मराठी बनाम हिंदी : अस्मिता की लड़ाई या चुनावी हथियार?
मराठी बनाम हिंदी, का यह संघर्ष अब केवल भाषा या संस्कृति की बहस नहीं रहा। यह ठाकरे परिवार की अंदरूनी सत्ता की लड़ाई, बीएमसी पर नियंत्रण की जद्दोजहद और एक नई राजनीतिक धारा बनाने की सामूहिक कवायद बन चुका है। जबकि मुंबई की जनसंख्या विविधतापूर्ण है। यहां मराठी बोलने वाले 42 फीसदी, हिंदी भाषी 27 फीसदी, गुजराती 11 फीसदी और शेष तमिल, मलयालम, अंग्रेज़ी आदि भाषा समूह के लोग रहते हैं। ऐसे में यहां एक भाषा को थोपना संभव भी नहीं और लोकतांत्रिक भी नहीं। इस भाषाई विविधता को चुनौती देना मुंबई की आत्मा पर चोट है। मराठी भाषा महाराष्ट्र की पहचान है, इसका सम्मान होना ही चाहिए। हिदी भाषा भारत की आत्मा है, इसका सम्मान उतना ही जरूरी है। दोनों का सह-अस्तित्व ही भारत की असली ताकत है। भाषा तब फलती-फूलती है जब उसे प्रेम से अपनाया जाए, डर से नहीं। वक़्त आ गया है महाराष्ट्र की राजनीति भाषा के नाम पर विभाजन नहीं, समन्वय का संदेश दे। सियासत को चाहिए कि वह भाषा को हथियार नहीं, सेतु बनाए
सुरेश गांधी
महाराष्ट्र की सड़कों पर
एक बार फिर भाषाई
पहचान की लड़ाई लड़ी
जा रही है। महाराष्ट्र
नवनिर्माण सेना (एसएनएस) के कार्यकर्ताओं ने
हिंदी में लिखे साइनबोर्ड्स
पर काला रंग पोतना,
दुकानों को मराठी में
नाम लिखने की चेतावनी देना,
और उत्तर भारतीयों पर ‘मराठी न
जानने’ को लेकर छींटाकशी
जैसी घटनाओं को अंजाम दिया।
ऐसे में बड़ा सवाल
तो यही है क्या
यह मराठी अस्मिता की रक्षा है?
या फिर एक बार
फिर से चुनाव पूर्व
“भावनात्मक ध्रुवीकरण” की रणनीति? फिरहाल,
भाषा विवाद से सबसे अधिक
प्रभावित होता है एक
सामान्य नागरिक। उत्तर भारतीय मजदूर, दुकानदार, टैक्सी ड्राइवर, जो मराठी नहीं
बोल सकते, वे डर में
जीने लगते हैं। मराठी
युवा, जिन्हें लगता है कि
उनकी भाषा को नौकरी
या प्रशासन में महत्व नहीं
मिल रहा। व्यापारी और
संस्थान, जो उलझ जाते
हैं यह तय करने
में कि किस भाषा
में लिखें ताकि कोई पक्ष
नाराज़ न हो। जबकि
भारत जैसे लोकतंत्र में
भाषा के सवाल का
हल सिर्फ कानूनी या प्रशासनिक नहीं,
बल्कि सांस्कृतिक और राजनीतिक समझौते
से संभव है।
हर बोर्ड पर
मराठी के साथ हिंदी
अंग्रेज़ी अनिवार्य हो। मराठी, हिंदी
और अंग्रेजी, तीनों को प्राथमिक शिक्षा
में स्थान मिले। मराठी को आत्मगौरव से
जोड़ने के लिए सकारात्मक
पहल हो। सभी दल
यह तय करें कि
भाषा पर राजनीति से
परहेज़ करेंगे। क्योंकि भाषा पुल होनी
चाहिए, दीवार नहीं. यह विचार भारतीय
लोकतंत्र की मूल भावना
को अभिव्यक्त करता है। लेकिन
महाराष्ट्र की ज़मीनी सच्चाई
इसके ठीक विपरीत दिखती
है। यहां बार-बार
मराठी बनाम हिंदी की
लड़ाई को हवा दी
जाती है। कभी यह
मूल निवासियों की पहचान की
लड़ाई बताई जाती है,
तो कभी राष्ट्रभाषा को
अपमानित करने की साजिश
कहा जाता है। ताज़ा
घटनाक्रम में महाराष्ट्र नवनिर्माण
सेना (एमएनएस) के कार्यकर्ताओं ने
फिर से हिंदी साइनबोर्ड
हटाने, हिंदीभाषियों को डराने और
मराठी को अनिवार्य करने
जैसी कार्रवाइयों के जरिए विवाद
को गरमा दिया है।
लेकिन क्या यह वाकई
भाषा की लड़ाई है?
