‘आमलकी एकादशी‘ व्रत से होगा हर तरह की दरिद्रता का नाश
आज का
दिन कुछ ऐसा
है। होली से
पहले ही होली
जैसे रंग बिखेरने
वाला दिन है।
आज के दिन
खुशियों से सराबोर
शिवभक्त रंग भरी
एकादशी का त्योहार
मनाते हैं। रंगभरी
एकादशी के नजदीक
आते ही काशी
विश्वनाथ मंदिर में बाबा
के ब्रज में
होली का पर्व
होलाष्टक से शुरू
होता है वही
वाराणसी में यह
रंग भरी एकादशी
से शुरू हो
जाता है। इस
दिन शिव जी
को विशेष रंग
अर्पित करके धन
सम्बन्धी तमाम मनोकामनाएं
पूरी की जा
सकती हैं। इस
बार रंग भरी
एकादशी 26 फरवरी को जाएगी।
यही वजह है
कि काशी में
गौना की रंगत
छाने लगी है।
उत्सव की तैयारियों
का खाका खींचा
जाने लगा है
तो तन मन
फागुनी उमंगों से पगा
है
सुरेश गांधी
फाल्गुन मास को
मस्ती और उल्लास
का महीना कहा
जाता है। इसके
कृष्ण पक्ष की
त्रयोदशी को वैद्यनाथ
जयंती तथा चतुर्दशी
को महाशिवरात्रि काशी
विश्वनाथ का उत्सव
होता है। फाल्गुन
शुक्ल पक्ष फाल्गुन
मास को मस्ती
और उल्लास का
महीना कहा जाता
है। इसके कृष्ण
पक्ष की त्रयोदशी
को वैद्यनाथ जयंती
तथा चतुर्दशी को
महाशिवरात्रि काशी विश्वनाथ
का उत्सव होता
है। फाल्गुन शुक्ल
पक्ष की एकादशी
रंगभरी होती है।
दरअसल इस एकादशी
का नाम आमलकी
एकादशी है। लेकिन
फाल्गुन माह में
होने के कारण
और होली से
पहले आने वाली
इस एकादशी से
होली का हुड़दंग
या कहें एक-दूसरे को रंग
लगाने की शुरुआत
होती है, इसलिए
इसे रंगभरी एकादशी
भी कहा जाता
है। इस दिन
आंवले के वृक्ष
की पूजा की
जाती है और
अन्नपूर्णा की स्वर्ण
की या चांदी
की मूर्ति के
दर्शन किए जाते
हैं।
आमलकी या
रंगभरी एकादशी के दिन
आंवले के वृक्ष
की पूजा की
जाती है। यह
सब पापों का
नाश करता है।
इस वृक्ष की
उत्पत्ति भगवान विष्णु द्वारा
हुई थी। इसी
समय भगवान ने
ब्रह्मा जी को
भी उत्पन्न किया,
जिससे इस संसार
के सारे जीव
उत्पन्न हुए। इस
वृक्ष को देखकर
देवताओं को बड़ा
विस्मय हुआ, तभी
आकाशवाणी हुई कि
महर्षियों, यह सबसे
उत्तम आंवले का
वृक्ष है, जो
भगवान विष्णु को
अत्यंत प्रिय है। इसके
स्मरण से गौ
दान का फल,
स्पर्श से दो
गुणा फल, खाने
से तीन गुणा
पुण्य मिलता है।
यह सब पापों
का हरने वाला
वृक्ष है। इसके
मूल में विष्णु,
ऊपर ब्रह्मा स्कन्ध
में रुद्र, टहनियों
में मुनि, देवता,
पत्तों में वसु,
फूलों में मरुद्गण
एवं फलों में
सारे प्रजापति रहते
हैं।
काशी भ्रमण पर निकलते है बाबा विश्वनाथ
काशी में
इसे रंगभरी एकादशी
कहा जाता है।
इस दिन बाबा
विश्वनाथ का विशेष
श्रृंगार होता है
और काशी में
होली का पर्वकाल
प्रारंभ हो जाता
है। पौराणिक परम्पराओं
और मान्यताओं के
अनुसार रंगभरी एकादशी के
दिन ही भगवान
शिव माता पार्वती
से विवाह के
उपरान्त पहली बार
अपनी प्रिय काशी
नगरी आए थे।
इस मौके शिव
परिवार की चल
प्रतिमायें काशी विश्वनाथ
मंदिर में रखी
जाती है। इस
दिन भक्तों की
टोली संग बाबा
श्री काशी विश्वनाथ
मंगल वाध्ययंत्रो की
ध्वनि के साथ
अपने काशी क्षेत्र
के भ्रमण पर
निकलते हैं। अपनी
जनता, भक्त, श्रद्धालुओं
का यथोचित लेने
व आशीर्वाद देने
सपरिवार निकलते है। बाबा
