क्या अब धमकी के सहारे है ‘कांग्रेस’
एक के बाद एक हाथ से छिनते राज्य, राज्य सभा में घटती संख्या, तरह-तरह के आरोपों के निराधार होने सहित जस्टीस लोया के नाम पर छोड़ा गया ब्रह्मास्त्र भी टाॅय-टाॅय फिस्स हो गया। या यूं कहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विजयरथ को रोकने की कांग्रेसी कवायद फेल होती जा रही है। ऐसे में बढ़ा सवाल तो यही क्या लगातार विफलताओं से कांग्रेस सहम गयी है? क्या अब कांग्रेस के पास सियवाय धमकी के कोई चारा नहीं बचा है? क्योंकि थक हार चुकी कांग्रेस जिस महाभियोग प्रस्ताव के सहारे मोदी को पटकनी देना चाह रही है, वह सिर्फ और सिर्फ नौटंकी से अधिक कुछ भी नहीं हैं। क्योंकि कांग्रेस के पास वर्तमान में दोनो सदनों में पर्याप्त संख्या नहीं है
सुरेश गांधी
फिरहाल, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ कांग्रेस एवं उसके समर्थित दलों ने महाभियोग लाने का प्रस्ताव उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू को सौंपा है। महाभ्यिोग प्रस्ताव कांग्रेस उस वक्त लायी है जब जज लोया की मौत से जुड़े मामले में सुनवाई के दौरान जज ने पाया कि न्यायालय को गुमराह करने के मकसद से याचिका दायर की गयी है। याचिका में पर्याप्त सबूत भी नहीं हैं। इस फैसले के बाद ही कांग्रेस का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। ख्,सुद समेत समस्त विपक्षीजनों को एकजुट किया जाने लगा। बता दें, जेएसआई के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पेश करने के लिए लोकसभा में 100 सांसदों और राज्यसभा में 50 सदस्यों के हस्ताक्षर की आवश्यकता होती है। हस्ताक्षर होने के बाद प्रस्ताव संसद के किसी एक सदन में पेश किया जाता है। कांग्रेस के अनुसार इसपर 71 सांसदों के साइन हैं। इनमें से 7 सांसद रिटायर हो चुके हैं। जबकि राज्यसभा में महाभियोग प्रस्ताव पास करने के लिए कुल 245 सांसदों में दो तिहाई बहुमत यानी 164 सांसदों के वोट की जरूरत होगी। यह आकड़ा सिर्फ एनडीए के पास ही है। राज्यसभा में एनडीए के पास 86 सांसद हैं। इनमें से 68 बीजेपी के सांसद हैं। यानी इस सदन में कांग्रेस समर्थित इस प्रस्ताव के पास होने की संभावना नहीं है। लोकसभा में कुल सांसदों की संख्या 545 है। दो तिहाई बहुमत के लिए 364 सांसदों के वोटों की जरूरत पड़ेगी। यहां विपक्ष बिना बीजेपी के समर्थन के ये संख्या हासिल नहीं कर सकता क्योंकि लोकसभा में अकेले बीजेपी के ही 274 सांसद हैं। इतना सबकुछ जानने, सुनने, समझने के बाद भी अगर कांग्रेस महाभियोग का प्रस्ताव उपराष्ट्रपति को सौंपा है तो इसे महानौटंकी नहीं तो और क्या कहेंगे? ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या जज लोया के केस में कांग्रेस का झूठ साबित होने के बाद बदला लेने के लिए महाभियोग का प्रस्ताव पेश किया गया है? या फिर जजों को डराने धमकाने की कोशिश हैै।
कांग्रेस का आरोप है कि संविधान के तहत अगर कोई जज दुर्व्यवहार करता है तो संसद का अधिकार है कि उसकी जांच होनी चाहिए। जब से दीपक मिश्रा चीफ जस्टिस बने हैं तभी से कुछ ऐसे फैसले लिए गए हैं जो कि सही नहीं हैं। इसके बारे में सुप्रीम कोर्ट के ही चार जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस भी की थी। इसके अलावा मुख्य न्यायाधीश के पद के अनुरुप आचरण ना होना, प्रसाद ऐजुकेशन ट्रस्ट में फायदा उठाना और इसमें मुख्य न्यायाधीश का नाम आने के बाद सघन जांच न कराया जाना, जमीन का