भदोही : करघों की धरती, आत्मनिर्भर भारत की धड़कन
भदोही, जिसे दुनिया “कारपेट सिटी ऑफ इंडिया” के नाम से जानती है, वहां के करघे केवल हाथों का हुनर नहीं, विरासत हैं। यहां का हर बुनकर एक कलाकार है जो अपने धागों से इतिहास लिखता है। करघे की ताल पर चलती उंगलियां समय की लकीरों को आकार देती हैं। कभी ये हाथ मिट्टी से रोटी बनाते हैं, कभी उसी मिट्टी के रंगों से दुनिया के फ़र्श सजाते हैं। हर गली में जब बुनाई की खटखट सुनाई देती है, तो वह भारत की आत्मनिर्भरता की सबसे पवित्र ध्वनि लगती है। मतलब साफ है यहां बुनाई केवल रोज़गार नहीं, एक साधना है, जहां धागे धर्म बन जाते हैं, रंग संस्कृति, और मेहनत भक्ति। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मेक इन इंडिया’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ का आह्वान किया, तो भदोही और मिर्ज़ापुर के बुनकरों ने कहा, “हम तो पहले से मेक इन इंडिया हैं।” यह कथन केवल गर्व नहीं, सत्य है। क्योंकि यहां की हर कालीन अपने आप में पूरी प्रक्रिया है, कपास से धागा, रंगाई से डिज़ाइन, और बुनाई से तैयार उत्पाद तक, सब कुछ भारत में। आज विश्व के 60 से अधिक देशों में भारतीय दरियों की मांग है। यूरोप, जापान, अमेरिका, हर जगह भदोही का नाम गुणवत्ता और परंपरा का प्रतीक है। यह आर्थिक ही नहीं, सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता का सशक्त उदाहरण है. केंद्रीय कपड़ा मंत्रालय की नीतियां 2025 तक 5000 मिलियन डॉलर के निर्यात का लक्ष्य रखती हैं। यह केवल आर्थिक लक्ष्य नहीं, बल्कि भारतीय पहचान की पुनर्स्थापना का अभियान है
सुरेश गांधी
भारत की धरती का सबसे सुंदर संगीत है, “खटखट” करती करघे की लय। यह वही लय है जो भदोही की गलियों, मिर्ज़ापुर की बुनकर बस्तियों, और राजस्थान की हवेलियों में एक साथ गूंजती है। यह केवल कपड़े की बुनाई नहीं, बल्कि भारतीय आत्मा की कला है, जो मिट्टी से उठकर रंगों, धागों और स्वप्नों में ढल जाती है। यहां की कालीनें हमारे घरों की ज़मीन पर बिछी होती है, लेकिन उसकी जड़ें हमारी संस्कृति के भीतर तक पैठी हैं। आज जब “मेक इन इंडिया“ और “आत्मनिर्भर भारत“ की चर्चा हर मंच पर है, तब भारतीय कालीनें उस अभियान की सबसे जीवंत मिसाल हैं, जो श्रम, सादगी और सौंदर्य की त्रिवेणी से जन्म लेती हैं। मतलब साफ है भारतीय कालीनों का डिज़ाइन किताबों से नहीं, जीवन से निकलता है। उसमें गांव की सांझ का केसरिया रंग है, खेतों की हरियाली की ताजगी है, और स्त्री की साड़ी से उतर आया लालपन है। भदोही या मिर्ज़ापुर का बुनकर कोई फैशन डिज़ाइनर नहीं, पर उसके हाथों से निकलने वाला हर पैटर्न एक कविता है।
कहीं त्योहारों की उमंग है, कहीं ऋतुओं का परिवर्तन, कहीं बेटी की विदाई की नमी है, तो कहीं सावन की झूला-गीत की छटा। कालीनों की हर बुनावट में लोककथा छिपी है, यह भारत के लोकजीवन का चलायमान संग्रहालय है। भदोही के ही ‘फेटकापुर’, ‘गोपीगंज’ और ‘सुरियावाँ’ जैसे कस्बों में सैकड़ों वर्ष पुरानी बुनाई परंपरा आज भी जिंदा है। घरों में महिलाएं करघे पर बैठी हैं, बच्चे धागों को सुलझा रहे हैं, और पुरुष बाहर के बाज़ार से रंगीन ऊन व कपास लेकर लौट रहे हैं। यहां की हर गली में किसी न किसी घर से करघे की आवाज़ आती है, जैसे यह कोई गीत हो, जो पीढ़ियों से गाया जा रहा है। भारतीय कालीनों की