कालभैरव से अनुमति, विश्वनाथ से कृपा
गंगा की गोद में बसी काशी केवल एक नगर नहीं, यह तो सनातन संस्कृति की जीवित सांस है। यहां हर घाट, हर गलियारा, हर मंदिर किसी अनंत कथा का साक्षी है। काशी आने वाले यात्री के मन में सबसे बड़ा प्रश्न यही उठता है कि यात्रा की शुरुआत किससे हो, क्या सीधे बाबा विश्वनाथ, जगत के ज्योतिर्लिंग से या फिर काशी के कोतवाल कहे जाने वाले काल भैरव से? परंपरा कहती है कि काशी यात्रा की शुरुआत प्रातःकाल गंगा स्नान से होनी चाहिए। स्नान के बाद भक्त काल भैरव मंदिर पहुंचते हैं। वहां पूजा-अर्चना कर वे मानो काशी की दहलीज पर दस्तक देते हैं। इसके बाद ही वे विश्वनाथ धाम जाकर ज्योतिर्लिंग का दर्शन करते हैं। मतलब साफ है रक्षा और अनुमति काल भैरव के हाथों में है, जबकि मोक्ष और कृपा विश्वनाथ के आंचल में, वैसे भी काल भैरव की महिमा केवल रक्षक देवता की नहीं, बल्कि धर्माधीश की भी है। विश्वास है कि मृत्यु के पश्चात आत्मा से प्रश्न पूछने का दायित्व भी काल भैरव का ही है। इसीलिए वे काशी के प्रहरी और न्यायपालक कहलाते हैं। काशी यात्रा का सौंदर्य इसी संतुलन में है, पहले कोतवाल को प्रणाम कर महादेव तक पहुंचना। यही काशी की आत्मा का विधान है, काशी आने वाले हर यात्री के लिए संदेश यही है कि गंगा स्नान कर सबसे पहले काल भैरव के दरबार जाएं। उनकी अनुमति और आशीर्वाद लेने के बाद जब भक्त विश्वनाथ की आरती में सम्मिलित होता है, तब वह अनुभव साधारण नहीं रह जाता, बल्कि आत्मा को शिवत्व से जोड़ देने वाला बन जाता है. यह काशी की परंपरा, महिमा और आध्यात्मिक सौंदर्य की पूर्णता है
सुरेश गांधी
“देवराजसेव्यमानपावनाङ्घ्रिपङ्कजं
व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं
कृपाकरम्।
नारदादियोगिवृन्दवन्दितं
दिगंबरं
काशिकापुराधिनाथकालभैरवं
भजे।ं
गंगा के तट
पर अवस्थित काशी स्वयं महादेव
का सनातन धाम है। धार्मिक
ग्रंथों और स्थानीय परंपराओं
के अनुसार, काशी की रक्षा
का दायित्व स्वयं महादेव ने काल भैरव
को सौंपा। शिव पुराण के
अनुसार, काल भैरव बिना
अनुमति किसी साधक को
काशी में फलदायी पूजा
का अधिकारी नहीं मानते। मान्यता
है कि जब तक
भक्त काल भैरव बाबा
की शरण में न
जाए, तब तक काशी
यात्रा अधूरी मानी जाती है।
इसी कारण काशी में
पीढ़ियों से यह परंपरा
रही है कि पहले
काल भैरव के मंदिर
में जाकर वंदना की
जाए और उनकी स्वीकृति
लेकर ही विश्वनाथ धाम
पहुंचा जाए। काल भैरव
भगवान शिव का ही
उग्र और रक्षक रूप
हैं।
कहते है जब
ब्रह्मा जी ने अहंकारवश
शिव का अपमान किया,
तब शिव के भौंहों
से प्रकट हुए भैरव ने
ब्रह्मा का एक सिर
छेदन कर दिया। इस
कारण उन्हें ब्राह्मण-हत्या का पाप लगा
और वे भिक्षाटन करते
हुए समस्त लोकों में घूमे। अंततः
यह पाप काशी में
आकर भैरव से मुक्त
हुआ। तभी से काल
भैरव को काशी का
कोतवाल और पापमोचक माना
गया। यही कारण है
कि जो भक्त काल
भैरव के चरणों में
नहीं झुकता, उसे काशी का
पूर्ण फल प्राप्त नहीं
होता। भैरव का स्वरूप
