घाटी में देश विरोधी ताकतों की हार में छिपा है राष्ट्रवाद का संदेश
जी
हां,
जम्मू-कश्मीर
में
आतंकपरस्तों
और
अलगाववादियों
की
करारी
हार
से
कुछ
ऐसा
ही
संदेश
है।
खास
यह
है
कि
जमात-ए-इस्लामी
व
अवामी
इत्तेहाद
व
पीडीपी
पार्टी
के
नेताओं
की
जमानत
तक
जब्त
हो
गयी।
370 की
खात्मा
के
बाद
जो
महबूबा
मुफ्ती
‘घाटी
में
तिरंगा
उठाने
वाले
नहीं
मिलेंगे’
की
दुहाई
दे
रही
थी,
उनकी
पार्टी
पीडीपी
का
सुपड़ा
ही
साफ
हो
गया।
और
तो
और
आतंकियों
के
लिए
फंडिंग
के
आरोप
झेल
रहे
आवामी
इत्तेहाद
के
प्रमुख
को
घाटी
की
जनता
ने
सिरे
से
नकार
दिया।
मस्जिद
की
मिनारों
से
आतंकी
तकरीरों
से
घाटी
में
आतंक
की
आग
लगने
वाले
सरजन
बरकती
को
मात्र
438 वोट
ही
मिले।
जबकि
उसके
एक
इशारे
पर
हजारों
युवा
पत्थर
लेकर
खड़े
हो
जाते
थे।
यह
वही
शख्स
है
जिसने
बुरहानवानी
को
आग
की
भठ्ठी
में
झोका
था।
अफजल
गुरु
के
भाई
एजाज
अहमद
गुरु
को
तो
मात्र
129 वोट
ही
मिले।
पीडीपी
प्रमुख
महबूबा
की
बेटी
ईलतीजा
मुफ्ती
को
भी
जनता
ने
ठेंगा
दिखा
दिया।
मतलब
साफ
है
घाटी
की
जनता
अब
आतंकियों
व
अलगाववादियों
के
झांसे
में
नहीं
है।
वहां
के
जनमानस
को
भारत
का
लोकतंत्र
या
यूं
कहे
राष्ट्रवाद
पसंद
है।
वहां
धर्म
जाति
नहीं
इंसानियत
लोगों
को
भा
रही
है।
आतंकवाद
और
अलगाववाद
के
समर्थक
प्रत्याशियों
को
चारों
खाने
चित्त
कर
दिया,
जहां
तक
भाजपा
या
उसके
नेताओं
का
सवाल
है
तो
उसे
पता
था
कि
उसके
पास
वर्ततान
हालात
के
मद्देनजर
वोटबैंक
नहीं
है,
फिर
भी
लोकतंत्र
की
मजबूती
के
लिए
चुनाव
कराया
और
बिना
किसी
हिंसा
के
सकुशल
चुनाव
संपंन
होना
इसके
संकेत
है
सुरेश गांधी
बेशक, 370 का खात्मा कर
भाजपा ने देश ही
नहीं दुनिया भर में ऐतिहासिक काम किया है।
यह अलग बात है
कि वहां उसे आशा
के अनुरुप सफलता नहीं मिली। लेकिन
जिस तरीके से विधानसभा चुनाव
में जमात-ए-इस्लामी,
पीडीपी व अवामी इत्तेहाद
पार्टी के प्रत्याशियों की
जमानत जब्त हो गयी,
जो पूरे देश के
लिए सुखद संकेत है।
खासकर तब, जब देश
पिछले चार दशकों से
आतंकवाद की आग में
सुलगता रहा है। मतलब
साफ है इस केंद्र
शासित प्रदेश के भविष्य में
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सोच
की जीत है। जनता
द्वारा अलगाववादियों, आतंकवादियों, चरमपंथियों और उनके संरक्षकों
का वोटरुपी ताकत से जो
हस्र किया है, उससे
साफ है वहां की
आवाम को भारतीय लोकतंत्र
में विश्वास है। वहां भाजपा
सबसे बड़ी पार्टी के
रूप में उभरी है।
उसे नेशनल कांफ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और कांग्रेस को
मिले मतों से ज्यादा
मत मिले हैं। ‘‘यह
लोकतंत्र की जीत है।
जम्मू कश्मीर के अवाम की
