Thursday, 4 December 2025

6 दिसंबर : वह दिन, जिसकी कुर्बानियों ने अयोध्या को उसकी आत्मा लौटाई

6 दिसंबर : वह दिन, जिसकी कुर्बानियों ने अयोध्या को उसकी आत्मा लौटाई

6 दिसंबर भारतीय इतिहास का वह मोड़ है, जहां आस्था, संघर्ष और राजनीति की त्रिवेणी एक साथ फूटती दिखाई देती है। यह तारीख केवल किसी ढांचे के ढहने की स्मृति नहीं, बल्कि उस सामाजिक उथल-पुथल, भावनात्मक वेग और वैचारिक संघर्ष की प्रतिध्वनि है जिसने भारत को नए विमर्शों के द्वार पर खड़ा किया। बाबरी घटना के 33 वर्ष बीत चुके हैं, पर यह दिन आज भी केवल अतीत का अध्याय नहीं, वर्तमान की राजनीति, सुरक्षा एजेंसियों की सतर्कता और आने वाली पीढ़ियों की स्मृति में लगातार नए आयाम जोड़ता रहता है। और विडंबना देखिए, जिस तारीख को एक विवादित ढांचा गिरा था, उसी कालखंड की परिणति आज अयोध्या में विराट राममंदिर के रूप में सामने खड़ी है। लाखों संघर्षशील कंधों, हजारों नाम-गुमनाम तपस्वियों और कई पीढ़ियों की श्रद्धा ने इस विजय को संभव बनाया। यही कारण है कि कुछ लोग 6 दिसंबर कोविजय-स्मृति दिवसकी तरह भी देखते हैं, जहां इतिहास का एक अध्याय समाप्त होकर एक नए युग का आरंभ हुआ। आज, जब सुरक्षा एजेंसियां 6 दिसंबर और 13 दिसंबर (संसद हमले की बरसी) के मद्देनज़र अपने स्तर पर अलर्ट हैं, तो यह भी याद दिलाता है कि इतिहास केवल किताबों में नहीं रहता, वह हमारी गलियों, हमारे मन और हमारी राजनीति में जीवित रहता है 

सुरेश गांधी

भारत के सामाजिक-धार्मिक इतिहास में कुछ तिथियां ऐसी होती हैं जो सिर्फ कैलेंडर पर नहीं रहतीं, वे राष्ट्र की चेतना का हिस्सा बन जाती हैं। 6 दिसंबर 1992 ऐसी ही तारीख है। कुछ के लिए यह सनातन अस्मिता की पुनर्स्थापना का क्षण है, कुछ के लिए दुख और सामाजिक तनाव का प्रतीक, और राष्ट्र के लिए एक गंभीर मोड़, जिसने आने वाले दशक की राजनीति, न्याय और सामाजिक संरचना बदल दी। परंतु इन सबके बीच एक सवाल सधे स्वर में उठता है, क्या 6 दिसंबर को सनातनियों काविजय पर्वकहा जा सकता है? उत्तर तो पूरी तरहहाँहै और बिल्कुलना क्योंकि यह दिन विजय से पहले के संघर्ष का क्षण है, वह दिन, जिसने भव्य मंदिर निर्माण की दिशा खोली, किंतु जिसका परिणाम एक लम्बे न्यायिक-राजनीतिक सफ़र के बाद मिला। मतलब साफ है भारतीय इतिहास के कुछ पृष्ठ ऐसे होते हैं जिनका शीर्षक समय नहीं लिखता, बल्कि समाज अपने घावों और गौरव से लिखता है। 6 दिसंबर भी ऐसी ही एक तारीख है, एक ऐसी तिथि, जिसके किनारे पर विरोध, विरोधाभास, तीखे स्वर, प्रबल भावनाएं और समूची भारतीय चेतना के उतार - चढ़ाव एक साथ दर्ज हैं। 33 वर्ष पूर्व अयोध्या की सरयू किनारे खड़े एक विवादित ढांचे के ध्वंस ने भारतीय राजनीति की दिशा बदली, धार्मिक विमर्श के नए आयाम गढ़े, और इतिहास की धूल में दबे रामजन्मभूमि संघर्ष को राष्ट्रीय मंच दे दिया।

