दंगाई ताहिर को जमीन खा गयी या आसमान
सीएए
के
नाम
पर
दिल्ली
में
हुई
हिंसा
के
बाद
अब
हालात
काबू
में
हैं।
हर
किसी
को
आशा
है
कि
दिलवालों
की
दिल्ली
में
अमन
जल्द
ही
लौटेगा।
हिंसा
में
मरने
वालों
का
आंकड़ा
35 तक
पहुंच
चुका
है।
इसमें
इंटीलेंज
ब्यूरो
(आईबी)
कर्मचारी
अंकित
शर्मा
व
हेड
कांस्टेबिल
रतनलाल
शामिल
है।
150 से
अधिक
घायल
अस्पतालों
जिंदगी-मौत
से
जूझ
रहे
है।
इस
बीच
दिल्ली
पुलिस
ने
25 मुकदमें
दर्ज
कर
156 लोगों
को
गिरफ्तार
किया
है।
लेकिन
हिंसा
का
असल
गुनाहगार
ताहिर
अब
भी
पुलिस
के
हाथ
नहीं
लगा
है।
ऐसे
में
बड़ा
सवाल
तो
यही
है
क्या
ताहिर
को
जमीन
खा
गयी
या
आसमान?
आखिर
क्या
वजह
है
कि
पुलिस
सहित
सुरक्षा
में
लगे
जवान
व
खुफिया
तंत्र
की
ताहिर
के
गुनाहों
तक
हाथ
नहीं
पहुंच
पा
रही
है।
ये
ऐसा
सवाल
है
जिसका
जवाब
हर
कोई
जानना
चाहता
है
सुरेश गांधी
फिरहाल, मृतक आईबी
कर्मचारी अंकित शर्मा हो
या हेड कांस्टेबिल
रतनलाल या अन्य
के परिजन सभी
ने मौत के
लिए आम आदमी
पार्टी (आप) के
पार्षद हाजी ताहिर
हुसैन को ही
जिम्मेदार ठहराया है। आरोप
हैं कि हिंसा
की शुरुवात तहिर
हुसैन के घर
से हुई। उनके
घर में दो-चार नहीं
बल्कि सैकड़ों आतातायी
जमा थे, जो
छतों से भारी
मात्रा में पेट्रोल
बम, गोला बारुद
व पत्थर लोगों
के घरों व
राह चलते लोगों
पर फेंक रहे
थे। इनके द्वारा
ही आईबी कर्मचारी
अंकित शर्मा के
घर पर भी
हमला किया गया।
उनकी हत्या कर
दी गयी। आरोपों
के बीच एक
वीडियो वायरल हो रहा
है।
वीडियो में
कुछ उपद्रवी ताहिर
के मकान की
छत से पत्थर
और पेट्रोल बम
नीचे बरसा रहे
हैं। हालांकि ताहिर
हुसैन का कहना
है कि जिस
वक्त ये हमला
हुआ वो घर
पर नहीं थे,
वहां से जा
चुके थे। मुझे
नहीं पता मेरे
घर की छत
से कौन पेट्रोल
बम और पत्थर
फेंक रहा था।
अब इस वीडियो
के तार इसी
इलाके में रहने
वाले आईबी के
कर्मचारी अंकित शर्मा की
मौत से जुड़
रहे हैं।
अंकित शर्मा के
परिवार के मुताबिक,
अचानक बाहर से
पड़ोस में रहने
वाले एक परिवार
की मदद के
लिए गुहार सुनाई
दी। गुहार सुनकर
अंकित मदद के
लिए बाहर आए।
अंकित की मां
ने उन्हें रोका
भी, लेकिन उन्होंने
मां की नहीं
सुनी। अंकित उस
वक्त जो घर
से निकला, फिर
वापस नहीं लौटा,
लौटी तो अंकित
की लाश, वो
भी पास के
नाले से बरामद
हुई। यह अलग
बात है कि
आईपीसी की धारा
34 और 149 के तहत
हिंसक भीड़ में
शामिल हर व्यक्ति
हिंसा के लिए
समान रूप से
जिम्मेदार होता है।
हिंसक भीड़ में
शामिल कोई भी
व्यक्ति यह कहकर
बच नहीं सकता
है कि वह
सिर्फ भीड़ में
शामिल था, लेकिन
हिंसा नहीं की।
अब सवाल यह
है कि दंगा,
बलवा, फायरिंग, आगजनी
और पत्थरबाजी करने
वाले के खिलाफ
किस कानून के
तहत कार्रवाई की
जा सकती है?
