हिन्दुत्व की पिच पर “जाति“ की कड़ाही में तलेगी-भुनेगी “भारत“
सुप्रीम
कोर्ट
तक
विरोध
के
बावजूद
राजनीतिक
दलों
की
एकता
के
कारण
अब
बिहार
में
जाति
आधारित
एक-एक
आदमी
की
गिनती
हो
गई।
कुछ
अन्य
गैरभाजपाई
राज्यों
में
भी
घोषणा
होने
वाली
है।
खास
यह
है
कि
जाति
रिपोर्ट
में
हरेक
धर्म
और
हर
जाति
के
लोगों
की
संख्या
बता
दी
गई
है।
यह
सब
सिर्फ
और
सिर्फ
2024 की
जंग
जीतने
की
एक
कोशिश
है।
मतलब
साफ
है
लोकसभा
चुनाव
में
भले
ही
अभी
चार-छह
महीने
का
वक्त
है,
लेकिन
सियासी
पार्टियां
अभी
से
चुनावी
पिच
पर
शतरंज
की
विसात
बिछाने
में
जुट
गएं
है।
माहौल
अपने
पक्ष
में
करने
के
लिए
नीतीश
सरकार
ने
जाति
आधारित
जनगणना
घोषित
कर
इसे
मुद्दा
बना
दिया
है।
सारा
विपक्ष
उनके
इस
फैसले
का
स्वागत
कर
रहा
है।
कौन
ढाई
घर
चलेगा
और
कौन
तिरछी
चाल,
ऐसे
अप्रत्याशित
चाल
और
भी
आ
सकते
हैं।
लेकिन
जाति
की
सियासत
में
जिस
तरीके
से
बीजेपी
बड़े
ही
साफगोई
से
दलित
व
पिछड़ों
के
बते
देश
में
सारे
समीकरणों
को
तिलाजंलि
दे
सत्ता
हथियाई,
उस
पर
पलीता
लगाने
के
लिए
एकबार
फिर
नीतीश
सहित
सपा,
बसपा
व
कांग्रेस
सहित
अन्य
जातिय
व
परिवारवादी
पार्टियां
सक्रिय
हो
गयी
है।
सनातन
धर्म
से
लेकर
रामचरितमानस
विवाद
में
कूदे
नेताओं
ने
तो
बहती
गंगा
में
हाथ
धोने
के
लिए
ही
आगे
बढ़े
थे,
लेकिन
नीतीश
ने
ऐसी
डूबकी
लगायी
कि
इसे
2024 का
न
सिर्फ
मुद्दा
बना
दिया,
बल्कि
चुनावी
वैतरणी
पार
कराने
जैसा
मजबूत
नजर
आने
लगा
है।
एमपी,
राजस्थान
व
बिहार
विधानसभा
समेत
लोकसभा
चुनाव
2024 पर
इसका
कितना
असर
पड़ेगा,
यह
कहना
थोड़ी
जल्दबाजी
होगी।
लेकिन
इतना
तो
तय
है
कि
सपा,
बसपा,
टीएमसी,
कांग्रेस
सहित
अन्य
सियासी
पार्टियों
की
बिछी
जाति
राजनीति
की
आंच
में
भाजपा
को
झुलसना
तो
पड़ेगा
ही
सुरेश गांधी
‘जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान, मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान’ 15 वीं सदी के रहस्यवादी कवि और संत कबीर ने जब यह दोहा लिखा होगा तो सोचा नहीं होगा कि 1500 साल बाद लोकतंत्र में उनकी यही बात उलट तरीके से राजीनीतिक दलों के लिए जीत या हार का मुख्य आधार बन जाएगी? राजनीति में जातिवाद का अर्थ जाति का राजनीतिकरण है। जातिवाद को लेकर जिस राजनैतिक पिच पर सपा, बसपा, आरजेडी, टीएमसी व कांग्रेस सहित अन्य पार्टियां अपना एकाधिकार समझती रही, उसे मोदी-शाह और योगी ने राष्ट्रवाद, हिन्दुत्व, सोशल इंजिनियरिंग और विकास के बूते तास के पत्ते की तरह बिखेर दिया हो, लेकिन वो एकबार फिर जाति का लबादा ओढ़े समाज में वैमनस्य की खांई चौ़़ड़ी करने की हरसंभव कोशिश में जुट गयी है। बेशक, 2024 लोकसभा चुनाव में भले देरी है, लेकिन चुनावी पिच पर शतरंज की विसात बिछ गयी है, पर्दा उठ गया है। सियासी पार्टियां अभी से अपनी जीत का समीकरण बैठाने लगे है। एकबार फिर सियासी पार्टियां कोई गरीबों को मुफ्तखोरी बढ़ाने वाली योजनाएं परोसकर सत्ता में आने के सपने देख रही है, तो कोई जाति-गठबंधन की तिकड़म से अपना वनवास खत्म करने की उम्मीदें संजोए हुए है। ताजा विवाद रामचरितमानस से उपजा जातिय जनगणना से सनातन तक आ गयां हद तो तब हो गयी जब बिहार सरकार ने जातिगत व धार्मिक जनगणना के आंकड़े जारी कर दी। इसमें 36 फीसदी अत्यंत पिछड़ा, 27 फीसदी पिछड़ा वर्ग, 19 फीसदी से थोड़ी ज्यादा अनुसूचित जाति और 1.68 फीसदी अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या बताई गई है. खास यह है कि जाति जनगणना पर नीतीश तेजस्वी ही नहीं राहुल, ममता, अखिलेश सहित पूरा विपक्ष साथ है। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है जातियों के आंकड़े तो आ गए, गरीबी कब जाएगी? क्या जाति समीकरण से बदलेंगी 2024 की सियासी जंग? इसके अलावा धार्मिक गणना में 81.99 प्रतिशत यानी लगभग 82 फीसदी हिंदू हैं। जबकि मुस्लिम 17.7 फीसदी व शेष ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन या अन्य धर्म मानने वालों की संख्या 1 फीसदी से भी कम है। जिनकी संख्या 1 प्रतिशत से भी कम है, उनकी भी जातियों के लोगों की संख्या जारी कर दी गई है।
आंकड़ें के मुताबिक बिहार
की आबादी 13,07,25,310 है। वहीं कुल सर्वेक्षित परिवारों की संख्या 2,83,44,107 है। इसमें
पुरुषों की संख्या 4 करोड़
41 लाख और महिलाओं की
संख्या 6 करोड़ 11 लाख है। बिहार में प्रति 1000 पुरुषों में 953 महिलाएं हैं। इसमें से सबसे ज्यादा
63 फीसदी ओबीसी( 27 फीसदी पिछड़ा वर्ग$ 36 फरसदी अत्यंत पिछड़ा वर्ग) की आबादी है.
इसके बाद बिहार मे एससी वर्ग
की 19 फीसदी आबादी है. अनुसूचित जनजाति यानी एसटी वर्ग की आबादी 1.68 फीसदी
है. जबकि अनारक्षित (जनरल) की तादाद 15.52 फीसदी
है. इसमें ब्राह्मणों की आबादी 3.66 प्रतिशत,
भूमिहार की आबादी 2.86 फीसदी,
यादवों की आबादी 14 फीसदी,
कुर्मी 2.87 फीसदी, मुसहर 3 फीसदी, राजपूत 3.45 फीसदी है. धार्मिक आंकड़ों के मुताबिक हिन्दू
107192958 यानी 81.99
फीसदी, मुस्लिम 23149925 यानी 17.70 फरसदी, ईसाई 75238 यानी 0.05 फीसदी, सिख 14753 यानी 0.011 फीसदी, बौद्ध 111201 यानी
0.0851 फीसदी, जैन 12523 यानी 0.0096 फीसदी। जबकि अन्य धर्म 166566 यानी 0.1274 ुरसदी, कोई धर्म नहीं 2146 यानी 0.0016 फीसदी है। बिहार में जातिय जनगणना जारी होते ही कांग्रेस नेता
राहुल गांधी के बयान से
साफ हो गया कि
विपक्षी दल 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव
में जातिगत जनगणना को मुद्दा बनाएंगे।
इसके साथ ही बिहार जातिगत
जनगणना के आंकड़े जारी
करने वाला पहला राज्य बन गया है।
100 साल पुराने आंकड़ों के अनुसार देश
में 52 फीसदी ओबीसी आबादी है। किसी भी राज्य में
उनकी आबादी 45 फीसदी से कम नहीं
है। कुछ राज्यों में यह 60 फीसदी से भी अधिक
है। जातीय जनगणना होती है तो असली
आंकड़ा सामने आएगा। इसके आधार पर ओबीसी की
केंद्रीय सूची को भी संशोधित
करना होगा। साथ ही पिछड़ी जातियों
को मिलने वाले 27 फीसदी आरक्षण को उनकी आबादी
के हिसाब से बढ़ाने की
मांग भी तेज होगी।
विपक्ष सामाजिक न्याय के नाम पर
साल 2024 के चुनावों में
जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाकर
बीजेपी पर दबाव बनाने
और पिछड़े वोट को अपने पक्ष
में करने की कोशिश कर
रहा है।
1931 में हुई थी जातिगत जनगणना
इससे पहले देश में 1931 में जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी
हुए थे। तब से आज
तक न ही देश
के स्तर पर और न
ही राज्य के स्तर पर
जातिगत जनगणना के कोई आंकड़े
जारी हुए थे। 80 के दशक में
जातियों पर आधारित कई
क्षेत्रीय पार्टियों का उभार हुआ।
इन पार्टियों ने सरकारी शिक्षण
संस्थानों और नौकरियों में
