Saturday, 19 July 2025

कजरी के बोलों में सावन का सौंदर्य

कजरी के बोलों में सावन का सौंदर्य 

झूले की पींगों, काली घटाओं और लोक सुरों से सजता है भारतीय मानस का सबसे हरा महीना. जी हां, “सावन के आइल महिनवा, सखी गावा कजरिया...”. मतलब साफ है जब आसमान में काली घटाएं घिरती हैं, धरती हरियाली से लिपटी मुस्कुराती है और बयारों में रिमझिम फुहारें तैरती हैंकृतब केवल ऋतु नहीं बदलती, लोक चेतना भी नई ऊर्जा से भर जाती है। और इस मौसम की आत्मा हैकृकजरी। यह केवल गीत नहीं, बल्कि स्त्रियों की स्मृतियों, भावनाओं और श्रृंगार-विरह के गूढ़ संवेदनों की जीवंत अभिव्यक्ति है। कजरी केवल सावन का गीत नहीं, बल्कि लोक जीवन की चेतना, प्रकृति का संवाद, स्त्री मन की अभिव्यक्ति और संस्कृति की जड़ों से जुड़ने का माध्यम है। जब तक धरती पर हरियाली रहेगी, कजरी जीवित रहेगी


सुरेश गांधी

सावन का महीना केवल बादलों की गरज या बूंदों की सरसराहट तक सीमित नहीं है। यह वह समय है जब बेटियां मायके लौटती हैं, जब झूले की पींगें रिश्तों की मिठास से भर जाती हैं, और जब हर पीढ़ी के भीतर का बच्चा मचल उठता है। मां की गोद के बाद झूले पर झूलना ही शायद सबसे बड़ा सुकून होता है। कजरी कोलोकगीतों की रानीकहा जाता है। यह गीत नहीं, एक ऋतु का उत्सव हैकृजिसमें सावन का सौंदर्य, स्त्री मन का तरल विरह, और श्रृंगार रस की अनुभूतियां सब कुछ समाया हुआ है। यह एक ऐसी विधा है जिसे आज तक कोई फ़िल्मी गीत या आधुनिक संगीत स्पर्श तक नहीं कर सका। रिमझिम बरसेले बदरिया, गुइयां गावेले कजरिया, मोर सवरिया भीजै...उत्तर भारत में कजरी के तीन प्रमुख प्रकार हैं : बनारसी कजरी - बोल में ठेठपन, टेक मेंनाकी तान।  पिया सड़िया लियाइब , जेवना ना बनईबा...”  मिर्जापुरी कजरी - मंचीय गायन में लोकप्रिय। इसमें भाभी-ननद की छेड़छाड़ और सावन की मस्ती का मेल होता है। गोरखपुरी कजरी : हरे रामा”, “ हारीजैसी टेक वाली कजरी। अक्सर कृष्ण-राधा के प्रसंगों से जुड़ी। 

मिथिला में सावनी माह में हिंडोले पर बैठकर नर-नारी मल्हार के गीत गाते हैं। राजस्थान में तीज के अवसर पर गाये जाने वाले हिंडोले के गीत भी कजरी की ही कोटि में आते हैं। मथुरा में राधा-कृष्ण की रासलीला को माध्यम बनाकर नायिका अपनी सहेलियों के साथ ढोलक पर थाप दे-देकर अपने चितचोर को सुनाते हुए गा उठती है - कान्हा हंसि-हंसि बोली बोलड़, तो करइ ठिठोली ना.. सावन की अनुभूति के बीच भला किसका मन प्रिय मिलन हेतु तड़पेगा, फिर वह चाहे चन्द्रमा ही क्यों हो- चन्दा छिपे चाहे बदरी मा, जब से लगा सवनवा ना। विरह के बाद संयोग की अनुभूति से तड़प और बेकरारी भी बढ़ती जाती है। फिर यही तो समय होता है इतराने का, फरमाइशें पूरी करवाने का- पिया मेंहदी लिआय दा मोतीझील से, जायके साइकील से ना। सावन में मायके आई नवविवाहिताएं बगीचों में सहेलियों संग झूला झूलती हैं, झूमती हैं और रात को चौपालों में कजरी गाती हैं। लोक परंपरा में यह केवल गाना नहीं, पीढ़ियों से चलती एक वाचिक धरोहर है, जिसकी धुन और शैली अपरिवर्तनीय रहती है।

कइसे जइबू सावन में कजरिया, बदरिया घिर आईल ननदी...”

पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों में आज भीकजरी अखाड़ेजीवंत हैं। गुरुपूजन से इनका प्रारंभ होता है, जहां कजरी लेखक गुरु अपनी रचनाएं केवल गायक को मौखिक रूप से सौंपते हैं। यह गायन परंपरा एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा और अनुशासन का भी परिचायक है। कजरी का दायरा केवल नारी मन की अनुभूतियों तक नहीं है। सावन में मंदिरों में भी भगवान श्रीकृष्ण को झूले में बैठाकरझूलनका पर्व मनाया जाता है। भक्तगण उन्हें झुलाते हैं और प्रेमरस से ओतप्रोत कजरी सुनाते हैं :

कान्हा हंसि-हंसि बोलें, बोड़ऊ तो करैं ठिठोली ना...”

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कई अंचलों में कजरी नवमी से कजरी पूर्णिमा तक घरों में खेतों की मिट्टी के साथ रखी गई फसल की पूजा होती है। महिलाएं समूह में तालाब जाती हैं और कजरी गाते हुए एक-दूसरे पर पानी उलीचती हैं। कजरी सिर्फ गीत नहीं, संवेदना का जीवंत दस्तावेज है। इसमें पर्यावरण चेतना, स्त्री मन की आकांक्षा, और सामाजिक संवाद सभी छुपे होते हैं। बदलती आधुनिकता में भी कजरी एक ऐसी विधा है, जिसमें हमारे लोक-मूल्य अभी तक सुरक्षित हैं। कजरी ने केवल श्रृंगार और विरह नहीं गाया, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम की हुंकार भी बनी : -

हरे रामा सुभाष चन्द्र ने फौज सजाई रे हारी...

हाथ में झण्डा ले के जुलूस निकलबै रे हारी।

इलाहाबाद और अवध अंचल तो कजरी सिर्फ गाई नहीं जाती बल्कि खेली भी जाती है। एक तरफ जहां मंच पर लोक गायक इसकी अद्भुत प्रस्तुति करते हैं वहीं दूसरी ओर इसकी सर्वाधिक विशिष्ट शैलीधुनमुनियाहै, जिसमें महिलायें झुक कर एक दूसरे से जुड़ी हुयी अर्धवृत्त में नृत्य करती हैं। कजरी में सिर्फ संयोग श्रृंगार की ही नहीं, बल्कि वियोग की भी मार्मिक अभिव्यक्ति मिलती है। झमाझम पानी बरस रहा है। सहेलियां उल्लसित, आह्लादित होकर झूला झूलने में मशगूल हैं। इधर ठंडी हवाएं छेड़छाड़ करने पर उतारू हो चली हैं। काले-कलूटे बादलों की गुर्राहट और बिजली की चकाचौंध जाने क्यों दिल में दहशत पैदा कर रही है। बावजूद इसके पिया-मिलन की आस में नयी नवेली दुल्हनें मटियामेट हो उठती है। आखिर परदेसी प्रियतम जो नहीं आए। आंखों से आंसू टपक रहे हैं - टप-टप।

करूं कौन जतन अरी री सखी

मोरे नयनों से बरसे बादरिया

उठी काली घटा, बादल गरजें

चली ठंडी पवन, मोरा जिया लरजे

थी पिया-मिलन की आस सखी

परदेश गए मोरे सांवरिया

कजरी : तब तक जीवित रहेगी, जब तक हरियाली रहेगी

आज भले ही कजरी का स्वर सीमित हो गया हो, लेकिन यह लोक मन की इतनी गहराई से जुड़ी है कि इसके बिना सावन की कल्पना हो सकती है, ही लोक संस्कृति की। यह राग-विराग, श्रृंगार-वियोग, हर्ष-विषाद सबकी समान गति है।

कचौड़ी गली सून कइले बलमू...”

यही मिर्जापुरवा से उड़ल जहजिया,

पिया चलि गइले रंगून हो...

अनोखा होता है सावन का रंग

सावन का रंग अनोखा होता है। काली घटाओं के बीच फैली हरियाली जहां मन मोह लेती है वहीं आसमान से बरसती बूंदे तन को भी भिगो जाती है। सावन की बदरी और लोगों के बीच गूंज रही कजरी का अलग ही नजारा है। सावन में धर्म कर्म, विरह श्रृंगार सबकुछ है। सावन के सुहाने मौसम में मन मयूर नाच उठता है। खिल जाने को दिल करता है। खुशी जैसे टपकने लगती है। काले बादल साल भर बाद जब धरती से मिलते हैं तो दिलों में प्रेम की चरम की अनुभूति होती है। गायकों के सुर रस घोलने लगते हैं और चित्रकारों की कूची रंगों से खेलने को मचल उठती है। कवि की नई रचना जन्म लेती है और कलाकारों की नृत्य भंगिमाएं थिरकने को मजबूर कर देती हैं। यह मन-भावन मौसम ही है क्रिएटिविटी, उत्साह और परंपराएं निभाने का। पर जिनके भीतर अभी भी कोई बच्चा मचलता है, उन्हें शायद यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि मां की गोद के बाद उन्होंने झूले का आनंद कब और कहां लिया था. 

