Sunday, 27 July 2025

आज़ादी की राह : गांधी की अहिंसा, सावरकर की शक्ति, नेताजी का शौर्य

आज़ादी की राह : गांधी की अहिंसा, सावरकर की शक्ति, नेताजी का शौर्य 

जहां गांधी ने सत्याग्रह से लड़ाई लड़ी, वहीं नेताजी ने हथियार उठाए. सावरकर ने क्रांति का बीज बोया तो भगत सिंह ने बलिदान से चेतना जगाई. स्वतंत्रता का यह संग्राम विचारों का महासंग्राम भी था. मतलब साफ है स्वतंत्रता संग्राम एक साझी विरासत थी, कि किसी एक विचार की बपौती

सुरेश गांधी 


भारत का स्वतंत्रता संग्राम केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध एक राजनीतिक लड़ाई नहीं था, बल्कि यह विचारों, दृष्टिकोणों और रास्तों का संघर्ष भी था। इसमें महात्मा गांधी की अहिंसात्मक सोच थी, तो वहीं विनायक दामोदर सावरकर की सशस्त्र क्रांति की स्पष्ट वकालत। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिंद फौज के गठन से ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिला दी, जबकि भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु और बटुकेश्वर दत्त जैसे क्रांतिकारियों ने युवा भारत में स्वतंत्रता के लिए प्राण न्योछावर करने की प्रेरणा जगाई।

मोहनदास करमचंद गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से लौटकर भारत को सत्याग्रह और अहिंसा का मंत्र दिया। उन्होंने नमक सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन जैसे जन आंदोलनों के माध्यम से अंग्रेजों को नैतिक रूप से चुनौती दी। उनके लिए स्वतंत्रता का अर्थ केवल राजनीतिक मुक्ति नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर भारत और नैतिक समाज की स्थापना भी था। परंतु, गांधी की नीतियों की आलोचना भी हुई। भगत सिंह के क्रांतिकारी मार्ग को गांधी ने अस्वीकार किया और नेताजी के सशस्त्र संघर्ष से दूरी बनाए रखी। यह गांधी केउद्देश्य के लिए साधन की पवित्रताकी विचारधारा थी, जिससे कई युवाओं को विरोध भी था।

नेताजी का व्यक्तित्व गांधी के आदर्शों से बहुत भिन्न था। 1939 में जब उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में पुनः चुना गया, तो गांधी जी के विरोध के चलते उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। यह टकराव केवल व्यक्तित्व का नहीं था, बल्कि भारत को स्वतंत्र कराने की रणनीति का भी था। सुभाष बोस ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों के शत्रु देशों, जर्मनी और जापान से सहायता लेकर आज़ाद हिंद फौज (आईएनए) का गठन किया। उनका मानना था किआज़ादी भीख में नहीं, बलिदान से मिलती है।उनकी रैलींग कॉलजय हिंदआज भी भारतीय सेना की सलामी का हिस्सा है।

सावरकर ने 1905 में ही स्वतंत्रता की आवश्यकता को रेखांकित कर ’1857 की क्रांतिको प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा। उन्होंने अभिनव भारत जैसे गुप्त संगठनों के ज़रिए हथियारबंद क्रांति की वकालत की। कालापानी (अंडमान) की सज़ा, 11 वर्षों की कठोर यातना और लेखनी से भारत की चेतना को जाग्रत करना, यह सावरकर का योगदान था। गांधी कीअहिंसाकी विचारधारा के ठीक विपरीत, सावरकर का मानना था कि अंग्रेज केवल शक्ति से समझते हैं। स्वतंत्रता के बाद उनकाहिंदुत्वका दर्शन राजनीतिक बहस का विषय बना, परंतु यह भूलें कि वे स्वतंत्रता के पहले के सबसे पहलेस्वराज्यवादी विचारकोंमें से एक थे।

भगत सिंह महज़ 23 वर्ष की उम्र में शहीद हो गए, पर उन्होंने भारतीय युवाओं के दिल में हमेशा के लिए जगह बना ली। वे सावरकर के समान सशस्त्र संघर्ष में विश्वास करते थे, परंतु उनका उद्देश्यआतंकनहीं था, बल्कि चेतना फैलाना था।इंकलाब ज़िंदाबादसिर्फ नारा नहीं, एक विचारधारा बन गया। उनकामैं नास्तिक क्यों हूं?“ लेख यह दर्शाता है कि भगत सिंह धर्म, क्रांति और समाज की गहराई से समझ रखते थे। वे गांधी की अहिंसा कोअनुत्तरदायी बुज़दिलीमानते थे।

पंडित जवाहरलाल नेहरू, गांधी के सबसे प्रिय उत्तराधिकारी माने गए। उन्होंने समाजवाद, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को भारत के राजनीतिक दर्शन में स्थान दिया। परंतु उन्हें कभी-कभी यह आलोचना भी झेलनी पड़ी कि उन्होंने सुभाष, सावरकर और क्रांतिकारियों को इतिहास के हाशिए पर रखा। कई लोग यह मानते हैं कि नेहरूवादी इतिहास ने भगत सिंह, आज़ाद, सावरकर और नेताजी जैसे नेताओं की तुलना में गांधी और नेहरू को ज़रूरत से ज़्यादा महिमा मंडित किया।

गांधी ने नैतिकता का मार्ग दिखाया, सुभाष ने सैन्य ताक़त का, सावरकर ने राष्ट्रीयता की भावना को शब्द दिए, और भगत सिंह ने युवाओं में जागृति पैदा की। सबने स्वतंत्रता को अपने-अपने तरीके से साधने का प्रयास किया। एक को नकारकर दूसरे को स्वीकारना, इतिहास के साथ अन्याय होगा। स्वतंत्रता दिवस हमें केवल तिरंगा लहराने का दिन नहीं, बल्कि यह सोचने का अवसर देता है कि हमने अपने इतिहास के उन चेहरों को कितनी ईमानदारी से पहचाना? क्या हमने सुभाष, भगत सिंह और सावरकर जैसे राष्ट्रनायकों को उचित स्थान दिया? 2025 में जब हम स्वतंत्रता के 78वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं, तो ज़रूरत हैविचारों के उस महासंग्रामको पहचानने की, जिसने भारत को आज़ादी दिलाई।

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