6 दिसंबर : वह दिन, जिसकी कुर्बानियों ने अयोध्या को उसकी आत्मा लौटाई
6 दिसंबर भारतीय इतिहास का वह मोड़ है, जहां आस्था, संघर्ष और राजनीति की त्रिवेणी एक साथ फूटती दिखाई देती है। यह तारीख केवल किसी ढांचे के ढहने की स्मृति नहीं, बल्कि उस सामाजिक उथल-पुथल, भावनात्मक वेग और वैचारिक संघर्ष की प्रतिध्वनि है जिसने भारत को नए विमर्शों के द्वार पर खड़ा किया। बाबरी घटना के 33 वर्ष बीत चुके हैं, पर यह दिन आज भी केवल अतीत का अध्याय नहीं, वर्तमान की राजनीति, सुरक्षा एजेंसियों की सतर्कता और आने वाली पीढ़ियों की स्मृति में लगातार नए आयाम जोड़ता रहता है। और विडंबना देखिए, जिस तारीख को एक विवादित ढांचा गिरा था, उसी कालखंड की परिणति आज अयोध्या में विराट राममंदिर के रूप में सामने खड़ी है। लाखों संघर्षशील कंधों, हजारों नाम-गुमनाम तपस्वियों और कई पीढ़ियों की श्रद्धा ने इस विजय को संभव बनाया। यही कारण है कि कुछ लोग 6 दिसंबर को ‘विजय-स्मृति दिवस’ की तरह भी देखते हैं, जहां इतिहास का एक अध्याय समाप्त होकर एक नए युग का आरंभ हुआ। आज, जब सुरक्षा एजेंसियां 6 दिसंबर और 13 दिसंबर (संसद हमले की बरसी) के मद्देनज़र अपने स्तर पर अलर्ट हैं, तो यह भी याद दिलाता है कि इतिहास केवल किताबों में नहीं रहता, वह हमारी गलियों, हमारे मन और हमारी राजनीति में जीवित रहता है
सुरेश गांधी
भारत के सामाजिक-धार्मिक इतिहास में कुछ तिथियां ऐसी होती हैं जो सिर्फ कैलेंडर पर नहीं रहतीं, वे राष्ट्र की चेतना का हिस्सा बन जाती हैं। 6 दिसंबर 1992 ऐसी ही तारीख है। कुछ के लिए यह सनातन अस्मिता की पुनर्स्थापना का क्षण है, कुछ के लिए दुख और सामाजिक तनाव का प्रतीक, और राष्ट्र के लिए एक गंभीर मोड़, जिसने आने वाले दशक की राजनीति, न्याय और सामाजिक संरचना बदल दी। परंतु इन सबके बीच एक सवाल सधे स्वर में उठता है, क्या 6 दिसंबर को सनातनियों का “विजय पर्व” कहा जा सकता है? उत्तर न तो पूरी तरह ‘हाँ’ है और न बिल्कुल ‘ना’। क्योंकि यह दिन विजय से पहले के संघर्ष का क्षण है, वह दिन, जिसने भव्य मंदिर निर्माण की दिशा खोली, किंतु जिसका परिणाम एक लम्बे न्यायिक-राजनीतिक सफ़र के बाद मिला। मतलब साफ है भारतीय इतिहास के कुछ पृष्ठ ऐसे होते हैं जिनका शीर्षक समय नहीं लिखता, बल्कि समाज अपने घावों और गौरव से लिखता है। 6 दिसंबर भी ऐसी ही एक तारीख है, एक ऐसी तिथि, जिसके किनारे पर विरोध, विरोधाभास, तीखे स्वर, प्रबल भावनाएं और समूची भारतीय चेतना के उतार - चढ़ाव एक साथ दर्ज हैं। 33 वर्ष पूर्व अयोध्या की सरयू किनारे खड़े एक विवादित ढांचे के ध्वंस ने भारतीय राजनीति की दिशा बदली, धार्मिक विमर्श के नए आयाम गढ़े, और इतिहास की धूल में दबे रामजन्मभूमि संघर्ष को राष्ट्रीय मंच दे दिया।
मतलब साफ है 6 दिसंबर कोई साधारण घटना मात्र नहीं है; यह सांस्कृतिक स्मृति, संघर्ष की ज्वाला और विजय की प्रस्तावना का वह दिन है जिसने भारतीय मानस की उन पीढ़ियों की तपस्या को उजागर किया, जो रामलला के लिए न्याय मांगते रहे। राम मंदिर आंदोलन किसी एक पार्टी, संगठन या दौर की देन नहीं था। यह आंदोलन कई दशकों की जनभावनाओं, साधु-संतों, इतिहासकारों, स्थानीय निवासियों और करोड़ों शीश झुकाते श्रद्धालुओं के समूहिक संघर्ष का परिणाम था। हजारों कारसेवकों ने वर्षों तक कार्यक्रमों में भाग लिया, कईयों ने अपनी जान गंवाई,सैकड़ों पर मुकदमे