विकास की मशाल जलाएं रखना ही है स्वतंत्रता दिवस
अठहत्तर
साल
पहले
भारत
विदेशी
शासन
की
बेड़ियों
से
मुक्त
हुआ
था।
15 अगस्त
1947 को
हमारे
स्वतंत्रता
संग्राम
ने
एक
खास
मंजिल
तय
की।
लेकिन
वह
आखिरी
मुकाम
नहीं
था।
भारत
की
आजादी
की
लड़ाई
की
यही
विशेषता
थी
कि
विदेशी
राज
के
खात्मे
को
कभी
अंतिम
उद्देश्य
नहीं
माना
गया।
बल्कि
उसे
उन
सपनों
को
साकार
करने
का
माध्यम
समझा
गया,
जो
हमारे
स्वतंत्रता
सेनानियों
ने
देखे
थे।
इन
सपनों
के
बनने
की
लंबी
कथा
है।
इसकी
शुरुआत
यह
समझ
बनने
से
हुई
कि
अंग्रेजों
के
शोषण
से
भारत
भूमि
के
सभी
जन-समूह
दरिद्र
हुए
हैं।
स्वाभाविक
रूप
से
स्वतंत्रता
को
देश
के
आर्थिक
दोहन
से
मुक्ति
और
सभी
जन-समुदायों
की
खुशहाली
के
रूप
में
समझा
गया।
हमारे
तब
के
मनीषी
भारत
की
बहुलता
और
विभिन्नाता
से
परिचित
थे।
अतः
उदारता
और
सबको
साथ
लेकर
चलने
का
तत्व
उन्होंने
नवोदित
भारतीय
राष्ट्रवाद
के
विचार
से
जोड़ा।
महात्मा
गांधी
के
आगमन
के
साथ
स्वतंत्रता
आंदोलन
में
जन-भागीदारी
की
शुरुआत
हुई।
जब
आजादी
दूर
थी,
तभी
इस
आंदोलन
के
नेता
देश
की
भावी
विकास
नीति
पर
चर्चा
कर
रहे
थे।
इस
बिंदु
पर
महात्मा
गांधी
और
जवाहरलाल
नेहरू
के
मतभेद
जग-जाहिर
हैं।
परंतु
रेखांकित
करने
का
पहलू
यह
है
कि
प्रगति
का
एजेंडा
स्वतंत्रता
संग्राम
का
अभिन्न
अंग
बना
और
जब
आजादी
आई
तो
देश
ने
उस
एजेंडे
को
अपनाया।
देश
के
बंटवारे,
सांप्रदायिक
उन्माद,
बड़े
पैमाने
पर
खून-खराबे
और
आबादी
की
अदला-बदली
की
त्रासदी
के
बावजूद
यह
एजेंडा
ओझल
नहीं
हुआ।
बल्कि
प्रगति
के
सपने
ने
तब
उस
दर्द
से
उबरने
में
भारतवासियों
की
मदद
की।
आज
यह
इसलिए
याद
करने
योग्य
है,
क्योंकि
उस
सपने
के
कई
हिस्से
अधूरे
हैं
सुरेश गांधी
स्वतंत्रता दिवस मात्र एक
पर्व ही नहीं, वरन
उन तमाम संघर्षों, कुर्बानियों
और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को याद करने
का दिन है जिनके
बिना हम यह दिन
मना ही नहीं पाते।
यह उन संकल्पों को
भी दोहराने का दिन है
जो हमने आजादी की
लड़ाई के दौरान लिए
थे। क्या हमें वे
संघर्ष, वे सेनानी और
वे संकल्प याद हैं? यह
सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि आज
की युवा पीढ़ी अपने
वर्तमान संघर्ष और भविष्य निर्माण
में इस कदर मशगूल
है कि उसे अपने
अतीत और इतिहास का
समुचित भान ही नहीं।
कौन और कैसे कराएगा
उसका अहसास? यह काम इसलिए
बहुत जरूरी है, क्योंकि आज
जिस खुली हवा में
हम सांस ले पा
रहे हैं उसे हमने
केवल अपने हक की
तरह देखा है। उसके
पीछे के संघर्ष और
बलिदान से नावाकिफ हम
उसके मूल्य और उसे सहेजने
के अपने दायित्व को
ठीक से समझ नहीं
पाए हैं। हजारों लोगों
की प्रत्यक्ष सहभागिता ने वह जन-चेतना पैदा की, जो
आगे चल कर हमारे
लोकतंत्र का आधार बनी।
लोकतंत्र की प्रगाढ़ होती
आकांक्षाओं के साथ पारंपरिक
रूप से शोषित-उत्पीड़ित
समूहों को न्याय दिलाने
का संकल्प राष्ट्रवाद के आधारभूत मूल्यों
में शामिल हुआ।
अतः इन जन-समुदायों को तरक्की के
विशेष अवसर देने का
वादा भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने किया। मगर
बात यहीं तक सीमित
नहीं थी। आज स्वतंत्रता
दिवस के अवसर पर
यह हम सबके लिए
आत्म-निरीक्षण का प्रश्न है
कि आजादी से जो बोध
होता है, क्या वह
सभी भारतवासियों को उपलब्ध है?