भारतीय दंड संहिता
यानी आईपीसी में
भीड़ में शामिल
होकर हिंसा और
आगजनी करने वाले
के लिए सजा
का क्या प्रावधान
किया गया है?
लेकिन माहौल तनावपूर्ण
बना है।
दिल्ली के मन
में अब भी
डर है। दिल्ली
डरी हुई है।
उन हिंसा करने
वालों के सामने
जो हिंदू-मुसलमान
के नाम पर
जान ले रहे
हैं। घर उजाड़
रहे हैं। कई
ईलाकों में दिल्ली
के लोग खुद
को मजबूर, लाचार
और बेसहारा महसूस
कर रहे हैं।
इस प्रकरण में
जो सबसे शर्मनाक
और निराशाजनक बात
हुई है, वह
यह है कि
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में
दिल्ली पुलिस अपनी जिम्मेदारियों
को संभालने में
बिल्कुल विफल रही
है। पुलिस की
भूमिका केवल कानून-व्यवस्था बहाल करने
तक ही सीमित
नहीं होती है,
बल्कि उसके ऊपर
शांति बनाये रखने
की जवाबदेही भी
होती है, उसे
लोगों की सुरक्षा
को भी सुनिश्चित
करना होता है
तथा कहीं स्थिति
खराब न हो,
इसका भी ख्याल
रखना पड़ता है।
दिल्ली देश के
करोड़ों लोगों, जिनका हवाला
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार देते
रहते हैं, का
प्रतिनिधित्व करती है
और यहां देश
के सभी हिस्सों
के लोग बसते
हैं।
दिल्ली पुलिस बहुत
प्रशिक्षित और संसाधन-संपन्न सुरक्षा बल
है। इस पर
हमें गर्व होता
था। ऐसे पुलिस
बल की दिल्ली
हिंसा के दौरान
बहुत शर्मनाक भूमिका
रही है। पुलिस
अधिकारियों व पुलिसकर्मियों
के सामने फसाद
होता रहा, आगजनी
होती रही और
लोगों की जानें
गयीं, पर ये
सभी हाथ बांधे
खड़े रहे। इसे
माफ नहीं किया
जा सकता है
और इस पूरे
मामले में सबसे
पहले यह जांच
होनी चाहिए कि
ऐसा क्यों हुआ।
इस पर आत्ममंथन
किया जाना चाहिए।
यदि देश की
राजधानी में ही
लोग सुरक्षित नहीं
महसूस करेंगे, तो
फिर गांवों, कस्बों
और अन्य शहरों
के वासियों में
ऐसी भावना कहां
से आयेगी! इस
बात से निश्चिंत
नहीं हुआ जा
सकता है कि
हिंसा हुई और
अब स्थिति सुधरने
लगी है। जो
कुछ भी दिल्ली
में दो-तीन
दिनों तक हुआ
है, इसके कई
संभावित परिणाम हो सकते
हैं।
ऐसा तब
हुआ है, जब
विश्व के सबसे
ताकतवर राजनेता हमारे अतिथि
के रूप में
दिल्ली में थे
और जिनके स्वागत
में सरकार ने
कोई कोर-कसर
नहीं छोड़ी। फिर
भी ऐसी हिंसा
का कोई अनुमान
नहीं लगा पाना
प्रशासनिक क्षमता पर गहरे
सवाल खड़ा करता
है। न तो
खुफिया एजेंसियों को इसकी
भनक लगी और
न ही पुलिस
बवाल को काबू
कर सकी। ऐसा
तीन दिनों तक
चलता रहा। यह
भी रेखांकित किया
जाना चाहिए कि
दिल्ली में दो-दो सरकारें
हैं। केंद्र सरकार
द्वारा ऐसी घटना
का अनुमान न
लगा पाना और
समय रहते कार्रवाई
न कर पाना
अफसोसनाक है। आम
आदमी पार्टी की
राज्य सरकार के
रवैये पर भी
सवाल उठाया जाना
चाहिए, जिसे कुछ
दिन पहले ही
दोबारा बहुत बड़ा
जनादेश मिला है।
यह पार्टी और
इसके नेता तो
आम लोगों से
नजदीकी जुड़ाव का दावा
करते हैं तथा
उनका यह भी