मतलब साफ है 6 दिसंबर कोई साधारण घटना मात्र नहीं है; यह सांस्कृतिक स्मृति, संघर्ष की ज्वाला और विजय की प्रस्तावना का वह दिन है जिसने भारतीय मानस की उन पीढ़ियों की तपस्या को उजागर किया, जो रामलला के लिए न्याय मांगते रहे। राम मंदिर आंदोलन किसी एक पार्टी, संगठन या दौर की देन नहीं था। यह आंदोलन कई दशकों की जनभावनाओं, साधु-संतों, इतिहासकारों, स्थानीय निवासियों और करोड़ों शीश झुकाते श्रद्धालुओं के समूहिक संघर्ष का परिणाम था। हजारों कारसेवकों ने वर्षों तक कार्यक्रमों में भाग लिया, कईयों ने अपनी जान गंवाई,सैकड़ों पर मुकदमे चले, हजारों परिवारों ने सामाजिक-राजनीतिक दबाव झेला, कई संतों ने जेल यात्राएं कीं इतिहास के पन्नों पर यह संघर्ष एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण के रूप में दर्ज है। राम जन्मभूमि के लिए संघर्ष केवल एक मंदिर का संघर्ष नहीं था, यह सनातन पहचान, सांस्कृतिक अधिकार और ऐतिहासिक सत्य की पुनर्स्थापना का संघर्ष था। राम मंदिर का प्रश्न किसी अदालत या संसद में अचानक पैदा नहीं हुआ। यह शताब्दियों से भारतीय मन में अंकित एक तपःयात्रा थी, यह संघर्ष उस समय से शुरू हुआ जब मंदिर को ध्वस्त कर ढांचा बनाया गया। स्थानीय जनमानस से लेकर अखिल भारतीय धर्म संसदों तक, यह मुद्दा सदियों तक जलता रहा। महंत दिग्विजयनाथ, महंत अवैद्यनाथ, और बाद में अशोक सिंघल जैसे नेताओं ने इस आंदोलन को संगठित रूप दिया। लाखों कारसेवकों की आस्था, संतों की तपस्या और करोड़ों सनातनियों की भावना ने इस आंदोलन को जनांदोलन बनाया। यह संघर्ष किसी धर्म के विरुद्ध नहीं था, यह आस्था के प्राकृतिक अधिकार की पुनर्स्थापना की मांग थी। इसीलिए रामजन्मभूमि आंदोलन इतिहास में अध्यात्म और आंदोलन का सबसे अनोखा संगम बन गया।

6 दिसंबर 1992 की सुबह  सामान्य थी, लेकिन वातावरण में एक गहरी बेचैनी थी, जैसे किसी लंबे प्रतीक्षा-चक्र का अंतिम पड़ाव सामने रहा हो। अयोध्या जैसे एक शहर में सामान्य दिवस की आहट थी। लेकिन सरयू तट पर उमड़ रहा जनसैलाब संकेत दे रहा था कि कुछ असाधारण होने वाला है। हजारों कारसेवक, देश के कोने-कोने से आए, तत्पर थे। वे अपने भीतर वर्षों का रोष और आस्था समेटे हुए थे। मंच पर नेताओं के भाषण जारी थे, लेकिन भीड़ का मन किसी और दिशा में बह रहा था। दोपहर ढले अचानक हालात बदले, जैसे-जैसे हजारों कारसेवक रामलला के दर्शन स्थल के पास पहुंचे, भीड़ का उबाल उस बिंदु पर पहुंचा जहां प्रतीकात्मक संघर्ष वास्तविक टकराव में बदल गया। सुरक्षा व्यवस्थाएं टूटने लगीं, पुलिस-व्यवस्था ढह गई, मंच से नेता नियंत्रण खो बैठे, नियंत्रण रेखाएं धुंधली होती गईं, लोग गुंबद की तरफ बढ़ने लगे, और कुछ ही घंटों में, वह विवादित ढांचा धूल में मिल चुका था। यह घटना, चाहे कोई समर्थन करे या विरोध, इतिहास में एक निश्चित मोड़ के रूप में दर्ज हो गई। कई लोगों के लिए यह सनातन अस्मिता की पहली प्रकट विजय का क्षण था, तो कईयों के लिए यह समाज के दो पाटों में उभरती खाई का दर्पण। लेकिन निर्विवाद रूप से, यह वह दिन था जिसने राम मंदिर मुद्दे को राजनीति की भीड़ से निकालकर राष्ट्र की स्मृति में स्थायी स्थान दिया। ऐसा इसलिए क्योंकि उस दिन जो हुआ, वह किसी चमत्कार से कम नहीं हैं. या यूं कहे भारतीय इतिहास में कुछ तिथियां केवल दर्ज नहीं होतीं, वे समय को चीरती हुई लोक-स्मृति में धधकते दीपक की तरह जलती रहती हैं।