खासियत केवल उसके डिज़ाइन में नहीं, बल्कि उसकी आत्मा में है। कालीनों में रंगों का तालमेल अद्भुत होता है। पाँच रंगों, लाल, पीला, नीला, हरा और सफ़ेद, के बीच बुनकर जब नई रचना करता है, तो वह केवल पैटर्न नहीं बनाता, वह भाव बुनता है। कपास, ऊन और जूट जैसे प्राकृतिक रेशों से बनी दरी में न तो रासायनिक कठोरता होती है, न मशीनरी ठंडापन। यह मिट्टी से जुड़ी सादगी, हाथों की गर्मी और आत्मा की नमी से सनी होती है। इन कालीनों के डिज़ाइन में भारत की विविधता झलकती है, राजस्थान की पुष्कर मेला, गुजरात का कच्छ, पंजाब की फुलकारी, कश्मीर की नक्काशी और दक्षिण की कलात्मक लय। हर क्षेत्र ने अपने तरीके से दरी को सजाया-संवारा और उसे अपना ‘लोक स्वभाव’ दिया।
आज पेरिस, लंदन, न्यूयॉर्क या टोक्यो के आधुनिक घरों में भारतीय कालीनें एक “इंडियन टच” देती है। विदेशी डिज़ाइनर्स इसे “हैंडमेड ऑर्गेनिक कार्पेट्स” के नाम से ब्रांड करते हैं। जीआई टैग, इसकी हस्तनिर्मित विशुद्धता और पारंपरिक बुनाई। काफी समय तक मशीनों से बनी कालीनों ने हस्तनिर्मित दरियों को चुनौती दी, परंतु जैसे ही दुनिया ‘सस्टेनेबल लिविंग’ की ओर लौटी, हस्तनिर्मित दरी फिर से प्रासंगिक हो गई। यूरोप और अमेरिका के उपभोक्ता अब पर्यावरण-हितैषी उत्पादों की ओर लौट रहे हैं, और भारतीय कालीन उनके लिए ‘कल्चरल लग्ज़री’ बन गई है।
कहा जा सकता
है अब कालीन केवल
फर्श की सजावट नहीं
रही। इसे डिज़ाइनर्स ने
फ़ैशन की दुनिया में
भी उतार दिया है।
दिल्ली, जयपुर, मुम्बई और हैदराबाद में
आधुनिक डिज़ाइनर ‘बुने हुए टेक्सटाइल्स’
से बैग, कुशन कवर,
जैकेट और वॉल हैंगिंग
तक तैयार कर रहे हैं।
‘इंडिया डिज़ाइन वीक’ जैसे मंचों पर भदोही की कालीनों को ‘इंडियन आर्टिस्ट्री इन वीव’ कहकर प्रस्तुत किया जा रहा है। वहीं, सोशल मीडिया के युग में ‘सस्टेनेबल होम डेकोर’ के तहत युवा पीढ़ी अब अपनी जड़ों की ओर लौट रही है। यह एक सकारात्मक संकेत है कि भारतीय परंपरा अब केवल विरासत नहीं, आधुनिकता का भी हिस्सा बन रही है। पुराने समय में करघे हाथ से चलते थे।
ऊन और कपास के धागे में रंग प्राकृतिक स्रोतों से मिलते थे, हल्दी, मेहंदी, नीला, और इमली के छिलके।
आज स्थिति बदली है। नई मशीनें आई हैं, ऑटोमेटिक करघे और पॉवरलूम ने काम तेज़ किया है। लेकिन कई विशेषज्ञों का मानना है कि इससे बुनाई का “मानवीय स्पर्श” कम हुआ है।
भदोही, जयपुर, और पनिपत में कई कलाकार अब भी पारंपरिक करघों पर ही काम करते हैं। उनका कहना है, “मशीन बुनाई कर सकती है, मगर आत्मा नहीं डाल सकती।” यही कारण है कि ‘हैंडलूम मार्क’ और ‘जियोग्राफिकल इंडिकेशन टैग’ वाले उत्पादों की कीमत और प्रतिष्ठा दोनों अधिक हैं।
घरों की ज़मीन से विश्व बाज़ार तक
कला नहीं, यह तो घर की संस्कृति है
समय की चुनौती और श्रम की विजय
मिट्टी बोलती है, धागे गवाही देते हैं
भारत की पहचान
किसी गगनचुंबी इमारत में नहीं, बल्कि
उस छोटे करघे में
छिपी है जो गांव
की झोपड़ी में गूंजता है।
वह करघा हमें बताता
है कि भारत आज
भी अपने हाथों से
सपनों की बुनाई करता
है। कालीन हमारे घरों की ज़मीन
पर बिछी होती है,
पर उसके धागों में
भारत की आत्मा लिपटी
होती है।
“हर बुनाई में
एक
कहानी
है,
हर
रंग
में
एक
भावना।
यही तो भारत
है, जहां मिट्टी, मन
और मेहनत मिलकर चमत्कार रचते हैं।”
क्यों कहलाता है भदोही ‘कारपेट सिटी’?