जीत है।
कश्मीर की जनता ने
राज करने वालों और
काम करने वालों के
अंतर को पहचाना है।
‘‘लोगों ने देखा है
कि जम्हूरियत उनके दरवाजे पर
विकास की दस्तक दे
सकती है। लोगों की
लोकतंत्र में आस्था पनपी
है।’’ कुलगाम, शोपियां, पुलवामा और सोपोर जैसे
इलाकों में बड़ी संख्या
में लोगों ने मतदान किया।
जबकि 2018 के पंचायती चुनाव
में इन इलाकों में
महज 1.1 प्रतिशत मतदान हुआ था। खासकर
अलगाववादियों को उस क्षेत्र
में भी हार का
समाना करना पड़ा जहां
से हिजबुल मुजाहिद्दीन के कमांडर बुरहान
वानी का ताल्लुक था।
वर्ष 2016 में एक मुठभेड़
में वह मारा गया
था। उस इलाके में
अपने भडक़ाऊ भाषणों से कश्मीर घाटी
में नफरत की आग
फैलाने वाले सरजन बरकाती
और एजाज अहमद गुरु
जैसे प्रत्याशी को पांच सौ
मतों के नीचे ही
सिमट जाना इस बात
का संकेत है कि मतदाताओं
ने उन लोगों को
सिरे से नकार दिया
जो केंद्र शासित प्रदेश में अशांति फैलाने
की कोशिशों में जुटे रहते
हैं।
हाल ही में
केंद्रीय गृह मंत्री ने
कहा था, “राहुल गांधी
के बाद की पीढ़ियां
भी अनुच्छेद 370 बहाल नहीं कर
पाएंगी। अगर अलगाववादियों और
पाकिस्तान ने “शांतिपूर्ण कश्मीर
को अशांत करने की योजना
बनाई” तो उनके खिलाफ
कड़ी कार्रवाई की जाएगी। “आतंकवाद
को बढ़ावा देने वालों का
वही हश्र होगा जो
(संसद हमले के दोषी)
अफजल गुरु का हुआ
था।“ पीएम मोदी ने
पत्थरबाजी और गोलियों को
खत्म कर दिया। लेकिन
ये तीनों दल जम्मू-कश्मीर
में आतंकवाद को फिर से
जीवित करना चाहते हैं।
किसी के पास जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद को
फिर से जीवित करने
की शक्ति नहीं है।“ यहां
जिक्र करना जरुरी है
कि कश्मीर घाटी ने वह
दौर भी देखा है
जब अलगाववादियों के आह्वान पर
आए दिन बंद होता
था। एक आवाज पर
पूरी घाटी थम जाती
थी। धीरे-धीरे ऐसे
लोगों को समर्थन मिलना
बंद होता गया।
चुनाव में अलगाववाद समर्थकों
की हार उन विदेशी
ताकतों के मुंह पर
करारा तमाचा भी है जो
देश में अशांति फैलाने
के लिए मौके की
तलाश में रहती हैं।
नेशनल कॉन्फ्रेंस ने खुद कहा
है, जनादेश 5 अगस्त 2019 को केंद्र सरकार
द्वारा अनुच्छेद 370 को निरस्त करने
के खिलाफ है लेकिन यह
जनादेश कश्मीर की जनता द्वारा
अलगाववाद और कश्मीर बनेगा
पाकिस्तान का नारा देने
वालों के खिलाफ भी
है। यह जनादेश अवामी
इत्तिहाद पार्टी और प्रतिबंधित जमाते
इस्लामी के खिलाफ भी
है, क्योंकि प्रतिबंधित जमाते इस्लामी का समर्थित एक
भी उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत पाया
जबकि संयुक्त राष्ट्र की सिफारिशों में
कश्मीर मसले के समाधान
की वकालत कर रहे इंजीनियर
रशीद के लिए अपनी