6 दिसंबर 1992 ऐसी ही तारीख है, जहां आस्था का ज्वार, भीड़ की एकजुट ऊर्जा और दशकों से दबी भावनाओं का विस्फोट, एक साथ दिखा। लेकिन इस दिन जो कुछ हुआ, वह केवल राजनीतिक या सामाजिक दृष्टि से ही नहीं, व्यावहारिक, तकनीकी और मानवीय क्षमता के स्तर पर भी इस देश की सबसे रहस्यमय घटनाओं में से एक माना जाता है। सामान्य परिस्थितियों में जहां किसी छोटे सरकारी भवन, एक कमरे की दीवार या बहुमंजिली मार्केट को ध्वस्त करने में बुलडोज़र, जेसीबी और भारी मशीनरी को पूरा दिन लग जाता है, वहां अयोध्या में फैली 2.77 एकड़ सीमा वाला मजबूत, पुख्ता ढांचा कुछ ही घंटों में मानो रेत के घरौंदे की तरह बिखर गया। यह संरचना वह थी जिसे आधिकारिक रिपोर्टों मेंदीर्घकालिक, बहुस्तरीय और अत्यंत सुदृढ़बताया गया था। तकनीकी विशेषज्ञों की रिपोर्टों के अनुसार, ऐसे निर्माण को गिराने के लिए, भारी क्रेन, मलबा ढोने वाले ट्रक, बड़े हथौड़े, और घंटों समन्वित तकनीकी कार्य आवश्यक होता है। लेकिन 6 दिसंबर की दोपहर में यह तमाम गणित ध्वस्त हो गया। कोई मशीन, कोई आधिकारिक उपकरण, सिर्फ इंसानी हाथ, रस्सियाँ और लोहे की रॉडें। और उसी से वह ढांचा ढह गया जिसे सामान्य स्थितियों में गिराना एक सैन्य-स्तरीय ऑपरेशन माना जाता। और इससे भी बड़ा प्रश्न था, मलबे का। इतिहासकारों और जांच आयोगों की रिपोर्टों के अनुसार, जिस संरचना के गिरने से लाखों टन मलबा निकलना चाहिए था, वह दृश्य रूप में उतनी मात्रा में कभी दिखाई ही नहीं दिया। सूर्यास्त तक विवादित ढांचा परिसर लगभग समतल हो चुका था, इतना कि मीडिया टीम, प्रशासनिक अधिकारी और बाद की जांच टीम यही पूछती रह गईं : “इतनी भारी संरचना का मलबा कुछ घंटों में कैसे और कहाँ गया?” “क्या भीड़ इतने बड़े पैमाने पर मलबा उठा सकती थी?” “या यह आस्था का वह उफान था जो भौतिक व्याख्याओं को भी चुनौती देता है?”

अनुभवी पुलिस अधिकारियों ने भी स्वीकार किया कि इतनी विशाल भीड़ का एक साथ, बिना किसी बड़े केंद्रीय नेतृत्व के, एक ऐसे संवेदनशील ढांचे को गिराना, सामान्य मानवीय अनुमान से बहुत ऊपर था। कई विशेषज्ञ इसेसमन्वित जन-ऊर्जाकहते हैं, तो कुछ इसेभावनात्मक विस्फोट की चरम स्थितिमानते हैं। वहीं अनेक साधु-संत इसेआस्था का अभूतपूर्व चमत्कारकहकर वर्णित करते हैं। मतलब साफ है 6 दिसंबर का घटनाक्रम आज भी विशेषज्ञों, प्रशासनिक अभिलेखों और सामाजिक विश्लेषकों के लिए एक रहस्य की तरह खड़ा है। यह घटना आज भी अनुमान, शोध और बहस का विषय इसलिए बनी हुई है क्योंकि यह केवल ढांचा-ध्वंस नहीं था, यह लाखों लोगों की साझा चेतना का एक ऐसा उभार था, जो सामान्य गणना से परे था। यही कारण है कि 6 दिसंबर को अनेक लोग केवल इतिहास नहीं मानते, उसे अनुभूत ऊर्जा का अप्रत्याशित क्षण कहते हैं, जिसे शब्दों में बांधना आज भी आसान नहीं। वस्तुतः 6 दिसंबर कोई साधारण विध्वंस का दिन नहीं था; वह सदियों के संघर्ष, दबी वेदना और न्याय की प्रतीक्षा का विस्फोटक क्षण था, जब लाखों लोग स्वयं को इतिहास के निर्णायक मोड़ पर खड़ा महसूस कर रहे थे। आज, जब उसी स्थान पर भव्य श्रीराम जन्मभूमि मंदिर तिरंगा की तरह ऊँचा उठ रहा है, तब 6 दिसंबर के उस अनोखे, अनलिखे, अप्रत्याशित और अकल्पनीय क्षण को नए अर्थों में समझा जाने लगा है। कई लोग इसेविजय-स्मृति दिवस
कहते हैं, क्योंकि उस दिन एक विवाद का अंत नहीं, बल्कि एक युग का आरंभ हुआ था।