की पालकी यात्रा
मंदिर के पूर्व
महंत के घर
से निकलती है।
चंद कदम की
इस यात्रा में
हजारों शिवभक्त जुटते हैं।
बाबा को इतना
अबीर-गुलाल अर्पित
किया जाता है
कि पूरा रास्ता
लाल हो जाता
है। इसी के
साथ पूरे शहर
में होली का
उल्लास शुरू हो
जाता है। यह
पर्व काशी में
मां पार्वती के
प्रथम स्वागत का
भी सूचक है।
जिसमे उनके गण
उन पर व
समस्त जनता पर
रंग अबीर गुलाल
उड़ाते, खुशियां मानते चलते
है। शोभायात्रा में
बाबा विश्वनाथ, माता
पार्वती व गणेश
की रजत प्रतिमा
को श्रद्धालु बड़ी
पालकी पर लेकर
चलते हैं। आशीर्वाद
मुद्रा में पालकी
में आसीन भोलेनाथ
और मां पार्वती
की गोद में
विराजमान गजानन की छवि
निहारने के लिए
भक्तों का रेला
उमड़ता है। प्रतिमा
मंदिर गर्भगृह तक
डमरू की गूंज
और जयकारे के
साथ पहुंचती है।
पूरे मंदिर परिसर
में अबीर-गुलाल
की बौछार होती
रहती है। यह
सिलसिला अर्धरात्रि तक चलता
है। इस दौरान
सभी गलियां रंग
अबीर से सराबोर
हो जाते है।
हर हर महादेव
का उदघोष सभी
दिशाओ में गुंजायमान
हो जाता है।
एक बार फिर
काशी क्षेत्र जीवंत
हो उठता है।
जहां श्री आशुतोष
के साक्षात् होने
के प्रमाण प्रत्यक्ष
मिलते है। इसके
बाद श्री महाकाल
श्री काशी विशेश्वर
को सपरिवार मंदिर
गर्भ स्थान में
ले जाकर श्रृंगार
कर अबीर, रंग,
गुलाल आदि चढाया
जाता है। इस
दिन से वाराणसी
में रंग खेलने
का सिलसिला प्रारंभ
हो जाता है
जो लगातार छह
दिन तक चलता
है।
विश्वनाथ मंदिर
के मंहत डा.
कुलपति तिवारी ने बताया
350 वर्षो से लगातार
वर्ष में सिर्फ
एक बार ही
रंगभरी एकादशी पर मंहत
आवास पर बाबा
विश्वनाथ, माता पार्वती
एंव गणेश की
चल रजत प्रतिमाओं
के राजसी स्वरूप
में पालकी पर
स वार होकर
दर्शन देते हैं।
इस दिन बाबा
विश्वनाथ स्वंय भक्तों के
साथ जमकर होली
खेलते हैं। बाबा
की चल प्रतिमा
के दर्शन के
लिए महंत के
घर में वर्ष
में एक बार
रंगभरी के दिन
ही पट खुलता
है। इससे पहले
माता पार्वती के
शृंगार के लिए
महिलाएं जुट जाएंगी।
गोधूलि बेला में
बाबा को चांदी
के सिंहासन पर
बैठाकर आंगन में
उतारा जाएगा। वहीं
आरती-पूजा होगी।
फिर पालकी पर
सिंहासन रखा जाएगा।
इसके बाद भक्त
अबीर-गुलाल अर्पित
करेंगे।
दूर होंगी आर्थिक सहित सभी समस्याएं
इस दिन
प्रातःकाल स्नान करके पूजा
का संकल्प लें
और व्रत प्रारंभ
करें। घर से
एक पात्र में
जल भरकर शिव
मंदिर जाएं। साथ
में अबीर गुलाल
चन्दन और बेलपत्र
भी ले जाएं।
पहले शिव लिंग
पर चन्दन लगाएं,
फिर बेल पत्र
और जल अर्पित
करें। सबसे अंत
में अबीर और
गुलाल अर्पित करें।
फिर आर्थिक समस्याओं
के समाप्ति की
प्रार्थना करें। इस दिन
परशुराम जी की
सोने या चांदी
की मूर्ति बनाकर
पूजा और हवन
करते हैं। इसके
उपरान्त सब प्रकार
की सामग्री लेकर
आंवला (वृक्ष) के पास
रखें। वृक्ष को
चारों ओर से
शुद्ध करके कलश
की स्थापना करनी
चाहिए और कलश
में पंचरत्न आदि
डालें। इसके साथ
पूजा के लिए
नया छाता, जूता
तथा दो वस्त्र
भी रखें। कलश
के ऊपर परशुराम
की मूर्ति रखें।
इन सबकी विधि
से पूजा करें।
इस दिन रात्रि
जागरण करते हैं।
नृत्य, संगीत, वाद्य, धार्मिक
