Tuesday, 3 September 2024

ज्ञान ही नहीं देते, मार्गदर्शक भी होते हैं शिक्षक

ज्ञान ही नहीं देते, मार्गदर्शक भी होते हैं शिक्षक

भारत में शिक्षकों को ईश्वर का स्वरूप माना जाता है। एक टीचर ही बच्चे के उज्जवल भविष्य के लिए मेहनत करता है। टीचर हर छात्र को समान नजरिए से देखता है और चाहता है कि सभी सफल बनें। देश में इन शिक्षकों को भी एक दिन समर्पित है, जिसे शिक्षक दिवस या टीचर्स डे कहा जाता है। यह वह दिन है जब हम अपने गुरुजनों के प्रति आभार व्यक्त करते हैं। वे लोग जो सिर्फ हमें किताबी शिक्षा देते हैं बल्कि हमें जीवन के हर पहलू में मार्गदर्शन करते हैं। वे हमारे जीवन के दीपक हैं, जो अंधकार में हमें रास्ता दिखाते हैं। शिक्षक एक अच्छा इंसान बनना भी सिखाता है। शिक्षक ही बताते है असफल होना कोई बुरी बात नहीं है, बल्कि इससे हम सीखते हैं और आगे बढ़ते हैं। शिक्षक ही बताते है कैसे दूसरों का सम्मान करना है, कैसे मेहनत करनी है और कैसे सफलता की सीढ़ियां चढ़नी है। वो बताता है जीवन में चुनौतियां आएंगी, लेकिन हमें कभी हार नहीं माननी चाहिए। हालांकि शिक्षक बनना एक बहुत ही मुश्किल काम है। वे दिन-रात मेहनत करते हैं ताकि बच्चे एक बेहतर भविष्य का निर्माण कर सकें। यह अलग बात है आज के सियासी दौर में उनकी खामियों को लेकर शिक्षकों पर ही तरह-तरह के सवाल खड़े होने लगे है। हमें ऐसे शिक्षकों की आवश्यकता है जो केवल अकादमिक रूप से कुशल हों बल्कि बौद्धिक, भावनात्मक, सामाजिक और नैतिक साहस भी प्रदर्शित करें

              सुरेश गांधी

भारत को विश्व के ज्ञान केंद्र में बदलने में शिक्षकों की भूमिका बढ़ गई है। शिक्षक केवल परीक्षाओं को पास करने के लिए ज्ञान नहीं देते, बल्कि वह विद्यार्थियों के मार्गदर्शक भी होते हैं जो अपने छात्र को सही रास्ता दिखाते हैं। हर किसी के जीवन में शिक्षक की एक खास जगह होती है. कोई एक शिक्षक जीवन में जरूर आता है, जो आपकी जिंदगी को एक नई दिशा देता है. गुरु यानी अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाने वाला. बच्चे को नैतिकता, ईमानदारी, दया और नम्रता के रास्ते पर स्थापित करने की जिम्मेदारी शिक्षकों को दी जाती है, क्योंकि उनके जैसा कोई और बच्चों को प्रभावित नहीं कर सकता. अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाने वाले गुरु को भगवान का दर्जा दिया जाता है. हमारे जीवन में गुरु का बड़ा महत्व है. भारत में हर साल 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है. यह देश के पहले उपराष्ट्रपति और पूर्व राष्ट्रपति, विद्वान, दार्शनिक और भारत रत्न से सम्मानित डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन के उपलमें मनाया जाता है, जिनका जन्म 05 सितंबर 1888 को हुआ था. शिक्षक दिवस पर देश में शिक्षकों के अद्वितीय योगदान को प्रोत्साहित और उन सभी शिक्षकों को सम्मानित किया जाता है, जिन्होंने अपनी प्रतिबद्धता और समर्पण के माध्यम से केवल शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार किया है बल्कि अपने छात्रों के जीवन को भी समृद्ध बनाया है.

दरअसल,.डॉ. एस राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर, 1888 को हुआ था. सन 1962 में जब डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भारत के दूसरे राष्ट्रपति के रूप में पदभार संभाला, तो उनके छात्र 5 सितंबर को एक विशेष दिन के रूप में मनाने की अनुमति मांगने के लिए उनके पास पहुंचे. इसके बजाय, उन्होंने समाज में शिक्षकों के अमूल्य योगदान को स्वीकार करने के लिए 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने का अनुरोध किया. डॉ. राधाकृष्णन ने एक बार कहा था किशिक्षकों को देश में सर्वश्रेष्ठ दिमाग वाला होना चाहिए.“ 1954 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया था. भारत में शिक्षकों की एक महत्वपूर्ण संख्या कोयोग्य लेकिन ज़रूरी नहीं कि उत्पादक या प्रभावीके रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। इस घटना को हमारे देश में शिक्षकों के साथ व्यवहार और सम्मान सहित विभिन्न कारकों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। वैसे भी भारत एक ऐसा देश जो अपने शिक्षकों को महत्व देता है, वह अच्छे, सक्षम शिक्षकों को आकर्षित करने और बनाए रखने में सक्षम है क्योंकि व्यक्ति ऐसे पेशे को चुनने के लिए इच्छुक होते हैं जो उनके समाज में सम्मान और मान्यता प्राप्त करता है।