आरक्षण दिए जाने को लेकर अभियान
चलाया। इसी दौरान जातियों की संख्या के
आधार पर आरक्षण की
मांग सबसे पहले यूपी में बसपा नेता कांशीराम ने की। भारत
सरकार ने साल 1979 में
सामाजिक और शैक्षणिक रूप
से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने
के मसले पर मंडल कमीशन
का गठन किया। मंडल कमीशन ने ओबीसी को
आरक्षण देने की सिफारिश की।
इस सिफारिश को 1990 में उस वक्त के
प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने लागू किया।
इसके बाद देशभर में सामान्य श्रेणी के छात्रों ने
उग्र विरोध प्रदर्शन किए। साल 2010 में लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह
यादव जैसे ओबीसी नेताओं ने मनमोहन सरकार
पर जातिगत जनगणना कराने का दबाव बनाया।
इसके साथ ही पिछड़ी जाति
के कांग्रेस नेता भी ऐसा चाहते
थे। मनमोहन सरकार ने 2011 में सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना यानी एसईसीसी कराने का फैसला किया।
इसके लिए 4 हजार 389 करोड़ रुपए का बजट पास
हुआ। 2013 में ये जनगणना पूरी
हुई, लेकिन इसमें जातियों का डेटा आज
तक सार्वजनिक नहीं किया गया है। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है
कांग्रेस ने जनगणना कराया
तो उसे सार्वजनिक क्यों नहीं किया?
डाटा जुटाने के बाद भी कांग्रेस ने सार्वजनिक नहीं किया?
एसईसीसी का डेटा 2013 तक
जुटाया गया। इसे प्रॉसेस करके फाइनल रिपोर्ट तैयार होती, तब तक सत्ता
बदल गई और 2014 में
केंद्र में मोदी सरकार आ गई। जुलाई
2015 में बिहार विधानसभा चुनाव से पहले उस
वक्त के वित्त मंत्री
अरुण जेटली ने एक प्रेस
कॉन्फ्रेंस में जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी
करने का वादा किया।
प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा कि डेटा में
46 लाख कास्ट, सब कास्ट हैं।
इसे राज्य सरकारों को भेजकर क्लब
करने को कहा गया
है। इसके अलावा नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद
पनगढ़िया की अध्यक्षता में
कमेटी बनाई जाएगी, जो इस कास्ट
डेटा को क्लासिफाई करेगी।
जब यह कार्रवाई पूरी
हो जाएगी तो इस डेटा
को सार्वजनिक किया जाएगा। 2016 में जातियों को छोड़कर एसईसीसी
का बाकी डेटा मोदी सरकार ने जारी कर
दिया। चूंकि कमेटी के अन्य सदस्यों
का नाम तय नहीं हुआ,
लिहाजा इस वजह से
कभी मीटिंग ही नहीं हुई।
इसलिए जनगणना में जुटाए जातियों के आंकड़े जस
के तस पड़े हैं,
यानी जारी ही नहीं हुए।
राष्ट्रीय स्तर पर 1931 की अंतिम जातिगत
जनगणना में जातियों की कुल संख्या
4,147 थी, एसईसीसी -2011 में 46 लाख विभिन्न जातियां दर्ज हुई हैं। चूंकि देश में इतनी जातियां होना नामुमकिन हैं। सरकार ने कहा है
कि संपूर्ण डेटा सेट खामियों से भरा हुआ
है। इस वजह से
रिजर्वेशन और पॉलिसी डिसीजन
में इस डेटा का
इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
फायदें में रही बीजेपी
पिछले कुछ चुनावों से ओबीसी वोटरों
में बीजेपी की लोकप्रियता बढ़ी
है। बीजेपी उत्तर भारत के अनेक राज्यों
में प्रभावी ओबीसी की तुलना में
निचले ओबीसी को लुभाने में
अधिक सफल रही। इसलिए बीजेपी ने भले ही
ओबीसी पर अपनी पहुंच
बनाकर चुनावी लाभ ले लिया हो,
लेकिन इनके बीच उसका समर्थन उतना मजबूत नहीं है, जितना कि उच्च वर्ग
और उच्च जातियों के बीच है।
