सावन : प्रीति योग जैसे दुर्लभ संयोगों के बीच पड़ेंगे पांच सोमवार
शिवलिंग की उपासना कर परमानंद की प्राप्ति होती है। शिव के समीप ले जा कर सच्चिदानंद का साक्षात्कार करवाने का माध्यम है शिवलिंग पर जलाभिषेक। शरीर के भीतर मौजूद शिव को जानने का मौका है कांवड़। शिव की शक्ति ही है जो विश्व के समस्त प्राणियों को जीने की राह सिखाता है। बताता है सत्य ही शिव है, शिव ही सुंदर है, इसके सिवाय कुछ भी नहीं है। अर्थात शिव और शिवत्व की दिव्यता को जानने का अवसर है उनका सबसे प्रिय महीना सावन। वास्तव में शिव की महिमा अपरंपार है। जिनके कोष में भभूत के अतिरिक्त कुछ नहीं है परंतु वह निरंतर तीनों लोकों का भरण पोषण करने वाले हैं। परम दरिद्र शमशानवासी होकर भी वह समस्त संपदाओं के उद्गम हैं और त्रिलोकी के नाथ हैं। अगाध महासागर की भांति शिव सर्वत्र व्याप्त हैं। वह सर्वेश्वर हैं। अत्यंत भयानक रूप के स्वामी होकर भी स्वयं शिव हैं। शिव अनंत हैं। शिव की अनंतता भी अनंत हैं। खास यह है कि भगवान शिव के भक्तों के लिए इस बार का सावन मास विशेष फलदायी रहने वाला है. सावन मास की शुरुआत और समाप्ति सोमवार से होने जा रही है, जो एक दुर्लभ संयोग है. इसके अलावा, इस बार पांच सोमवार पड़ेंगे, जो भक्तों के लिए भगवान शिव की आराधना का एक अतिरिक्त अवसर लेकर आएगा। सावन मास की शुरुआत 22 जुलाई को सोमवार से होगी और 19 अगस्त को सोमवार के दिन ही समाप्त होगा. इस पूरे मास में प्रीति योग और सावन नक्षत्र का समावेश रहेगा. ज्योतिष विशेषज्ञों के अनुसार, पिछले 72 सालों में पहली बार सावन सोमवार के दिन प्रारंभ होकर सोमवार को ही संपन्न होगा. इन शुभ योगों में भगवान शिव की पूजा-अर्चना और अभिषेक करने से भक्तों पर उनकी विशेष कृपा बरसेगीसुरेश गांधी
सावन का पवित्र
महीना भगवान शिव को समर्पित
होता है. इस अवधि
में श्रद्धालु भगवान शिव का जलाभिषेक
करते हैं और उनका
आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए
व्रत रखते हैं. सावन
के सोमवार को और भी
विशेष माना जाता है.
ऐसा माना जाता है
कि इन पवित्र दिनों
में किए गए जलाभिषेक
और पूजा-पाठ से
भगवान शिव शीघ्र प्रसन्न
होते हैं. इस पूरे
माह के दौरान भगवान
शिव का जलाभिषेक करने
से लेकर कावड़ यात्रा
तक की जाती है.
श्रावण मास में दो
प्रदोष व्रत आएंगे जो
भगवान शिव को अत्यंत
प्रिय है. 1 अगस्त गुरुवार, 19 अगस्त शनिवार, इसके अलावा 25 जुलाई
को नागपंचमी, 31 जुलाई को कामिका एकादशी,
4 अगस्त को हरियाली अमावस्या,
7 अगस्त को मधुश्रवा तीज,
15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस
और 16 अगस्त को पवित्रा एकादशी
आएंगे. शिव यानी ‘कल्याण
करने वाला’। सावन
के महीने में भगवान शिव
ही रुद्र रुप में सृष्टि
का संचालन करते हैं। मान्यता
है कि भगवान शिव
को पाने के लिए
माता पार्वती ने कठोर तपस्या
की थी तो सावन
के महीने में भगवान शिव
ने माता पार्वती को
अपनी पत्नी के रूप में
स्वीकार करने का वरदान
दिया था। इसलिए भी
यह महीना भगवान शिव को अति
प्रिय है। इस महीने
में की गई पूजा
