यूपी : मतदाता सूची, एसआईआर लोकतंत्र की सबसे बड़ी परीक्षा
लोकतंत्र की असली पहचान मतदान के दिन नहीं, बल्कि मतदाता सूची के पन्नों में दर्ज होती है। अगर उस सूची में नाम अधूरे हैं, तो चुनाव कितना भी निष्पक्ष क्यों न हो, जनादेश अधूरा ही रहेगा। उत्तर प्रदेश में चल रहा विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) इसी बुनियादी सच्चाई को सामने ला रहा है। करीब 25 करोड़ की आबादी वाले इस प्रदेश में सामान्य गणना के अनुसार 16 करोड़ के आसपास मतदाता होने चाहिए, लेकिन मौजूदा आंकड़े बताते हैं कि अब तक केवल करीब 12 करोड़ लोगों का ही नामांकन या डेटा मैपिंग हो पाई है। यानी करीब चार करोड़ पात्र नागरिक अब भी लोकतांत्रिक सूची से बाहर हैं। यह अंतर किसी दल या विचारधारा का नहीं, बल्कि लोकतंत्र की रीढ़ से जुड़ा सवाल है। 2024 के लोकसभा चुनाव में जिन करोड़ों लोगों ने मतदान किया था, उनकी मौजूदगी इस बात का प्रमाण है कि मतदाता कहीं गायब नहीं हुए हैं, वे केवल प्रणाली में दर्ज होने से छूट गए हैं। इस बीच फैली अफवाहों के उलट, जमीनी सच्चाई यह भी है कि मुस्लिम मतदाताओं की करीब 95 प्रतिशत मैपिंग पूरी हो चुकी है, जो बताती है कि समस्या सांप्रदायिक नहीं, बल्कि संरचनात्मक है। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है, क्या लोकतंत्र हर नागरिक तक पहुंचेगा, या कुछ नाम हमेशा के लिए सूची से बाहर रह जाएंगे? जबकि सच तो यह है कि . वोटर लिस्ट अधूरी तो जनादेश अधूरा, नाम छूटे तो आवाज छूटेगी, चुनाव से पहले नागरिकता की परीक्षा, लोकतंत्र की सूची, लोकतंत्र की साख के बीच यूपी में चार करोड़ ‘मिसिंग वोटर’ क्या जागरुक नहीं है?
सुरेश गांधी
उत्तर प्रदेश में चल रहा
विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर)
केवल मतदाता सूची को दुरुस्त
करने की प्रशासनिक कवायद
नहीं है, बल्कि यह
इस बात की परीक्षा
है कि देश का
सबसे बड़ा राज्य अपने
लोकतंत्र को कितनी गंभीरता
से लेता है। यह
इस सवाल का उत्तर
खोजने की कोशिश है
कि क्या लोकतंत्र अपनी
जड़ों तक पहुंच पा
रहा है, या रास्ते
में ही कुछ नाम,
कुछ चेहरे, कुछ आवाजें छूट
जा रही हैं? सवाल
सीधा है, क्या लोकतंत्र
हर नागरिक तक पहुंच रहा
है, या करोड़ों नाम
रास्ते में ही छूट
जा रहे हैं? बता
दें, यूपी में कुल
15,41,03,670 मतदाता थे, जिनमें 8,77,23,028 ने अपने
मताधिकार का प्रयोग किया।
यानी प्रदेश की सभी 80 सीटों
पर 59.11 प्रतिशत लोगों ने मतदान किया.
यह संख्या अपने आप में
एक ठोस आधार है।
ये वे लोग हैं,
जिनके नाम उस समय
मतदाता सूची में थे,
जिन्होंने पहचान, आयु और पते
की सभी शर्तें पूरी
की थीं, और जिन्होंने
लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी
निभाई। आज जब एसआईआर
के आंकड़े यह बताते हैं
कि करीब 4 करोड़ पात्र मतदाता
सूची से बाहर हैं,
तो सवाल उठता है,
क्या ये लोग अचानक
गायब हो गए? या
फिर कहीं न कहीं
प्रणाली से चूक हो
रही है?