क्या यह विजय थी? संघर्ष का अंत या शुरुआत? यही सवाल आज भी बहस के केंद्र में है, क्या 6 दिसंबर को सनातनियों काविजय पर्वकहा जा सकता है? वास्तविक सत्य यह है कि 6 दिसंबर विजय का अंतिम बिंदु नहीं, बल्कि विजय की दृश्य शुरुआत था। संघर्ष अभी जारी था, मुकदमे दर्ज हुए, आयोग बने, राजनीतिक विमर्श तेज हुआ, अदालतों में सुनवाई शुरू हुई, 6 दिसंबर ने केवल मार्ग खोला, मंज़िल 27 वर्ष बाद मिली, जब 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने राम जन्मभूमि के पक्ष में ऐतिहासिक निर्णय सुनाया। और अंतिम, सच्ची विजय तब हुई, जब 22 जनवरी 2024 को रामलला अपने नवीन दिव्य मंदिर में स्थापित हुए। इसलिए 6 दिसंबर कोविजय पर्वकहना

संघर्ष के अंतिम अर्थ को कम करना होगा। लेकिन इसेसंघर्ष-विजय दिवस यासांस्कृतिक पुनर्जागरण का उद्गम दिवसकहना अधिक समीचीन है। राम मंदिर केवल स्थापत्य का चमत्कार नहीं है। यह उन अनाम और ज्ञात दोनों कारसेवकों की स्मृति भी है, जिन्होंने आंदोलन में जान गंवाई, जिन पर मुकदमे चले, जिन्होंने जेलें देखीं, जिन्होंने अपने व्यवसाय, करियर, सामाजिक प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी, जिन परिवारों ने वर्षों तक संघर्ष सहा और जिन संतों ने जीवन भर रामलला के लिए तप किया. मतलब साफ है अयोध्या का भव्य मंदिर इन कुर्बानियों का जीवंत स्मारक है। इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा राम मंदिर केवल पत्थरों से नहीं बना, यह खून, आंसू, तपस्या, संकल्प और आस्था की संजीवनी से बना है।

6 दिसंबर 2025 : अलर्ट, सुरक्षा और संवेदनशीलता

तमाम वर्षों बाद भी 6 दिसंबर का महत्व कम नहीं हुआ है। आज भी सुरक्षा एजेंसियाँ इस दिन विशेष सतर्कता बरतती हैं। केंद्र और राज्यों में हाई अलर्ट, अयोध्या, मथुरा, काशी, दिल्ली जैसे शहरों में विशेष इनपुट, ड्रोन सर्विलांस, सोशल मीडिया मॉनिटरिंग, पुलिस पिकेट बढ़ाए गए, संवेदनशील इलाकों में नाइट विज़न कैमरे, रूसी राष्ट्रपति पुतिन की यात्रा, संसद हमले की बरसी, और स्थानीय संवेदनशील परिसरों के कारण इस बार सतर्कता और भी बढ़ाई गई है। अयोध्या में तीन स्तरीय सुरक्षा व्यवस्था है, बाहरी घेरा, मध्यम घेरा और गर्भगृह के आसपास का भीतरी सुरक्षा कवच। यह बताता है कि 6 दिसंबर अभी भी राष्ट्रीय चेतना की स्पंदनशील तारीख है।

भव्य मंदिर : संघर्ष की कथा का दिव्य रूपांतरण

आज जब अयोध्या

में 161 फीट ऊँचा विशाल मंदिर खड़ा है, तो लगता है मानो सदियों का संघर्ष पत्थरों में बदलकर बोल उठा हो। मंदिर का स्थापत्य नागरा शैली का दिव्य प्रारूप लिए कला और आध्यात्मिकता का अद्भुत संगम है। रामलला का नवीन विग्रह, सोने के सिंहासन, 72 फुट लंबे स्तंभों के बीच झांकती दिव्यता, यह सब बताता है कि इतिहास कभी-कभी न्याय के स्वरूप में पुनः अवतरित होता है। यह मंदिर केवल धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रत्यक्ष अनुभूति है।

