अद्वैत परम्परा का प्रवर्तक रहे आदि शंकराचार्य
प्राचीन भारतीय सनातन
परम्परा के विकास
और हिंदू धर्म
के प्रचार-प्रसार
में आदि शंकराचार्य
का महान योगदान
है। उन्होंने भारतीय
सनातन परम्परा को
पूरे देश में
फैलाने के लिए
भारत के चारों
कोनों में श्रृंगेरी
मठ, रामचन्द्रपुर मठ,
गोवर्धन मठ एवं
शारदा मठ सहित
पांच शंकराचार्य मठों
की स्थापना की
थी। इन्हीं में
से एक कांची
मठ है, जिसके
शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती का
आज 83 साल की
उम्र में निधन
हो गया है।
जयेंद्र सरस्वती को 1994 में
कांची मठ का
प्रमुख बनाया गया था।
आदि शंकराचार्य द्वारा
दक्षिण में स्थापित
कांची मठ ऐतिहासिक
है। आदि शंकराचार्य
द्वारा स्थापित मठों का
मकसद धार्मिक और
दार्शनिक परंपरा के जरिए
समाज को नई
दिशा दिखाना था।
हिंदू धर्म में
मठों की परंपरा
लाने का श्रेय
आदि शंकराचार्य को
जाता है
सुरेश गांधी
फिरहाल, आदि शंकराचार्य
को भारत के
ही नहीं बल्कि
दुनिया के उच्चतम
दार्शनिकों में शुमार
किया गया है।
उनके अद्वैत दर्शन
को दर्शनों का
दर्शन माना गया
है। भारतीय धर्म
दर्शन में तो
उसे श्रेष्ठ माना
ही गया है।
उन्होंने अनेक ग्रन्थ
लिखे हैं, लेकिन
उनका दर्शन विशेष
रूप से उनके
तीन भाषाओं में
है, जो उपनिषद,
ब्रह्मसूत्र और गीता
पर हैं, प्रमुख
है। गीता और
ब्रह्मसूत्र पर अन्य
आचार्यों के भी
भाष्य हैं, लेकिन
उपनिषदों पर समन्वयात्मक
भाष्य जैसा शंकराचार्य
का है, वैसा
अन्य किसी का
नहीं है। वह
83 साल के थे।
उनका जन्म 18 जुलाई
1935 को हुआ था।
ईसा से पूर्व
8वीं शताब्दी में
स्थापित किए गए
चारों मठ आज
भी चार शंकराचार्यों
के नेतृत्व में
सनातन परम्परा का
प्रचार व प्रसार
कर रहे हैं।
आदि शंकराचार्य ने
इन चारों मठों
के अलावा पूरे
देश में बारह
ज्योतिर्लिंगों की भी
स्थापना की थी।
इसके अलावा जयेन्द्र
सरस्वती ने दर्जनों
स्कूल, कॉलेज, हॉस्पिटल्स और
चाइल्ड केयर सेंटरों
की भी स्थापना
की। कांची मठ
इन संस्थाओं को
मुफ्त या सब्सिडी
पर अपनी सेवाएं
प्रदान करता है।
उन्हें भगवान शिव का
अवतार माना जाता
था। आदि शंकराचार्य
को अद्वैत परम्परा
का प्रवर्तक माना
जाता है। आदि
शंकराचार्य ने अल्प
आयु में इस
मकसद के लिए
बहुत काम किए।
उन्होंने सन्यासी के आत्मिक
स्वरूप को उजागर
किया और जीवन
से जुडे हर
एक छोटे और
बड़े पहलुओं को
समझाने की कोशिश
की। बौद्धिक क्षमता
के अतिरिक्त शंकराचार्य
उच्च कोटि के
कवि भी थे।
उन्होंने 72 भक्तिमय और ध्यान
करने वाले गाने
व मंत्र लिखे।
ब्रह्म सूत्र, भगवदगीता और
12 मुख्य उपनिषदों पर शंकराचार्य
ने टीकाएं भी
लिखीं। अद्वैत वेदांत दर्शन
पर भी उन्होंने
23 किताबें लिखीं।
19 साल की
उम्र में उन्होंने
सांसारिक जीवन का
त्याग करके संन्यास
ग्रहण कर लिया।
जयेन्द्र सरस्वती के लाखों
की संख्या में
अनुयायी थे। हालांकि
जयेन्द्र सरस्वती पारंपरिक साधुओं
की तरह नहीं
थे। वह कई
ऐसी चीजों में
लिप्त रहे जिनसे