सच्ची शिक्षा में छात्रों को डिग्री और डिप्लोमा जैसी योग्यता प्राप्त करने में सक्षम बनाना ही शामिल नहीं है। इसमें ज्ञान प्राप्त करना, करियर के लिए आवश्यक कौशल को निखारना, अपनी सोच को आकार देना, वैज्ञानिक स्वभाव विकसित करना, सही दृष्टिकोण विकसित करना और ऐसे गुणों का पोषण करना शामिल है जो हमें बेहतर इंसान बनाते हैं। इसके अलावा, इसमें निरंतर परिवर्तन के अनुकूल होने और समाज की बेहतरी में योगदान देने की तैयारी करना शामिल है। सच्ची शिक्षा व्यक्तियों को जीवन का अन्वेषण करने, अपने जीवन स्तर को बढ़ाने और जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए आवश्यक लचीलेपन से लैस करने के अवसर प्रदान करके समग्र विकास को बढ़ावा देती है। यह उन्हें अपने रचनात्मक और आलोचनात्मक सोच कौशल को तेज करने और उन्हें आवश्यकतानुसार लागू करने और उन्हें स्वतंत्र विचारक बनने में सक्षम बनाने के लिए सशक्त बनाना चाहिए, जो प्रचलित मानदंडों और परंपराओं पर सवाल उठाने का साहस रखते हैं। दुर्भाग्य से, बौद्धिक साहस, जो इस विकास के लिए आवश्यक है, आज कई लोगों में अक्सर कमी है।

यहां तक कि शिक्षक भी अक्सर बौद्धिक साहस और ईमानदारी के महत्व को संबोधित करने में संकोच करते हैं। मतलब साफ है हमें ऐसे शिक्षकों की आवश्यकता है जो केवल अकादमिक रूप से कुशल हों बल्कि बौद्धिक, भावनात्मक, सामाजिक और नैतिक साहस भी प्रदर्शित करें। ऐसे शिक्षक शिक्षा जगत और समाज दोनों को प्रभावित करने वाले विभिन्न मामलों पर सवाल उठाते हैं और अपनी राय व्यक्त करते हैं। उनके पास इतनी खुली सोच होती है कि वे लगातार नए ज्ञान को अपनाते हैं, नवीन सोच को बढ़ावा देते हैं और पूर्वाग्रहों और गहरे सिद्धांतों को चुनौती देते हैं। वे रचनात्मक और सृजनात्मक तरीके से अपनी भावनाओं को भी प्रभावी ढंग से प्रबंधित करते हैं। इसके अतिरिक्त, वे अपने विश्वासों के लिए खड़े होते हैं और सामाजिक अपेक्षाओं के अनुरूप होने के दबाव का विरोध करते हैं। इसके अलावा, नैतिक साहस वाले शिक्षक लगातार नैतिक रूप से ईमानदार रास्ता चुनते हैं, सच्चाई का समर्थन करते हैं और विपरीत परिस्थितियों में भी अन्याय के खिलाफ बोलते हैं।

यह अलग बात है कि देश के भविष्य निर्माता कहे जाने वाले शिक्षक का समाज ने भी सम्मान करना बंद कर दिया है. उन्हें समाज में दोयम दर्जे का स्थान दिया जाता है. आप गौर करें, तो पायेंगे कि टॉपर बच्चे पढ़ लिख कर डॉक्टर, इंजीनियर और प्रशासनिक अधिकारी तो बनना चाहते हैं, लेकिन कोई भी शिक्षक नहीं बनना चाहता है. कबीर दास जी कहते हैं- गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागू पाय, बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताय. हमारे ग्रंथों में एकलव्य के गुरु द्रोणाचार्य को अपना मानस गुरु मान कर उनकी प्रतिमा को सामने रख धनुर्विद्या सीखने का उल्लेख मिलता है. गुरु को इस श्लोक में परम ब्रह्म भी बताया गया है- गुरु ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः, गुरुः साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः. यह सच्चाई भी है कि इस दुनिया में हमारा अवतरण माता-पिता के माध्यम से होता है, लेकिन समाज में रहने योग्य हमें शिक्षक ही बनाते हैं.