ही भय और भक्ति
का अद्भुत संतुलन है, एक ओर
कठोर दंडाधिकारी, तो दूसरी ओर
भक्तों को पाप से
मुक्त करने वाले करुणामय।
उनकी गंभीर आभा साधक को
अनुशासन और मर्यादा का
संदेश देती है। इसके
बाद विश्वनाथ धाम की भव्यता
और घंटों की अनुगूंज आत्मा
को शिवमय कर देती है।
यह यात्रा केवल देवदर्शन नहीं,
बल्कि आत्मा का क्रमिक शुद्धिकरण
है।
बाहर से आने
वाले यात्रियों के लिए परंपरा
अनुसार दर्शन का क्रम इस
प्रकार माना गया है,
पहला गंगा स्नान : काशी
यात्रा का प्रारंभ प्रातःकाल
गंगा में स्नान से
होता है। स्नान को
शुद्धि और पावनता का
प्रथम सोपान कहा गया है।
दुसरा काल भैरव मंदिर
दर्शन : गंगा स्नान के
पश्चात भक्त सीधे काल
भैरव मंदिर पहुंचते हैं। यहां पूजा-अर्चना कर वे मानो
काशी की दहलीज पर
दस्तक देते हैं। वैसे
भी जब साधक काल
भैरव मंदिर की गलियों में
पहुंचता है, तो वहां
की गंभीरता और शक्ति की
आभा उसे भीतर तक
स्पर्श करती है। भैरव
का रूप ही भय
और भक्ति का अद्भुत संतुलन
है, एक ओर कठोर
दंडाधिकारी, तो दूसरी ओर
भक्तों को पाप से
मुक्ति देने वाले करुणामय।
यहां पूजा-अर्चना कर
काशी में प्रवेश की
अनुमति और आशीर्वाद लिया
जाता है। तीसरा काशी
विश्वनाथ मंदिर दर्शन : काल भैरव की
वंदना के बाद भक्त
बाबा विश्वनाथ के धाम पहुंचते
हैं। यहां ज्योतिर्लिंग के
दर्शन से जीवन का
परम उद्देश्य सिद्ध होता है। चौथा
अन्य देवालय एवं परिक्रमा : विश्वनाथ
दर्शन के बाद भक्त
अपनी आस्था और समय अनुसार
अन्नपूर्णा देवी, विश्वेश्वर गणेश, माता विशालाक्षी और
अन्य देवालयों की परिक्रमा करते
हैं। इस क्रम का
भावार्थ यही है, रक्षा
और अनुमति काल भैरव के
हाथों में है, जबकि
मोक्ष और कृपा विश्वनाथ
के आंचल में। अर्थात्
काशी यात्रा का सौंदर्य तभी
पूर्ण होता है जब
पहला प्रणाम काल भैरव को
और अंतिम समर्पण विश्वनाथ को हो। इसलिए
काशी आने वाले प्रत्येक
यात्री को यही सलाह
दी जाती है कि
गंगा स्नान कर, सबसे पहले
कोतवाल बाबा की चौखट
पर शीश नवाएं। तभी
विश्वनाथ के दरबार में
खड़े होकर आरती का
वह अद्भुत अनुभव मिलेगा, जहां समय थम
जाता है और आत्मा
शिवमय हो उठती है।
विश्वनाथ धाम की भव्यता
और घंटों की अनुगूंज आत्मा
को शिवमय कर देती है।
यह यात्रा केवल देवदर्शन नहीं,
बल्कि आत्मा का क्रमिक शुद्धिकरण
है। कहते हे कालभैरव
की अनुमति और आशीर्वाद लेने
के बाद जब भक्त
विश्वनाथ की आरती में
सम्मिलित होता है, तब
वह अनुभव साधारण नहीं रह जाता,
बल्कि आत्मा को शिवत्व से
जोड़ देने वाला बन
जाता है। मंदिर के
पुजारी राजेशजी का कहना है
कि काशी का आध्यात्मिक
सौंदर्य इसी संतुलन में
निहित है। कोतवाल बाबा
से अनुमति लेकर विश्वनाथ के
दरबार पहुंचना, मानो पहले द्वारपाल
को प्रणाम कर राजमहल में
प्रवेश करना है। काल
भैरव की महिमा केवल
रक्षक देवता की नहीं, बल्कि
न्यायाधीश की भी है।
यह विश्वास है कि मृत्यु
के पश्चात आत्मा से पूछताछ का
दायित्व भी काल भैरव
पर है। अतः वे
धर्म और मर्यादा के