प्रायः साधु-संन्यासी
और आध्यात्मिक गुरु
दूरी बनाकर रखते
हैं। जयेन्द्र सरस्वती
वेदों के ज्ञाता
थे। उन्हें ऋग्वेद,
धर्म शास्त्र, उपनिषद,
व्याकरण, वेदांत, न्याय और
सभी हिंदू धर्मों
के ग्रथों का
ज्ञान था। उनके
अनुयायियों के मुताबिक,
उनकी साधना उनकी
असीम भक्ति के
अनुरूप थी। वह
अल्प मात्रा में
भोजन ग्रहण करते
थे और सुविधाजनक
बिस्तरों पर नहीं
सोते थे। वह
सभी तरह के
शारीरिक सुखों से भी
दूर रहते थे।
साधु बनने के
बाद वह सभी
तरह के शारीरिक
सुखों को त्याग
चुके थे। शंकराचार्य
के समय में
असंख्य संप्रदाय अपने-अपने
संकीर्ण दर्शन के साथ-साथ अस्तित्व
में थे। लोगों
के भ्रम को
दूर करने के
लिए शंकराचार्य ने
6 संप्रदाय वाली व्यवस्था
की शुरूआत की
जिसमें विष्णु, शिव, शक्ति,
मुरुक और सूर्य
प्रमुख देवता माने गए।
उन्होंने देश के
प्रमुख मंदिरों के लिए
नए नियम भी
बनाए। उनके द्वारा
स्थापित ‘अद्वैत वेदांत सम्प्रदाय‘ 9वीं शताब्दी में काफी
लोकप्रिय हुआ। उन्होंने
प्राचीन भारतीय उपनिषदों के
सिद्धान्तों को पुनर्जीवन
प्रदान करने का
प्रयत्न किया। उन्होंने ईश्वर
को पूर्ण वास्तविकता
के रूप में
स्वीकार किया और
साथ ही इस
संसार को भ्रम
या माया बताया।
उनके अनुसार अज्ञानी
लोग ही ईश्वर
को वास्तविक न
मानकर संसार को
वास्तविक मानते हैं। ज्ञानी
लोगों का मुख्य
उद्देश्य अपने आप
को भम्र व
माया से मुक्त
करना एवं ईश्वर
व ब्रह्म से
तादाम्य स्थापित करना होना
चाहिए। शंकराचार्य ने वर्ण
पर आधारित ब्राह्मण
प्रधान सामाजिक व्यवस्था का
समर्थन किया। शंकराचार्य का
जन्म केरल के
एक गरीब ब्राह्मण
(नंबूदरी) परिवार में हुआ
था। उनके पिता
का नाम शिवगुरु
था। उनकी मां
का नाम आर्यम्बा
था। छोटी सी
उम्र में ही
उनके पिता का
निधन हो गया
था। इसके बाद
उनकी मां ने
उनका पालन-पोषण
किया। उनकी मां
धार्मिक महिला थीं और
कृष्ण की आराधना
करती थीं।
आदि शंकराचार्य
से जुड़ा एक
किस्सा प्रचलित है। ये
किस्सा भारत भ्रमण
के दौरान का
है। इसके मुताबिक
उन्होंने काशी प्रवास
के दौरान शमशान
के चंडाल को
अपना गुरु बनाया
था। उस वक्त
के समाज में
चांडाल अस्पृश्य माने जाते
थे। कहते हैं
कि आदि शंकराचार्य
काशी में एक
शमशान से गुजर
रहे थे जहां
उनका सामना चांडाल
से हो गया।
आदि ने उन्हें
सामने से हटने
को कहा। जवाब
में चांडाल ने
हाथजोड़ कर बोला
क्या हटाऊं, शरीर
या आत्मा, आकार
या निराकार। चांडाल
के इस जवाब
ने आदि शंकराचार्य
को चकित कर
दिया। चांडाल के
दार्शनिक विचार से आदि
शंकराचार्य इतने प्रभावित
हुए कि उसे
अपना गुरु बना
लिया। बाद में
चांडाल से प्रेरित
हो कर उन्होंने
मनीष-पंचकम की
रचना की। इसमें
उन्होंने द्वैत का निर्माण
करने वाले विभाजनों
से आगे देखते
हुए समानता की
मानसिकता को उजागर
करने की कोशिश
की। आदि शंकराचार्य
ने दार्शनिक और
धार्मिक ही नहीं
बल्कि राजनीतिक दृष्टिकोण
पर भी गौर
किया। उन्होंने ब्रह्मचर्य
की एक ऐसी
परिभाषा गढ़ी जिससे
