तालिबान से चौकसी के बीच शर्तो पर बातचीत में हर्ज नहीं
कूटनीति
में
कोई
देश
किसी
का
स्थायी
मित्र
या
शत्रु
तो
नहीं
होता।
ठीक
उसी
तरह
तनातनी
या
युद्ध
भी
किसी
विवाद
या
समस्या
का
हल
नहीं
होता।
वैसे
भी
जब
बातचीत
होंगे
तो
तभी
तो
खामियां
या
निदान
या
यू
कहे
मसला
सामने
आयेंगा।
वह
भी
तब
जब
मामला
गंभीर
हो
और
बातचीत
अपनी
शर्तो
पर
हो
तो
उसमें
बुराई
ही
क्या
है?
मतलब
साफ
है
युद्ध
के
बाद
भी
बातचीत
ही
की
जाती
है।
हर
लड़ाई
का
अंत
बातचीत
ही
होती
है,
इसलिए
किसी
बड़ी
लड़ाई
को
शुरू
करने
के
बजाए
बातचीत
के
जरिए
समाधान
निकालना
ही
बेहतर
है।
बातचीत
कोई
संवैधानिक
हस्ताक्षर
तो
है
नहीं,
बात
अगर
मतलब
की
है
तो
ठीक
वरना
हम
अपने
रास्ते
आप
अपने
रास्ते
सुरेश गांधी
फिरहाल, भारत और तालिबान के
बीच दोहा में शर्तो पर बातचीत हुई
है। कतर में भारत के राजदूत दीपक
मित्तल और तालिबान राजनीतिक
आफिस दोहा के प्रमुख शेर
मोहम्मद अब्बास स्टेन्कजई की मीटिंग हुई।
मीटिंग का एजेंडा भारतीय
नागरिकों की सुरक्षा और
जल्द से जल्द देश
वापसी मुख्य रहा। वैसे भी उस वक्त
जब हमारे कई भारतीय अफगान
में फंसे हो और उसमें
अगर तालिबान ने भारत की
तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया
है तो हर्ज ही
क्या है। ये बातचीत का
ही असर था कि पाकिस्तान
की सीमा में एअर स्ट्राइक के बावजूद को
पायलट विंग कमांडर अभिनंदन को उसे जिंदा
वापस करना पड़ा। बातचीत के भरोसे ही
भारत ने पाकिस्तान को
पूरी दुनिया के सामने नंगा
कर दिया। कहने का अभिप्राय यही
है कि जब बातचीत
ही नहीं होगी तो हम अपनी
बाते कहेंगे किससे। जबकि अब तय हो
गया है कि अफगानिस्तान
का भविष्य पूरी तरह तालिबान के हाथ में
है। ऐसे में भारत को नए अफगानिस्तान
से नए सिरे से
रिश्ते बनाने के लिए अपनी
डिप्लोमेसी में बदलाव करते हुए अपनी शर्तो पर बात करनी
पड़ रही है तो उसमें
विपक्ष का फड़फड़ाने का
कोई औचित्य ही नहीं है।
माना कि तालिबान के
कुकर्मो, अत्याचार व आतंकी हरकतों
को देखते हुए कत्तई भरोसे लायक नहीं है और भरोसा
करना भ्ज्ञी नहीं चाहिए। लेकिन मौजूदा हालात में बातचीत करनी ही पड़ी तो
करेंगे किससे। इसलिए हमें समझना होगा कि भारत के
लिए ये एक हाथ
दे एक हाथ ले
वाला रिश्ता है। तालिबान भारत से ट्रेड चाहता
है। जबकि भारत चाहता है कि अफगानिस्तान
की जमीन से भारत विरोधी
गतिविधियों को बढ़ावा नहीं
मिले। यही वजह है कि भारत
फिलहाल वेट एंड वॉच वाली स्थिति में है। ये भारत की
सोची-समझी नीति है। भारत का स्ट्रैटजिक फायदा
अफगानिस्तान के साथ दोस्ताना
संबंध रखने में ही है, लेकिन
इस वक्त क्षेत्रीय समीकरणों को देखते हुए
भारत के लिए अपने
स्ट्रैटजिक संबंध बनाए रखना मुश्किल है। इस मुलाकात के
बाद माना जा रहा है
कि भारत तालिबान के साथ संबंध
बनाना चाहता है, लेकिन ये संबंध कैसे
होंगे ये तालिबान के
