इतना बढ़ गया है कि अब एक हफ्ते में छपने वाला 8 पेज का स्थानीय पत्र भी घाटे का सौदा बन गया है। जबकि सरकार और पाठक, दोनों की नजर में वही मीडियाप्रासंगिकहै जो डिजिटल है। लेकिन गांव-कस्बों में चल रहे छोटे समाचारपत्र डिजिटल ट्रांजिशन का खर्च नहीं उठा पा रहे। वेबसाइट बनवाना, मोबाइल ऐप लॉन्च करना, सोशल मीडिया टीम रखना : ये उनके लिए सपने जैसे हैं। नतीजतन, उनकी रिपोर्ट डिजिटल स्पेस में कहीं नहीं दिखती। इन छोटे पत्रों के पत्रकार आज भी गांव में बिना हेलमेट रिपोर्टिंग करते हैं। छोटे अखबारों का संकट सिर्फ एक इंडस्ट्री का संकट नहीं, बल्कि सूचना की लोकतांत्रिक संरचना का संकट है। जब समाचार सिर्फ बड़े शहरों और ब्रांडेड रिपोर्टरों तक सीमित रह जाएंगे, तब देश का वो आम नागरिक जिसकी कोई हेडलाइन नहीं बनती, वह हमेशा अनसुना ही रह जाएगा। छोटे समाचारपत्रों को अब सामुदायिक मॉडल की ओर बढ़ना होगा : सब्सक्रिप्शन आधारित अभियान के तहत गांव या मोहल्ला स्तर पर वार्षिक सदस्यता योजना चलाई जाए, हर पाठक 100 रुपये में गांव की आवाज़ बचाए जैसे नारे के साथ। पाठकों की शिकायत, रचना, या फोटो को स्थान देकरलोक-अखबारके रूप में खुद को फिर से परिभाषित करें।  

पत्रकारिता क्लबशुरू करवाए जाएं

स्थानीय पत्रकारिता को युवाओं से जोड़ने के लिए स्कूलों मेंपत्रकारिता क्लबशुरू करवाए जाएं। इससे भविष्य का पाठक और रिपोर्टर दोनों तैयार होगा। डिजिटल सिर्फ खतरा नहीं, एक मौका भी है। मुफ्त ब्लॉगिंग प्लेटफॉर्म (जैसे डमकपनउ, ॅवतकच्तमे, ैनइेजंबा) पर स्थानीय खबरें प्रकाशित की जा सकती हैं, यूट्यूब, फेसबुक पेज, व्हाट्सऐप चैनल जैसे माध्यमों का सही प्रयोग कर छोटे पत्रकारों की पहुंच बढ़ सकती है. मुफ्त वीडियो टूल और मोबाइल से शूटिंग सीखकर कोई भी रिपोर्टिंग कर सकता है कृ अब स्टूडियो की ज़रूरत नहीं। जवाहरलाल नेहरू पत्रकारिता संस्थान, काशी विद्यापीठ, गोरखपुर विश्वविद्यालय जैसे संस्थान स्थानीय पत्रकारों के लिएडिजिटल पत्रकारिता कार्यशालाशुरू करें. प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया या राज्य प्रेस बोर्ड ग्रामीण मीडिया प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाएं. अंतरराष्ट्रीय एनजीओ मीडिया संस्थाएं ब्ैत् के तहत इन्हें सपोर्ट करें. नीतिगत पहलकदमी के सुझाव (सरकार को भेजे जा सकते हैं) : ₹1-5 लाख तक केग्राम पत्रकारिता अनुदानकी योजना, “लोक मीडिया सम्मानके अंतर्गत हर जिले में एक सक्रिय ग्रामीण अखबार को पुरस्कृत करना, ब्लॉक स्तर पर पत्रकारों की एक रजिस्टर्ड यूनियन को मान्यता और प्रतिनिधित्व देना. क्योंकि छोटे समाचारपत्र अगर बंद हुए, तो नुकसान सिर्फ कुछ प्रेस और पन्नों का नहीं होगा बल्कि हम अपनी जड़ों, अपनी लोकभाषा, और अपने असली लोकतंत्र से कट जाएंगे। लेकिन अगर समय रहते समाज और सरकार ने मिलकर इन्हें संभाल लिया, तो यह गांव की आवाज़, लोक की ताकत, और सत्य की स्याही दोबारा चमक सकती है।

 

No comments:

Post a Comment