Wednesday, 25 June 2025

पुरी से पूरी दुनिया तक गूंजता है ’जय जगन्नाथ’

पुरी से पूरी दुनिया तक गूंजता हैजय जगन्नाथ’ 

पुरी की रथयात्रा केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, यह भारतीय संस्कृति की महान विरासत है। यह पर्व हमें जोड़ता है, हमें सिखाता है कि भगवान सबके हैं और भक्ति का मार्ग सभी के लिए खुला है। हर वर्ष पुरी मेंजय जगन्नाथकी गूंज के साथ भक्ति, सेवा और समर्पण का यह महापर्व पूरी दुनिया में श्रद्धा का संदेश देता है। इस साल आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि 26 जून को दोपहर 1 बजकर 24 मिनट पर शुरू होगी और तिथि का समापन 27 जून को सुबह 11 बजकर 19 मिनट पर होगा. जगन्नाथ रथ यात्रा का समापन 5 जुलाई को मंदिर में संपंन होगी, जो कि 9 दिनों तक चलेगी. उदयातिथि के अनुसार, यह शुभ यात्रा 27 जून को शुरू होगी. हर साल की तरह इस बार भी उड़ीसा के पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा शुरू होने जा रही है. इस दौरान भगवान जगन्नाथ अपने बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ रथ पर विराजते हैं. खास यह है कि जगन्नाथ पुरी में किसी भी स्थान से आप मंदिर के शीर्ष पर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने सामने ही लगा दिखेगा. मंदिर के ऊपर स्थापित ध्वज सदैव हवा के विपरीत दिशा में लहराता है. इस मंदिर का रसोई घर दुनिया का सबसे बड़ा रसोई घर है. प्रतिदिन सायंकाल मंदिर के ऊपर स्थापित ध्वज को मानव द्वारा उल्टा चढ़कर बदला जाता है. मंदिर के सिंहद्वार में पहला कदम रखते ही मंदिर के भीतर किसी भी भक्त को सागर द्वारा निर्मित ध्वनि नहीं सुनाई देती, लेकिन जैसे ही आप मंदिर से बाहर एक भी कदम रखते हैं आप इस आवाज को सुन पाएंगे. जगन्नाथ पुरी के रसोईघर में भगवान जगन्नाथ को चढ़ाए जाने वाले महाप्रसाद को बनाने  के लिए 500 रसोइए और उनके 300 सहायक-सहयोगी एकसाथ काम करते हैं. यहां सारा प्रसाद मिट्टी बर्तनों में ही पकाया जाता है. हैरानी की बात यह है कि इस मंदिर के ऊपर से कभी भी आप किसी पक्षी या विमान को उड़ते हुए नहीं देखेंगे 

सुरेश गांधी

ओडिशा के पुरी का जगन्नाथ मंदिर सिर्फ चार धामों में से एक है, बल्कि यह आस्था, वास्तुकला और रहस्यों का अद्भुत संगम है। यह तीर्थस्थल चमत्कार, रहस्य और आस्था का वो केंद्र है, जहां आस्था के आगे विज्ञान भी नतमस्तक हो जाता है. यहां घटित होने वाली कई घटनाएं विज्ञान की सीमाओं से परे हैं। भारत के सबसे प्रमुख और खास त्योहारों में से एक मानी जाती है जगन्नाथ रथ यात्रा, जिसे रथ त्योहार और श्री गुंडीचा यात्रा के नाम से भी जाना जाता है. इस दौरान भगवान जगन्नाथ अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ रथ पर विराजते हैं. जगन्नाथ मतलबब्रह्मांड के भगवान जगन्नाथ भगवान विष्णु का ही एक रूप हैं। जगत के नाथ कहलाने वाले भगवान जगन्नाथ के इस स्थल को धरती का बैकुंठ भी कहा जाता है। वैष्णव परंपरा से जुड़े लोगों के लिए यह सबसे बड़ा तीर्थ स्थान है. इसीलिए इसे महातीर्थ का दर्जा प्राप्त है। कहते है इस दिन भगवान जगन्नाथ अपने बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ गुंडिचा मंदिर जाते हैं। विश्वप्रसिद्ध भगवान जगन्नाथ जी की रथ में भाग लेने के लिए देश-विदेश से लाखो की संख्या में श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं. इस यात्रा की भव्यता देखते ही बनती है। कहते है जिस किसी भी भक्त ने रथ को छू लिया उसकी सिर्फ हर मनोकामनाएं पूरी हो जाती है, बल्कि भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की कृपा से इस संसार के सुखों को भोगकर मोक्ष को प्राप्त करता है। 