या फिर यह महज़
एक परदा है, जिसके
पीछे ठाकरे बंधुओं की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता
और बीएमसी चुनाव की रणनीति छिपी
है?
देखा जाएं तो
महाराष्ट्र की राजनीति में
भाषा का सवाल कोई
नया नहीं है। 1960 में
महाराष्ट्र राज्य के गठन के
साथ ही मराठी भाषा
को राजकीय दर्जा मिला। 1966 में शिवसेना ने
“मराठी मानुष“ को केंद्र में
रखकर उत्तर भारतीयों के खिलाफ विरोध
की शुरुआत की। मुंबई में
उत्तर भारतीयों की लगातार बढ़ती
आबादी ने मराठी लोगों
में अपनी पहचान खोने
का डर पैदा किया।
शिवसेना के संस्थापक बाल
ठाकरे ने “जो मुंबई
में रहेगा, उसे मराठी बोलनी
होगी“ जैसे बयान देकर
बहस को और तेज
किया। यही राजनीति आज
भी जीवित है, बस पात्र
और मंच बदल चुके
हैं। राज ठाकरे, जो
कभी उद्धव ठाकरे के समानांतर शिवसेना
में अपनी भूमिका चाहते
थे, 2006 में अलग होकर
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना लेकर आए।
शुरुआत से ही उन्होंने
मराठी भाषा और स्थानीय
अस्मिता को अपनी पार्टी
की आत्मा बनाया. इसके बैनरतले उन्होंने
दुकानों, बोर्डों और रेस्टोरेंट्स पर
हिंदी या अंग्रेज़ी में
लिखे नाम मिटाना, रेलवे
में उत्तर भारतीयों की नियुक्तियों का
विरोध, मुंबई टैक्सी परमिट में स्थानीय मराठी
ज्ञान की अनिवार्यता की
मांग आदि को लेकर
उत्पात मचाने लगे। इसके पीछे
उनका तर्क है, महाराष्ट्र
में मराठी नहीं चलेगी तो
और कहां चलेगी?
पर सवाल ये
है कि क्या यह
आग्रह सांस्कृतिक जागरूकता है या राजनीतिक
उकसावे की रणनीति? भारत
एक बहुभाषिक लोकतंत्र है। संविधान की
धाराओं में सभी भाषाओं
को समान सम्मान दिया
गया है। अनुच्छेद 343 हिंदी
को राजभाषा घोषित करता है. 345 राज्य
किसी भी क्षेत्रीय भाषा
को राजकीय कार्यों में अपना सकता
है। 19(1)(एं) अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता यानी कोई भी
अपनी भाषा में बोल
सकता है, 350 ए बच्चों को
मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा
देने का निर्देश देता
है। मतलब साफ है
मराठी को प्रोत्साहन देना
संविधानसम्मत है, पर हिंदी
या अन्य भाषाओं का
विरोध असंवैधानिक है। आज की
मराठी राजनीति में सबसे बड़ा
टकराव राज ठाकरे बनाम
उद्धव ठाकरे है। जहां उद्धव
ठाकरे अब एक मध्यमार्गी,
उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष नेता बनने की
कोशिश में हैं, वहीं
राज ठाकरे मराठी अस्मिता और हिंदुत्व के
उग्र मेल को राजनीतिक
अस्त्र बना रहे हैं।
उद्धव ठाकरे शिवसेना (यूबीटी), प्रगतिशील, संतुलनवादी, राज ठाकरे एमएनएस
उग्र मराठी राष्ट्रवादी. दोनों अपने-अपने ‘मराठी
मतदाताओं’ को साधना चाहते
हैं। और यही मतदाता
बीएमसी चुनाव में निर्णायक भूमिका
निभाते हैं।
मुंबई की बृहन्मुंबई महानगरपालिका
(बीएमसी) पर नियंत्रण हासिल
करना महाराष्ट्र की राजनीति में
सर्वोच्च लक्ष्य होता है। यह
देश की सबसे समृद्ध
नगरपालिका है, जिसका बजट
₹50,000 करोड़ से अधिक है।
बीएमसी पर नियंत्रण से
मुंबई के विकास कार्यों,
ठेके, संपत्ति और नगर प्रशासन
पर प्रभाव मिलता है। 2017 में शिवसेना ने
बीएमसी जीती थी। अब
शिवसेना टूट चुकी है.
एक ओर उद्धव, दूसरी
ओर शिंदे। भाजपा भी पूरी ताकत
से मैदान में है। एमएनएस
अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़
रही है। इस स्थिति
में “भाषा“ का मुद्दा एक
सटीक राजनीतिक ध्रुवीकरण का माध्यम बन
जाता है. लेकिन इस
द्वंद का खमियाजा आम
लोग भुगतते है। ऐसे में
बड़ा सवाल तो यही
है, क्या मुंबई जैसे
महानगर में एक भाषा
को प्राथमिकता देना व्यावहारिक है?