उत्सव और प्राप्त उपलब्धियों
पर गौरव के क्षणों
में भी हमें यह
नहीं भूलना चाहिए कि आज भी
करोड़ों देशवासी बुनियादी सुविधाओं एवं गरिमामय जीवन
के लिए अनिवार्य अवसरों
से वंचित हैं। जब तक
ऐसा है, स्वतंत्रता सेनानियों
का सपना साकार नहीं
होगा। तब तक उनका
बलिदान हमारी अंतर्चेतना पर बोझ बना
रहेगा। गुजरे 78 साल की हमारी
सफलताएं गर्व करने योग्य
हैं, लेकिन आज के दिन
हमें केवल उन पर
नहीं, बल्कि उन विफलताओं पर
भी ध्यान देना चाहिए, जिन
पर विजय पाए बिना
हमारा स्वतंत्रता संग्राम अपनी अंतिम मंजिल
तक नहीं पहुंच सकता।
कई लक्ष्य ऐसे हैं जो
अभी हमारी पहुंच से दूर बने
हुए हैं उन्हें हासिल
करना जरूरी है।
देखा जाएं तो
स्वतंत्रता के 78 वर्षों में देश ने
बहुत प्रगति और विकास किया
है। वैश्विक स्तर पर आज
भारत की एक विशेष
पहचान है, लेकिन सामाजिक
स्तर पर जो मजबूती
और उन्नयन हो सकता था
उसमें अभी काफी सुधार
की गुंजाइश है। राजनीतिक दलों
ने लोकतंत्र के प्रक्रियात्मक पक्ष
अर्थात चुनावों और सत्ता-प्राप्ति
के साधनों पर तो ध्यान
दिया, लेकिन उसके साध्य अर्थात
लोक-कल्याण, सामाजिक समरसता, न्याय, समानता और राष्ट्र की
एकता एवं अखंडता बढ़ाने
वाले भाईचारे आदि पर ध्यान
नहीं दिया। राजनीतिक दलों ने सामाजिक
विभिन्नता को एक शक्ति
के रूप में विकसित
करने के बजाय उसे
सामाजिक विघटन और संघर्ष की
दिशा में मोड़ दिया
है ताकि उसका राजनीतिक
लाभ लिया जा सके।
आज भी राष्ट्रीय विमर्श
टुकड़ों में बंटा हुआ
है। वह दलित, अनुसूचित-जनजाति, पिछड़ों और मुस्लिमों पर
ठहरा हुआ है। भारतीय
नागरिक की बात कोई
करना ही नहीं चाहता।
हाल में संसद द्वारा
अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार
निरोधक) अधिनियम को सर्वोच्च न्यायालय
की आपत्तियों को दरकिनार कर
सर्व-सम्मति से पारित करना
इसका एक उदाहरण है।
किसी भी नेता या राजनीतिक दल ने इसका संज्ञान नहीं लिया कि इसका दुरुपयोग कर किसी भी भारतीय नागरिक को बड़ी आसानी से परेशान किया जा सकता है। अधिकतम तक नहीं बल्कि सभी तक पहुंचने वाली आजादी का ही ख्वाब हमने देखा था वह लक्ष्य पाना बाकी है। इस पड़ाव पर हम आगे के लिए संकल्प साधें और बढ़ें नई मंजिलों की ओर। हम साथ मिलकर चल रहे हैं तो चुनौतियों को हल करने के रास्ते तलाशना भी सीखते जाएंगे। देश की समस्याओं के समाधान भी तलाश ही पाएंगे। आज हम जिस स्वतंत्रता और अधिकार का दावा करते हैं उसका एक सामाजिक और राष्ट्रीय पहलू भी है जिसे हम नजरंदाज कर देते हैं। इससे ही समाज में अनेक संघर्षों का जन्म होता है और उन उद्देश्यों को प्राप्त करने की गति धीमी पड़ती है जिनका संकल्प हमने लिया था। क्या थे वे संकल्प? एक