कथा वार्ता करके
रात्रि व्यतीत करें। आंवले
के वृक्ष की
108 या 28 बार परिक्रमा
करें तथा इसकी
आरती भी करें।
अन्त में किसी
ब्राह्मण की विधि
से पूजा करके
सारी सामग्री परशुराम
जी का कलश,
दो वस्त्र, जूता
आदि दान कर
दें। इसके साथ
विधिपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन
करवाएं और इसके
पश्चात स्वयं भी भोजन
करें। सम्पूर्ण तीर्थो
के सेवन से
जो पुण्य प्राप्त
होता है तथा
सब प्रकार के
दान देने से
जो फल मिलता
है, यह सब
उपयुक्त विधि इस
एकादशी के व्रत
का पालन करने
से सुलभ होता
है। यह व्रत
सब व्रतों में
उत्तम है अर्थात्
सब पापों से
मुक्त कराने वाला
है। इस दिन
इन बातों का
व्रती को ध्यान
करना चाहिए कि
बार-बार जलपान,
हिंसा, अपवित्रता, असत्य-भाषण,
पान चबाना, दातुन
करना, दिन में
सोना, मैथुन, जुआ
खेलना, रात में
सोना और पतित
मनुष्यों से वार्तालाप
जैसी ग्यारह क्रियाओं
को नहीं करना
चाहिए।
आमलकी एकादशी
इस एकादशी
पर आंवले के
वृक्ष की पूजा
की जाती है।
साथ ही आंवले
का विशेष तरीके
से प्रयोग किया
जाता है। इससे
उत्तम स्वास्थ्य और
सौभाग्य की प्राप्ति
होती है। इसीलिए
इस एकादशी को
‘आमलकी एकादशी‘ भी कहा
जाता है। इस
दिन प्रातः काल
आंवले के वृक्ष
में जल डालें।
वृक्ष पर पुष्प,
धूप, नैवेद्य अर्पित
करें। वृक्ष के
निकट एक दीपक
भी जलाएं। वृक्ष
की सत्ताइस बार
या नौ बार
परिक्रमा करें। सौभाग्य और
स्वास्थ्य प्राप्ति की प्रार्थना
करें। अगर आंवले
का वृक्ष लगाएं
तो और भी
उत्तम होगा। माना
जाता है कि
आंवले की उत्पत्ति
भगवान विष्णु के
द्वारा हुयी थी।
आंवले के प्रयोग
से उत्तम स्वास्थ्य
और समृद्धि मिलती
है। आंवले के
दान से गौ
दान का फल
मिलता है। इस
दिन आंवले का
सेवन और दान
करें। इसके बाद
कनक धारा स्लोक
का पाठ करें।
भक्तों संग बाबा विश्वनाथ खेलते है होली
वैसे भी देवभूमि काशी को देवो के देव महादेव यानी बाबा विश्वनाथ ने स्वयं सांस्कारिक मानव कल्याण के लिए ब्रह्मा की सृष्टि से बिल्कुल अलग बसाया। कहते है श्रृष्टि के तीनों गुण सत, रज और तम इसी नगरी में समाहित है। तभी तो यहां यमराज का दंडविधान नहीं, बल्कि बाबा विश्वनाथ के ही अंश बाबा कालभैरव का दंडविधान चलता है। और यहां धार्मिक संस्कारों का पालन करने वाला हर प्राणी मृत्युपरांत मोक्ष को प्राप्त करता है। इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि महादेव न सिर्फ अपने पूरे कुनबे के साथ काशी में वास किया बल्कि हर उत्सवों में यहां के लोगों के साथ महादेव ने बराबर की हिस्सेदारी की। खासकर उनके द्वारा फाल्गुन में भक्तों संग खेली गयी होली की परंपरा आज भी जीवंत करने की न सिर्फ कोशिश बल्कि काशी के लोगों द्वारा डमरुओं की गूंज और हर हर महादेव के नारों के बीच एक-दूसरे को भस्म लगाने परंपरा हैं। यही वजह है कि यहां होली की छटा देखते ही बनती है। काशी का यह भाव भौगोलिक नहीं ऐतिहासिक है। बाबा काशीवासियों के लिए अनंत है, इसीलिए अनादि भी है। इस पावन दिन पर बाबा की चल प्रतिमा का दर्शन भी श्रद्धालुओं को होता है। बाबा के दर्शन को पांच फुट की संकरी गलियों में हजारों श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ पड़ता है। हर भक्त के मन में बस यही रहता है कि रंग भरी एकादशी के दिन बाबा विश्वनाथ के साथ होली खेली जाए। भारतीय उत्सवों में