अधिग्रहण करना, फर्जी एफिडेविट लगाना और सुप्रीम कोर्ट जज बनने के बाद 2013 में जमीन को सरेंडर करना, कई संवेदनशील मामलों को चुनिंदा बेंच को देना आदि प्रमुख है। हो जो भी सच तो यही है कि कांग्रेस द्वारा जस्टिस लोया के मामले में महाभियोग लाना तो एक बहाना है मकसद सिर्फ और सिर्फ मोदी को पटकनी देने की है। बता दें, जज लोया की मौत की नए सिरे से जांच कराने की याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था। आदेश में टिप्प्णी भी किया है कि ऐसी जनहित याचिकाएं कोर्ट का समय बर्बाद करती हैं। फैसला देने वालों में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा भी शामिल थे। इस फैसले से निराश होकर कांग्रेस पार्टी ने कहा था कि यह इतिहास का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण दिन है। इस फैसले के बाद भी जज लोया की मौत से जुड़े बहुत सारे सवालों का जवाब नहीं मिला। हालांकि इस मामले पर अब 7 मई को सुनवाई होगी।
लेकिन क्या विपक्ष द्वारा पेश किया गया यह प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में पास हो पाएगा? ये बढ़ा सवाल है क्योंकि आजादी के बाद से लेकर आज तक किसी भी जज को महाभियोग प्रस्ताव से हटाया नहीं जा सका है। उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जज को संविधान में पर्याप्त रूप से संरक्षण दिया गया है और इसलिए उनको महाभियोग प्रस्ताव से हटाना बेहद मुश्किल है। इसकी प्रक्रिया भी काफी जटिल है। संविधान के अनुच्छेद 124(4) और जजेज (इंक्वायरी) एक्ट, 1968 में जजों के खिलाफ महाभियोग का जिक्र किया गया है। इनके मुताबिक सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के जज के खिलाफ अक्षमता और गलत व्यवहार के आधार पर महाभियोग लाया जा सकता है। इस तरह का प्रस्ताव लोकसभा या राज्यसभा में से कहीं भी पेश किया जा सकता है। यह प्रस्ताव पेश करने के लिए लोकसभा में कम से कम 100 सांसदों और राज्यसभा में 50 सांसदों के हस्ताक्षर की जरूरत होती है। इसके साथ ही जज को हटाने के लिए संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पास करना जरूरी है। यदि इस तरह का कोई प्रस्ताव पास हो भी जाता है तो आरोपों की जांच के लिए तीन सदस्यों की एक कमेटी बनाई जाती है। इस कमेटी में एक सुप्रीम कोर्ट के जज, किसी भी हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस और एक न्यायविद शामिल होते हैं। इनमें से न्यायविद को लोकसभा के स्पीकर या राज्यसभा के सभापति नामित करते हैं। यह न्यायविद कोई जज, कोई वकील या कोई विद्दान हो सकता है। रिपोर्ट तैयार करने के बाद कमेटी उसे लोकसभा के स्पीकर या राज्यसभा के सभापित को सौंपती है। इसके साथ ही महाभियोग प्रस्ताव चाहे किसी भी सदन में लाया जाए, लेकिन उसे पास दोनों सदनों में होना पड़ेगा। प्रस्ताव को पास करने के लिए वोटिंग के दौरान सभी सांसदों का दो तिहाई बहुमत हासिल करना जरूरी है। दोनों सदनों में महाभियोग प्रस्ताव पास होने के बाद राष्ट्रपति जज को हटा सकते हैं।