चले, हजारों परिवारों ने सामाजिक-राजनीतिक दबाव झेला, कई संतों ने जेल यात्राएं कीं इतिहास के पन्नों पर यह संघर्ष एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण के रूप में दर्ज है। राम जन्मभूमि के लिए संघर्ष केवल एक मंदिर का संघर्ष नहीं था, यह सनातन पहचान, सांस्कृतिक अधिकार और ऐतिहासिक सत्य की पुनर्स्थापना का संघर्ष था। राम मंदिर का प्रश्न किसी अदालत या संसद में अचानक पैदा नहीं हुआ। यह शताब्दियों से भारतीय मन में अंकित एक तपःयात्रा थी, यह संघर्ष उस समय से शुरू हुआ जब मंदिर को ध्वस्त कर ढांचा बनाया गया। स्थानीय जनमानस से लेकर अखिल भारतीय धर्म संसदों तक, यह मुद्दा सदियों तक जलता रहा। महंत दिग्विजयनाथ, महंत अवैद्यनाथ, और बाद में अशोक सिंघल जैसे नेताओं ने इस आंदोलन को संगठित रूप दिया। लाखों कारसेवकों की आस्था, संतों की तपस्या और करोड़ों सनातनियों की भावना ने इस आंदोलन को जनांदोलन बनाया। यह संघर्ष किसी धर्म के विरुद्ध नहीं था, यह आस्था के प्राकृतिक अधिकार की पुनर्स्थापना की मांग थी। इसीलिए रामजन्मभूमि आंदोलन इतिहास में अध्यात्म और आंदोलन का सबसे अनोखा संगम बन गया।क्या यह विजय थी? संघर्ष का अंत या शुरुआत? यही सवाल आज भी बहस के केंद्र में है, क्या 6 दिसंबर को सनातनियों का “विजय पर्व” कहा जा सकता है? वास्तविक सत्य यह है कि 6 दिसंबर विजय का अंतिम बिंदु नहीं, बल्कि विजय की दृश्य शुरुआत था। संघर्ष अभी जारी था, मुकदमे दर्ज हुए, आयोग बने, राजनीतिक विमर्श तेज हुआ, अदालतों में सुनवाई शुरू हुई, 6 दिसंबर ने केवल मार्ग खोला, मंज़िल 27 वर्ष बाद मिली, जब 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने राम जन्मभूमि के पक्ष में ऐतिहासिक निर्णय सुनाया। और अंतिम, सच्ची विजय तब हुई, जब 22 जनवरी 2024 को रामलला अपने नवीन दिव्य मंदिर में स्थापित हुए। इसलिए 6 दिसंबर को ‘विजय पर्व’ कहना
संघर्ष के अंतिम अर्थ को कम करना होगा। लेकिन इसे “संघर्ष-विजय दिवस या “सांस्कृतिक पुनर्जागरण का उद्गम दिवस” कहना अधिक समीचीन है। राम मंदिर केवल स्थापत्य का चमत्कार नहीं है। यह उन अनाम और ज्ञात दोनों कारसेवकों की स्मृति भी है, जिन्होंने आंदोलन में जान गंवाई, जिन पर मुकदमे चले, जिन्होंने जेलें देखीं, जिन्होंने अपने व्यवसाय, करियर, सामाजिक प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी, जिन परिवारों ने वर्षों तक संघर्ष सहा और जिन संतों ने जीवन भर रामलला के लिए तप किया. मतलब साफ है अयोध्या का भव्य मंदिर इन कुर्बानियों का जीवंत स्मारक है। इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा राम मंदिर केवल पत्थरों से नहीं बना, यह खून, आंसू, तपस्या, संकल्प और आस्था की संजीवनी से बना है।6 दिसंबर 2025 : अलर्ट, सुरक्षा और संवेदनशीलता
भव्य मंदिर : संघर्ष की कथा का दिव्य रूपांतरण
आज जब अयोध्या
में 161 फीट ऊँचा विशाल मंदिर खड़ा है, तो लगता है मानो सदियों का संघर्ष पत्थरों में बदलकर बोल उठा हो। मंदिर का स्थापत्य नागरा शैली का दिव्य प्रारूप लिए कला और आध्यात्मिकता का अद्भुत संगम है। रामलला का नवीन विग्रह, सोने के सिंहासन, 72 फुट लंबे स्तंभों के बीच झांकती दिव्यता, यह सब बताता है कि इतिहास कभी-कभी न्याय के स्वरूप में पुनः अवतरित होता है। यह मंदिर केवल धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रत्यक्ष अनुभूति है।6 दिसंबर का भविष्य : स्मृति, सावधानी और संतुलन का सूत्र