शिक्षकों से अपेक्षा होती है कि वे विद्यार्थी को शिक्षित करने के साथ-साथ, सही रास्ते पर चलने के लिए उनका मार्गदर्शन भी करें. मौजूदा दौर में शिक्षकों का काम आसान नहीं रहा है. बच्चे, शिक्षक और अभिभावक शिक्षा की तीन महत्वपूर्ण कड़ियां हैं. इनमें से एक भी कड़ी के ढीला पड़ने पर पूरी व्यवस्था गड़बड़ा जाती है. शिक्षक शिक्षा व्यवस्था की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी है. शिक्षा के बाजारीकरण के इस दौर में तो शिक्षक पहले जैसा रहा और ही छात्रों से उसका पहले जैसा रिश्ता रहा. पहले शिक्षक के प्रति केवल विद्यार्थी, बल्कि समाज का भी आदर और कृतज्ञता का भाव रहता था. अब तो ऐसे आरोप लगते हैं कि शिक्षक अपना काम ठीक तरह से नहीं करते हैं.इसमें आंशिक सच्चाई भी है कि बड़ी संख्या में शिक्षकों ने दिल से काम करना छोड़ दिया है.

किसी भी देश की आर्थिक और सामाजिक प्रगति उस देश की शिक्षा पर निर्भर करती है. राज्यों के संदर्भ में भी यह बात लागू होती है. शिक्षा की वजह से ही हिंदी पट्टी के राज्यों के मुकाबले दक्षिण के राज्य हमसे आगे हैं. हम सब यह बात बखूबी जानते हैं, लेकिन बावजूद इसके पिछले 76 वर्षों में हमने अपनी अपनी शिक्षा व्यवस्था की घोर अनदेखी की है. शिक्षा और रोजगार का चोली-दामन का साथ है. यही वजह है कि बिहार और झारखंड में माता-पिता बच्चों की शिक्षा को लेकर बेहद जागरूक रहते हैं. उनमें एक ललक है कि उनका बच्चा अच्छी शिक्षा पाए, ताकि उसे रोजगार मिल सके. यहां तक कि वे बच्चों की शिक्षा के लिए अपनी पूरी जमा पूंजी लगा देने को तैयार रहते हैं. बिहार और झारखंड में श्रेष्ठ स्कूलों का अभाव तो नहीं है, लेकिन इनकी संख्या बेहद कम है. किसी वक्त हर जिले के जिला स्कूल में प्रवेश के लिए मारामारी रहती थी और ये माध्यमिक शिक्षा के श्रेष्ठ केंद्र हुआ करते थे. अब इन्होंने अपनी चमक खो दी है. इनके स्तर में भारी गिरावट आयी है. कुछ समय पहले शिक्षा को लेकर सर्वे करने वाली संस्थाप्रथम एजुकेशन फांडेशनने अपनी वार्षिक रिपोर्टअसरयानी एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट जारी की थी.

यह रिपोर्ट चौंकाने वाली है. इसके अनुसार प्राथमिक स्कूलों की हालत तो पहले से ही खराब थी, और अब जूनियर स्तर का भी हाल कुछ ऐसा होता नजर रहा है. शिक्षा संबंधी एक वैश्विक सर्वे में भी भारत के बच्चों को लेकर एक चौंकाने वाली जानकारी सामने आयी थी. इसमें बताया गया कि भारत के बच्चे दुनिया में सबसे ज्यादा, 74 फीसदी बच्चे, ट्यूशन पढ़ते हैं. इतनी बड़ी संख्या में बच्चों का ट्यूशन पढ़ना चिंताजनक स्थिति की ओर इशारा करता है. जाहिर है कि वे शिक्षकों को पढ़ाने से संतुष्ट नहीं हैं और विकल्प के रूप को ट्यूशन को चुनते हैं. मौजूदा दौर में युवा मन को समझना एक चुनौती बन गया है. मैंने महसूस किया है कि माता-पिता और शिक्षक युवा मन से बिल्कुल कट गये हैं. शिक्षक, माता-पिता और बच्चों में संवादहीनता की स्थिति है. टेक्नोलॉजी ने संवादहीनता और बढ़ा दी है. मोबाइल और इंटरनेट ने उनका बचपन ही छीन लिया है. मौजूदा दौर में गुरुओं का कार्य दुष्कर होता जा रहा है. परिस्थितियां बदल गयी हैं, युवाओं में भारी परिवर्तन रहा है, ऐसे में यह कार्य काफी कठिन होता जा रहा है, लेकिन शिक्षकों की जिम्मेदारी कम नहीं हुई है. उनके ऊपर महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है कि विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं का शमन करें और करियर की राह दिखाएं. साथ ही उन्हें एक जिम्मेदार और अच्छा नागरिक बनाने में योगदान दें. इस जिम्मेदारी से वे बच नहीं सकते हैं.

 

 

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