संकल्प गांधी का था। वह समाज के सबसे अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के आंसू पोंछना चाहते थे। दूसरा संकल्प नेहरू का था जो उन्होंने 14 अगस्त 1947 की आधी रात को स्वतंत्रता के उद्घोष के समय ‘नियति-से-वादा’ करते हुए लिया था कि हम भारत की सेवा करेंगे। इसका अर्थ है लाखों-करोड़ों पीड़ितों की सेवा करना। इसका अर्थ है गरीबी, अज्ञानता और अवसर की असमानता मिटाना।
एक अन्य संकल्प हमने संविधान में लिया कि हम भारत के सभी नागरिकों को ‘न्याय, स्वतंत्रता, समानता के साथ-साथ गरिमापूर्ण और भाईचारे से परिपूर्ण जीवन’ सुनिश्चित करेंगे। ये ऐसे संकल्प हैं जो सर्वविदित और निर्विवाद हैं। क्या बीते सात दशकों में हमने इन संकल्पों को सिद्ध करने की दिशा में कोई गंभीर प्रयास किया है? हमें यह सवाल स्वयं से ही पूछना है। यह सवाल हम किसी सरकार पर नहीं दाग सकते, क्योंकि फिर आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो जाएंगे और मूल-प्रश्न उपेक्षित हो जाएगा। ध्यान रहे सरकारें देश नहीं होतीं। जनता देश होती है। जनता सरकार होती है और इसीलिए हमें-आपको आज की स्थिति का उत्तरदायित्व स्वीकार करना पड़ेगा। किसी भी समाज में तीन प्रमुख घटक होते हैं- राज्य एवं सरकार, संगठित गैर-सरकारी या निजी समूह और व्यक्ति। सरकारें और गैर-सरकारी समूह व्यक्तियों से ही बनते हैं। इसलिए किसी समाज के वास्तविक उन्नयन के लिए व्यक्ति केसंकल्प सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। किसी के वैयक्तिक संकल्प से न केवल उस व्यक्ति का, वरन उसके परिवार, पड़ोस, शहर, समाज, देश और संपूर्ण मानवता का कल्याण संभव है।इस कारण स्वतंत्रता
दिवस पर हमें न
केवल पुराने संकल्पों का स्मरण करना
चाहिए, वरन वैयक्तिक स्तर
पर कुछ नए संकल्प
भी लेने चाहिए और
वह भी उन्हें पूरा
करने के इरादे के
साथ। आज जब हम
अपनी स्वतंत्रता की 78वीं सालगिरह
मना रहे हैं, तो
गुजरे सात दशकों में
हासिल हुई अपनी उपलब्धियों
पर गौरवान्वित होना स्वाभाविक ही
है। दो सौ साल
तक ब्रिटिश उपनिवेशवाद का दंश झेलने
के बाद देश आर्थिक
रूप से लगभग जर्जर
अवस्था में पहुंच गया
था। धार्मिक आधार पर हुए
देश के बंटवारे और
उस क्रम में हुई
हिंसा ने देश में
अभूतपूर्व सांप्रदायिक संकट खड़ा कर
दिया। वैसे गहन चुनौती
से भरे माहौल में
15 अगस्त 1947 को भारतवासियों ने
सदियों के बाद स्वतंत्र
माहौल में सांस लेते
हुए सूरज की पहली
किरणें देखीं। वहां से ’नियति
से मिलन की जो
यात्रा शुरू हुई, उसकी
कुछ मंजिलें भले अभी भी
दूर हों, मगर हमने
उसमें कई अहम मुकामों
को हासिल किया है।
कहते हैं आजादी
महसूस करने की चीज
है। लेकिन कोई अहसास हर