6 दिसंबर का भविष्य : स्मृति, सावधानी और संतुलन का सूत्र

भविष्य में 6 दिसंबर को तीन अर्थों में याद किया जाएगा, 1. संघर्ष और तपस्या की स्मृति के रूप में क्योंकि यह वह दिन था जिसने इतिहास का रुख बदल दिया। 2. सामाजिक सावधानी और सामंजस्य के प्रतीक के रूप में क्योंकि इस घटना के बाद देश ने कई दंगे, कई घाव और कई सीखें देखीं। 3. सांस्कृतिक जागरण के दिवस के रूप में क्योंकि इस तारीख ने राम मंदिर आंदोलन को निर्णायक मोड़ दिया। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या 6 दिसंबर को सनातनियों का विजय पर्व कहा जा सकता है? पूरी विजय नहीं, लेकिन विजय की पहली ज्योति अवश्य। यह वह दिन है जब संघर्ष की ज्वाला ने भव्य मंदिर का मार्ग प्रज्वलित किया। यह वह दिन है जिसने इतिहास को नई दिशा दी, राष्ट्रीय चेतना को हिलाकर जगाया, और करोड़ों श्रद्धालुओं के हृदय में छिपी उस पीड़ा को स्वर दिया जो सदियों से अनसुनी थी। 6 दिसंबर संघर्ष की विजय का उद्गम है, वह दिन, जिसकी कुर्बानियों ने अयोध्या में खड़े भव्य राम मंदिर की नींव रखी।

1992 से 2019 तक : विवाद, अदालत, न्याय, मंदिर

विवादित जमीन पर लंबी सुनवाई और हिंसक घटनाओं के बाद, सुपी्रम कोर्ट आफ इंडिया ने नवंबर 2019 में फैसला सुनाया, विवादित स्थल पर मंदिर बनाना जायज़ है। उसके बाद शुरू हुआ भव्य मंदिर निर्माण, जो 2024 : 25 में प्रगति की चरम सीमा पर है। लेकिन बाबरी का मुद्दा सिर्फ अदालत या निर्माण तक सीमित नहीं रहा, यह भारत की सामाजिक स्मृति, राजनीतिक रुझान, लोक-भावनाओं और धार्मिक पहचान का प्रतीक बन गया। 6 दिसंबर की घटना के बाद भारत की राजनीति जिस तेज़ी से बदली, उसकी मिसाल स्वतंत्रता-उत्तर भारत के इतिहास में कम मिलती है। राममंदिर आंदोलन राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में गया। वोटिंग पैटर्न बदले। क्षेत्रीय दलों के समीकरण बदले। और देश भर में पहचान आधारित राजनीति ने नया आयाम लिया। दंगे, तनाव, कर्फ्यू, इन सबने देश को लंबे समय तक अस्थिर रखा। समाज में अविश्वास की खाई गहरी हुई। पत्रकारिता और न्यायपालिका दोनों नए दबावों से गुजरे। आखिरकार नवंबर 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने विस्तृत ऐतिहासिक, पुरातात्विक, राजनैतिक और कानूनी विश्लेषण के बाद यह कहा कि विवादित स्थल पर रामलला की प्राचीन उपस्थिति के प्रमाण पर्याप्त हैं। मुस्लिम पक्ष को पाँच एकड़ में वैकल्पिक भूखंड दिया जाए। यह फैसला भारतीय न्यायिक इतिहास में एक युगांतकारी क्षण के रूप में दर्ज हुआ।

आज का अयोध्या : नया अध्याय, नया नगर, नई आकांक्षाएं

आज का अयोध्या 1992 का अयोध्या नहीं है। नगर का पुनर्विकास अभूतपूर्व गति से चल रहा है। 125 मीटर ऊँचा राममंदिर आधुनिक तकनीक, पारंपरिक वास्तुकला और विशाल परिसर के साथ आकार ले चुका है। अयोध्या का नया स्वरूप, चौड़ी सड़कें, विश्वस्तरीय रेलमार्ग और नया हवाईअड्डा, हजारों करोड़ के पर्यटन प्रोजेक्ट, सरयू नदी तट का अभूतपूर्व सौंदर्य, धर्मिक पर्यटन की नई परिभाषा. अयोध्या अब केवल आस्था का शहर नहीं, बल्कि वैश्विक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक केंद्र के रूप में उभर रहा है. मतलब साफ है 6 दिसंबर 1992 का दिन चाहे जैसी स्मृति छोड़ गया हो, पर उसका अंतिम पड़ाव आज शांति, पुनर्निर्माण और सभ्यतागत पुनर्जागरण के रूप में सामने है।

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