बता दें, इसके पहले साल 2011 में राज्यसभा ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन को एक न्यायाधीश के तौर पर वित्तीय गड़बड़ी करने और तथ्यों की गलतबयानी करने का दोषी पाया था। इसके बाद उच्च सदन ने उनके खिलाफ महाभियोग चलाने के पक्ष में मतदान किया था। हालांकि, लोकसभा में महाभियोग की कार्यवाही शुरू किए जाने से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया। साल 2015 में राज्यसभा के 58 सदस्यों ने गुजरात उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जे बी पर्दीवाला के खिलाफ महाभियोग का नोटिस भेजा था। उन्हें यह नोटिस आरक्षण के मुद्दे पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने और पाटीदार नेता हार्दिक पटेल के खिलाफ एक मामले में फैसले को लेकर दिया गया था। महाभियोग का नोटिस राज्यसभा सभापति हामिद अंसारी को भेजने के कुछ ही घंटों बाद न्यायाधीश ने फैसले से अपनी टिप्पणी वासप ले ली। भूमि पर कब्जा करने, भ्रष्टाचार और न्यायिक पद का दुरुपयोग करने के मामले में सिक्किम उच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश पी डी दिनाकरण विवादों में आए थे। उन्होंने अपने खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही शुरू होने से पहले ही 2011 में पद से इस्तीफा दे दिया था। साल 2016 में आंध्र और तेलंगाना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश नागार्जुन रेड्डी विवादों में आए थे। उन पर एक दलित न्यायाधीश को प्रताड़ित करने के लिये पद का दुरुपयोग करने का आरोप था। जिसके चलते राज्यसभा के 61 सदस्यों ने उनके खिलाफ महाभियोग चलाने के लिये एक याचिका दी थी। बाद में राज्यभा के 54 सदस्यों में से उन 9 ने अपना हस्ताक्षर वापस ले लिया था, जिन्होंने न्यायमूर्ति रेड्डी के खिलाफ कार्यवाही शुरू करने का प्रस्ताव दिया था। वहीं साल 1990 में पंजाब और हरियाणा के चीफ जस्टिस वी रामास्वामी पर 1993 में महाभियोग की कार्यवाही शुरू की गई थी। हालांकि, लोकसभा में न्यायमूर्ति रामास्वामी के खिलाफ लाया गया महाभियोग का प्रस्ताव इसके समर्थन में दो तिहाई बहुमत जुटाने में विफल रहा था।
एक के बाद एक हाथ से छिनते राज्य, राज्य सभा में घटती संख्या, तरह-तरह के आरोपों के निराधार होने सहित जस्टीस लोया के नाम पर छोड़ा गया ब्रह्मास्त्र भी टाॅय-टाॅय फिस्स हो गया। या यूं कहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विजयरथ को रोकने की कांग्रेसी कवायद फेल होती जा रही है। ऐसे में बढ़ा सवाल तो यही क्या लगातार विफलताओं से कांग्रेस सहम गयी है? क्या अब कांग्रेस के पास सियवाय धमकी के कोई चारा नहीं बचा है? क्योंकि थक हार चुकी कांग्रेस जिस महाभियोग प्रस्ताव के सहारे मोदी को पटकनी देना चाह रही है, वह सिर्फ और सिर्फ नौटंकी से अधिक कुछ भी नहीं हैं। क्योंकि कांग्रेस के पास वर्तमान में दोनो सदनों में पर्याप्त संख्या नहीं है
सुरेश गांधी
फिरहाल, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ कांग्रेस एवं उसके समर्थित दलों ने महाभियोग लाने का प्रस्ताव उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू को सौंपा है। महाभ्यिोग प्रस्ताव कांग्रेस उस वक्त लायी है जब जज लोया की मौत से जुड़े मामले में सुनवाई के दौरान जज ने पाया कि न्यायालय को गुमराह करने के मकसद से याचिका दायर की गयी है। याचिका में पर्याप्त सबूत भी नहीं हैं। इस फैसले के बाद ही कांग्रेस का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। ख्,सुद समेत समस्त विपक्षीजनों को एकजुट किया जाने लगा। बता दें, जेएसआई के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पेश करने के लिए लोकसभा में 100 सांसदों और राज्यसभा में 50 सदस्यों के हस्ताक्षर की आवश्यकता होती है। हस्ताक्षर होने के बाद प्रस्ताव संसद के किसी एक सदन में पेश किया जाता है। कांग्रेस के अनुसार इसपर 71 सांसदों