प्रदेश के 1265 से अधिक बूथों
के निरीक्षण में बीएलओ का
स्पष्ट कहना है कि
मुस्लिम मतदाता रिकॉर्ड के साथ स्वयं
आगे आ रहे हैं,
फार्म भरने और सत्यापन
में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं,
और सूची के सापेक्ष
करीब 95 प्रतिशत मुस्लिम मतों की मैपिंग
पूरी हो चुकी है।
यह तथ्य साबित करता
है कि एसआईआर की
चुनौती सांप्रदायिक नहीं, संरचनात्मक है। मतदाता सूची
की प्रक्रिया तभी सफल हो
सकती है, जब मतदाता
को भरोसा हो कि उसका
नाम सुरक्षित है, उसकी पहचान
का सम्मान है, और उसका
अधिकार किसी अफवाह की
भेंट नहीं चढ़ेगा। डर
लोकतंत्र को कमजोर करता
है, जबकि भरोसा उसे
मजबूत करता है। एसआईआर
की असली कसौटी यही
है कि यह भय
को तोड़कर विश्वास को कितना मजबूत
कर पाता है। एसआईआर
का अंतिम चरण सबसे अहम
है। इस चरण में
बीएलओ की भूमिका निर्णायक
हो जाती है, तकनीकी
प्लेटफॉर्म की विश्वसनीयता परख
में आती है, और
प्रशासन की संवेदनशीलता जनता
के सामने होती है।
घर-घर जाकर
नाम ढूंढना, बुजुर्गों को समझाना, प्रवासी
मतदाताओं से संपर्क करना,
यह सब केवल सरकारी
काम नहीं, बल्कि लोकतंत्र की सेवा है।
मतदाता सूची कोई साधारण
रजिस्टर नहीं है। यह
नागरिक की लोकतांत्रिक पहचान
है, अधिकारों का पहला दस्तावेज
है, और संविधान की
जमीनी प्रति है। अगर इसमें
एक भी नाम गलत
ढंग से छूटता है,
तो लोकतंत्र कमजोर पड़ता है। मतलब
साफ है उत्तर प्रदेश
में एसआईआर यह तय करेगा
कि हम लोकतंत्र को
सिर्फ चुनाव तक सीमित रखते
हैं या हर नागरिक
तक पहुंचाने का साहस दिखाते
हैं। 2024 में जिन्होंने मतदान
किया, वे गवाह हैं
कि लोकतंत्र जीवित है। अब जिम्मेदारी
व्यवस्था की है कि
कोई भी मतदाता, किसी
भी कारण से सूची
से बाहर न रहे।
क्योंकि चुनाव कोई भी जीते,
लोकतंत्र को जीतना चाहिए।
लोकतंत्र की सबसे पहली
और सबसे बुनियादी शर्त
है, मतदाता सूची की शुद्धता।
अगर सूची अधूरी है,
तो मतदान अधूरा है; और अगर
मतदान अधूरा है, तो जनादेश
भी अधूरा है। उत्तर प्रदेश
जैसे देश के सबसे
बड़े राज्य में यह सवाल
और भी गंभीर हो
जाता है, जहां लोकतंत्र
की धड़कन सिर्फ चुनाव
परिणामों से नहीं, बल्कि
मतदाता की भागीदारी से
तय होती है।
जब सूची सवालों के घेरे में आई
एसआईआर ने यूपी के
लोकतंत्र के सामने सबसे
बड़ा सवाल खड़ा कर
दिया है। कुल आबादी
(अनुमानित) : लगभग 25 करोड़, अनुमानित मतदान योग्य आबादी (60 से 65 फीसदी) : 15.5 से 16 करोड़. 2024 लोकसभा चुनाव में सक्रिय मतदाता
: 8,77,23,028 करोड़, एसआईआर में अब तक
मैप/फीड मतदाता : लगभग
12 करोड, मिसिंग मतदाता (अनुमानित) : करीब 4 करोड, यह अपने आप
में चौकाने वाला आंकड़ा है.