लंगेट सीट को बचाना
मुश्किल हो गया था।
जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में सबसे अधिक
28 सीटें जीतकर सरकार बनाने वाली महबूबा मुफ्ती
की पीडीपी भी इस बार
महज तीन सीटों पर
सिमट गई। पीडीपी को
भी कट्टरपंथी पार्टी माना जाता है।
पांच महीने पहले हुए लोकसभा
चुनाव में पीडीपी की
सबसे बड़ी नेता महबूबा
मुफ्ती स्वयं हार गई थीं।
इस बार उनकी पुत्री
को विधानसभा चुनाव में हार का
सामना करना पड़ा। पीडीपी
भी उन्हीं सीटों पर जीती है,
जो आतंकवाद प्रभावित हैं।
कश्मीर घाटी में जेईआई
के या जेईआई समर्थित
जो उम्मीदवार मैदान में अपनी किस्मत
आजमाने उतरे थे उनमें
से कुछ प्रमुख सैयार
रेशी (कुलगाम), एजाज अहमद मीर
(जैनापोरा), डॉ तलत मजीद
(पुलवामा), अब्दुल रेहमान शाला (बारामुला), मजूर कलू (सोपोर)
और कलीमुल्ला लोन (लंगेट) शामिल
थे। इसके अलावा सरजन
बरकाती (गांदरबल और बीरवाह) और
अफजल गुरु के भाई
एजाज गुरु (सोपोर) भी मैदान में
उतरे थे जो कट्टर
अलगाववादी विचारधारा से संबंध रखते
थे। लेकिन कश्मीर की अवाम ने
इन सबकी उम्मीदों पर
पानी फेर दिया। बता
दें जहां जमात को
किसी भी सीट पर
जीत हासिल नहीं हुई है
वहीं एआईपी की ओर से
मैदान में उतारे गए
38 उम्मीदवारों में से 37 हार
गए और केवल लंगेट
सीट पर उसे कामयाबी
हासिल हुई है। जैनापोरा
से जमात समर्थित एजाज
अहमद मीर नेकां के
शौकत हुसैन गनई से 13,233 वोटों
से हारे, जिन्हें 28,251 वोट हासिल हुए।
एजाज वाची से पीडीपी
विधायक रह चुके हैं
और इस बार टिकट
न मिलने पर मैदान में
निर्दलीय उतरे। बाद में जमात
ने उन्हें समर्थन देने का फैसला
लिया था। कुलगाम से
जमात के सैयार रेशी
करीब 7,838 वोटों से सीपीआईएम के
एमवाई तारिगामी से हारे। पांचवीं
बार जीतने वाले तारिगामी को
33,634 वोट प्राप्त हुए। पुलवामा से
डॉ. तलत मजीद पीडीपी
के वहीद पर्रा से
22,883 वोटों से हारे, जिन्हें
24,716 वोट मिले। बारामुला से अब्दुल रहमान
शाला नेकां के जावेद बेग
से 20,555 वोटों से हारे। बेग
को 22,523 वोट मिले। सोपोर
में जमात ने पूर्व
हुर्रियत नेता मंजूर कलू
को समर्थन दिया था जो
नेकां के इरशाद अहमद
कार से 26,569 वोटों से हारे, उन्हें
कुल 406 वोट प्राप्त हुए।
अफजल गुरु के भाई
एजाज गुरु को नोटा
से भी कम 129 वोट
हासिल हुए। लंगेट से
पीएचडी स्कॉलर कलीमुल्ला लोन को जमात
ने समर्थन दिया, पर वह इंजीनियर
रशीद के भाई और
एआईपी प्रत्याशी खुर्शीद अहमद से हार
गए। सरजान बरकाती बीरवाह व गांदरबल से
लड़े पर जीत नहीं
पाए। गांदरबल में उन्हें
418 वोट पड़े और वे
उमर से 32,046 वोटों से हारे।
कश्मीर के लिए ये
एक बड़ा बदलाव है.