कदम पर निर्भर करता
है।
भारत ने स्टेनकजई के
सामने जो मुद्दे उठाए
हैं उस पर तालिबान
का रुख ही दोनों के
रिश्तों को तय करेगा।
वहीं, दूसरी तरफ भारत का अफगानिस्तान में
करीब 23 हजार करोड़ रुपए का निवेश है।
भारत ने पिछले 20 साल
में अफगानिस्तान में विकास से जुड़े कई
काम किए हैं। ऐसे में तालिबान के लिए भारत
के साथ अच्छे संबंध रखना जरूरी है। भारत की ओर से
यह भी कहा गया
कि जो भी अफगानी
अल्पसंख्यक भारत आना चाहते हैं उनको भी सुरक्षित तरीके
से आने दिया जाए। भारतीय राजदूत दीपक मित्तल ने दो टूक
में कह दिया है
अफगानिस्तान की जमीन को
एंटी-इंडिया एक्टिविटी या आतंकवाद को
बढ़ावा देने के लिए उपयोग
नहीं किया जाना चाहिए। बातचीत का फोकस अफगानिस्तान
में फंसे भारतीयों की जल्द वापसी
पर था। तालिबान के प्रतिनिधि ने
भारत द्वारा उठाए गए मुद्दों पर
सकारात्मक तौर पर विचार करने
का आश्वासन दिया। तालिबान भारत को आश्वासन दे
रहे हैं कि उसे उनकी
ओर से कोई ख़तरा
नहीं है, बल्कि वो व्यवसासिक रिश्तों
का स्वागत करते हैं। बावजूद इसके भारत सरकार ने सिर्फ अपनी
ही शर्तो को रखा है।
बेशक, भारत को अपने इन
पड़ोसी मुल्कों की नापाक हरकतों
का मुकाबला करने के लिए तो
हर वक्त चौकस रहना ही होगा। अटल
बिहारी वाजेपयी बार-बार कहा करते थे कि ‘आप
अपने मित्र बदल सकते हैं, पर दुर्भाग्य से
पड़ोसी नहीं।’ वैसे भी भारत सरकार
हड़बड़ी में तालिबान को मान्यता नहीं
देगी, चूंकि उसे हक़्कानी नेटवर्क को दी जा
रही ताक़त और ज़िम्मेदारियों को
लेकर चिंता बनी हुई है, जो एक नामित
आतंकी संगठन है जिसके अल
क़ायदा के साथ रिश्ते
हैं, ख़ासकर ऐसे समय जब पाकिस्तान का
इस देश में असर बढ़ रहा है।
चूंकि काबुल शहर की सुरक्षा का
ज़िम्मा हक़्क़ानी नेटवर्क को सौंप दिया
गया है। भारत तालिबान और हक़्क़ानी नेटवर्क
दोनों को, आतंकी संगठनों के तौर पर
देखता है। यही वजह है कि भारत
सिर्फ बातचीत के जरिए ही
अपनी शर्ते उन्हें बता रहा है। फिलहाल, नरेंद्र मोदी सरकार की प्राथमिकता उन
सैकड़ों भारतीयों को बाहर निकालना
है, जो अभी भी
अफगानिस्तान में फंसे हैं। वो कमर्शियल फ्लाइट्स
के फिर से खुलने का
भी इंतज़ार कर रही है,
जिसके बाद वो ऐसे लोगों
को ई-वीज़ा जारी
करना शुरू करेगी, जो अफगानिस्तान छोड़ना
चाह रहे हैं, जिनमें पूर्व की अशरफ ग़नी
सरकार के कई पदाधिकारी
शामिल हैं।
भारत द्वारा अभी तक निकाल कर
लाए गए अफगान नागरिकों
में, अधिकतर सिख या हिंदू समुदाय
से हैं। वैसे भी अफगानिस्तान में
लगातार पांव पसार रहे तालिबान से भारत की
बातचीत पर पाकिस्तान बौखला
गया है। तालिबान से भारत की
बातचीत से पाकिस्तान के
पेट में कितना दर्द हो रहा है,
इसका अंदाजा आप इसी से
लगा सकते हैं कि पाकिस्तान के
एनएसए डॉ. मोईद युसूफ ने कहा है
कि ’तालिबान से बातचीत कर
भारत शर्मनाक कदम उठा रहा है’। दरअसल,