प्रहरी हैं। उनका कहना
है कि धार्मिक ग्रंथ
काशी खंड में वर्णन
है कि स्वयं महादेव
ने अपनी प्रिय नगरी
काशी की रक्षा का
दायित्व काल भैरव को
सौंपा। वे केवल रक्षक
ही नहीं, बल्कि अनुशासन और न्याय के
देवता भी माने जाते
हैं। मान्यता है कि जब
तक कोई भक्त काल
भैरव के चरणों में
प्रणाम न करे, तब
तक काशी की यात्रा
अधूरी रहती है। जहां
तक बाबा कालभैरव का
पहले दर्शन का सवाल है
तो पीढ़ियों से यह परंपरा
रही है कि काशी
यात्रा की शुरुआत गंगा
स्नान से होती है।
स्नान के बाद भक्त
सीधे काल भैरव मंदिर
पहुंचते हैं। यहां पूजा-अर्चना के बाद ही
वे विश्वनाथ धाम जाते हैं
और ज्योतिर्लिंग के दर्शन कर
जीवन का परम सुख
पाते हैं।
श्रीकाशी विश्वनाथ का धाम शिवभक्तों के लिए परम ध्येय है। यहां का ज्योतिर्लिंग केवल दर्शन का स्थल नहीं, बल्कि मोक्ष का द्वार है। कहा जाता है कि काशी में प्राण त्यागने वाले को महादेव स्वयं मुक्तिदाता बनकर तार देते हैं। यही कारण है कि विश्वनाथ का दर्शन प्रत्येक भक्त के जीवन का स्वप्न है। परंपरा कहती है “जो पहले काल भैरव की चौखट पर झुकता है, वही विश्वनाथ के दरबार में खड़ा होकर आरती की दिव्यता को आत्मा में उतार पाता है।” इसी में काशी की परंपरा और साहित्यिक आत्मा का सौंदर्य छिपा है। जो श्रद्धालु इस क्रम का पालन करता है, वह केवल मंदिरों का दर्शन नहीं करता, बल्कि काशी की आत्मा को स्पर्श करता है। इसीलिए पुरोहित और स्थानीय आस्थावान कहते हैं “विश्वनाथ से मिलने चलना है तो पहले कोतवाल से अनुमति लेना अनिवार्य है।” हालांकि जो श्रद्धालु सीधे विश्वनाथ मंदिर भी पहुंचते हैं, उनके दर्शन निष्फल नहीं माने जाते, परंतु परंपरा का सौंदर्य तभी पूर्ण होता है जब यात्रा का पहला पड़ाव काल भैरव हों। काशी की आध्यात्मिक छटा भी यही कहती है, “रक्षा और अनुमति काल भैरव की, और मोक्ष व कृपा विश्वनाथ की।” काशी आने वालों के लिए यही संदेश है कि गंगा की पावन धारा से स्नान कर, सबसे पहले कोतवाल बाबा के चरणों में प्रणाम करें। तब ही विश्वनाथ की आरती में खड़े होकर उस अद्भुत अनुभव का आस्वाद ले सकेंगे, जहाँ समय रुक जाता है और आत्मा शिवमय हो जाती है। हर साल भैरव अष्टमी और महाशिवरात्रि पर यहां भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है. इसके अलावा, हर रविवार और मंगलवार को भी बड़ी संख्या में लोग पहुंचते हैं. काशीवासियों के लिए वे न सिर्फ रक्षक हैं, बल्कि पापों को नष्ट करने वाले देवता भी हैं. बुरे कर्मों का हिसाब भी लगाते हैं. काशी के कोतवाल को सरसों का तेल, उड़द से बना वड़ा, नीले रंग की माला, काला वस्त्र प्रिय है, जो श्रद्धालु उनके लिए लेकर पहुंचते हैं. मंदिर के पास ढेरों श्वान रहते हैं, जो काल भैरव के सवारी हैं. दर्शन-पूजन के पश्चात श्रद्धालु इन्हें बर्फी, दूध, रबड़ी और बिस्किट समेत अन्य चीजें खिलाते हैं. मान्यता है इससे बाबा प्रसन्न होते हैं और कृपा करते हैं.
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