मुंशी प्रेमचंद के गांव लमही की दूर होगी बदहाली, बनेगा पर्यटकस्थल, डीएम सुरेन्द्र सिंह ने गांव को लिया गोद...
मुंशी प्रेमचंद
के उपन्यासों
जैसी ही
है उनके
गांव लमही
की कहानी।
ज़िन्दगी की
कठिन सच्चाइयों
से गुजरते
हुए इस
गांव में
कदम पड़ते
ही जीवंत
हो जाता
है मुंशी
प्रेमचंद की
कर्ज में
डूब रहे
इंसान में
पूस की
रात का
वो किसान।
भारतीय समाज,
गांव और
अपने दौर
का गोदान
के होरी-धनिया, हलकू
जैसा किरदार
मुंशी प्रेमचंद
ने जिस
तरह अपनी
पुस्तकों में
उकेरा है,
वो लमही
में आज
भी महसूस
होती है।
लेकिन खुशी
है कि
इस गांव
की बदहाली
दूर करने
के लिए
वाराणसी के
जिलाधिकारी सुरेन्द्र सिंह ने प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी
की तर्ज
पर लमही
को मुंशी
प्रेम की
जयंती के
मौके पर
गोद लिया
है। कयास
लगाएं जा
रहे है
कि यदि
सबकुछ ठीक
रहा तो
लमही की
न सिर्फ
बदहाली दूर
होंगी बल्कि
गरीबी से
छुटकारा मिलेगा
सुरेश गांधी
रोमांस और
शी कल्पना
की ऊंचाईयों
से खींचकर
समाज को
मानवीय सच्चाइयों
से रूबरू
कराने वाले
हिन्दी के
महान लेखक
मुंशी प्रेमचंद
की आज
139
वीं जयंती
है। ये
महान लेखक
कभी गांव
के एक
स्कूल में
18
रुपए तनख्वाह
में पढ़ाता
था। हिंदी,
उर्दू में
शायद ही
कोई ऐसा
पाठक हो,
जिसने मुंशी
प्रेमचंद का
नाम न
सुना हो।
वह कथा
सम्राट,
उपन्यास
सम्राट यूं
ही नहीं
कहे जाते।
उनका असली
नाम धनपत
राय था।
उनका जन्म
31
जुलाई 1880
को बनारस के वाराणसी-
आजमगढ़ राष्ट्रीय
राजमार्ग पर
पांडेयपुर चौराहे से करीब पांच
किमी दूर
लमही गाँव
में हुआ
था। उस
जमाने में
उनके पिता
को बीस
रुपए तनख्वाह
मिलती थी।
उसी से
पूरे परिवार
का गूजर
बसर होता
था। प्रेमचंद
के उपन्यास
गबन,
गोदान,
निर्मला आज
भी वास्तविकता
के बेहद
करीब दिखते
हैं। उन्होंने
सिर्फ अपनी
कहानियों का
काल्पनिक रचना
संसार रचने
के बजाय
अपने जीवन
में भी
उस यथार्थ
को जिया।
जब उन्होंने
बाल विधवा
शिवरानी देवी
से विवाह
किया तो
उस जमाने
में ये
सामाजिक सरोकार
से जुड़ा
मामला था।
उनकी कहानियां
जीवन के
यथार्थ को
दिखाती थी।
कहा जाता
है कि
मुंशीजी अपनी
लेखनी से
जिन किरदारों
को रच
देते थे,
वे किरदार
ऐसे लगते
थे जैसे
हमारे साथ
ही उठ-बैठ रहे
हों। यही
वजह है
कि साहित्य
की दुनिया
का ये
हीरा आज
भी अपनी
कलम के
बूते चमक
रहा है।
आज भी
उसके लिखे
हुए लेख,
कहानियों की
चमक कम
नहीं हुई
है। महज
13 साल की
उम्र में
ही उन्होंने
तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़
लिया और
उन्होंने उर्दू
के मशहूर
रचनाकार रतननाथ
’शरसार’, मिर्ज़ा हादी
रुस्वा और
मौलाना शरर
के उपन्यासों
से परिचय
प्राप्त कर
लिया। प्रेमचंद
की पहली
हिन्दी कहानी
सरस्वती पत्रिका
के दिसम्बर
अंक में
1915 में ’सौत’ नाम
से प्रकाशित
हुई। प्रेमचंद
सिर्फ भारत
ही नहीं
पूरी दुनिया
में मशहूर
और सबसे
ज्यादा पसंद
किए जाते