पाठ का व्यक्ति को
विशेष फल मिलता है।
शिव ही शंकर
हैं। शिव के ‘श’
का अर्थ है कल्याण
और क का अर्थ
है करने वाला। शिव,
अद्वैत, कल्याण- ये सारे शब्द
एक ही अर्थ के
बोधक हैं। शिव ही
ब्रह्मा हैं, ब्रह्मा ही
शिव हैं। ब्रह्मा जगत
के जन्मादि के कारण हैं।
शिव और शक्ति का
सम्मिलित स्वरुप हमारी संस्कृति के विभिन्न आयामों
का प्रदर्शक है। शिव औघड़दानी
है और दुसरों पर
सहज कृपा करना उनका
सहज स्वभाव है। अर्थात शिव
सहज है, शिव सुंदर
है, शिव सत्य सनातन
है, शिव सत्य है,
शिव परम पावन मंगल
प्रदाता है, शिव कल्याणकारी
है, शिव शुभकारी है,
शिव अविनाशी है, शिव प्रलयकारी
है, इसीलिए तो उनका शुभ
मंगलमय हस्ताक्षर सत्यम् शिवम् सुन्दरम्, को सभी देव,
दानव, मानव, जीव-जंतु, पशु-पक्षी चर-अचर, आकाश-पाताल, सप्तपुरियों में शिव स्वरुप
महादेव के लिंग का
आत्म चिंतन कर धन्य होते
हैं। यह कटु सत्य
है। ‘ॐ नमः शिवाय,
यह शिव का पंचाक्षरी
मंत्र है। श्रीराम व
श्रीकृष्ण ने जब से
सृष्टि की रचना हुई
है तब से भगवान
शिव की आराधना व
उनकी महिमा की गाथाओं से
भंडार भरे पड़े है।
स्वयं भगवान श्रीराम व श्रीकृष्ण ने
भी अपने कार्यो की
बाधारहित इष्टसिद्धि के लिए उनकी
साधना की और शिवजी
के शरणागत हुए। श्रीराम ने
लंका विजय के पूर्व
भगवान शिव की आराधना
की। राक्षसराज हिरणाकश्यप का पुत्र प्रहलाद
श्री विष्ण की पूजा में
तत्पर रहता था। भगवान
भोलेनाथ ने ही नृसिंह
का अवतार लेकर भक्त प्रहलाद
की रक्षा की।
वैसे भी सावन
मास शिव को बेहद
पसंद है। इस बार
सावन में पांच सोमवार
का होना एक दुर्लभ
घटना है. इस दौरान
भक्त भगवान शिव की पूजा-अर्चन, जलाभिषेक, रुद्राभिषेक और विभिन्न अनुष्ठानों
का आयोजन करते हैं. पांच
सोमवार मिलने से भक्तों को
भगवान शिव की आराधना
का एक अतिरिक्त दिन
मिल जाएगा, जिससे वे अपनी मनोकामनाएं
पूरी करने के लिए
प्रार्थना कर सकेंगे. हालांकि
पिछले साल सावन मास
में आठ सोमवार पड़े
थे, जो तीन साल
में पड़ने वाले अधिमास
के कारण हुआ था.
सावन मास में अमूमन
तीन मंगलवार पड़ते हैं, लेकिन
इस बार चार मंगलवार
पड़ेंगे. इन दिनों श्रद्धालु
मां मंगला गौरी का व्रत
रखते हैं. जिन लड़कियों
की शादी में देरी
हो रही होती है,
वह व्रत रखकर मां
की पूजा करती हैं
और मां को प्रिय
हल्दी की माला चढ़ाती
हैं. पांच सोमवार, दुर्लभ
योगों और मंगला गौरी
व्रत के चार दिनों
के साथ, यह सावन
मास भक्तों के लिए विशेष
रूप से फलदायी रहने
वाला है. भगवान शिव
की आराधना और व्रत-अनुष्ठानों
के माध्यम से भक्त अपनी
मनोकामनाएं पूरी करने और
भगवान की कृपा प्राप्त
करने का अवसर प्राप्त
कर सकेंगे. ज्योतिषियों के अनुसार, पिछले
72 सालों में पहली बार
सावन सोमवार के दिन प्रारंभ
होकर सोमवार को ही संपन्न
होगा. यही नहीं, इस
दौरान सावन में पांच
सोमवार पड़ रहे हैं,
जो भगवान शिव की कृपा
पाने के लिए अत्यंत
शुभ माने जाते हैं.
इस दौरान साधना करने और भगवान
शिव की आराधना करने
से मनोवांछित फल की प्राप्ति
होती है. साथ ही
जीवन में सुख-समृद्धि
और शांति का वास होता
है.
