‘मन’ को जोड़ता है ‘रंगों’ का साथ
देखा जाएं तो होली के त्योहार में उत्सवधर्मिता के जो रंग बिखरते है, वे मानवीय और पारिवारिक मूल्यों को भी जीवंत बना देते है। आपसी प्रेम, एकता और सद्भाव को बढ़ावा देने वाला यह रंगीन त्योहार हर रिश्ते को सहेजे की सीख देता है। सामाजिक रुप से एक-दुसरे के साथ जुड़ाव रखना और सुखदुख में भागीदार बनना हमारी परंपरा और संस्कृति को जिंदा रखने का जरिया है। आनंद और रंगों की उमंगों के बीच व्यवहार और विचार की नकारात्मकता उड़न छू हो जाती है। यह सब कुछ भूल जाने का निराला उत्सव है, जो आतंरिक उल्लास को जीने का मौका देता है। बेशक, रिश्तों के नए रंग में रंग जाने का अवसर है होली। जिसमें तल्खियों की जगह प्यार और दुलार भरा होता है। ऐसा लगता है मानो हवा में ही मस्ती और रंग घुल गया हो। खेतों में लहलहाती सरसों और बाग-बगीचों में खिले रंगीन फूलों के बीच होली के माध्यम से रंग हर मन और आंगन की देहरी पर दस्तक देने लगते है। जिस तरह होली की जान रंग है, उसी तरह रिश्तों की जान अपनापन और आपसी सामंजस्य। चारों ओर बिखरे होली के रंग भी रिश्तों में नई रौनक लाते हैं। होली का त्योहार हर उम्र के लोग मन से मनाते है। घर-परिवार में भी बड़ों और छोटों का फासला मिट जाता है। रंगों का यह पर्व पीढ़ियों के अंतर को भी पाट देता है। अपनों के साथ ही होली अपने परिवेश में बसने वालों से भी जोड़ती है। तभी तो होली की अबीर के लाल रंग में आस-पड़ोस और रिश्तेदारों से भी लेकर दोस्तों तक सब रंग जाते है। सभी प्रेम स्वरुप एक-दुसरे को रंग लगाकर जीवन में खुशियां भरते है
सुरेश गांधी
वैसे भी जीवन का हर रंग रिश्तों से है। रिश्तों के इंद्रधनुषी रंग जीवन को तो सजाते ही हैं, दिलों को भी करीब लाते है। होली के रंग भी कुछ ऐसे ही होते हैं। इनकी आभा ही कुछ ऐसी होती है कि पूरा परिवेश उमंग से भर उठता है। होली का पर्व इसी रंगीन, उमंग और उल्लास को साथ लाता है, जिससे हर ओर आनंद छा जाता है। रिश्तों में मुस्कराहट का रंग भर उठता है। रंगों में रचा-बसा यह उत्सव टूटे-बिखरे संबंधों को भी फिर से जोड़ देता है और भावनाओं के रंग छलक पड़ते है, जिससे रिश्तों का इंद्रधनुष खिल उठता है। रंग-बिरेंगे चेहरों की टोलियां नई ऊर्जा और उास लिए इस त्योहार को मनाती दिखती है। हर रिश्ते को जीवंत कर देने वाला होली का पर्व अपने साथ असिमित ऊर्जा और आनंद लेकर आता है। हवाओं में घुला गुलाल और प्रकृति की वासंतिक महक रिश्तों को भी महका देती है। तभी तो हमारी देहरी पर रंगों के रुप में दस्तक देने वाला होली का त्योहार जीवन के हर पहलू में सतरंगी मिठास भर देता है। या यूं कहे होली का त्योहार भावनात्मक रंगों को संजोएं रहता है।
मस्ती और उमंग से लबरेज इस त्योहार को हर उम्र के लोग पूरे मन से मनाते हैं। होली के पर्व का मूल संदेश ही भाईचारे का है जो आपसी जुड़ाव, समझ और सामाजिकता को बढ़ावा देता है। कहते है जब मन से मन मिलता है तो होली का रंग खिलता है। ये खिले खिले रंग हमें और हमारे परिवार ओर समाज के करीब खींच लाते है। आपसी कड़वाहट भूलाकर बस एक ही रंग में रंग जाने का संदेश देने वाले होली के पर्व को एक साथ पर रंगों की गहन साधना