उनकी राह पर
चलते हुए मानव
कल्याण की दिशा
में कई महापुरुषों
ने सार्थक प्रयास
किए और देश
को प्रगतिशील बनाने
में अहम योगदान
दिया। आदि शंकराचार्य
अद्वैत वेदांत के प्रणेता,
संस्कृत के विद्वान,
उपनिषद व्याख्याता और सनातन
धर्म सुधारक थे।
धार्मिक मान्यता में इन्हें
भगवान शंकर का
अवतार भी माना
गया। इन्होंने लगभग
पूरे भारत की
यात्रा की और
इनके जीवन का
अधिकांश भाग देश
के उत्तरी हिस्से
में बीता।
प्रचलित मान्यता के
मुताबिक आदि शंकराचार्य
को आदर्श संन्यासी
के तौर पर
जाना जाता है।
केवल 32 साल के
जीवनकाल में उन्होंने
कई उपलब्धियां अर्जित
कीं। मात्र 8 साल
की उम्र में
वह मोक्ष की
प्राप्ति के लिए
घर छोड़कर गुरु
की खोज में
निकल पड़े थे।
भारत के दक्षिणी
राज्य से नर्मदी
नदी के किनार
पहुंचने के लिए
युवा शंकर ने
2000 किलोमीटर तक की
यात्रा की। वहां
गुरु गोविंदपद से
शिक्षा ली और
करीब 4 सालों तक अपने
गुरु की सेवा
की। इस दौरान
शंकर ने वैदिक
ग्रन्थों को आत्मसात
कर लिया था।
शंकराचार्य केरल से
कश्मीर, पुरी (ओडिशा) से
द्वारका (गुजरात), श्रृंगेरी (कर्नाटक)
से बद्रीनाथ (उत्तराखंड)
और कांची (तमिलनाडु)
से काशी (उत्तरप्रदेश)
तक घूमे। हिमालय
की तराई से
नर्मदा-गंगा के
तटों तक और
पूर्व से लेकर
पश्चिम के घाटों
तक उन्होंने यात्राएं
कीं। शंकराचार्य ने
अपने दर्शन, काव्य
और तीर्थयात्राओं से
उसे एक सूत्र
में पिरोने का
का प्रयास किया।
आदि शंकराचार्य के
समय में अंधविश्वास
और तमाम तरह
के कर्मकांडों का
बोलबाला हो गया
था। सनातन धर्म
का मूल रूप
पूरी तरह से
नष्ट हो चुका
था और यह
कर्मकांड की आंधी
में पूरी तरह
से लुप्त हो
चुका था। शंकराचार्य
ने कई प्रसिद्ध
विद्वानों को चुनौती
दी। दूसरे धर्म
और संप्रदाय के
लोगों को भी
शास्त्रार्थ करने के
लिए आमंत्रित किया।
शंकराचार्य ने बड़े-बड़े विद्वानों
को अपने शास्त्रार्थ
से पराजित कर
दिया और उसके
बाद सबने शंकराचार्य
को अपना गुरु
मान लिया। हालांकि
जयेन्द्र सरस्वती कई बार
विवादों में भी
आए. 2000 की शुरुआत
में दिल्ली के
मेहरौली इलाके में जमीन
की कीमतों में
काफी दिलचस्पी दिखाई।
उन्हें यहां किसी
धार्मिक समारोह में आमंत्रित
किया गया था। समारोह
में शामिल होने
के बाद उन्होंने
देश की राजधानी
में अपने मठ
के लिए जमीन
अधिग्रहण करने की
इच्छा जताई। 2004 में
जयेन्द्र सरस्वती को कांचीपुरम
के एक मंदिर
के मैनेजर शंकरमण
की हत्या के
संबंध में गिरफ्तार
किया गया था।
9 साल बाद उन्हें
आरोप से मुक्त
कर दिया गया।
जयेन्द्र सरस्वती की बाबरी
मस्जिद-राम जन्मभूमि
विवाद पर भी
अपनी राय थी।
2002 में एक इंटरव्यू
में उन्होंने बाबरी
मस्जिद को मात्र
एक ‘विजयस्तंभ‘ बताया था। उन्होंने
यह भी कहा
था कि अयोध्या
के विवाद को
कोर्ट के बाहर
ही सुलझाया जा
सकता है। गोहत्या
के मुद्दे पर
जयेन्द्र सरस्वती का कहना
था कि जानवरों
की हत्या करना
महापाप है क्योंकि
गाय की मां
के तौर पर
पूजा की जाती
है।