कहना है कि
वे बोलने में
नहीं, काम में
विश्वास करते हैं।
प्रभावित क्षेत्रों में उनके
विधायक और कार्यकर्ता
तो घंटों के
भीतर तैनात हो
जाने चाहिए थे।
पर ऐसा नहीं
हो पाया।
केजरीवाल सरकार व
उनकी पार्टी का
रवैया निश्चित रूप
से निराशाजनक है।
जबकि इस नफरत
को दूर करने
की जरूरत है।
इस दिशा में
नागरिकों को अपने
स्तर पर पहल
करने की जरूरत
है। ऐसा हर
क्षेत्र में होना
चाहिए, दिल्ली में भी
और देश के
अन्य राज्यों में
भी। पहले ऐसा
होता था कि
लोग अपने मोहल्लों
में भाईचारा बहाल
रखने के लिए
शांति समितियां बनाते
थे, आपस में
बैठकें करते थे
और तनाव को
दूर करने की
कोशिश करते थे।
जिस सांप्रदायिक घृणा
का प्रदर्शन दिल्ली
ने दो-तीन
दिनों में देखा
है, उसके मद्देनजर
अगर शांति व
विश्वास का माहौल
बनाने के प्रयास
नहीं किये गये,
तो इसके परिणाम
राजधानी व देश
के लिए और
भयावह हो सकते
हैं। ये आपसी
संघर्ष व हिंसा
हमारी पहचान बन
सकते हैं। भविष्य
की तस्वीर क्या
होगी, यह कहना
मुश्किल है, पर
ऐसा लगता है
कि हम उस
दिशा में बढ़
रहे हैं, जहां
धर्म और जाति
के नाम पर
हिंसा को बढ़ावा
मिल सकता है।
इसे रोका जाना
चाहिए।
दिल्ली की घटना
1984 के जनसंहार की याद
दिलाती है, जिसकी
टीस आज तक
देश के मानस
में है, उसके
घाव अभी भी
भरे नहीं हैं।
हिंसा की किसने
शुरुआत की, कौन
लोग भीड़ लेकर
हमला करते रहे,
ऐसे सवालों की
जांच गंभीरता से
होनी चाहिए, ताकि
पता चल सके
कि आखिर हुआ
क्या और कौन
लोग इसके जिम्मेदार
हैं। दिल्ली में
हुई हिंसा हमारे
समाज और हमारी
राजनीति में बढ़ते
बिखराव को इंगित
करती है। यह
सरकार, समाज और
नागरिकों के लिए
एक बड़ा सबक
है। शरारत और
नफरत से भरी
हिंसा ने दिल्ली
के दामन पर
दाग लगाने और
साथ ही देश
का नाम खराब
करने का काम
किया है। आखिर
इससे दुर्भाग्यपूर्ण और
क्या हो सकता
है कि अमेरिकी
राष्ट्रपति के भारत
आगमन के कारण
जब दुनिया भारत
की ओर देख
रही थी, तब
उसकी राजधानी दिल्ली
भयावह हिंसा से
दो-चार थी।
यह हिंसा कितनी
भयानक थी, इसका
पता इससे चलता
है कि एक
पुलिसकर्मी और खुफिया
ब्यूरो के एक
कर्मचारी समेत करीब
दो दर्जन लोगों
ने अपनी जान
गंवा दी। पागलपन
भरी इस हिंसा
मेंबड़े पैमाने पर संपत्ति
तो स्वाहा की
ही गई, सामाजिक
ताने-बाने को
भी गंभीर क्षति
पहुंचाई गई।
यह भी
एक विडंबना ही
है कि जिस
नागरिकता संशोधन कानून का
भारत के किसी
नागरिक से कोई
लेना-देना ही
नहीं, उसके विरोध
और समर्थन के
फेर में इतनी
अधिक जानें चली
गईं। यह समझा
जाना चाहिए कि
शरारत और नफरत
से भरी इस
हिंसा ने दिल्ली
के दामन पर
दाग लगाने और
साथ ही देश
का नाम खराब
करने का काम
किया है। दिल्ली
दिल दहलाने वाली
हिंसा से बच
सकती थी, यदि
पुलिस ने आवश्यक
सतर्कता बरती होती।
चूंकि उसने ऐसा
नहीं किया, इसलिए
स्वाभाविक तौर पर
उसकी आलोचना हो
रही है। गत