क्या बीएमसी चुनाव के लिए भाषा
का इस्तेमाल भावनात्मक शोषण नहीं है?
क्या ठाकरे बंधुओं की लड़ाई में
आम नागरिक की भाषाई स्वतंत्रता
कुचली जा रही है?
क्या यह ‘भाषा विवाद’
नहीं, बल्कि ‘ठाकरे बंधुओं’ का टकराव है?
वैसे भी दोनों की
राजनीति की जड़ें मराठी
अस्मिता में ही हैं।
शिवसेना की स्थापना (1966) से
लेकर एमएनएस के जन्म (2006) तक,
दोनों भाइयों की राजनीति में
एक साझा सूत्र रहा,
“मराठी मानुष की अस्मिता“।
लेकिन आज जब दोनों
अलग राह पर हैं,
तो मराठी पहचान की लड़ाई भी
दो ध्रुवों में बंट गई
है। उद्धव ठाकरे यानी शिवसेना (यूबीटी) संतुलित
मराठीवाद $ धर्मनिरपेक्ष की राजनीति करते
है. जबकि राज ठाकरे
यानी एमएनएस आक्रामक मराठी राष्ट्रवाद $ हिंदुत्व की. मुद्दा वही,
लेकिन शैली अलग है।
उद्धव की राजनीति में
अब “मराठी“ पीछे और “संविधान“
आगे दिखता है। जबकि राज
ठाकरे अभी भी मराठी
अस्मिता $ हिंदी विरोध के पुराने तेवर
के साथ मैदान में
हैं। यह टकराव सिर्फ
विचारधारा का नहीं, बल्कि
नेतृत्व और पहचान की
लड़ाई है। इस पूरे
परिदृश्य में मराठी भाषा
को केंद्र में रखकर राजनीति
की बड़ी शतरंज बिछाई
जा रही है। इसीलिए
लोग पूछ रहे है
क्या यह आंदोलन मराठी
की सेवा के लिए
है, या फिर राजनीतिक
अस्तित्व की लड़ाई में
झोंका गया मोहरा?
बता दें, 1960 : महाराष्ट्र
का गठन हुआ, मराठी
को राजकीय भाषा का दर्जा
मिला। 1966 : शिवसेना का उदय हुआ,
“मराठी मानुष” का नारा दिया
गया। 1990 के बाद : मुंबई
में उत्तर भारतीयों की संख्या तेजी
से बढ़ी, जिससे मराठी
समाज में अपनी पहचान
के क्षरण की आशंका गहराने
लगी। 2006 : राज ठाकरे ने
एमएनएस बनाई और मराठी
वर्चस्ववाद को फिर से
नया रूप दिया। मतलब
साफ है यह टकराव
वास्तव में भाषा का
नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और आर्थिक असुरक्षा
का मामला है। जब मराठी
युवाओं को लगता है
कि रोजगार में उत्तर भारतीय
उन्हें प्रतिस्थापित कर रहे हैं,
तब राजनीति उस असुरक्षा को
हवा देती है। हर
चुनाव से पहले भाषा
का मुद्दा ‘इमोशनल कार्ड’ की तरह उछालना
आम हो गया है।
यह भाषा के सवाल
को बदनाम करता है। इससे
दुकानदार इस बात को
लेकर भयभीत हैं, क्या मराठी
न लिखने पर जुर्माना होगा?
हिंदीभाषी कामगार असहज हैं कि
क्या उन्हें “बाहरी“ कहा जाएगा? मराठी
युवा असमंजस में हैं कि
क्या केवल नारों से
अस्मिता बचेगी? जबकि भाषा तब
फलती-फूलती है जब उसे
सम्मान मिले, न कि जब
डर से उस पर
बोलना पड़े। भाषा संवाद
की शक्ति है, संस्कृति की
अभिव्यक्ति है, लेकिन जब
यही भाषा राजनीति का
औजार बन जाए, तो
समाज के ताने-बाने
में तनाव पैदा होना
तय है। महाराष्ट्र में
समय-समय पर उठने
वाला “मराठी बनाम हिंदी“ का
विवाद एक बार फिर
उबाल पर है। महाराष्ट्र
नवनिर्माण सेना (एमएनएस के कार्यकर्ता फिर
से सड़कों पर हैं, कभी
हिंदी में लिखे दुकानों
के बोर्ड को हटाते हैं,
तो कभी उत्तर भारतीयों
को “मराठी न जानने“ पर
लताड़ते हैं। इसीलिए सवाल
खड़ा हो गया है
कि क्या यह मराठी
अस्मिता की रक्षा का
आंदोलन है या एक
राजनीतिक प्रहसन जो हर चुनाव
से पहले मंचित होता
है?