इस रथ यात्रा में शामिल होने से पापों का नाश होता है और 10 हजार यज्ञों का पूण्य मिलता है। इस रथ यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ का ही नहीं बल्कि तीनों भाई-बहन के रथों के रंग अलग होते हैं. खास यह है कि रंग के साथ इनके नाम भी अलग-अलग होते हैं. भगवान जगन्नाथ के रथ कोगरुड़ध्वजयाकपिलध्वजया नंदीघोष कहा जाता है. तीनों रथों में ये सबसे बड़ा रथ होता है. इस रथ में कुल 16 पहिए लगे होते हैं. भगवान जगन्नाथ के रथ की ऊंचाई 13.5 मीटर होती है. इस रथ में लाल और पीले रंग के कपड़े का इस्तेमाल होता है. जो इस रथ यात्रा में सबसे पीछे चलता है। सबसे आगे बलभद्र का रथ रहता है, जिसका नाम तालध्वज है, बीच में चलता है सुभद्रा का रथ, जिसका नाम दर्पदलन है। 

माना जाता है कि इस रथ की रक्षा गरुड़ करते हैं. रथ पर लगे ध्वज कोत्रैलोक्यमोहिनीकहते हैं. इन रथों का निर्माण विशेषदारुककी लकड़ी से किया जाता है। इन तीनों विशालकाय रथों को बनाने में कोई कील, कांटे या धातु का उपयोग नहीं किया जाता है। रथ का निर्माण हर साल अक्षय तृतीया के दिन से शुरू होता है। स्कंद पुराण के अनुसार, भगवान जगन्नाथ की बहन सुभद्रा ने एक दिन नगर देखने की इच्छा व्यक्त की. तब जगन्नाथ और बलभद्र अपनी बहन को रथ पर बिठाकर नगर दिखाने निकले. इस यात्रा के दौरान वे अपनी मौसी गुंडिचा के घर गए और वहां सात दिनों तक रुके. तभी से जगन्नाथ रथ यात्रा की परंपरा शुरू हुई. धार्मिक मान्यता है कि हर वर्ष प्रभु जगन्नाथजी पुरीवासियों का हालचाल जानने के लिए नगर भ्रमण के लिए निकलते हैं. भगवान जगन्नाथ अपने विशाल रथ नंदीघोष पर सवार होकर गुंडिचा मंदिर यानी अपनी अपनीमौसी के घरजाएंगे. वहां पर सात दिनों तक विश्राम करने के बाद तीनों भाई बहन अपने धाम पुरी वापस लौटते हैं

इस रथ यात्रा के आरंभ से पहले भगवान जगन्नाथजी के रथ के सामने सोने के हत्थे वाली झाडू लगाई जाती है। जिसके बाद मंत्रोच्चार और जयघोष के साथ ढोल, नगाड़े और तुरही बजा कर रथों को खींचा जाता है। इस रथ यात्रा का आरंभ सबसे पहले बड़े भाई बलरामजी के रथ से होता है। जिसके बाद बहन सुभद्राजी और फिर अंत में जगन्नाथ जी के रथ को चलाया जाता है। कहते है जब भगवान कृष्ण ने अपना देह त्याग किया था तो पांडवों ने यहीं पर उनका अंतिम संस्कार किया था। भगवान कृष्ण का शरीर तो पंचतत्व में विलीन हो गया लेकिन उनका दिल जिंदा रहा। तभी से उनका दिल आज तक सुरक्षित है और यह भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के अंदर आज भी धड़कता है। पुरी का यह मंदिर भगवान कृष्ण को समर्पित है, लेकिन वहां पर उन्हें जगन्नाथ धाम के नाम से जाना जाता है. इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ के साथ उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की मूर्ति के दर्शन होते हैं. मान्यता है कि जगन्नाथ मंदिर में प्रसाद पकाने के लिए 7 बर्तनों को एक के ऊपर एक क्रम में रखा जाता है, जिसमें सबसे ऊपर रखे बर्तन का प्रसाद सबसे पहले पकता है, जबकि, नीचे की तरफ से एक के बाद एक प्रसाद पकता जाता है. जोकि अपने आप में हैरान कर देने वाला है.