हैं। प्रेमचंद
की कहानियों
के किरदार
आम आदमी
हैं। ऐसे
ही उनकी
कहानियों में
आम आदमी
की समस्याओं
और जीवन
के उतार-चढ़ाव दिखते
हैं।
कुछ
ऐसा ही
आज भी
उनके पैतृक
गांव लमही
में दिखता
है। गांव
सुंदर और
बिजली-सड़क
जैसी सुविधाओं
वाला है।
लेकिन लमही
का अपना
दर्द भी
है। सियासत
रूपी साहूकार
ने लमही
बने किसान
को जकड़
रखा है।
इस जकड़न
को दूर
करने के
लिए जिलाधिकारी
सुरेन्द्र सिंह ने बीडा उठाया
है। उनके
जन्मदिन पर
आयोजित कार्यक्रम
में पहुंचे
श्री सिंह
ने प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी
की तर्ज
पर लमही
को गोद
लेना का
ऐलान किया
है। उन्होंने
इस गांव
को एक
ऐसा पर्यटक
स्थल बनाने
की घोषणा
की जहां
पाठकों, दर्शकों
व पर्यटकों
का आना-जाना बना
रहे। उन्होंने
प्रतिबद्धता जाहिर की कि हमारी सच्ची
श्रद्धांजलि तभी होगी जब हम
स्मारक भवन
को वृहद
रूप देकर
म्यूजियम के
रूप में
विकसित कर
सकें। मुंशी
प्रेमचंद की
जन्म स्थली
को विश्व
पटल पर
लाने का
प्रयास किया
जाएगा। आगामी
लमही महोत्सव
से पहले
संस्कृति विभाग
द्वारा एक
बड़ा संग्रहालय
बनाया जायेगा
जिसका प्रस्ताव
बनाकर भेजा
जा चुका
है।
स्थानीय लोगो
को सकारात्मक
सोच और
उत्साह के
साथ कार्य
करने की
सलाह दी।
साथ ही
“बड़ी परेशानी
है भाई“ हंस पब्लिकेशन की
पुस्तक का
विमोचन किया।
इस दौरान
उन्होंने लमही
के लेखपाल
और सचिव
को तालाब
के
सौंदर्यीकरण के लिए
आवश्यक कार्रवाई
के निर्देश
दिए। प्रोबेशनर
आईएएस विक्रमादित्य
सिंह मलिक
को निर्देशित
किया कि
वहां के
भवन पर
रुफटाप वाटर
हार्वेस्टिंग सिस्टम लगवाने तथा सोख्ते
गड्ढे और
जल संरक्षण
के समस्त
कार्य कराने
की पड़ताल
कर लें।
कहा जा
सकता है
मुंशी प्रेमचंद
की जयंती
पर वाराणसी
के जिलाधिकारी
ने लमही
गांव में
नई जान
फूंकने का
काम किया
है। इस
घोषणा से
लमही गांव
के लोग
काफी खुश
हैं। उन्हें
उम्मींद है
कि मान
महल की
तर्ज पर
लमही को
वर्चुअल म्यूजियम
मिलेगा। डीएम
सुरेंद्र सिंह
ने कहा
कि जो
साहित्यकार भारतीय संस्कृति में आस्था
रखते हैं,
अपने सुझाव
और योगदान
दें। उन्होंने
कहा कि
जहां की
गलियों, खेत-खलिहानों और
गांव के
परिवेश से
प्रेरणा लेकर
मुंशी प्रेमचंद
इतने महान
लेखक बने
और जीवन
के विविध
रूपों का
वास्तविक चित्रण
किया, उस
लमही के
प्राकृतिक स्वरूप को बनाए रखा
जाएगा।
मुंशी
प्रेमचंद की
स्मृति में
भारतीय डाक
विभाग की
ओर से
31 जुलाई, 1980 को उनकी जन्मशती के
अवसर पर
30 पैसे मूल्य
का एक
डाक टिकट
जारी किया।
गोरखपुर के
जिस स्कूल
में वे
शिक्षक थे,
वहाँ प्रेमचंद
साहित्य संस्थान
की स्थापना
की गई।
उनका अंतिम
उपन्यास मंगल
सूत्र है,
जिसे उनके
पुत्र अमृत
ने पूरा
किया। उनके
बेटे अमृत
राय ने
प्रेमचंद की
जीवनी ’कलम
का सिपाही’ में लिखा है
कि उनकी
अंतिम यात्रा
में कुछ
ही लोग
थे। जब
अर्थी जा
रही थी,
तो रास्ते
में किसी
ने पूछा,
’कौन था?’