पांच साल पहले जब
आर्टिकल 370 की समाप्ति को
लेकर अटकलें लग रही थीं,
महबूबा मुफ्ती का अत्यंत गैरजिम्मेदाराना
बयान आया था. 29 जुलाई
2017 को महबूबा मुफ्ती ने कहा था
कि अगर आर्टिकल 370 हटा
तो कश्मीर घाटी में कोई
भारत का झंडा थामने
वाला नहीं मिलेगा. जिस
समय महबूबा ने ये बयान
दिया था, उस वक्त
वो जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री थीं.
ध्यान रहे कि ये
बयान उस महबूबा का
था, जिनके पिता मुफ्ती मोहम्मद
सईद जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बनने
से पहले केंद्रीय गृह
मंत्री भी रह चुके
थे. महबूबा का ये बयान
शर्मनाक था. उससे भी
शर्मनाक तब, जब महबूबा
ने आर्टिकल 370 की समाप्ति के
सवा साल बाद अक्टूबर
2020 में बयान दिया कि
जब तक जम्मू-कश्मीर
में वापस आर्टिकल 370 नहीं
लग जाता, वो तिरंगा नहीं
फहराएंगी. हुर्रियत का खेल खत्म
हो जाने के बाद
खुद को कश्मीर में
अलगाववाद की सबसे बड़ी
झंडाबरदार के तौर पर
पेश करने में लगीं
महबूबा को अपने बयानों
पर शायद पांच साल
बाद भी शर्म न
आए. लेकिन वहां की जनता
ने बता दिया कि
हर कश्मीरी को तिरंगा पसंद
है। देश के प्रति
उनकी भावना अटूट है। राष्ट्रगान
और तिरंगे के प्रति सम्मान
को उनसे कोई जुदा
नहीं कर सकता। गर्व
की बात है जिस
हुर्रियत की जगह लेने
को बेचैन हैं महबूबा और
जिस हुर्रियत के कार्यालय में
बैठकर कभी कश्मीर को
भारत से अलग करने
की साजिश रची जाती थी,
उसके गेट पर भी
भारत का तिरंगा टंगे
होने वाली तस्वीर देश
और दुनिया ने वायरल होते
हुए देखी, महबूबा ने भी देखी
होगी.
दुनिया भी देख रही
है तिरंगामय कश्मीर को। कश्मीर के
युवा अब अलगाववाद की
राह छोड़कर मुख्यधारा में शामिल हो
चुके हैं. वो रोजगार,
खुशहाली और बेहतर कल
के बारे में सोच
रहे हैं, न कि
पाक प्रायोजित आतंकवाद की राह पकड़ने
के बारे में. जो
इक्का-दुक्का अब भी भटक
रहे हैं, उनके लिए
अब हालात आसान नहीं रह
गये हैं. जिस डल
झील पर नब्बे के
दशक में सैकड़ों की
तादाद में आतंकवादी हथियार
लेकर घूमते नजर आते थे,
वहां आज देश और
दुनिया भर से आए
सैलानी नजर आते हैं,
स्थानीय युवा मस्ती करते
दिखते हैं. हो जो
भी हकीकत तो यही है
कि जम्मू-कश्मीर का चुनाव परिणाम
राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव और
अलगाववादी राजनीति को खारिज किए
जाने का एक तरह
से संकेत है. जम्मू-कश्मीर
में मुख्यधारा की पार्टियों को
वोट देने के फैसले
के कारण 28 पूर्व उग्रवादियों और अलगाववादियों को
हार का सामना करना
पड़ा, जिनमें जमात-ए-इस्लामी
द्वारा समर्थित 10 उम्मीदवार और अवामी इत्तेहाद
पार्टी (एआईपी) द्वारा समर्थित अन्य उम्मीदवार भी
शामिल थे. “यहां तक
कि भाजपा नेता भी कहते
रहे कि कई स्वतंत्र
उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं
और अगर जरूरत पड़ी
तो वे समान विचारधारा
वाले लोगों से संपर्क कर
सकते हैं. इसलिए ऐसा
लगता है कि कश्मीर
के लोगों ने एक मजबूत
ताकत को चुनने का
फैसला किया है, जो
इस मामले में एनसी-कांग्रेस
गठबंधन के लिए सही
साबित हुआ.”
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