के साइन हैं। इनमें से 7 सांसद रिटायर हो चुके हैं। जबकि राज्यसभा में महाभियोग प्रस्ताव पास करने के लिए कुल 245 सांसदों में दो तिहाई बहुमत यानी 164 सांसदों के वोट की जरूरत होगी। यह आकड़ा सिर्फ एनडीए के पास ही है। राज्यसभा में एनडीए के पास 86 सांसद हैं। इनमें से 68 बीजेपी के सांसद हैं। यानी इस सदन में कांग्रेस समर्थित इस प्रस्ताव के पास होने की संभावना नहीं है। लोकसभा में कुल सांसदों की संख्या 545 है। दो तिहाई बहुमत के लिए 364 सांसदों के वोटों की जरूरत पड़ेगी। यहां विपक्ष बिना बीजेपी के समर्थन के ये संख्या हासिल नहीं कर सकता क्योंकि लोकसभा में अकेले बीजेपी के ही 274 सांसद हैं। इतना सबकुछ जानने, सुनने, समझने के बाद भी अगर कांग्रेस महाभियोग का प्रस्ताव उपराष्ट्रपति को सौंपा है तो इसे महानौटंकी नहीं तो और क्या कहेंगे? ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या जज लोया के केस में कांग्रेस का झूठ साबित होने के बाद बदला लेने के लिए महाभियोग का प्रस्ताव पेश किया गया है? या फिर जजों को डराने धमकाने की कोशिश हैै।
कांग्रेस का आरोप है कि संविधान के तहत अगर कोई जज दुर्व्यवहार करता है तो संसद का अधिकार है कि उसकी जांच होनी चाहिए। जब से दीपक मिश्रा चीफ जस्टिस बने हैं तभी से कुछ ऐसे फैसले लिए गए हैं जो कि सही नहीं हैं। इसके बारे में सुप्रीम कोर्ट के ही चार जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस भी की थी। इसके अलावा मुख्य न्यायाधीश के पद के अनुरुप आचरण ना होना, प्रसाद ऐजुकेशन ट्रस्ट में फायदा उठाना और इसमें मुख्य न्यायाधीश का नाम आने के बाद सघन जांच न कराया जाना, जमीन का अधिग्रहण करना, फर्जी एफिडेविट लगाना और सुप्रीम कोर्ट जज बनने के बाद 2013 में जमीन को सरेंडर करना, कई संवेदनशील मामलों को चुनिंदा बेंच को देना आदि प्रमुख है। हो जो भी सच तो यही है कि कांग्रेस द्वारा जस्टिस लोया के मामले में महाभियोग लाना तो एक बहाना है मकसद सिर्फ और सिर्फ मोदी को पटकनी देने की है। बता दें, जज लोया की मौत की नए सिरे से जांच कराने की याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था। आदेश में टिप्प्णी भी किया है कि ऐसी जनहित याचिकाएं कोर्ट का समय बर्बाद करती हैं। फैसला देने वालों में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा भी शामिल थे। इस फैसले से निराश होकर कांग्रेस पार्टी ने कहा था कि यह इतिहास का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण दिन है। इस फैसले के बाद भी जज लोया की मौत से जुड़े बहुत सारे सवालों का जवाब नहीं मिला। हालांकि इस मामले पर अब 7 मई को सुनवाई होगी।
लेकिन क्या विपक्ष द्वारा पेश किया गया यह प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों में पास हो पाएगा? ये बढ़ा सवाल है क्योंकि आजादी के बाद से लेकर आज तक किसी भी जज को महाभियोग प्रस्ताव से हटाया नहीं जा सका है। उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जज को संविधान में पर्याप्त रूप से संरक्षण दिया गया है और इसलिए उनको महाभियोग प्रस्ताव से हटाना बेहद मुश्किल है। इसकी प्रक्रिया भी काफी जटिल है। संविधान के अनुच्छेद 124(4) और जजेज (इंक्वायरी) एक्ट, 1968 में जजों के खिलाफ महाभियोग का जिक्र किया गया है। इनके मुताबिक सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के जज के खिलाफ अक्षमता और गलत व्यवहार के आधार पर महाभियोग लाया जा सकता है। इस