पांचों सोमवार की तिथियां
पहला
सोमवार - 22 जुलाई 2024
दूसरा
सोमवार - 29 जुलाई 2024
तीसरा
सोमवार - 05 अगस्त 2024
चौथा
सोमवार - 12 अगस्त 2024
पांचवां
सोमवार - 19 अगस्त 2024
सत्यम् शिवम् सुन्दरम्
भगवान शिव ने देवराज
इंद्र पर कृपादृष्टि डाली
तो उन्होंने अग्निदेव, देवगुरु वृहस्पति और मार्केंडेय पर
भी कृपा बरसाई। कहा
जा सकता है आशुतोष
भगवान शिव प्रसंन होते
है तो साधक को
अपनी दिव्य शक्ति प्रदान करते है जिससे
अविद्या के अंधकार का
नाश हो जाता है
और साधक को अपने
इष्ट की प्राप्ति होती
है। इसका तात्पर्य है
कि जब तक मनुष्य
शिवजी को प्रसंन कर
उनकी कृपा का पात्र
नहीं बन जाता तब
तक उसे ईश्वरीय साक्षात्कार
नहीं हो सकता। सृष्टि
से पहले सत और
असत नहीं थे, केवल
भगवान शिव थे। जो
सर्वस्व देने वाले हैं।
विश्व की रक्षार्थ स्वयं
विष पान करते हैं।
अत्यंत कठिन यात्रा कर
गंगा को सिर पर
धारण करके मोक्षदायिनी गंगा
को धरा पर अवतरित
करते हैं। श्रद्धा, आस्था
और प्रेम के बदले सब
कुछ प्रदान करते हैं। कहते
है मानव जब सभी
प्रकार के बंधनों और
सम्मोहनों से मुक्त हो
जाता है तो स्वयं
शिव के समान हो
जाता है। समस्त भौतिक
बंधनों से मुक्ति होने
पर ही मनुष्य को
शिवत्व प्राप्त होता है। गौरी
को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों
और पिशाचों से घिरे रहते
हैं। उनका रूप बड़ा
अजीब है। शरीर पर
मसानों की भस्म, गले
में सर्पों का हार, कंठ
में विष, जटाओं में
जगत-तारिणी पावन गंगा तथा
माथे में प्रलयंकार ज्वाला
उनकी पहचान है। बैल को
वाहन के रूप में
स्वीकार करने वाले शिव
अमंगल रूप होने पर
भी अपने उपाशकों का
मंगल करते हैं और
श्री-संपत्ति प्रदान करते हैं।
संपूर्ण जगत के स्वामी
‘त्रिपथगामिनी’ गंगा उनकी जटा
में शरण एवं विश्राम
पाती हैं और त्रिकाल
यानी भूत, भविष्य एवं
वर्तमान को जिनके त्रिनेत्र
त्रिगुणात्मक बनाते हैं। शिव को
देवाधिदेव महादेव इसलिए कहा गया है
कि वे देवता, दैत्य,
मनुष्य, नाग, किन्नर, गंधर्व
पशु-पक्षी एवं समस्त वनस्पति
जगत के भी स्वामी
हैं। शिव की अराधना
से संपूर्ण सृष्टि में अनुशासन, समन्वय
और प्रेम भक्ति का संचार होने
लगता है। इसीलिए, स्तुति
गान है- मैं आपकी
अनंत शक्ति को भला क्या
समझ सकता हूं। हे
शिव, आप जिस रूप
में भी हों, उसी
रूप को मेरा प्रणाम।
भारत ही नहीं विश्व
के अन्य अनेक देशों
में भी प्राचीन काल
से शिव की पूजा
होती रही है। इसके
अनेक प्रमाण समय समय पर
प्राप्त हुए हैं। हड़प्पा
और मोहनजोदड़ो की खुदाई में
भी ऐसे अवशेष प्राप्त
हुए हैं जो शिव
पूजा के प्रमाण प्रस्तुत
करते हैं। हमारे समस्त
प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में भी शिव
जी की पूजा की
विधियां विस्तार से उल्लिखित हैं।
शिव पुराण में ब्रह्मा जी
ने कहा है कि
संपूर्ण जगत के स्वामी
सर्वज्ञ महेश्वर के कान से
गुण श्रवण, वाणी से कीर्तन,
मन से मनन करना
महान साधना माना गया है।
जब भीष्म शरशैरया पर सूर्य के
उत्तरायण होने की प्रतीक्षा
कर रहे थे तो
पांडवों ने उनसे शिव
महिमा के विषय में
जानने की जिज्ञासा की
