Thursday, 30 October 2025

जब काशी बनती है देवलोक, दीपों के समंदर में गंगा करती हैं आराधना

जब काशी बनती है देवलोक, दीपों के समंदर में गंगा करती हैं आराधना 

गंगा की शांत लहरों पर जब दीपों की अनगिनत ज्योतियां तैरती हैं, तब काशी सचमुच स्वर्ग का रूप धारण कर लेती है। यह वह रात होती है जब देवताओं का आगमन होता है, जब गंगा की गोद में स्वयं ब्रह्माण्ड का उजाला उतर आता है। घाटों पर दीपों की कतारें केवल रोशनी नहीं, बल्कि श्रद्धा, आस्था और आत्मिक आलोक का विराट प्रतीक बन जाती हैं। देव दीपावली, वह पावन उत्सव जब त्रिपुरासुर वध के बाद देवताओं ने गंगा के तट पर दीप प्रज्वलित कर विजय का उत्सव मनाया, आज भी उसी दिव्यता की अनुभूति कराता है। काशी के हर घाट पर जब आरती की घंटियां गूंजती हैं, शंखनाद से गगन भर उठता है, और गंगा की लहरें लय में थिरकती हैं, तो लगता है मानो देवता स्वयं नृत्य कर रहे हों। यह दृश्य केवल धार्मिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक चरम की अनुभूति है, जहां आस्था और सौंदर्य एकाकार हो जाते हैं। लाखों दीपों की पंक्तियां, नौकाओं पर झिलमिलाते प्रतिबिंब और भक्तों के चेहरों पर झलकती भक्ति, सब मिलकर काशी को उस अनंत आलोक में डुबो देते हैं जहां मनुष्य और देवत्व के बीच की दूरी मिट जाती है। मतलब साफ है देव दीपावली केवल उत्सव नहीं, बल्कि यह काशी की आत्मा का प्रकाश है, वह क्षण जब गंगा की लहरों पर स्वर्ग का नज़ारा उतर आता है, और समूची काशी झूम उठती है देवत्व के आलोक में...

सुरेश गांधी

देवताओं के देव महादेव की नगरी काशी, जहां हर सांस में अध्यात्म की सुगंध है, हर घाट में इतिहास की गहराई और हर लहर में अनादि काल का संगीत। जब कार्तिक पूर्णिमा की रात आती है, तब यह नगरी किसी और लोक में परिवर्तित हो जाती है। गंगा की लहरों पर तैरते दीपों की झिलमिलाहट, घाटों की सीढ़ियों पर सजे दीपमालाओं की सुव्यवस्थित कतारें, और उनके बीच बहती जन-धारा, सब मिलकर ऐसा दृश्य रचते हैं कि लगता है जैसे स्वर्ग उतर आया हो। काशी के घाटों की वह रात केवल उजास नहीं, अनुभूति है। मां गंगा के आंचल में जब लाखों दीप टिमटिमाते हैं, तो लगता है मानो देवताओं ने अपनी दीप्ति स्वयं काशी को अर्पित कर दी हो। अर्द्धचंद्राकार घाटों पर सजी दीपमालाएं जब गंगा की धारा से मिलती हैं, तो धरती और आकाश के बीच कोई भेद शेष नहीं रह जाता। गंगा के जल पर झिलमिलाते दीप, जैसे आकाशगंगा स्वयं उतर आई हो।

कहते है एक समय काशी में त्रिपुर नामक असुर ने देवताओं का प्रवेश वर्जित कर दिया था। देवता साधुवेश में पंचगंगा घाट पर गंगा स्नान करने आते और शीघ्र लौट जाते। जब त्रिपुरासुर का अत्याचार असहनीय हो गया, तब भगवान शिव ने उसका वध किया। देवताओं की विजय पर स्वर्गलोक में दीप जलाकर उत्सव मनाया गया, वही दिन देव दीपावली कहलाया। तब से कार्तिक पूर्णिमा के दिन काशी में दीपोत्सव मनाने की परंपरा चली रही है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन देवता स्वयं पृथ्वी पर उतरकर मां गंगा के घाटों पर आराधना करते हैं। गंगा की धार में जलता प्रत्येक दीप, देवताओं के आगमन का प्रतीक बन जाता है।