तरह का प्रस्ताव लोकसभा या राज्यसभा में से कहीं भी पेश किया जा सकता है। यह प्रस्ताव पेश करने के लिए लोकसभा में कम से कम 100 सांसदों और राज्यसभा में 50 सांसदों के हस्ताक्षर की जरूरत होती है। इसके साथ ही जज को हटाने के लिए संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पास करना जरूरी है। यदि इस तरह का कोई प्रस्ताव पास हो भी जाता है तो आरोपों की जांच के लिए तीन सदस्यों की एक कमेटी बनाई जाती है। इस कमेटी में एक सुप्रीम कोर्ट के जज, किसी भी हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस और एक न्यायविद शामिल होते हैं। इनमें से न्यायविद को लोकसभा के स्पीकर या राज्यसभा के सभापति नामित करते हैं। यह न्यायविद कोई जज, कोई वकील या कोई विद्दान हो सकता है। रिपोर्ट तैयार करने के बाद कमेटी उसे लोकसभा के स्पीकर या राज्यसभा के सभापित को सौंपती है। इसके साथ ही महाभियोग प्रस्ताव चाहे किसी भी सदन में लाया जाए, लेकिन उसे पास दोनों सदनों में होना पड़ेगा। प्रस्ताव को पास करने के लिए वोटिंग के दौरान सभी सांसदों का दो तिहाई बहुमत हासिल करना जरूरी है। दोनों सदनों में महाभियोग प्रस्ताव पास होने के बाद राष्ट्रपति जज को हटा सकते हैं।
बता दें, इसके पहले साल 2011 में राज्यसभा ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन को एक न्यायाधीश के तौर पर वित्तीय गड़बड़ी करने और तथ्यों की गलतबयानी करने का दोषी पाया था। इसके बाद उच्च सदन ने उनके खिलाफ महाभियोग चलाने के पक्ष में मतदान किया था। हालांकि, लोकसभा में महाभियोग की कार्यवाही शुरू किए जाने से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया। साल 2015 में राज्यसभा के 58 सदस्यों ने गुजरात उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जे बी पर्दीवाला के खिलाफ महाभियोग का नोटिस भेजा था। उन्हें यह नोटिस आरक्षण के मुद्दे पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने और पाटीदार नेता हार्दिक पटेल के खिलाफ एक मामले में फैसले को लेकर दिया गया था। महाभियोग का नोटिस राज्यसभा सभापति हामिद अंसारी को भेजने के कुछ ही घंटों बाद न्यायाधीश ने फैसले से अपनी टिप्पणी वासप ले ली। भूमि पर कब्जा करने, भ्रष्टाचार और न्यायिक पद का दुरुपयोग करने के मामले में सिक्किम उच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश पी डी दिनाकरण विवादों में आए थे। उन्होंने अपने खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही शुरू होने से पहले ही 2011 में पद से इस्तीफा दे दिया था। साल 2016 में आंध्र और तेलंगाना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश नागार्जुन रेड्डी विवादों में आए थे। उन पर एक दलित न्यायाधीश को प्रताड़ित करने के लिये पद का दुरुपयोग करने का आरोप था। जिसके चलते राज्यसभा के 61 सदस्यों ने उनके खिलाफ महाभियोग चलाने के लिये एक याचिका दी थी। बाद में राज्यभा के 54 सदस्यों में से उन 9 ने अपना हस्ताक्षर वापस ले लिया था, जिन्होंने न्यायमूर्ति रेड्डी के खिलाफ कार्यवाही शुरू करने का प्रस्ताव दिया था। वहीं साल 1990 में पंजाब और हरियाणा के चीफ जस्टिस वी रामास्वामी पर 1993 में महाभियोग की कार्यवाही शुरू की गई थी। हालांकि, लोकसभा में न्यायमूर्ति रामास्वामी के खिलाफ लाया गया महाभियोग का प्रस्ताव इसके समर्थन में दो तिहाई बहुमत जुटाने में विफल रहा था।
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