किसी के लिए समान
हो, यह जरूरी नहीं।
एक राष्ट्र-राज्य की सफलता इसी
में है कि हरेक
नागरिक अपने को एक
जैसा आजाद समझे यानी
वह खुद को एक
जैसा अधिकारसंपन्न महसूस करे। आजादी के
साथ हर नागरिक को
समान अधिकार दिए गए, लेकिन
क्या व्यवहार में हर किसी
को बराबर अधिकार हासिल हैं? हरेक स्वतंत्रता
दिवस पर यह प्रश्न
जरूर उठता है। अब
जैसे हर किसी को
कानून के समक्ष समानता
का अधिकार प्राप्त है, लेकिन क्या
सबको समान रूप से
न्याय मिल पा रहा
है? आज आलम यह
है कि अदालतों में
केसों का अंबार लगा
है। तारीख पर तारीख मिलती
रहती है और फैसला
नहीं हो पाता जबकि
रसूख वालों के केस में
या चर्चित मामलों में तुरंत निर्णय
आ जाता है। आज
सैकड़ों लोग सिर्फ इसलिए
जेलों में बंद हैं
कि कोई उनकी जमानत
लेने वाला नहीं है।
हर किसी को समान
रूप से शिक्षा और
रोजी-रोजगार पाने का हक
है। सिद्धांत रूप में सरकार
ने हर किसी के
लिए शिक्षा की व्यवस्था कर
रखी है। पर हकीकत
यह है कि कई
गांवों में स्कूल सिर्फ
कागज पर हैं। स्कूल
चलते भी हैं तो
वहां नाममात्र की पढ़ाई होती
है। कहने को तो
बच्चे पढ़-लिख गए,
पर वे रोजी-रोजगार
की दौड़ में शहर
के पब्लिक स्कूलों में पढ़े बच्चों
के सामने कहां टिक पाएंगे?
लाखों गरीब परिवारों के
बच्चे तो निर्धनता के
कारण नहीं पढ़ पाते।
वे काम करने को
मजबूर होते हैं या
अपराधियों के गिरोह में
फंस जाते हैं। राज्य
ने रोजी-रोजगार देना
एक तो कम कर
दिया है, ऊपर से
कई सेवाओं की प्रवेश परीक्षा
का स्वरूप ऐसा बना दिया
है कि अंग्रेजी पृष्ठभूमि
से न आने वालों
का उसमें प्रवेश ही मुश्किल हो
जाए। पहले नागरिकों का
एक बड़ा वर्ग अपने
अधिकारों को लेकर उदासीन
रहता था। वह विकास
प्रक्रिया से बाहर रहने
को अपनी नियति मानता
था। लेकिन आज उसके भीतर
स्वतंत्रता का स्वप्न पैदा
हुआ है, आगे बढ़ने
की आकांक्षा बढ़ी है, जो
किसी न किसी रूप
में व्यक्त भी हो रही
है। वैसे अभिव्यक्ति की
आजादी का दायरा सभी
स्तरों पर बढ़ा है।
इसमें सूचना क्रांति का अहम रोल
रहा है। आज पढ़ा-लिखा प्रायः हर
नागरिक अपने को सोशल
वेबसाइट्स पर खुलकर अभिव्यक्त
कर रहा है। उसकी
सामाजिक-राजनीतिक चेतना इनके जरिए विस्तार
पा रही है। सोशल
मीडिया ने भारत में
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को उसी तरह
खड़ा किया जिस तरह
मध्य एशिया में कई जनांदोलनों
को हवा दी। हालांकि
वहां इन अभियानों के
बाद कट्टरपंथी सत्ता नए सिरे से
उठ खड़ी हुई है।
ऐसा खतरा अपने यहां
भी हो सकता है
क्योंकि तकनीक जनविरोधी हाथों में भी पहुंच
चुकी है। यह ध्यान
रखना होगा कि स्वतंत्रता
के नए औजारों से
कोई हमारी स्वतंत्रता न छीन ले।
No comments:
Post a Comment