मान्यता है कि मंदिर में दिन के समय हवा समुद्र से जमीन की ओर चलती है. जबकि शाम के समय हवा जमीन से समुद्र की ओर चलती है. जगन्नाथ मंदिर के शिखर पर लगा झंडा हमेशा हवा के विपरीत लहराता है. मान्यता है कि जगन्नाथ मंदिर की ऊंचाई करीब 214 फीट है. ऐसे में पशु पक्षियों की परछाई तो बननी चाहिए, मगर इस मंदिर के शिखर की छाया हमेशा गायब ही रहती है. मंदिर के ऊपर से ही कभी कोई हवाई जहाज उड़ता है और ही कोई पक्षी मंदिर के शिखर पर बैठता है. ऐसा भारत के किसी भी मंदिर में नहीं देखा गया है. मंदिर में हर 12 साल के भीतर भगवान जगन्नाथ समेत तीनों मूर्तियों को बदला जाता है. जिसके बाद वहां पर नई मूर्तियां स्थापित की जाती हैं. भगवान की मूर्तियों को बदलते समय शहर की बिजली को काट दिया जाता है. इसके साथ ही मंदिर के बाहर भारी सुरक्षा बलों को तैनात कर दिया जाता है. उस दौरान सिर्फ पुजारी को ही मंदिर में जाने की परमिशन होती है. श्री जगन्नाथ का मूल स्थानपुरुषोत्तम-क्षेत्र’ (पुरी) है औरजगन्नाथ धाम’, ’पुरुषोत्तम-क्षेत्र’, ’श्रीक्षेत्रऔरनीलाचला धामजैसे नाम केवल पुरी को संदर्भित करते हैं जहांचतुर्धा दारुविग्रह’ (चार हाथ वाली लकड़ी की मूर्तियां) हैं.’ श्री जगन्नाथ महाप्रभु की महिमा सबसे प्रामाणिक और व्यापक रूप से महर्षि वेद व्यास द्वारा स्कंद पुराण केवैष्णव खंडमें बताई गई है’. यद्यपि भगवान जगन्नाथ सर्वव्यापी हैं और सभी के स्रोत हैं, तथापि अन्य पवित्र स्थान भी हैं जो सभी पापों का नाश करते हैं. वे स्वयं वहां रूप धारण करके उपस्थित हैं तथा उन्होंने उस स्थान को अपने नाम (पुरुषोत्तम) से प्रसिद्ध किया है.’ ’जैसा कि पद्मपुराण (अध्याय 6) में कहा गया है कि भगवान का पवित्र शाश्वत धाम हीधामकहलाता है, अन्य कोई स्थान या मंदिर नहीं. निम्बार्काचार्य, श्री मध्वाचार्य, श्री रामानंदाचार्य, श्री चैतन्य और श्री वल्लभाचार्य ने पुरी को (किसी अन्य स्थान को नहीं) श्री जगन्नाथ धाम के रूप में स्वीकार किया है.

छेरा की रस्म?

भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा पुरी के जगन्नाथ मंदिर से निकलेगी और गुंडीचा मंदिर तक जाएगी. इस यात्रा के पहले दिन छेरा की रस्म की जाती है. इस दौरान उड़ीसा के महाराज सोने की झाड़ू से रथ की सफाई करते हैं. इस सोने की झाड़ू से रथ की सफाई करने की प्रक्रिया को छेरा की रस्म कहा जाता है और उसके बाद रथ यात्रा शुरू होती है, फिर भक्त भगवान के रथ को खींचते हैं. इसके बाद 1 जुलाई को हेरा पंचमी की रस्म की जाएगी. 4 जुलाई को रथयात्रा गुंडिचा मंदिर से भगवान जगन्नाथ के प्रमुख मंदिर में जाएगी जिसे जिसे बहुड़ा कहा जाता है. फिर, 5 जुलाई को भगवान जगन्नाथ मुख्य मंदिर वापिस आएंगे, जहां उनका भव्य स्वागत किया जाएगा.