भदोही विश्व का सबसे बड़ा
हस्तनिर्मित कालीन उद्योग केंद्र है। यहां 20 लाख
से अधिक लोग प्रत्यक्ष
या अप्रत्यक्ष रूप से बुनाई
से जुड़े हैं। 60 से
अधिक देशों में निर्यात, सालाना
कारोबार लगभग 17000 करोड़। 16वीं सदी से
चली आ रही पारंपरिक
बुनाई आज भी आधुनिक
डिज़ाइन के साथ जीवित
है। भदोही की गलियों से
उठती करघे की ताल
आज ‘मेक इन इंडिया’
का सबसे सुंदर संगीत
है। यह केवल रोज़गार
नहीं, आत्मगौरव की बुनाई है।
जिस देश के बुनकर
अपने धागों में संस्कृति, रंग
और आत्मा बुनते हैं, वह देश
न केवल आत्मनिर्भर होता
है, बल्कि विश्व का मार्गदर्शक भी
बनता है। उत्तर प्रदेश
के भदोही को आज “कारपेट
सिटी” इसलिए कहा जाता है,
क्योंकि यहां की पहचान
केवल निर्यात या व्यापार की
नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक विरासत
की भी है। इस
धरती पर पीढ़ियों से
करघे चलते आ रहे
हैं, पिता से पुत्र,
और फिर पोते तक
यह बुनाई कला केवल धंधा
नहीं, बल्कि परंपरा बन गई है।
यहां के करघे लकड़ी
के नहीं, भावनाओं के हैं। हर
बुनकर जानता है कि एक
कालीन केवल धागों का
मेल नहीं, बल्कि समय, श्रम और
संवेदना का संगम है।
धागे जब एक-दूसरे
में उलझते हैं, तो उनमें
जीवन की लय बस
जाती है, जैसे कोई
माँ अपनी लोरी बुन
रही हो।
वैश्विक मंच पर भारतीय कालीनों की चमक
“भदोही कारपेट्स” को जीआई प्राप्त
है। यूरोप, जापान, अमेरिका में भारतीय कालीनों
की वार्षिक मांग लगातार बढ़
रही है। पर्यावरण अनुकूल
रंगाई और नैचुरल फाइबर
के कारण इनकी विशेष
मांग है। भारत विश्व
में हैंडमेड कारपेट एक्सपोर्ट में प्रथम स्थान
पर है। कारण भारत
की आत्मा उसके गांवों में
बसती है और उसकी
सबसे सुंदर झलक वहां के
करघों से झरती है।
भदोही, मिर्ज़ापुर, जयपुर, पनिपत या जैसलमेर, इन
सब जगहों की गलियों में
जब बुनाई की लय गूंजती
है, तो वह केवल
धागों की खटखट नहीं,
बल्कि भारतीय संस्कृति की धड़कन होती
है। एक साधारण-सी
दिखने वाली दरी या
कालीन भारतीय गृहस्थ जीवन की पहचान
है। यह न केवल
फ़र्श की शोभा है,
बल्कि मेहनतकश हाथों के आत्म-सम्मान,
स्त्री-सृजन की संवेदना
और श्रम की गरिमा
का सजीव प्रतीक भी
है। आज जब दुनिया
में “मेक इन इंडिया“
और “वोकल फॉर लोकल“
की बात हो रही
है, तब भारतीय दरियां
उस आत्मनिर्भर भारत की मिसाल
हैं, जो आधुनिकता के
बीच भी परंपरा का
मान रखती हैं।
रंग, रेखा और राग : कालीन की आत्मा का त्रिवेणी संगम
यदि भारतीय संगीत
में राग की आत्मा
है, तो दरी में
रंगों का संगीत है।
कहीं यह जरी-दार
होती है, कहीं ऊनी,
कहीं सूती, लेकिन हर रूप में