मराठी अस्मिता बनाम हिंदी प्रभुत्व
महाराष्ट्र, विशेषकर मुंबई, पुणे, ठाणे और नवी
मुंबई जैसे क्षेत्र औद्योगिक
और व्यापारिक केंद्र रहे हैं। इसके
चलते उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि से बड़ी
संख्या में लोग यहाँ
रोज़गार और व्यापार के
लिए आए। लेकिन मुंबई
के शहरीकरण के साथ हिंदी
भाषियों की उपस्थिति बढ़ती
गई, जो मराठी लोगों
को आर्थिक और सांस्कृतिक चुनौती
लगने लगी। दुकानों और
प्रतिष्ठानों के नाम मराठी
में न लिखे जाने
पर तोड़फोड़। बॉलीवुड, मीडिया और मल्टीनेशनल कंपनियों
में हिंदी के प्रयोग पर
नाराजगी जताने लगे। जबकि भारत
भाषायी विविधता वाला लोकतंत्र है।
संविधान ने सभी भाषाओं
को सम्मान देने की गारंटी
दी है। भाषा विवाद
का मूल उद्देश्य कई
बार मतदान ध्रुवीकरण होता है। एमएनएस,
शिवसेना, बीजेपी, कांग्रेस सभी दल इसे
राजनीतिक लाभ के लिए
अलग-अलग ढंग से
भुनाते हैं. एमएनएस को
लगता है उसके आक्रामक
मराठी वाद से मराठी
युवाओं का भावनात्मक जुड़ाव
होगा। शिवसेना (उद्धव/शिंदे) संतुलन परंपरा $ प्रगतिशीलता के बूते हिंदी
समर्थक सहित उत्तर भारतीयों
के वोट चाहते है।
जबकि कांग्रेस मध्यवर्ग व अन्य सभी
समुदायों को साथ रखना
चाहती है।
विचारणीय प्रश्न
क्या भाषाओं की
राजनीति केवल चुनावी लाभ
के लिए की जाती
है? क्या मुंबई जैसे
महानगर में एक ही
भाषा को थोपना संभव
और उचित है? क्या
स्कूल-कॉलेज और मीडिया में
बहुभाषिकता को बढ़ावा देना
समस्या का समाधान हो
सकता है? भाषा के
नाम पर तकरार कब
तक? “मराठी बनाम हिंदी“ बहाने
की राजनीति या अस्मिता की
जंग? क्या “जय महाराष्ट्र“ बनाम
“जय हिंद“ की गूंज, “मराठी
बोल“ बनाम “हिंदी हटाओ“ जैसे नारे भाषाई
अस्मिता की रक्षा है
या वोटबैंक के लिए सियासी
स्क्रिप्ट का हिस्सा? महाराष्ट्र
में बार-बार उठने
वाले भाषा विवादों की
आग अब एक बार
फिर तेज हो रही
है, जहां महाराष्ट्र नवनिर्माण
सेना (एमएनएस) के कार्यकर्ता सड़कों
पर उतरकर हिंदी में लिखे बोर्ड
हटवा रहे हैं, जबकि
केंद्र और हिंदी भाषी
जनता इसे “राष्ट्रीय एकता“
पर हमला बता रही
है।
भाषा अस्मिता है, लेकिन सियासी हथियार नहीं”
हमें यह नहीं
भूलना चाहिए कि भाषा संवाद
का माध्यम है, दीवार नहीं।
मराठी, हिंदी, तमिल, कन्नड़ सभी हमारी संस्कृति
की धरोहर हैं। अगर हम
भाषाओं को लेकर एक-दूसरे से लड़ेंगे, तो
भारत की विविधता और
एकता दोनों कमजोर करते है. यहां
’बहुभाषिकता’ जीवन की हकीकत
है, न कि कोई
समस्या। यदि हिंदी बोलने
वालों को मारा जाता
है, तो यह संविधान
का उल्लंघन है। यदि मराठी
उपेक्षित हो जाती है,
तो यह संवेदनात्मक चोट
है।
टकराव नहीं, सह-अस्तित्व
1. भाषा सशक्तिकरण का
मतलब अन्य भाषा को
कुचलना नहीं है।
2. सरकारों को बहुभाषिक शिक्षा,
रोजगार में स्थानीय भाषा
को बढ़ावा देने की नीतियां
बनानी चाहिए।
3. मीडिया और फिल्मों के
ज़रिए मराठी को प्रोत्साहन मिले,
लेकिन हिंदी को विलेन न
बनाया जाए।
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