अमेरिकी टैरिफ और हस्तशिल्प के 2 करोड़ ग्रामीण आजीविका पर संकट
“अगर वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना के विपरीत कोई व्यापारिक नीति चलेगी, तो केवल वस्त्र ही नहीं, विश्वास भी टूटेगा।” यह कथन आज भारत के करोड़ों ग्रामीण बुनकरों, दस्तकारों और हस्तशिल्प उद्योग से जुड़े परिवारों की आवाज बन चुका है। अमेरिका द्वारा भारतीय उत्पादों पर थोपे गए नए टैरिफ, विशेषकर हस्तनिर्मित कालीनों (हैंडमेड कारपेट), साड़ियों और टेक्सटाइल उत्पादों पर 50 फीसदी तक की दर से, न केवल व्यापारिक असंतुलन पैदा किया है, बल्कि भारत के ग्रामीण जीवन, सांस्कृतिक विरासत और रोजगार की रीढ़ पर सीधा आघात किया है
सुरेश गांधी
पिछले सप्ताह अमेरिकी प्रशासन ने भारत से होने वाले पारंपरिक निर्यात - जैसे कालीन, दरी, हैंडलूम, साड़ी, और टेक्सटाइलकृपर टैरिफ की दर में अप्रत्याशित वृद्धि कर दी। रिपोर्ट्स के अनुसार, पूर्व निर्धारित 25 फीसदी टैक्स के अतिरिक्त 5 फीसदी से 20 फीसदी तक की वृद्धि की गई है, जिससे कुल प्रभाव कहीं-कहीं 50 फीसदी तक पहुंच गया है। उत्तर प्रदेश के वाराणसी, भदोही, मिर्जापुर, शाहजहांपुर, आगरा, पानीपत, जयपुर और श्रीनगर जैसे बुनकर क्लस्टर्स में इसका सीधा असर महसूस हो रहा है। इन क्षेत्रों से हर साल हजारों करोड़ रुपये मूल्य के हस्तनिर्मित उत्पाद अमेरिका, यूरोप, खाड़ी देशों और जापान को निर्यात किए जाते हैं। अमेरिका अकेले 60 फीसदी भारतीय हैंडमेड कारपेट निर्यात का गढ़ रहा है। ऐसे में इन टैरिफ्स को व्यापारी “व्यावसायिक प्रतिबंध“ मान रहे हैं।
व्यापार से ज्यादा सामाजिक नुकसान
विदेशी खरीदारों ने टैरिफ के बाद से नए ऑर्डर देना बंद कर दिए हैं। कई चल रहे सौदों में कीमत पुनः तय (रि-निगोसिएशन) की मांग की जा रही है, और कई ऑर्डर रद्द हो चुके हैं। क्योंकि टैक्स का बोझ सीधे उत्पाद पर आता है, इसलिए अमेरिकी बाजार में भारतीय उत्पाद अब महंगे प्रतीत हो रहे हैं। वहीं चीन, तुर्की और पाकिस्तान जैसे प्रतिस्पर्धी देश सरकारी सब्सिडी और कम लागत के चलते अमेरिका में पैर जमाने लगे हैं। भारत के हैंडमेड कारपेट और हैंडलूम उद्योग से करीब दो करोड़ लोग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं, जिनमें अधिकांश महिलाएं, दलित, पिछड़े वर्ग, अल्पसंख्यक और आदिवासी परिवार हैं। इनकी आजीविका पूरी तरह निर्यात पर निर्भर है। टैरिफ की मार से ये परिवार भुखमरी और पलायन की कगार पर आ सकते हैं।
भारतीय हस्तशिल्प केवल व्यापार नहीं,
सांस्कृतिक पहचान और सदियों पुरानी
विरासत का प्रतीक हैं।
जब एक भदोही का
कालीन या वाराणसी की
साड़ी अंतरराष्ट्रीय बाजार से बाहर होती
है, तो केवल अर्थव्यवस्था
नहीं, भारत की आत्मा
भी कमजोर होती है। राजनीतिक और कूटनीतिक प्रश्न
भारत और अमेरिका
के बीच रणनीतिक संबंध
लगातार प्रगाढ़ हो रहे हैं,
चाहे वह रक्षा, टेक्नोलॉजी,
व्यापार या वैश्विक मंचों
पर सहयोग हो। ऐसे में
यह टैरिफ फैसला भारत के लिए
न केवल आर्थिक, बल्कि
राजनयिक चुनौती भी है। यदि
अमेरिका भारत के पारंपरिक
निर्यात पर अनुचित टैरिफ
लगाएगा, तो यह डब्ल्यूटीओं