मतलब साफ है बीजेपी का
जातिगत गणना से कतराने का
मुख्य कारण यह है कि
अगर जातिगत गणना हो जाती है,
तो क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को केंद्र सरकार
की नौकरियां और शिक्षण संस्थाओं
में ओबीसी कोटे में बदलाव के लिए सरकार
पर दबाव बनाने का मुद्दा मिल
जाएगा। बहुत हद तक संभव
है कि ओबीसी की
संख्या उन्हें केंद्र की नौकरियों में
मिल रहे मौजूदा आरक्षण से कहीं अधिक
हो सकती है। यह मंडल-2 जैसी
स्थिति उत्पन्न कर सकती है
और बीजेपी को चुनौती देने
का एजेंडा तलाश रहीं क्षेत्रीय पार्टियों को नया जीवन
भी। या यूं कहे
ओबीसी की संख्या भानुमती
का पिटारा खोल सकती है, जिसे संभालना मुश्किल हो जाएगा। बीजेपी
को डर है कि
इससे अगड़ी जातियों के उसके वोटर
नाराज हो सकते हैं,
इसके अलावा बीजेपी का परंपरागत हिन्दू
वोट बैंक इससे बिखर सकता है। ऐसे में ओबीसी वोट को नाराज होने
से बचाना भाजपा के सामने बड़ी
चुनौती है। कई सर्वे इशारा
करते हैं कि बीजेपी ने
ओबीसी जातियों में तेजी से पैठ बढ़ाई
है। 2019 के चुनाव में
उसे 44 फीसदी वोट ओबीसी के मिले थे।
जबकि 2009 के आम चुनाव
में बीजेपी को 22 फीसदी, जो 10 साल में दोगुने हो गए। वहीं
क्षेत्रीय पार्टियों का हिस्सा 2009 के
42 फीसदी वोटों से घटकर 27 फीसदी
रह गया।
कांग्रेस व बीजेपी की दुविधा
कांग्रेस और बीजेपी जैसे
मुख्य राजनीति दलों की एक दुविधा
है। वो पिछड़े, अल्पसंख्यकों
और वंचित समाज के वोट तो
चाहते हैं, लेकिन उसके साथ-साथ वो फॉरवर्ड क्लास
का समर्थन भी नहीं खोना
चाहते हैं। इसी वजह से बीजेपी भी
इससे बचना चाहती है। कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री
सिद्धारमैया ने 2014-15 में जाति आधारित जनगणना कराने का फैसला किया।
इसे असंवैधानिक बताया गया तो नाम बदलकर
‘सामाजिक एवं आर्थिक’ सर्वे कर दिया। इस
पर 150 करोड़ रुपए खर्च हुए। 2017 के अंत में
कंठराज समिति ने रिपोर्ट सरकार
को सौंपी। सर्वे की रिपोर्ट को
सिद्धारमैया सरकार ने सार्वजनिक नहीं
किया। इसके बाद आई सरकारों ने
भी इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। चूंकि अब सिर्फ कांग्रेस
की बात नहीं रह गई है,
अब इंडिया अलायंस हो गया है
और इस अलायंस में
क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा हैं
और ये पार्टियां ओबीसी
के आरक्षण को लेकर बहुत
मुखर हैं। यानी कांग्रेस अब राजद, सपा,
जेडीयू और डीएमके के
स्वर में बोलने लगी है। यह एक बहुत
बड़ा शिफ्ट है। महिला आरक्षण में बहस के दौरान सोनिया
गांधी और राहुल गांधी
जो भाषा बोल रहे हैं वो सरकार के
खिलाफ उकसाने वाली भाषा है। इसके राजनीतिक मायने हैं। महिला आरक्षण का गुणा भाग
2024 के लोकसभा चुनाव में नजर आएगा। कांग्रेस और विपक्ष का
आकलन है कि पिछड़े
वर्ग का 4 से 5 फीसदी मतदाता भी शिफ्ट हो
जाता है तो बड़ा
उलटफेर हो सकता है।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश
कुमार के मुताबिक जाति
गणना को आधार बनाकर
आने वाले समय में सभी वर्गों के विकास एवं
उत्थान के लिए काम
किया जाएगा. उन्होंने ट्वीट में ये भी लिखा
है कि बिहार में
कराई गई जाति आधारित
गणना को लेकर जल्द
ही बिहार विधानसभा के सभी 9 दलों
की बैठक बुलाई जाएगी. और जाति आधारित
गणना के नतीजों के
बारे में उन्हें बताया जाएगा.