यह भारतीयता की कहानी कहती
है। भदोही के कलाकार कहते
हैं, “कालीन हमारी कविता है, जिसे हम
करघे पर लिखते हैं।”
और सच भी यही
है, हर बुनाई में
कुछ अनकहे शब्द होते हैं,
कुछ भाव जो बोले
नहीं जाते, बस ‘बुने’ जाते
हैं। भारत की सबसे
बड़ी ताक़त यही है
कि वह अपनी संस्कृति
को काम में ढाल
देता है। कालीन बुनना
केवल रोज़गार नहीं, बल्कि मिट्टी से रिश्ता जोड़ने
की साधना है। भदोही की
कालीनें हों या राजस्थान
की किलिम, यह केवल व्यापार
नहीं, भारत की आत्मा
का निर्यात हैं। इनमें ‘हाथ’
की गरिमा है, ‘दिल’ की
कला है, और ‘देश’
की पहचान है। आज जब
हम आत्मनिर्भर भारत का सपना
देखते हैं, तो याद
रखना चाहिए कि वह किसी
बड़े औद्योगिक कॉरिडोर से नहीं, बल्कि
किसी छोटे करघे से
शुरू होता है, जहाँ
कोई बुनकर अब भी अपने
पसीने से भारत का
गौरव बुन रहा है।
जब फर्श पर उतरती है संस्कृति
भारत के हर
घर की मिट्टी में
एक लय है, एक
रंग है, और एक
ऐसी अनुभूति है जो केवल
दिखाई नहीं देती, महसूस
होती है। यह वही
अनुभूति है जो कभी
तुलसी के आँगन में,
कभी चौखट पर बिछी
कालीन में अपनी उपस्थिति
दर्ज कराती है। कालीन एक
साधारण वस्त्र नहीं, बल्कि भारतीय जीवन का वह
विनम्र हिस्सा है जो वर्षों
से हमारे संस्कार, श्रम और सौंदर्य-बोध का प्रतीक
बना हुआ है। भदोही,
मिर्ज़ापुर, जयपुर, पनिपत, जैसलमेर, कन्नौज, मध्य प्रदेश के
ग्वालियर-बुंदेलखंड और दक्षिण भारत
के भीतरी हिस्सों तक, हर बुनाई
का अपना इतिहास है,
अपनी आत्मा है। जहाँ करघों
की खटर-पटर में
श्रम का संगीत झंकृत
होता है, वहीं रंगों
की परतों में भारतीय संस्कृति
का इंद्रधनुष खिल उठता है।
कहा जाता है कि
भारत की धरती पर
जो चीज़ बनती है,
वह केवल चीज़ नहीं
रहती, ‘संस्कार’ बन जाती है।
कालीन भी उसी परंपरा
की देन है। प्राचीन
ग्रंथों में ‘फर्श वस्त्र’
या ‘अस्सन’ के रूप में
इसका उल्लेख मिलता है। वैदिक युग
में ऋषि-मुनि कुशासन
और चर्मासन पर बैठते थे,
लेकिन घरों में ‘कालीन
या दरी’ जैसी वस्त्र
बुनाई लोकपरंपरा का हिस्सा बन
गई। ग्रामीण भारत की स्त्रियां
अपने करघों पर कपास, ऊन
और जूट से धागे
काततीं और उनमें घर
की कहानियाँ, मौसम की लय
और अपने भाव बुनतीं।
यही बुनाई धीरे-धीरे कला
बन गई। दरअसल, भारतीय
बुनाई केवल तकनीक नहीं
है, यह लोकजीवन की
संवेदना है। किसी गाँव
की स्त्री जब करघे पर
धागा डालती है, तो वह
केवल रंग नहीं भरती,
वह अपने मन का
गीत बुनती है। दरी की
हर पट्टी में मौसम का
रंग, त्यौहार की आहट, और
घर की आत्मा समाहित
होती है।








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