की फ्री एंड फेयर
ट्रेड की भावना का
उल्लंघन माना जाएगा। वहीं
अमेरिका अपने निर्णय को
आंतरिक व्यापार संरक्षण और स्थानीय उद्योग
को संरक्षण देने का तर्क
देता है, लेकिन वैश्विक
अर्थव्यवस्था में यह आर्थिक
राष्ट्रवाद (इकोनॉमिक नेशनलिज्म) की दिशा में
खतरनाक संकेत है।
उत्तर प्रदेश कारपेट एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल, टेक्सटाइल निर्यात संघ, अखिल भारतीय
कालीन निर्माता संघ और व्यापारिक
संगठनों ने भारत सरकार
से कई मांगें उठाई
हैं :
1. तत्काल विशेष
राहत
पैकेज
(इमरजेंसी
रिलीफ
पैकेज)
की
घोषणा।
2. आरटीजीएस (रियल
टाइम
गर्वंमेंट
सपोर्ट)
मॉडल
लागू
कर
बुनकरों
को
आर्थिक
सहारा।
4. निर्यात पर
सब्सिडी
और
टैक्स
रिबेट
बढ़ाया
जाए।
5. वैकल्पिक बाजारों
की
खोज
(जैसे
यूरोप,
मिडिल
ईस्ट)
को
प्राथमिकता।
6. ब्रांडिंग और
प्रमोशन
के
लिए
अंतरराष्ट्रीय
स्तर
पर
इंडिया
हैंडमेड
को
बढ़ावा।
उत्तर प्रदेश के भदोही, मिर्जापुर और वाराणसी भारत के प्रमुख कालीन उत्पादक ज़िले हैं। यहां के 90 फीसदी बुनकर अमेरिका-आधारित खरीदारों पर निर्भर हैं।
रिपोर्ट के अनुसार : भदोही
में 6631 परिवार, मिर्जापुर में 1440 से अधिक गांव,
और वाराणसी में हजारों महिला
बुनकरें पूरी तरह निर्यात
आधारित रोजगार में लगी हैं।
इन पर संकट का
अर्थ है - बेरोजगारी, पलायन,
बाल श्रम में वृद्धि,
और सामाजिक अस्थिरता।
भारत की विरासत की रक्षा करें
कालीन बुनाई भारत में मुगलकाल से विकसित हुई और वाराणसी जैसे नगरों में इसे हिंदू-मुस्लिम साझा संस्कृति के रूप में पनपते देखा गया। भदोही और मिर्जापुर की कालीनें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जीआई टैग से सम्मानित हैं। इन्हें केवल “कारोबार“ कहना इनकी अस्मिता का अपमान है।
अमेरिका के इस निर्णय से केवल एक व्यापारिक अनुबंध नहीं टूटा, बल्कि भारत के ग्रामीण विकास मॉडल, महिला सशक्तिकरण, और सांस्कृतिक निर्यात की भावना को भी चोट पहुँची है।अब निर्णय का समय है
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘लोकल टू ग्लोबल’ का नारा दिया था, और “वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट“ (ओडीओपी) योजना के अंतर्गत इन क्षेत्रों को विशेष दर्जा मिला।
ऐसे में सरकार
की यह जिम्मेदारी है
कि वह : तत्काल टैरिफ
मुद्दे पर अमेरिका से
उच्च स्तरीय वार्ता करे, वित्तीय सहायता
पैकेज से बुनकरों को
राहत दे और राष्ट्रीय
स्तर पर भारत हैंडमेड
उत्पादों के ब्रांड वैल्यू
को पुनः मजबूत करे।
व्यापार नहीं, परंपरा का प्रश्न है यह
भारतीय हस्तशिल्प, कालीन और साड़ियों का मामला केवल निर्यात और आय का नहीं है। यह सांस्कृतिक विरासत, सामाजिक न्याय और ग्रामीण भारत की आत्मनिर्भरता से जुड़ा है।
अमेरिका द्वारा लगाया गया टैरिफ उस कड़ी को तोड़ सकता है, जो गांव को वैश्विक अर्थव्यवस्था से जोड़ता है। इसलिए आवश्यक है कि भारत सरकार, उद्योग संघ, और जनता मिलकर इस आवाज को बुलंद करेंकृकि भारत के पारंपरिक उत्पाद मात्र वस्त्र नहीं, आत्मा हैं।
और इनकी
रक्षा करना केवल व्यापार
नहीं, राष्ट्रीय कर्तव्य है। “हमें न