भारत-तालिबान संपर्क से पाकिस्तान को
मिर्ची इसलिए लग गई है,
क्योंकि तालिबान को पाकिस्तान लगातार
मदद दे रहा है
और अफगानिस्तान में लगातार मजबूत हो रहे तालिबान
से अगर भारत की नजदीकी बढ़ती
है, तो पाकिस्तान का
वर्चस्व अफगानिस्तान में काफी कम हो जाएगा।
बता दें, उग्रवादी इस्लामिक स्टेट के एक गुट,
आईएसआईएस - ख़ोरासान की मौजूदगी की
वजह से, न सिर्फ भारत
बल्कि दूसरे मुल्कों के लिए भी,
तालिबान की अगुवाई वाली
किसी सरकार को मान्यता देना
मुश्किल होगा, चूंकि इस बात की
पूरी संभावना है कि अफगानिस्तान
एक बार फिर आतंकवाद की पनाहगाह बन
सकता है।
अब सवाल ये
है कि ताक़त के
बल पर सत्ता हथिया
लेने के बाद, क्या
(तालिबान नेताओं द्वारा दिए गए) आश्वासनों पर यक़ीन किया
जा सकता है, या ये सिर्फ
इसलिए कहा जा रहा है
कि एक ऐसे देश
से मान्यता मिल जाए, जिसके साथ अफगानिस्तान के ऐतिहासिक रिश्ते
रहे हैं, लेकिन जिसके साथ उसने अभी तक, उसने खुले तौर पर कारोबार नहीं
किया है? क्या वो वास्तव में
आईएसआई के खिलाफ हमारे
सुरक्षा हितों की गारंटी दे
सकते है, चाहे उसका ताल्लुक़ हमारे दूतावासों, वाणिज्य दूतावासों, स्थानीय स्टाफ समेत उनके कर्मियों की सुरक्षा से
हो, या पाकितान-स्थित
भारत विरोधी आतंकी एजेंसियों, या कश्मीर, या
पाकिस्तान, और अब शायद
चीन से हो? हमें
तब तक अपनी प्रतिक्रिया
नहीं देनी चाहिए, जब तक वो
किसी परस्पर स्वीकार्य सत्ता के बटवारे, या
राजनीतिक समझौते पर नहीं पहुंच
जाते, जिसके तहत एक समावेशी सरकार
में सभी राजनीतिक हितों को समायोजित नहीं
किया जाता।
वर्तमान में भारत और तालिबान के
बीच जो बातचीत हुई
है यदि वो आगे भी
जारी रहती है और कुछ
सकारात्मक परिणाम सामने आते हैं तो इसके काफी
दूरगामी परिणाम भी सामने आ
सकते हैं। भारत ने इन दो
दशकों के दौरान अफगानिस्तान
में करोड़ों डालर का निवेश किया
है। तालिबान से बातचीत न
होने की सूरत में
इस निवेश पर संकट आ
सकता है। भारत इस क्षेत्र का
एक अहम देश है। भारत को नजरअंदाज करना
तालिबान के लिए संभव
नहीं है। भारत को साथ में
लेकर वो विश्व बिरादरी
के सामने खुद के बदलने का
साक्ष्य भी प्रस्तुत कर
सकता है। भारत ने तालिबान से
बातचीत जरूर की है लेकिन,
भारत ने ये साफ
नहीं किया है कि वो
तालिबान की सरकार को
मान्यता देगा या नहीं। भारत
हमेशा से ही तालिबानी
सोच का विरोधी रहा
है। भारत चाहता है कि अफगानिस्तान
में अमन कायम हो और लोगों
को खुलकर जीने की आजादी हो।
महिलाओं का पूरा सम्मान
हो और उनके मानवाधिकारों
का उल्लंघन न किया जाए।
भारत ये भी चाहता
है कि महिलाओं के
पेरों में डाली गई तालिबानी बेड़ियां
खोली जाएं और उन्हें पढ़ने
और काम करने की पूरी आजादी
मिले।
पाकिस्तान बार-बार कह रहा है
कि भारत से कश्मीर छीनने
की उसकी मुहिम में तालिबानी आतंकी अब उसका साथ