स्वास्थ्य की पैनी
दृष्टि भी दिखती
है। फाल्गुन में
विषाणु प्रबल हो जाते
हैं, अतः उनसे
लड़ने, उनका प्रतिकार
करने के लिए
अग्नि (होलिका) जलाना, रंग
उड़ाना, रंग पोतना
और नीम का
सेवन आनन्द तो
देते ही हैं,
साथ ही स्वास्थ्य
की रक्षा भी
करते हैं। इस
दिन से मित्रता
एवं एकता पर्व
आरम्भ हो जाता
है। यही इस
व्रत का मूल
उद्देश्य एवं संदेश
है।
चिता की होली
पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक, महाश्मशान ही वो स्थान है, जहां कई वर्षों की तपस्या के बाद महादेव ने भगवान विष्णु को संसार के संचालन का वरदान दिया था। काशी के मणिकर्णिका घाट पर शिव ने मोक्ष प्रदान करने की प्रतिज्ञा ली थी। काशी दुनिया की एक मात्र ऐसी नगरी है जहां मनुष्य की मृत्यु को भी मंगल माना जाता है। मृत्यु को लोग उत्सव की तरह मनाते है। मय्यत को ढोल नगाडो के साथ श्मशान तक पहुंचाते है। मान्यता है कि रंगभरी एकादशी एकादशी के दिन माता पार्वती का गौना कराने बाद देवगण एवं भक्तों के साथ बाबा होली खेलते हैं। लेकिन भूत-प्रेत, पिशाच आदि जीव-जंतु उनके साथ नहीं खेल पाते हैं। इसीलिए अगले दिन बाबा मणिकर्णिका तीर्थ पर स्नान करने आते हैं और अपने गणों के साथ चीता भस्म से होली खेलते हैं। नेग में काशीवासियों को होली और हुड़दंग की अनुमति दे जाते हैं। कहते है साल में एक बार होलिका दहन होता है, लेकिन महाकाल स्वरूप भगवान भोलेनाथ की रोज होली होती है। काशी के मणिकर्णिका घाट सहित प्रत्येक श्मशान घाट पर होने वाला नरमेध यज्ञ रूप होलिका दहन ही उनका अप्रतिम विलास है।
तैयारी अंतिम चरण में
बाबा विश्वनाथ
के विवाह के
उपरांत अब गौने
की तैयारियों ने
जोर पकड़ लिया
है। 26 फरवरी को काशी
में रंगभरी एकादशी
के दिन बाबा
का गौना होता
है। इस दिन
बाबा विश्वनाथ की
नगरी अनूठे रंगोत्सव
की साक्षी बनेगी।
इस दिन बाबा
की रजत पालकी
में सवार होकर
गौरा को विदा
कराने जाते हैं।
लोकमान्यताओं के अनुसार
भगवान शंकर महाशिवरात्री
पर विवाह पश्चात
अमला ( रगंभरी ) एकादशी पर
विदा कराकर कैलाश
पर आये थे।
रंगभरी एकादशी पर बाबा
विश्वनाथ माता पार्वती
और पुत्र गणेश
की रजत प्रतिमाओं
को राजसी स्वरुप
में रजत पालकी
में विराजमान कर
काशीवासी गौना की
रस्म निभाते हैं।
गौने में काशीपुराधिपति
और मां गौरा
के साथ होली
खेलने के बाद
काशी में फगुनहट
का रंग और
भी चटख हो
जाता है। बारात
भी कम अनूठी
नहीं होगी। पालकी
पर रजत सिंहासन
होगा, जिसमें बाल
रूप में पुत्र
गणेश के साथ
बाबा दुल्हा बनकर
विदाई कराने निकलेंगे।
इसके साथ ही
गली में छतों-बारजों से लेकर
चहुंदिशि शुरू हो
जाएगी अबीर-गुलाल
की बौछार। शहनाई
की मंगल ध्वनि
के साथ गवने
की बारात निकलेगी।
इसमें डमरू दल
के साथ ही
शंख ध्वनि और
विविध वाद्य तो
बजेंगे ही शिव
तांडव भी होगा।
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