केवल निर्यात करना है, बल्कि
अपनी सांस्कृतिक पहचान को वैश्विक मंच
पर जीवित भी रखना है।
और उसके लिए हर
टैरिफ, हर रुकावट, हर
दीवार को पार करना
होगा।“
12000 करोड़ की कालीनें गोदामों में डंप
अमेरिका द्वारा भारतीय उत्पादों पर 50 फीसदी तक का टैरिफ लगाए जाने की घोषणा से उत्तर प्रदेश सहित जम्मू-कश्मीर, पानीपत, जयपुर, दिल्ली आदि के कालीन उद्यमियों में हड़कंप मचा हुआ है।
सबसे अधिक प्रभाव भदोही, मिर्जापुर, वाराणसी, शाहजहांपुर और आगरा के उन लाखों कारीगरों पर पड़ा है, जिनकी रोजी-रोटी इस उद्योग पर टिकी है।निर्यातकों के अनुसार, पिछले तीन महीनों में ही अमेरिकी बाजार में भारतीय कालीनों के ऑर्डर 50 फीसदी तक घट चुके हैं। ऑर्डर रद्द हो रहे हैं, दामों पर फिर से बातचीत हो रही है और छोटे उद्यमी अमेरिकी मार्केट से बाहर निकलने को मजबूर हो रहे हैं।
सीईपीसी के पूर्व प्रशासनिक सदस्य उमेश कुमार गुप्ता ने बताया कि भारत से तकरीबन 17000 करोड़ का निर्यात होता है, जिसमें 12000 करोड़ की कालीनें केवल अमेरिका को निर्यात होता है।
अब 50 फीसदी टैरिफ लगने के बाद यह व्यापार अव्यवहारिक हो गया है। ग्राहक ऑर्डर रोक रहे हैं, कुछ ने तो पहले दिए ऑर्डर भी कैंसल कर दिए।“ जबकि सीईपीसी के प्रशासनिक सदस्य असलम महबूब ने भी कुछ ऐसा ही कहा.
उन्होंने बताया कि कुल निर्यात का 65 फीसदी हिस्सा अमेरिका को जाता है। लेकिन अमेरिका द्वारा रेसिप्रोकल टैरिफ लगाने से पूर्वांचल की सबसे बड़ी हस्तशिल्प इंडस्ट्री कारपेट के निर्यातकों की नींद हराम हो गई है।
अमेरिकी खरीदारों ने अभी से ई-मेल कर क्रिसमस व डोमेटेक्स फेयर में दिए गए करोड़ों के आर्डर को होल्ड पर करवाना शुरु दिए है।
ऐसे में निर्यातकों के गोदामों में रखे करोड़ों के कालीन व अन्य उत्पाद न सिर्फ डंप होने, बल्कि लाखों बुनकरों की आजीविका पर गंभीर खतरा मंडराने लगा है।
बता दें, यूपी, दिल्ली, पानीपत, जम्मू-कश्मीर, जयपुर आदि शहरों से लगभग 12000 करोड़ का कालीन निर्यात होता है और इसकी बुनाई में लगभग 20 लाख से अधिक गरीब बुनकर मजदूर लगे हैं। उनका कहना है कि अमेरिका में हैंडमेड कालीन नहीं बनता है और उनका पसंदीदा भारतीय हैंडमेड कारपेट ही है।
सीईपीसी के प्रशासनिक सदस्य रवि पाटोदिया, चेंपो कारपेट के निदेशक संजय मल्होत्रा, ओपी कारपेट के ओमप्रकाश गुप्ता व धरम प्रकाश गुप्ता, भदोही कारपेट के डायरेक्टर पंकज बरनवाल व रुपेश बदर्स एंड संस के डायरेक्टर रुपेश बरनवाल, भदोही इक्सपोर्ट के श्याम नारायण यादव व काका ओवरसीज ग्रूप के डायरेक्टर योगेन्द्र राय काका राजेन्द्र मिश्रा, आलोक बरनवाल, दीपक खन्ना राजेन्द्र मिश्रा, आलोक बरनवाल, दीपक खन्ना का कहना है कि अमेरिकी खरीदारों ने कहा है कि टैरिफ लगने से उत्पाद महंगा हो जाएगा और फिर खरीदना मुश्किल होगा।
ऐसे में टैरिफ
लगने से देश के
निर्यातकों को 12000 करोड रुपये से
अधिक का नुकसान होने
की आशंका है. रूस-यूक्रेन
युद्ध के कारण पहले
से ही प्रभावित चल
रहे हस्तशिल्प उद्योग को इस घोषणा
से गहरा झटका लगा
है.
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