जबकि मतदाता सूची केवल नामों
की सूची नहीं, लोकतंत्र
का आधार है। अगर
करोड़ों पात्र नागरिक उससे बाहर रह
जाते हैं, तो यह
चुनावी नहीं, संवैधानिक संकट है। एसआईआर
की सफलता इसी में है
कि हर योग्य नागरिक
तक लोकतंत्र की पहुंच सुनिश्चित
हो। मतलब साफ है
उत्तर प्रदेश में एसआईआर के
दौरान सामने आई अनियमितताओं ने
मतदाता सूची की विश्वसनीयता
पर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए
हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा
स्वयं उठाए गए उदाहरण,
मतदाता सूची में बांग्लादेशी
नागरिकों के नाम, पीढ़ियों
की उम्र में विसंगति
और एक राज्य का
व्यक्ति दूसरे राज्य में मतदाता पाया
जाना, यह दर्शाते हैं
कि समस्या केवल आंकड़ों की
नहीं, बल्कि प्रणालीगत शिथिलता की है। जनवरी
2025 में जहां प्रदेश की
मतदाता सूची में 15 करोड़
44 लाख नाम दर्ज थे,
वहीं आज यह संख्या
घटकर करीब 12 करोड़ रह जाना
किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था
के लिए चेतावनी है।
खासकर तब, जब एक
जनवरी 2026 तक 18 वर्ष पूरे करने
वाले नए युवाओं के
जुड़ने से संख्या बढ़नी
चाहिए थी। मुख्यमंत्री का
यह कहना कि “98 या
100 प्रतिशत का दावा सच्चाई
नहीं है” दरअसल प्रशासनिक
आत्ममंथन का संकेत है।
यह स्वीकारोक्ति बताती है कि एसआईआर
केवल औपचारिक प्रक्रिया बनकर नहीं रह
सकता। जब तक बूथ
स्तर पर वास्तविक सत्यापन,
सही दस्तावेज़ और मानवीय निगरानी
नहीं होगी, तब तक मतदाता
सूची की शुद्धता संदेह
के घेरे में बनी
रहेगी। लोकतंत्र की मजबूती इस
बात से तय होती
है कि पात्र नागरिक
शामिल हों और अपात्र
बाहर रहें। एसआईआर इसी संतुलन की
कसौटी है।
बांग्लादेशी नाम और उम्र विसंगति
एसआईआर के दौरान जिन
बिंदुओं पर मुख्यमंत्री योगी
आदित्यनाथ ने सवाल उठाए,
वे तकनीकी से ज्यादा सुरक्षा
और लोकतांत्रिक शुद्धता से जुड़े हैं।
सीमा से सटे जिलों
या शहरी इलाकों में
अवैध घुसपैठ, फर्जी पहचान पत्र और स्थानीय
स्तर पर मिलीभगत के
जरिए नाम दर्ज होने
की आशंका लंबे समय से
जताई जाती रही है।
एसआईआर का उद्देश्य ऐसे
नामों की पहचान कर
उन्हें हटाना है। 20 साल के बेटे,
30 साल के पिता और
40 साल के दादा जैसे
उदाहरण साफ दिखाते हैं
कि कई प्रविष्टियां बिना
मानवीय जांच के दर्ज
हो गईं। यह या
तो डेटा एंट्री की
गंभीर गलती है या
जानबूझकर की गई गड़बड़ी।
असम के नौगांव का
व्यक्ति संभल में मतदाता,
यह दर्शाता है कि स्थानांतरण
और सत्यापन की प्रक्रिया में
बड़ी चूक हुई है।
ये उदाहरण साबित करते हैं कि
एसआईआर केवल “नाम जोड़ने” का
अभियान नहीं, बल्कि लोकतंत्र की सफाई प्रक्रिया
है।
विपक्ष का सवालः देरी और जिम्मेदारी किसकी?
एसआईआर को लेकर विपक्ष का रुख पूरी तरह अलग है। विपक्षी दलों का कहना है कि मतदाता सूची में गड़बड़ियों की जिम्मेदारी केवल जमीनी स्तर के कर्मचारियों पर डालना उचित नहीं है। संभावित विपक्षी तर्क यह हो सकते हैं, जब जनवरी 2025 में 15.44 करोड़ नाम थे, तो अचानक इतनी बड़ी गिरावट क्यों आई? यदि बांग्लादेशी या फर्जी नाम पहले से थे, तो अब तक की सरकारें क्या कर रही थीं? कहीं एसआईआर की प्रक्रिया में जल्दबाजी या तकनीकी खामियां तो नहीं? विपक्ष यह भी कह सकता है कि “मतदाता सूची की शुद्धता जरूरी है, लेकिन प्रक्रिया पारदर्शी, समयबद्ध और डर-मुक्त होनी चाहिए।” हालांकि, विपक्ष के लिए यह भी चुनौती है कि वह इस मुद्दे को सिर्फ राजनीतिक आरोप तक सीमित न रखे, बल्कि समाधान में रचनात्मक भूमिका निभाए.




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