हमारी संवेदनाओं को भी उजाला करती है क्योंकि होली बुराईयों के विरुद्ध उठा एक प्रयास है। इसी से जिंदगी जीने का नया अंदाज मिलता है और दुसरों का दुख-दर्द बाटा जाता है। बिखरती मानवीय संवेदनाओं को जोड़ा जाता हैं। होली के नाम से ही जैसे दिल और दिमाग पे मस्ती सी छा मिलजुल कर मनाने का उल्लास और उमंग देखते ही बनता है। बिना पिए ही उस आनंद में डूबने लगते हैं। पूरे बदन का पोर-पोर इशारे करने लगते हैं, होली आ गई हैं। होली के आते ही रंगमयी मौसम लगने लगता है, धरती से लेकर गगन तक सप्तरंगी हो जाते हैं।
हजारों वर्ष बाद भी भारत में उल्लास के साथ यह परंपरा जीवित है तो इसका अर्थ है कि हम आधुनिकता के इस भौतिक दौर में भी जीवन के सत्य को याद रखे हुए हैं। जीवन का यह सत्य ही मनुष्यता है, धर्म है, आनंद है। होली की ठिठोली के बीच मस्ती और हुड़दंग में इसे न भूलें यही होली का संदेश है। होली में सभी का उत्साह बराबर होता है। पर होली का उत्साह बच्चों में कुछ खास ही होता है।
होली का त्यौहार हो और पिया का प्यार हो फिर इस त्यौहार का मजा ही दुगुना हो जाता है। होली फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस दिन होलिका पूजन कर संध्या के समय होलिका दहन किया जाता है। होली दहन के अगले दिन रंग, अबीर और गुलाल के साथ होली का पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस मौके पर जो आप जो रंग बिखेरते है, वही आपका हो जाता है। ठीक इसी तरह जीवन में जो कुछ भी आप देते है, वहीं आपका गुण हो जाता है। रंगों का महत्व इस मामले में भी है कि जिस रंग को आप परावर्तित करते है, वह अपने आप ही आपके आभामंडल से जुड़ जाता है। जो लोग आत्म संयम या साधना के पथ पर है, वे खुद से किसी भी नई चीज को नहीं जोड़ना चाहते। उनके पास जो है, वह उसके साथ ही काम करना चाहते हैं। यानी आप अभी जो है, उस पर ही काम करना बहुत ही मायने रखता है। एक-एक करके चीजो ंको जोड़ने से जटिलता पैदा होती है। इसलिए उन्हें कुछ नहीं चाहिए। मतलब साफ है वे जो कुछ भी है, उससे ज्यादा वे कुछ भी नहीं लेना चाहते। होली के रंगों में भीगे कृष्ण और राधा सहित गोपियां के आख्यान हों या ईसुरी के फाग, सब मन को विभोर कर जाते हैं। ये सारे प्रसंग पुराने होकर भी हर साल नित्य नवीन जैसे लगते हैं। आदमी होली की मस्ती में डूब कर सब कुछ भूल जाता है और फिजाओं में गूंज उठते हैं ये स्वर- ‘होली आई रे कन्हाई रंग बरौ सुना दे जरा बांसुरी‘।
‘परंपरा एवं संस्कृति’ को ‘जीवंत लीला’ है ‘होली’
होली जितना हमारी
उत्सव प्रियता को संबोधित है
उतना ही इसका धार्मिक
महत्व भी है। यह
असत्य और अधर्म पर
धर्म के विजय का
त्योहार है। यह पर्व
हमें बताता है कि अधर्म
कितना ही बलवान क्यों
न हो लेकिन धर्म
की शुचिता के आगे उसे
नतमस्तक होना ही पड़ता
है। होली का त्योहार
हमें इसी की स्मृति
दिलाता है। हजारों वर्ष
बाद भी भारत में
उल्लास के साथ यह
परंपरा जीवित है तो इसका
अर्थ है कि हम
आधुनिकता के इस भौतिक
दौर में भी जीवन
के सत्य को याद
रखे हुए हैं। जीवन
का यह सत्य ही
मनुष्यता है, धर्म है,
आनंद है। होली की
ठिठोली के बीच मस्ती
और हुड़दंग में इसे न
भूलें यही होली का
संदेश है। होली में