साथ खड़े
आदमी ने
कहा ’कोई
मास्टर था,
मर गया।’ इनसे पता चलता
है कि
हम प्रेमचंद
के साथ
कितना न्याय
कर पाए।
प्रेमचंद ने
एक बार
अपनी बेटी
के लिए
135 रुपये की हीरे की लौंग
खरीदी और
अपनी पत्नी
के लिए
भी 750 रुपये
के कान
के फूल
खरीदना चाह
रहे थे।
हालांकि, पत्नी
ने मना
कर दिया।
यानी प्रेमचंद
के पास
खर्च करने
के लिए
रुपये थे।
लेकिन ये
बात भी
सच है
कि जब
उन्हें बंबई
की फिल्म
कंपनी ’अजन्ता
सिनटोन’ में काम
करने के
लिए जाना
था, तो
उनके पास
बंबई जाने
के लिए
किराए के
पैसे नहीं
थे। उस
समय उन
पर बैंक
का कुछ
कर्ज भी
था।
बता दें,
दशक पहले
जब मुंशी
प्रेमचंद की
125वीं जयंती
पर उनके
पैतृक आवास
को संग्रहालय
बनाने की
घोषणा की
गई थी
तो लोगों
को आस
जगी थी
कि सबकुछ
अच्छा हो
जायेगा। लेकिन
संग्रहालय तो दूर, जहां मुंशीजी
ने कफन,
निर्मला और
ईदगाह जैसी
रचनाएं लिखीं,
उसकी दीवारें
खस्ता हालत
में है।
मरम्मत के
सरकारी प्रयास
किये जाने
के बावजूद
दीवारों की
सीलन खत्म
नहीं हुई
है। साहित्य
प्रेमियों को उस दिन का
इंतजार है,
जब उनके
पैतृक आवास
की दीवारों
पर शीशे
में मढ़े
मुंशीजी की
अनमोल थातियां
सहेजी जाएंगी।
फिलहाल, इस
वक्त ये
सब बीएचयू
के भारत
कला भवन
की शान
हैं। यही
नहीं, अगल-बगल के
गांवों से
मुंशीजी का
ये गांव
भले ही
देखने सुनने
में समृद्ध
हो लेकिन
इस गांव
में अब
भी बहुत
कुछ अधूरा
है। मुंशी
प्रेमचंद का
गांव लमही
मूलभूत सुविधाओं
से वंछित
है। लमही
के ग्रामीण
उसी दुर्दशा
में जीवन
गुजार रहे
हैं, जिसे
मुंशी प्रेमचंद
ने अपनी
रचनाओं में
उकेरा है।
बताते है
प्रेमचंद जब
6 साल के
थे, तब
उन्हें लालगंज
गांव में
रहने वाले
एक मौलवी
के घर
फारसी और
उर्दू पढ़ने
के लिए
भेजा गया।
वह जब
बहुत ही
छोटे थे,
बीमारी के
कारण इनकी
मां का
देहांत हो
गया। उन्हें
प्यार अपनी
बड़ी बहन
से मिला।
बहन के
विवाह के
बाद वह
अकेले हो
गए। सुने
घर में
उन्होंने खुद
को कहानियां
पढ़ने में
व्यस्त कर
लिया। आगे
चलकर वह
स्वयं कहानियां
लिखने लगे
और महान
कथाकार बने।
धनपत राय
का विवाह
15-16 बरस में ही कर दिया
गया, लेकिन
ये विवाह
उनको फला
नहीं और
कुछ समय
बाद ही
उनकी पत्नी
का देहांत
हो गया।
कुछ समय
बाद उन्होंने
बनारस के
बाद चुनार
के स्कूल
में शिक्षक
की नौकरी
की, साथ
ही बीए
की पढ़ाई
भी। बाद
में उन्होंने
एक बाल
विधवा शिवरानी
देवी से
विवाह किया,
जिन्होंने प्रेमचंद की जीवनी लिखी
थी।
शिक्षक
की नौकरी
के दौरान
प्रेमचंद के
कई जगह
तबादले हुए।
उन्होंने जनजीवन
को बहुत
गहराई से
देखा और