दिवस सुप्रीम कोर्ट
और हाईकोर्ट की
ओर से दिल्ली
पुलिस को जो
फटकार लगी, उसके
लिए वह अन्य
किसी को दोष
नहीं दे सकती।
यह समझना कठिन
है कि आखिर
दिल्ली पुलिस के अधिकारी
यह साधारण सी
बात क्यों नहीं
भांप सके कि
अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा
को देखते हुए
हिंसा भड़काई जा
सकती है? दिल्ली
हाईकोर्ट ने पुलिस
को भड़काऊ भाषण
देने वाले नेताओं
के खिलाफ कार्रवाई
करने के निर्देश
देकर एक तरह
से उसकी भूल
ही याद दिलाई।
निःसंदेह
भड़काऊ बयान देने
वाले नेताओं ने
माहौल बिगाड़ने का
काम किया। यह
आवश्यक ही नहीं
अनिवार्य है कि
भड़काऊ भाषण देने
वाले हर नेता
के खिलाफ कोई
प्रभावी और सबक
सिखाने वाली कार्रवाई
होनी चाहिए, फिर
चाहे वे जिस
भी दल या
संगठन के हों।
इस मामले में
भाजपा, आम आदमी
पार्टी, कांग्रेस और अन्य
दलों के बेलगाम
नेताओं में कोई
भेद नहीं किया
जाना चाहिए। इसके
साथ ही इस
पर भी ध्यान
दिया जाना चाहिए
कि दिल्ली के
माहौल को बिगाड़ने
में एक भूमिका
शाहीन बाग धरने
की भी है,
जो सड़क पर
काबिज होकर दिया
जा रहा है।
यह वाकई हैरानी
की बात है
कि करीब 70 दिन
गुजर जाने के
बाद भी यह
धरना जारी है।
सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट
ने दिल्ली पुलिस
को उचित ही
फटकार लगाई, लेकिन
आखिर इस सवाल
का जवाब कौन
देगा कि न्यायपालिका
के दखल के
बाद भी शाहीन
बाग का धरना
क्यों जारी है?
वास्तव में यह
दिल्ली ही नहीं,
देश का दुर्भाग्य
है कि ये
प्रश्न अभी भी
अनुत्तरित बना हुआ
है। इससे दुखद-दयनीय और कुछ
नहीं कि मुट्ठी
भर लोग सड़क
पर कब्जा कर
लाखों नागरिकों के
धैर्य की परीक्षा
ले रहे हैं।
दिल्ली के शाहीन
बाग इलाके में
बीते दो माह
से दिया जा
रहा जो धरना
लाखों लोगों की
नाक में दम
किए हुए है,
उसके यदि खत्म
होने के आसार
नहीं दिख रहे
हैं तो इसकी
एक वजह न्यायपालिका
का अति उदार
रवैया भी है।
यह घोर निराशाजनक
है कि पहले
दिल्ली उच्च न्यायालय
ने धरना दे
रहे लोगों को
सड़क खाली करने
के स्पष्ट निर्देश
देने से इनकार
किया, फिर मामला
जब उच्चतम न्यायालय
गया तो उसने
धरना दे रहे
लोगों को समझाने-बुझाने के लिए
वार्ताकार नियुक्त कर दिए।
ऐसा करके सड़क
पर काबिज होकर
की जा रही
अराजकता को एक
तरह से प्रोत्साहित
ही किया गया।
क्या अब जहां
भी लोग अपनी
मांगों को लेकर
सड़क या फिर
रेल मार्ग पर
कब्जा करके बैठ
जाएंगे, वहां सुप्रीम
कोर्ट अपने वार्ताकार
भेजेगा? यदि नहीं
तो फिर शाहीन
बाग के मामले
में नई नजीर
क्यों? समझना कठिन है
कि जब उच्चतम
न्यायालय ने यह
माना भी और
कहा भी कि
इस तरह रास्ता
रोककर धरना देना
अनुचित है, तब
फिर उसने शाहीन
बाग इलाके की
नोएडा से दिल्ली
को जोड़ने वाली
उस सड़क को
खाली कराने के
आदेश देने की
जरूरत क्यों नहीं
महसूस की, जिसका
इस्तेमाल प्रतिदिन लाखों लोग
करते हैं?