देंगे। बातचीत की सूरत में
इस तरह की आशंकाओं पर
विराम लगाया जा सकता है।
बातचीत सही दिशा में आगे बढ़ने पर भारव वहां
पर न सिर्फ मानवीय
मदद को हाथ बढ़ा
सकता है बल्कि अपने
विकास कार्यों पर भी आगे
बढ़ सकता है। भारत ने अफगानिस्तान में
न सिर्फ वहां की संसद का
निर्माण करवाया है बल्कि स्कूल,
कालेज, अस्पताल का भी निर्माण
करवाया है। इसके अलावा हैरात प्रांत में बांध बनाकर भारत ने अफगानिस्तान की
बिजली की जरूरत को
भी काफी हद तक पूरा
किया है। इसके अलावा भारत ने हजारों की
संख्या में गाड़ियां भी तत्कालीन सरकार
को मुहैया करवाई थीं।
इस नए बदलाव
से साफ है कि तालिबान
भारत के साथ रिश्तों
को लेकर बातीचत कर आगे की
दिशा तय करना चाहता
है। ऐसे में भारत का क्या रुख
होना चाहिए, यह बहुत मायने
रखेगा। अच्छी बात यह है कि
पहल तालिबान के तरफ से
की गई। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं
समझना चाहिए कि भारत ने
तालिबान को मान्यता दे
दी है। यह केवल समय
की मांग है। लेकिन चिंता की बात यह
है कि अभी अफगानिस्तान
में सरकार कैसी बनेगी, यह तस्वीर साफ
नहीं है। इस समय तालिबान
के कई सारे नेता
हैं। कोई नहीं जानता कि कौन सा
नेता कितना ताकतवर है। ऐसे में किस नेता से बात करने
से क्या फायदा होने वाला है। यह किसी को
पता नहीं है। इसलिए अभी जिससे बात हुई है वह आने
वाली सरकार में कितना अहम भूमिका निभाएगा यह कहना मुश्किल
है। उससे भी बड़ी बात
यह है कि तालिबान
का पुराना रिकॉर्ड बहुत खराब है। ऐसे में उन पर भरोसा
करना बहुत मुश्किल है। उसके बावजूद भारत को अपने हितों
को देखते हुए बातचीत की कोशिश करती
रहनी चाहिए। साथ ही उसे यह
भी ध्यान रखना चाहिए कि अभी की
बातचीत का व्यवहारिक रुप
से कोई खास मतलब नहीं है।
भारत ने पिछले 20 साल
में अफगानिस्तान में करीब 3 अरब डॉलर का निवेश कर
रखा है। जिसमें सड़क, बांध, अस्पताल, बिजली परियोजनाएं, अफगानिस्तान की संसद के
निर्माण आदि पर खर्च किए
गए हैं। ऐसे में तालिबान ने 1996-2001 में जिस तरह खुले आम भारत विरोधी
गतिविधियां की थी, उसे
देखते हुए इस बार भी
ऐसा होने की आशंका बढ़
गई है। खास तौर पर जब तालिबान
पर पाकिस्तान और चीन का
प्रभाव कहीं ज्यादा है। और पाकिस्तान कभी
भी तालिबान को भारत से
अच्छे रिश्ते बनाने के लिए प्रोत्साहित
नहीं करेगा। अलकायदा ने तो अफगानिस्तान
से अमेरिका की वापसी को
तालिबान की जीत बताया
है और उसे बधाई
दी है। साथ ही उसने यह
भी कहा है कि उन्हें यमन,
सोमालिया और कश्मीर जैसे
इलाकों को आजाद कराना
है। कुल मिलाकर अफगानिस्तान से अमेरिका की
वापसी होने के बाद आतंकवादी
संगठन अपना रंग दिखाने लगे हैं। वे एकजुट हो
रहे हैं और कश्मीर को
लेकर बयान दे रहे हैं।
अलकायदा के बाद अब
आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन के सरगना सैयद