सावन की बूंदों के पड़ते ही जैसे हरी-भरी हो जाती है वसुंधरा, वैसे ही मायके पहुंचते ही चहकने लगती हैं बेटियां। किसी भी उम्र, वर्ग या समुदाय की महिला से पूछ लीजिए उसके लिए दुनिया की सबसे आरामदायक (कम्फर्टेबल) जगह है मायका। जहां पहुंचकर सिर्फ तन की ही नहीं मन की थकान भी फुर्र हो जाती है। तभी तो तीज-त्योहारों के बहाने आज भी मनाई जाती हैं कि कुछ ऐसी परंपराएं जिनसे सदा हरा-भरा रहे मायके से बेटियों का संबंध। सावन मास पर ही भक्ति की रसधारा सबसे अधिक बहती है। चाहे वे सावन सोमवार हों या फिर रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, कजली तीज आदि व्रत-त्योहारों का यही मौसम है। यही वजह है कि हर किसी को सावन की रिमझिम फुहारों का बेसब्री से इन्तजार है। इसके साथ ही चारों तरफ उल्लास छा जाता है। जहां प्रकृति नित नये रंग बदलती है वहीं पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, धरा सभी की रंगत देखते ही बनती है।

सावन के सुहाने मौसम में मन मयूर नाच उठता है। काले बादल जब धरती से मिलते हैं तो दिलों में प्रेम की चरम की अनुभूति होती है। अठखेलियां कर रही प्रकृति के साथ झूले के बिना तो सावन की कल्पना नहीं की जा सकती। इनसे ना जाने कितनी लोक-मान्यताएं और लोक-संस्कृति के रंग जुड़े हुए हैं। उन्हीं में से एक है- कजरी। कजरी वह विधा है, जिसे आज की आधुनिकता या यूं कहें फिल्मी गाने भी लेना तो दूर उसे छू तक नहीं सकी है। ग्रामीण अंचलों में अभी भी सावन की अनुपम छटा के बीच लोक रंगत की धारायें समवेत फूट पड़ती हैं। इसके बोल पर हर कोई झूम उठता है और गुनगुना उठता है-

रिमझिम बरसेले बदरिया,

गुईयां गावेले कजरिया

मोर सवरिया भीजै

वो ही धानियां की कियरिया

मोर सविरया भीजै न।

बीरन भइया अइले अनवइया

सवनवा में ना जइबे ननदी।

पिया सड़िया लिया दा मिर्जापुरी पिया

रंग रहे कपूरी पिया ना

जबसे साड़ी ना लिअईबा

तबसे जेवना ना बनईबे

तोरे जेवना पे लगिहैं मजूरी पिया

मेलवा घुमाये चला ना 

उपभोक्तावादी बाजार के ग्लैमरस दौर में कजरी भले ही कुछ क्षेत्रों तक सिमट गई हो पर यह प्रकृति से तादातम्य का गीत है और इसमें कहीं कहीं पर्यावरण चेतना भी मौजूद है। इसमें कोई शक नहीं कि सावन प्रतीक है सुख का, सुन्दरता का, प्रेम का, उल्लास का और इन सब के बीच कजरी जीवन के अनुपम क्षणों को अपने में समेटे यूं ही रिश्तों को खनकाती रहेगी और झूले की पींगों के बीच छेड़-छाड़ मनुहार यूँ ही लुटाती रहेगी। कजरी में प्रेम के दोनों पक्ष यानी संयोग और वियोग दिखाई देते हैं। कभी-कभी इसके पीछे बड़ी मार्मिक दास्तान भी होती है। कजरी ही है, जिसके गीतों में हमारे बीर जवान आज भी जिंदा है। बनारस की कचौड़ी गली में रहने वाली धनिया का पति जब इस अभियान पर रवाना हुआ तो कजरी बनी। उसकी व्यथा-कथा को सहेजने वाली कजरी आपने जरूर सुनी होगी- मिर्जापुर कइले गुलजार हो...कचौड़ी गली सून कइले बलमू। यही मिर्जापुरवा से उड़ल जहजिया, पिया चलि गइले रंगून हो... कचौड़ी गली सून कइले बलमू।

 

No comments:

Post a Comment