आधे से भी कम रह गए सामान्य वर्ग के लोग?
बिहार में कुल 63 फीसदी आबादी इस वर्ग से
आती है। इनमें 27 फीसदी आबादी पिछड़ा वर्ग के लोगों की
है। वहीं, 36 फीसदी से ज्यादा अति
पिछड़ी जातियों की आबादी है।
वहीं, अनुसूचित जाति की आबादी करीब
20 फीसदी है। जो 2011 की जनगणना में
महज 15.9 फीसदी थी। वहीं, सामान्य वर्ग के लोगों की
आबादी 15 फीसदी है। बड़ी बात यह है कि
2011 में हुई जनगणना में राज्य की कुल आबादी
10 करोड़ 40 लाख 99 हजार 452 थी। जो इस सर्वे
में बढ़कर 13 करोड़ सात लाख 25 हजार 310 हो गई है।
इस तरह बीते 12 साल में राज्य की आबादी में
25.5 फीसदी का इजाफा हुआ
है। 2011 की जनगणना के
मुताबिक राज्य की कुल आबादी
में 15.9 फीसदी आबादी दलित और 1.3 फीसदी आबादी आदिवासी समाज की थी। नए
जातिगत सर्व में
दलित आबादी 19.65 फीसदी हो गई है।
वहीं, आदिवासी आबादी का आंकड़ा भी
बढ़कर 1.68 फीसदी हो गया है।
जाति गोलबंदी राष्ट्र के लिए घातक
बेशक, राजनेताओं का अंतिम उद्देश्य
भले ही जाति के
सहारे सत्ता हथियाना हो लेकिन यह
राष्ट्र व देश के
लिए घातक है। देश में जाति के आधार पर
जनगणना इसी की कड़ी का
एक हिस्सा है। नेताओं एवं उनकी पार्टियों के रग-रग
में समा चुके जातिय संरचना को कुछ हद
तक बीजेपी ने तोड़ा है,
लेकिन रामचरितमानस व सनातन पर
चल रहे सियासी बयान के बाद शूद्र-सवर्ण पर वार-पलटवार
के बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन
भागवत ने वर्ण और
जाति व्यवस्था पर बयान देकर
नई बहस छेड़ दी है. संघ
प्रमुख ने कहा है
कि ऊंच-नीच की श्रेणी भगवान
ने नहीं पंडितों ने बनाई है.
संघ प्रमुख ने चाहे जो
समझकर इस बात को
कहा हो पर अब
इस बात के मायने तलाशे
जा रहे हैं. भागवत के इस बयान
के बाद रामचरितमानस पर बयान की
वजह से विरोधियों के
निशाने पर रहे स्वामी
प्रसाद मौर्य ने बिना देर
किए कह दिया कि
‘जाति-व्यवस्था पंडितो (ब्राह्मणों) ने बनाई है,
यह कहकर भागवत ने धर्म की
आड़ में महिलाओं, आदिवासियों, दलितों व पिछड़ो को
गाली देने वाले तथाकथित धर्म के ठेकेदारों व
ढोंगियों की कलई खोल
दी है.’ यह अलग बात
है कि कुछ लोग
इसका बचाव करते कहते है कि संघ
प्रमुख का अपना व्यक्तिगत
बयान है. इसका आम लोगों से
कोई लेना-देना नहीं. अगर पंडित या ब्राह्मण इसको
करते तो अखाड़े में
सब जातियों के लोग कैसे
होते? जब सनातन धर्म
पर हमला हुआ तो अखाड़े अस्तित्व
में आए. आप देखिए उसमें
हर जाति का व्यक्ति शामिल
हुआ. इस तरह का
बयान पूरी तरह राजनीति से प्रेरित है
जो कि ग़लत है.’
आज इस तरह का
विभाजन कहीं भी प्रभावी नहीं
है. ‘पंडित का अर्थ जाति
से ब्राह्मण नहीं रहा होगा. मोहन भागवत के इस बयान
को इस दृष्टि से
देखना चाहिए, क्योंकि ऐसा माना जा सकता है
कि वो जो कुछ
भी बोलेंगे बहुत विचार कर बोलेंगे. ऐसे
में पंडित का अर्थ ‘विद्वान’ लग
रहा है. जैसे किसी विषय का पंडित कहा
जाता है और ज़ाहिर
है वो किसी जाति
का हो सकता है.
इसे ब्राह्मण जाति से जोड़कर नहीं
देखना चाहिए.
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