भविष्य में 6 दिसंबर को तीन अर्थों
में याद किया जाएगा,
1. संघर्ष और तपस्या की
स्मृति के रूप में
क्योंकि यह वह दिन
था जिसने इतिहास का रुख बदल
दिया। 2. सामाजिक सावधानी और सामंजस्य के
प्रतीक के रूप में
क्योंकि इस घटना के
बाद देश ने कई
दंगे, कई घाव और
कई सीखें देखीं। 3. सांस्कृतिक जागरण के दिवस के
रूप में क्योंकि इस
तारीख ने राम मंदिर
आंदोलन को निर्णायक मोड़
दिया। ऐसे में बड़ा
सवाल तो यही है
क्या 6 दिसंबर को सनातनियों का
विजय पर्व कहा जा
सकता है? पूरी विजय
नहीं, लेकिन विजय की पहली
ज्योति अवश्य। यह वह दिन
है जब संघर्ष की
ज्वाला ने भव्य मंदिर
का मार्ग प्रज्वलित किया। यह वह दिन
है जिसने इतिहास को नई दिशा
दी, राष्ट्रीय चेतना को हिलाकर जगाया,
और करोड़ों श्रद्धालुओं के हृदय में
छिपी उस पीड़ा को
स्वर दिया जो सदियों
से अनसुनी थी। 6 दिसंबर संघर्ष की विजय का
उद्गम है, वह दिन,
जिसकी कुर्बानियों ने अयोध्या में
खड़े भव्य राम मंदिर
की नींव रखी।
1992 से 2019 तक : विवाद, अदालत, न्याय, मंदिर
विवादित जमीन पर लंबी
सुनवाई और हिंसक घटनाओं
के बाद, सुपी्रम कोर्ट
आफ इंडिया ने नवंबर 2019 में
फैसला सुनाया, विवादित स्थल पर मंदिर
बनाना जायज़ है। उसके
बाद शुरू हुआ भव्य
मंदिर निर्माण, जो 2024 : 25 में प्रगति की
चरम सीमा पर है।
लेकिन बाबरी का मुद्दा सिर्फ
अदालत या निर्माण तक
सीमित नहीं रहा, यह
भारत की सामाजिक स्मृति,
राजनीतिक रुझान, लोक-भावनाओं और
धार्मिक पहचान का प्रतीक बन
गया। 6 दिसंबर की घटना के
बाद भारत की राजनीति
जिस तेज़ी से बदली,
उसकी मिसाल स्वतंत्रता-उत्तर भारत के इतिहास
में कम मिलती है।
राममंदिर आंदोलन राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में
आ गया। वोटिंग पैटर्न
बदले। क्षेत्रीय दलों के समीकरण
बदले। और देश भर
में पहचान आधारित राजनीति ने नया आयाम
लिया। दंगे, तनाव, कर्फ्यू, इन सबने देश
को लंबे समय तक
अस्थिर रखा। समाज में
अविश्वास की खाई गहरी
हुई। पत्रकारिता और न्यायपालिका दोनों
नए दबावों से गुजरे। आखिरकार
नवंबर 2019 में सर्वोच्च न्यायालय
ने विस्तृत ऐतिहासिक, पुरातात्विक, राजनैतिक और कानूनी विश्लेषण
के बाद यह कहा
कि विवादित स्थल पर रामलला
की प्राचीन उपस्थिति के प्रमाण पर्याप्त
हैं। मुस्लिम पक्ष को पाँच
एकड़ में वैकल्पिक भूखंड
दिया जाए। यह फैसला
भारतीय न्यायिक इतिहास में एक युगांतकारी
क्षण के रूप में
दर्ज हुआ।
आज का अयोध्या : नया अध्याय, नया नगर, नई आकांक्षाएं
आज का अयोध्या
1992 का अयोध्या नहीं है। नगर
का पुनर्विकास अभूतपूर्व गति से चल
रहा है। 125 मीटर ऊँचा राममंदिर
आधुनिक तकनीक, पारंपरिक वास्तुकला और विशाल परिसर
के साथ आकार ले
चुका है। अयोध्या का
नया स्वरूप, चौड़ी सड़कें, विश्वस्तरीय
रेलमार्ग और नया हवाईअड्डा,
हजारों करोड़ के पर्यटन
प्रोजेक्ट, सरयू नदी तट
का अभूतपूर्व सौंदर्य, धर्मिक पर्यटन की नई परिभाषा.
अयोध्या अब केवल आस्था
का शहर नहीं, बल्कि
वैश्विक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक केंद्र
के रूप में उभर
रहा है. मतलब साफ
है 6 दिसंबर 1992 का दिन चाहे
जैसी स्मृति छोड़ गया हो,
पर उसका अंतिम पड़ाव
आज शांति, पुनर्निर्माण और सभ्यतागत पुनर्जागरण
के रूप में सामने
है।







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