एक अन्य कथानुसार, जब महर्षि विश्वामित्र ने अपने तपोबल से त्रिशंकु को स्वर्ग भेजा, तो देवता क्रोधित हो गए और उसे अधर में लटका दिया। फिर विश्वामित्र ने नई सृष्टि रचने का संकल्प लिया। देवताओं ने जब उन्हें प्रसन्न किया, तब सर्वत्र दीप जलाकर प्रसन्नता व्यक्त की, वही प्रसंग देव दीपावली के रूप में पूजित हुआ। इसी प्रकार, वामन अवतार के बाद जब भगवान विष्णु स्वर्गलोक पहुंचे, तब देवताओं ने दीप प्रज्वलित कर उनका स्वागत किया। वही दिन कार्तिक पूर्णिमा का था। और जब त्रिपुरासुर का वध हुआ, तो देवताओं ने दीपों से स्वर्ग में उल्लास मनाया। इन सब घटनाओं ने मिलकर इस पर्व कोदेवताओं की दीपावलीबना दिया।

काशी की देव दीपावली का सबसे मोहक दृश्य दशाश्वमेध घाट की भव्य गंगा आरती है। यहां जब 11 ब्राह्मण, 108 दीपों से आराधना करते हैं, तब हर आरती पात्र की लौ हवा के साथ झूमती हुई जैसे नृत्य करती है। घंटा-घड़ियाल, शंखध्वनि, पुष्पवर्षा और अगरबत्तियों की सुगंध, सब मिलकर एक अलौकिक वातावरण बनाते हैं। गंगा की लहरें उस क्षण स्वयं ताल देती हैं, और आकाश में झिलमिलाता चन्द्रमा इस आरती का साक्षी बनता है। श्रद्धालु नावों और घाटों से भावविभोर होकर मां गंगा की वंदना करते हैं। यह वह क्षण होता है जब लगता है, गंगा की लहरों पर देवता नृत्य कर रहे हैं, और पूरी काशी उनके आनंद में झूम रही है। संध्या ढलते ही घाटों पर दीपों का सागर उमड़ पड़ता है। घाटों से लेकर रेत के पार तक, हर ओर दीयेकृमानो धरती पर तारों की वर्षा हो रही हो। माँ गंगा की धारा पर तैरते दीप जैसे जल की नहीं, प्रकाश की लहरें बन जाती हैं। जब सैकड़ों नावें घाटों के बीच तैरती हैं, तो लगता है जैसे नक्षत्रों की पूरी माला गंगा में तैर रही हो। गंगा की गोद में बैठा हर व्यक्ति उस क्षण भक्त से कवि बन जाता है। हवा में मंत्रोच्चार, आरती की ध्वनि और दीपों की लौ, सब मिलकर ऐसा सामंजस्य रचते हैं जो केवल काशी में संभव है।

यह केवल उत्सव नहीं, आत्मा का जागरण है, देवत्व का दर्शन। देव दीपावली की परंपरा धर्मपरायण महारानी अहिल्याबाई होल्कर से भी जुड़ी है। उन्होंने पंचगंगा घाट पर पत्थरों से बना हजारा दीप स्तंभ स्थापित कराया था, जो आज भी इस परंपरा का साक्षी है। आधुनिक स्वरूप में यह आयोजन बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में नये आयाम पाता गया। 1989 से देव दीपावली सभी चौरासी घाटों पर मनाई जाने लगी, और देखते ही देखते यह महोत्सव वैश्विक पहचान बन गया। आज देव दीपावली केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक है। देश-विदेश से पर्यटक यहां आते हैं, घाटों की सीढ़ियां महीनों पहले से सजाई जाती हैं, और गंगा सेवा निधि, देव दीपावली महासमिति जैसी संस्थाएं महीनों पहले से तैयारियां शुरू कर देती हैं। कोई दीप देता है, कोई तेल, कोई आयोजन की थीम तय करता है। यह केवल पर्व नहीं, बल्कि जन-भागीदारी का संगम है।

देवताओं का नगर, दीपों का सागर

कहते हैं देव दीपावली की रात 33 करोड़ देवी-देवता काशी में अवतरित होते हैं। गंगा के दोनों तटों पर लाखों दीप जलते हैं, जल में, रेत पर, घाटों पर, मंदिरों में। उस समय ऐसा लगता है जैसे हर दीप में देवता विराजमान हैं। काशी के चौरासी घाटों में 15 लाख दीपों का समुद्र लहराता है। किसी घाट पर आरती, किसी पर संगीत, किसी पर नृत्य और किसी पर ध्यान, हर घाट अपनी कथा कहता है। इन दीपों के बीच बैठकर गंगा का प्रवाह देखना, स्वयं देवत्व से संवाद करने जैसा है।