अपना जीवन
साहित्य को
समर्पित कर
दिया। मंत्र,
नशा, शतरंज
के खिलाड़ी,
पूस की
रात, आत्माराम,
बूढ़ी काकी,
बड़े भाईसाहब,
बड़े घर
की बेटी,
कफन, उधार
की घड़ी,
नमक का
दरोगा, पंच
फूल, प्रेम
पूर्णिमा, जुर्माना आदि उनके चर्चित
साहित्य है।
जो पूरी
दुनिया में
मशहूर है।
सन् 1935 में
मुंशी जी
बहुत बीमार
पड़ गए
और 8 अक्टूबर
1936 को 56 वर्ष की उम्र में
उनका निधन
हो गया।
उनके रचे
साहित्य का
अनुवाद लगभग
सभी प्रमुख
भाषाओं में
हो चुका
है, जिसमें
विदेशी भाषाएं
भी शामिल
है। अपनी
रचना ’गबन’ के जरिए से
एक समाज
की ऊंच-नीच, ’निर्मला’ से एक स्त्री
को लेकर
समाज की
रूढ़िवादिता और ’बूढी काकी’ के जरिए
’समाज की
निर्ममता’ को जिस
अलग और
रोचक अंदाज
उन्होंने पेश
किया, उसकी
तुलना नही
है। इसी
तरह से
पूस की
रात, बड़े
घर की
बेटी, बड़े
भाईसाहब, आत्माराम,
शतरंज के
खिलाड़ी जैसी
कहानियों से
प्रेमचंद ने
हिंदी साहित्य
की जो
सेवा की
है, वो
अद्भुत है।
प्रेमचंद की
कहानियों के
रचना-शिल्प
की बुनियादी
विशेषता यह
है कि
वह कहीं
से भी,
किसी भी
कोण से,
आयासजन्य नहीं
है। जैसाकि
1910 में उनकी
उर्दू में
लिखी कहानियों
का पहला
संकलन सोज़े
वतन प्रकाशित
हुआ। इस
संकलन के
ब्रिटिश सरकार
द्वारा जब्त
कर लिए
जाने पर
उन्होंने नवाब
राय छोड़कर
प्रेमचंद नाम
से लिखना
शुरू किया।
‘प्रेमचंद’ - यह प्यारा
नाम उन्हें
एक उर्दू
लेखक और
संपादक दयानारायन
निगम ने
दिया था।
जालियाँवाला बाग हत्याकांड और असहयोग
आंदोलन के
छिड़ने पर
प्रेमचंद ने
अपनी बीस
साल की
नौकरी पर
लात मार
दी। 1930 के
अवज्ञा-आन्दोलन
के शुरू
होते-होते
उन्होंने ‘हंस’ का
प्रकाशन भी
आरम्भ कर
दिया।
प्रेमचंद
को कथा-सम्राट बनाने
में जहाँ
उनकी सैकड़ों
कहानियों का
योगदान है,
वहीं गोदान,
सेवासदन, प्रेमाश्रम,
गबन, रंगभूमि,
निर्मला जैसे
उपन्यास उन्हें
हिंदी साहित्य
में हमेशा
अमर बनाए
रखेंगे। उनकी
कहानियाँ इसी
नाते घटना-प्रधान कहानियाँ
नहीं हैं
और न
ही घटना-प्रधान कहानियों
की तरह
वे पाठकों
में कौतूहल
या जिज्ञासा
वृत्ति उपजाती
हैं। प्रेमचंद
की कहानियों
का पाठक
‘आगे क्या
होगा’ की जिज्ञासा
के बजाय
चित्रित स्थितियों
और प्रसंगों
के बीच
से उभरते
हुए प्रेमचंद
के संवेदनात्मक
उद्देश्य के
साथ हो
जाता है
और उसके
विकास में
रुचि लेने
लगता है।
प्रेमचंद अपने
पाठक को
अपनी संवेदना
के वृत्त
में इस
तरह ले
लेते हैं
कि वह
उनकी बुनी
हुई स्थितियों
और उनके
रचे चरित्रों
के साथ-साथ आगे
बढ़ता जाता
है। वह
कहानीकार का
हमसफर बन
जाता है।