जगन्नाथ जी की मूर्ति में नहीं हाथ-पैर

भगवान जगन्नाथ, जिन्हें भगवान विष्णु या श्रीकृष्ण का अवतार माना जाता है, उनकी मूर्ति को जब पहली बार कोई देखता है तो वह आश्चर्यचकित रह जाता है। उनकी बड़ी-बड़ी गोल आंखें, जिनमें पलकें तक नहीं हैं, और एक ऐसा शरीर जिसमें हाथ-पैर नहीं दिखाई देते, यह कोई साधारण मूर्ति नहीं है। यह स्वरूप केवल दृश्य रूप से अलग है, बल्कि इसके पीछे गहरा आध्यात्मिक, पौराणिक और सांस्कृतिक अर्थ छिपा हुआ है। दरअसल, भगवान जगन्नाथ का यह रूप एक गहरी शिक्षाप्रद कथा से जुड़ा हुआ है, जिसमें भक्ति, विश्वास और भगवान की लीला का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। यह मूर्ति प्रतीक है उस सच्चाई का कि ईश्वर पूर्णता से नहीं, बल्कि श्रद्धा और विश्वास से प्राप्त होते हैं। और उनका यह स्वरूप हमें यह भी सिखाता है कि भगवान हर रूप में स्वीकार्य हैं चाहे वह पारंपरिक हो या अद्भुत। भगवान जगन्नाथ की बड़ी-बड़ी आंखों के पीछे एक बेहद भावुक कथा जुड़ी है। कहते है जब भगवान श्रीकृष्ण द्वारका में निवास कर रहे थे, तब एक दिन रोहिणी माता वहां के लोगों को वृंदावन की रासलीलाओं की कथा सुना रही थीं। श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा जी दरवाजे के बाहर खड़े होकर वह कथा चुपचाप सुन रहे थे। कथा इतनी भावपूर्ण थी कि तीनों भाई-बहन प्रेम और विस्मय से भर उठे, और उनकी आंखें आश्चर्य से फैल गईं। उसी समय नारद मुनि वहां आए और उन्हें इस रूप में देखकर अत्यंत भावुक हो गए। उन्होंने प्रार्थना की कि यह दिव्य रूप सदा भक्तों को भी देखने को मिले। नारद मुनि की उस प्रार्थना को स्वीकार करते हुए भगवान ने यह रूप स्थायी बना लिया। तभी से भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां उसी रूप में बनाई जाती हैं, बड़ी गोल आंखों और सरल, बिना विस्तार वाले शरीर के साथ। यह रूप केवल एक कथा का प्रतिबिंब है, बल्कि भक्तों के प्रेम और भगवान की भावनात्मक संवेदनशीलता का प्रतीक भी बन गया है। एक अन्य कथानुसार, जब भगवान जगन्नाथ राजा इंद्रद्युम्न के राज्य में प्रकट हुए थे, तो उनके रूप के दर्शन कर वहां के लोग स्तब्ध रह गए थे। उनकी आंखें श्रद्धा और विस्मय से इतनी फैल गईं कि भगवान ने भी उनकी भक्ति को सम्मान देते हुए अपनी आंखें उसी तरह बड़ी कर लीं। यह रूप दिखाता है कि भगवान अपने भक्तों की भावनाओं को कैसे आत्मसात कर लेते हैं और उसी अनुरूप अपना स्वरूप बदल लेते हैं। जहां तक मूर्तियों में हाथ-पैर नहीं होने का सवाल है, पर मान्यता है कि राजा इंद्रद्युम्न के आदेश पर विश्वकर्माजी भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलराम की मूर्तियां बना रहे थे। शर्त थी कि जब तक ये मूर्तियां पूरी तरह से तैयार हो जाएं, कोई भी उस कमरे में प्रवेश नहीं करेगा। लेकिन भूलवश राजा बिना किसी अनुमति के कमरे में प्रवेश कर गए। इस वजह से विश्वकर्मा जी का क्रोध भड़क उठा, उनकी शर्त टूट, जिससे मूर्तियों का निर्माण अधूरा छोड़ दिया और वे मूर्तियां हाथ-पैर के बिना ही रह गईं। यही कारण है कि भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलराम की मूर्तियां हाथ-पैर रहित दिखाई देती हैं।

हर 12 साल में बदली जाती है मूर्तियां

हर 12 साल बाद भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और उनकी बहन सुभद्रा की मूर्तियों को बदला जाता है। जब भी इन मूर्तियों को बदला जाता है उस समय पूरे शहर की बिजली बंद कर दी जाती है। इस दौरान मंदिर के आसपास पूरा अंधेरा कर दिया जाता है। मंदिर की सुरक्षा सीआरपीएफ के हवाले कर दी जाती है। किसी का भी मंदिर में प्रवेश वर्जित होता है। इन मूर्तियों बदलने के लिए सिर्फ एक पुजारी को मंदिर में जाने की अनुमति होती है। मूर्तियां बदलते समय पुजारी के हाथों में दस्ताने होते हैं और आंखों पर पट्टी बंधी होती है ताकि वह भी मूर्तियों को ना देख सकें। मूर्तियां बदलने के आखिर में सबसे अहम होता है ब्रह्म पदार्थ को पुरानी मूर्ति से नई में डालना। जब मूर्तियां बदली जाती हैं तब सबकुछ नया होता हैं लेकिन जो नहीं बदलता है वो है ब्रह्म पदार्थ। ब्रह्म पदार्थ कुछ और नहीं है बल्कि भगवान श्रीकृष्ण का दिल है। ब्रह्म पदार्थ को लेकर मान्यता है कि अगर इसे किसी ने भी देख लिया तो उसकी तुरंत मौत हो जाएगी। आज तक जिस भी पुजारी ने ब्रह्म पदार्थ को भगवान जगन्नाथ के पुराने विग्रह से नए विग्रह में स्थापित किया, उन्होंने बताया कि उस दौरान अलग ही अनुभव होता है। यह कुछ उछलता हुआ-सा महसूस होता है। पुजारियों ने कभी इसे देखा नहीं लेकिन उनका कहना है कि यह एक खरगोश जैसा लगता है जो उछल रहा होता है।

 

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