तो उन्होंने उत्तर दिया कि कोई
भी देहधारी मानव शिव महिमा
बताने में सर्वथा असमर्थ
है। भारतीय मनीषियों के अनुसार शिव
अव्यक्त हैं और जो
कुछ व्यक्त है, वह उसी
की शक्ति है, वही उसका
व्यक्त रूप है। शिव
ही निराकार ब्रह्म हैं। मन, बुद्धि,
चित्त, अहंकार, पांचों ज्ञानेंद्रियों और पांचों कर्मेंद्रियों
पर विजय प्राप्त कर
शिव शक्ति की साधना करना
ही सोमवारी व्रत करना है।
उपवास का भी एक
अर्थ है किसी के
समीप रहना। वराह उपनिषद के
अनुसार उपवास का अर्थ है
जीवात्मा का परमात्मा के
समीप रहना। शिवलिंग पूजा यानी समस्त
विकारों और वासनाओं से
रहित रह कर मन
को निर्मल बनाना।
संपूर्ण सृष्टि बिंदुनाद स्वरूप
वायु पुराण के
अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि
जिसमें लीन हो जाती
है और पुनः सृष्टिकाल
में जिससे प्रकट होती है, उसे
लिंग कहते हैं। इस
प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा
ही लिंग की प्रतीक
है। शिव पुराण में
भगवान स्वयं कहते हैं, प्रलय
काल आने पर जब
चराचर जगत नष्ट हो
जाता है और समस्त
प्रपंच प्रकृति में विलीन हो
जाता है, तब मैं
अकेला ही स्थित रहता
हूं। दूसरा कोई नहीं रहता।
सभी देवता और शास्त्र पंचाक्षर
मंत्र में स्थित होते
हैं। अतः मेरे से
पालित होने के कारण
वे नष्ट नहीं होते।
तदनंतर मुझसे प्रकृति और पुरुष के
भेद से युक्त सृष्टि
होती है, वस्तुतरू यह
संपूर्ण सृष्टि बिंदुनाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति
है और नाद शिव।
इस तरह यह विश्व
शक्ति स्वरूप ही है। शिव
तनिक-सी सेवा से
ही प्रसन्न होकर बड़े से
बड़े पापियों का उद्धार करने
वाले महादेव हैं। कभी केवल
जल चढ़ा देने मात्र
से प्रसन्न हो जाते हैं
तो कभी बेल पत्र
से ही। भले ही
पूजा अनजाने में ही हो
गई हो वह व्यर्थ
नहीं जाती। किसी भी जाति
अथवा वर्ण का व्यक्ति
उनका भक्त हो सकता
है। देव, गंधर्व, राक्षस,
किन्नर, नाग, मानव सभी
तो उनके आराधक है।
हिंदू-अहिंदू में महादेव कोई
भेद भाव नहीं करते।
शिवलिंग पर तीन पत्ती
वाले बेलपत्र और बूंद-बूंद
जल का चढ़ाया जाना
भी प्रतीकात्मक है। सत, रज
और तम तीनों गुणों
के रूप में शिव
को अर्पित करना उनकी अर्चना
है। बूंद-बूंद जल
जीवन के एक-एक
कण का प्रतीक है।
इसका अभिप्राय है कि जीवन
का क्षण-क्षण शिव
की उपासना को समर्पित होना
चाहिए।
शिव का रूप विचित्र अमंगल है
शिव की पूजा
ईश्वर के रूप में
नहीं की जाती बल्कि
उन्हें आदि गुरु माना
जाता है। वे प्रथम
गुरु हैं जिनसे ज्ञान
की उत्पति हुई थी। कई
हजार वर्षों तक ध्यान में
रहने के पश्चात एक
दिन वे पूर्णतः शांत
हो गए। उनके अन्दर
कोई गति नहीं रह
गई और वे पूर्णतः
निश्चल हो गए। आधुनिक
विज्ञान कई अवस्थाओं से
गुजरने के बाद आज
एक ऐसे बिन्दु पर
पहुंचा है जहां वे
यह सिद्ध कर रहे हैं
कि हर चीज जिसे
आप जीवन के रूप
में जानते हैं, वह सिर्फ
ऊर्जा है, जो स्वयं
को लाखों करोड़ों रूप में व्यक्त
करती है। शिव का
रूप विचित्र अमंगल है। नंग-धड़ंग,
शरीर पर राख मले,
जटाजूटधारी, सर्प लपेटे, गले
में हडिडयों एवं नरमूंडों की
माला, जिसके भूत-प्रेत, पिशाच