सलाहुद्दीन ने भारत को
धमकी दी है।
सलाहुद्दीन ने कश्मीर को
आजाद कराने और ’गजवा ए हिंद’ लागू
करने की बात कही
है। अपने आठ मिनट के
ऑडियो टेप में सलाहुद्दीन कहा है कि ’गजवा ए हिंद’ कश्मीर
की ओर बढ़ना चाहिए।
उन्होंने ’जंग ए बद्र’ की
बात की है। इन
आतंकी गुटों का एकजुट होना
भारत सरकार के लिए चिंता
का विषय है। अफगानिस्तान के बिगड़े हालात
का फायदा पाकिस्तान उठाने की कोशिश करेगा।
पाकिस्तान अफगानिस्तान में मौजूद आतंकी लड़ाकों को कश्मीर की
तरफ भेजकर यहां के हालात खराब
करना चाहेगा। उसकी नजर इन आतंकवादी संगठनों
पर है। पाकिस्तान जानता है कि वह
भारत से सीधी लड़ाई
नहीं जीत सकता। वह ’छद्म युद्ध’ के जरिए कश्मीर
में शांति एवं कानून-व्यवस्था को चुनौती पेश
करता आया है। उसकी पूरी कोशिश विदेशी लड़ाकों को सीमा पार
से घुसपैठ कराकर घाटी में भेजने की होगी। इसे
देखते हुए सुरक्षा एवं खुफिया एजेंसियों को ज्यादा सतर्क
और जागरूक रहने की जरूरत है।
हो सकता है
भारत को एक दोस्ताना
तालिबान से फायदे बहुत
कम हो, लेकिन एक बिना संबंध
वाले तालिबान से नुकसान ज्यादा
है। भारत को फिलहाल ये
कोशिश करना चाहिए कि भले ही
पहले जितने दोस्ताना संबंध न हो पाएं,
लेकिन संबंध ज्यादा खराब भी न हों।
भारत की वेट एंड
वॉच नीति का ही नतीजा
है कि अफगानिस्तान भारत
को लेकर दोस्ताना संबंध वाला बयान दे रहा है।
भारत को इसी पॉलिसी
को आगे बढ़ाना चाहिए। भारत ने अभी तक
अफगानिस्तान में जो निवेश किया
है और जो प्रोजेक्ट
वहां चल रहे थे,
भारत को इन निवेश
का हवाला देना चाहिए कि भारत ने
अफगानिस्तान की जनता के
लिए इतने स्कूल-हॉस्पिटल बनवाएं हैं। अगर भारत के लोगों और
निवेश को तालिबान सुरक्षा
की गारंटी देता है तो भारत
कुछ फैसले ले सकता है।
अफगानिस्तान में 20 साल बाद सत्ता में लौटे तालिबान से कोई अगर
खुश है तो वह
है चीन। चीन के अलावा रूस
और पाकिस्तान ही ऐसे देश
हैं, जो अफगानिस्तान के
नए तालिबान शासन के लगातार संपर्क
में हैं। तीनों ही देशों ने
काबुल में अपने दूतावास खोल रखे हैं, जबकि भारत समेत दुनिया के ज्यादातर देशों
के दूतावास अपने बोरिया-बिस्तर समेट चुके हैं। अफगानिस्तान के हालात ये
हैं कि वहां से
अमेरिका करीब-करीब बाहर हो चुका है।
रूस का बहुत ज्यादा
इंटरेस्ट अफगानिस्तान में है नहीं। उसकी
रुचि तो सिर्फ सेंट्रल
एशिया में आतंकी गतिविधियों को रोकना है।
पाकिस्तान तो वही करेगा
जो चीन के फायदे का
हो। यानी, अफगानिस्तान में तालिबान शासन का लाभ चीन
ही उठाने वाला है। दरअसल, बात सिर्फ क्षेत्र में दादागिरी करने या प्रभाव बढ़ाने
की नहीं है। अफगानिस्तान में 3 ट्रिलियन डॉलर (करीब 200 लाख करोड़ रुपए) की खनिज संपदा
है, जिस पर दुनिया की
फैक्ट्री के तौर पर
स्थापित हो चुके चीन
की नजर है।
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