गंगा आराधना और सांस्कृतिक समन्वय

गंगा आरती केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की जीवंत अभिव्यक्ति है। यहां शास्त्र, कला, संगीत, नृत्य और दर्शन, सबका अद्भुत संगम होता है। आरती के दौरान पंडितों की गतियों में नृत्य की लय, हाथों में लहराते दीपों में कला की आभा, और गंगा की धार में बहते दीपों में दार्शनिक गहराई झलकती है। विदेशी पर्यटक जब इस दृश्य को देखते हैं, तो उनके चेहरे पर आश्चर्य के साथ श्रद्धा भी दिखाई देती है। उनके लिए यह एक आध्यात्मिक कला का जीवंत प्रदर्शन है; हमारे लिए यह आत्मा की साधना।

संस्कृति से वैश्विक पहचान तक

आज देव दीपावली केवल काशी की नहीं, पूरे भारत की पहचान बन चुकी है। गंगा के तीन किमी क्षेत्र में फैले घाटों पर जगमगाते दीपों का दृश्य किसी चमत्कार से कम नहीं। यही कारण है कि इसे देखने के लिए महीनों पहले से होटल, धर्मशालाएं, नौकाएं, बजड़े तक बुक हो जाते हैं। कोई आयोजन विश्व के किसी देश में ऐसा नहीं जहां एक नदी के दोनों तटों पर एक साथ लाखों दीप जलाकर स्वर्ग का रूप धर लिया जाए। यह आयोजन केवल धार्मिक है, बल्कि पर्यावरण, पर्यटन, और लोककला का भी पर्व बन चुका है।

जहां जीवन और मृत्यु दोनों उत्सव हैं

काशी केवल मोक्ष की नगरी नहीं, यह जीवन की पूर्णता की नगरी है। यहां मृत्यु भी उतनी ही पवित्र है जितना जीवन। यही कारण है कि देव दीपावली में केवल पूजा नहीं होती, बल्कि जीवन की निरंतरता का उत्सव मनाया जाता है। जिस गंगा में अस्थियां विसर्जित होती हैं, उसी में दीप बहाए जाते हैं। यह विरोधाभास नहीं, दर्शन है, प्रकाश और अंधकार, जीवन और मृत्यु, आरंभ और अंत, सबका संतुलन। यही काशी की आत्मा है, यही देव दीपावली का संदेश।

जब दीप में झलकता देवत्व

दीप केवल मिट्टी का नहीं होता, वह प्रतीक होता है ज्ञान का, सत्य का, ईश्वर से मनुष्य के संबंध का। जब हम दीप जलाते हैं, तो उस लौ में अपना अहंकार पिघलाते हैं। गंगा की लहरों पर तैरता दीप हमें यह याद दिलाता है कि जीवन भी एक प्रवाह है, जो देने में सुंदर है, जलने में नहीं मिटता, और प्रकाश बांटने में अमर होता है। काशी की देव दीपावली में हर दीप केवल एक ज्योति नहीं, बल्कि एक प्रार्थना है, हमारे भीतर भी वह दिव्यता जागे, जो देवताओं को पृथ्वी पर खींच लाती है।

मैं स्वयं देवलोक हूं 

देव दीपावली की रात काशी सचमुच बोल उठती है, यहां केवल मंदिर और आरती नहीं, यहां देवता उतरते हैं। यहां स्वर्ग नहीं, स्वयं देवत्व वास करता है। गंगा की लहरों पर झिलमिलाते दीप, घाटों पर नृत्य करती आरतियां, आकाश में चांदनी और मन में श्रद्धा, यह दृश्य केवल काशी में संभव है। क्योंकि काशी वह स्थान है जहां आस्था नदी बनकर बहती है, प्रकाश पर्व बनकर जगमगाती है, और देवत्व बनकर हर आत्मा को छू जाती है। जब गंगा की लहरों पर दीप तैरते हैं, देवता झूमते हैं, और काशी आलोकित होती है, तो सचमुच लगता है, स्वर्ग यहीं है, काशी में, मां गंगा की गोद में। काशी की यह परंपरा उतनी ही प्राचीन है जितनी स्वयं गंगा। अहिल्याबाई होल्कर द्वारा स्थापित पंचगंगा घाट का हजारा दीप स्तंभ इस परंपरा का साक्षी है। देव दीपावली के इस आयोजन में समाज का हर वर्ग सहभागी होता है, नाविक से लेकर पुष्प् विक्रेता तक। कोई दीप लाता है, कोई तेल, कोई आरती की थीम तय करता है। गंगा सेवा निधि और देव दीपावली महासमिति जैसे संगठन महीनों पहले से जुट जाते हैं, ताकि यह उत्सव अपनी पूर्णता को प्राप्त कर सके। यह वह क्षण है जब काशी सचमुच कह उठती है, “यहां स्वर्ग नहीं, स्वयं देवता वास करते हैं।

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