आदि गण हैं। ये
औघड़दानी सभी के लिए
सुगम्य थे। देव तथा
असुर सभी को बिना
सोचे-समझे वरदान दे
बैठते। यानी शिव का
उक्त रूप उस समय
के सभी अंधविश्वासों से
युक्त सामान्य लोगों का प्रतीक है।
असुर भी शिव के
उपासक थे। यही वजह
है कि जब भगवान
भोलेनाथ मां पार्वती से
ब्याह रचाने चले तो उनके
संग तीनों लोक के गण-देवता समेत भूत-प्रेत
हो लिए। पार्वती उत्तर
हिमालय की कन्या थी।
शिव की प्राप्ति के
लिए उन्होंने कन्याकुमारी जाकर तपस्या की।
आज भी कुमारी अंतरीप
में, जहां सागर की
ओर मुंह करके खड़े
होने की स्वाभाविक प्रवृत्ति
होती है, उनकी मूर्ति
उत्तर की, अपने आराध्य
देव कैलास आसीन शिव की
ओर मुंह करके खड़ी
है। यह भरत की
एकता का प्रतीक है।
मानो शिव-पार्वती की
विवाह से दक्षिण-उत्तर
भारत एक हो गया।
शिव की अवहेलना से दुःखी होकर सती ने प्राण त्याग दिए
आकाश से ज्योति
पिंड पृथ्वी पर गिरे और
उनसे थोड़ी देर के
लिए प्रकाश फैल गया। यही
उल्का पिंड बारह ज्योतिर्लिंग
कहलाएं। किंवदंती है कि शिव
का पहला विवाह दक्ष
प्रजापति की कन्या सती
से हुआ था। प्रजापतियों
के यज्ञ में दक्ष
ने घमंड में श्राप
दिया। अब इंद्रादि देवताओं
के साथ इसे यज्ञ
का भाग न मिले
और क्रोध में चले गये।
तब नंदी (शिव के वाहन)
ने दक्ष को श्राप
देने के साथ-साथ
यज्ञकर्ता ब्राम्हणों को, जो दक्ष
की बातें सुनकर हंसे थे, श्राप
दिया। इस पर भृगु
ने श्राप दिया, जो शौचाचारविहीन, मंदबुद्वि
तथा जटा, राख और
हड्डियों को धारण करने
वाले हों वे ही
शैव संप्रदाय में दीक्षित हों,
जिनमें सुरा और आसव
देवता समान आदरणीय हों।
तुम पाखंड मार्ग में जाओ, जिनमें
भूतों के सरदार तुम्हारे
इष्टदेव निवास करते हैं। अधिक
समय बीतने पर दक्ष ने
महायज्ञ किया। उसमें सभी को बुवाया,
पर अपनी प्रिय पुत्री
सती एवं शिव को
नहीं। सती का स्त्री-सुलभ मन न
माना और मना करने
पर भी अपने पिता
दक्ष के यहां गई।
पर पिता द्वारा शिव
की अवहेलना से दुःखी होकर
सती ने प्राण त्याग
दिए। जब शिव ने
यह सुना तो एक
जटा से अस्त्र-शस्त्रों
से सुसज्जित हजारों भुजाओं वाले रूद्र के
अंश-वीरभद्र को जन्म दिया।
उसने दक्ष का महायक्ष
विध्वंस कर डाला। शिव
ने अपनी प्रिया सती
के शव को लेकर
भयंकर संहारक तांडव किया। जब संसार जलने
लगा और किसी का
कुछ कहने का साहस
न हुआ तब भगवान
ने सुदर्शन चक्र से शव
का एक-एक अंश
काट दिया। शव विहीन होकर
शिव शांत हुए। जहां
भिन्न-भिन्न अंक कटकर गिरे
वहां शक्तिपीठ बने। ये 108 शक्तिपीठ,
जो गांधार (आधुनिक कंधार और बलूचिस्तान) से
लेकर ब्रम्हदेश (आधुनिक म्यांमार) तक फैले हैं,
देवी की उपासना के
केंद्र हैं। सती के
शरीर के टुकड़े मानो
इस मिट्टी से एकाकार हो
गए-सती मातृरूपा भरतभूमि
है। यही सती अगले
जन्म में हिमालय की
पुत्री पार्वती हुई (हिमालय की
गोद में बसी यह
भरतभूमि मानो उसकी पुत्री
है)। शिव के
उपासक शैव, विष्णु के
उपासक वैष्णव तथा शक्ति (देवी)
के उपासक शाक्त कहलाए। शिव और सती
को लोग पुसत्व एवं
मातृशक्ति के प्रतीक के
रूप में भी देखते
हैं।
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