सभी का उत्साह बराबर
होता है। पर होली
का उत्साह बच्चों में कुछ खास
ही होता है। होली
का त्यौहार हो और पिया
का प्यार हो फिर इस
त्यौहार का मजा ही
दुगुना हो जाता है।
होली फाल्गुन मास की पूर्णिमा
को मनाया जाता है। इस
दिन होलिका पूजन कर संध्या
के समय होलिका दहन
किया जाता है। होली
दहन के अगले दिन
रंग, अबीर और गुलाल
के साथ होली का
पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया
जाता है। इस मौके
पर जो आप जो
रंग बिखेरते है, वही आपका
हो जाता है। ठीक
इसी तरह जीवन में
जो कुछ भी आप
देते है, वहीं आपका
गुण हो जाता है।
रंगों का महत्व इस
मामले में भी है
कि जिस रंग को
आप परावर्तित करते है, वह
अपने आप ही आपके
आभामंडल से जुड़ जाता
है। जो लोग आत्म
संयम या साधना के
पथ पर है, वे
खुद से किसी भी
नई चीज को नहीं
जोड़ना चाहते। उनके पास जो
है, वह उसके साथ
ही काम करना चाहते
हैं। यानी आप अभी
जो है, उस पर
ही काम करना बहुत
ही मायने रखता है। एक-एक करके चीजो
ंको जोड़ने से जटिलता पैदा
होती है। इसलिए उन्हें
कुछ नहीं चाहिए। मतलब
साफ है वे जो
कुछ भी है, उससे
ज्यादा वे कुछ भी
नहीं लेना चाहते। होली
के रंगों में भीगे कृष्ण
और राधा सहित गोपियां
के आख्यान हों या ईसुरी
के फाग, सब मन
को विभोर कर जाते हैं।
ये सारे प्रसंग पुराने
होकर भी हर साल
नित्य नवीन जैसे लगते
हैं। आदमी होली की
मस्ती में डूब कर
सब कुछ भूल जाता
है और फिजाओं में
गूंज उठते हैं ये
स्वर- ‘होली आई रे
कन्हाई रंग बरौ सुना
दे जरा बांसुरी‘।
विष्णु की पूजा से कट जाता है
सांसारिक सुखों का अभाव
कहते है यदि
होली के दिन में
भगवान विष्णु की मन से
पूजा की जाए तो
किसी भी तरह के
सांसारिक सुखों का अभाव जीवन
में नहीं रहता है।
इस दिन भगवान शंकर
ने कामदेव को तपस्या भंग
करने के प्रयास से
क्रोधित हो भस्म किया
था। इस कारण हम
मन के कुलषित काम
का नाश करने के
संकल्पनुसार होलिका दहन करते हैं।
काम को भस्म करने
के प्रतीकात्मक रुप में इस
मदन में यह शिक्षा
भी ग्रहण करते हैं कि
अब मदन काम महोत्सवों
पर विराम लगाया जाए। होली का
त्योहार स्पष्ट संदेश देता है कि
ईश्वर से बढ़कर कोई
नहीं होता। सारे देवता, दानव,
पितर और मानव उसी
के अधीन है। जो
उस परमतत्व को छोड़कर अन्य
में मन रमाता है
वह होली के त्योहार
के संदेश को नहीं समझता।
ऐसा व्यक्ति संसार की आग में
जलता रहता है और
उसे बचाने वाला कोई नहीं
है। यह ठंड के
दिनों की विदाई और
जीवन में ऊष्मा के
आने की सूचना है।
प्रकृति में खिलते रंगों
का संदेश है। जीवन का
उत्साह और उल्लास है।
होली के इस उत्सव
से मनुष्य लंबे समय से
प्रेरणा पाता रहा है।
होली के आसपास प्रकृति
और जीवन दोनों में
ही राग और रंग
दिखलाई देते हैं। खेतों
में सरसों खिल जाती है।
गेहूं पकने की ओर
बढ़ जाता है। जब
प्रकृति में सभी ओर
रंग ही रंग हों
तो मनुष्य कैसे अछूता रह
सकता है और यही
बताने को होली का
त्योहार मनाया जाता है। वैसे
भी होली जितना हमारी
उत्सव प्रियता को संबोधित है
उतना ही इसका धार्मिक
महत्व भी है। यह
असत्य और अधर्म पर
धर्म के विजय का
त्योहार है। यह पर्व
हमें बताता है कि अधर्म
कितना ही बलवान क्यों
न हो लेकिन धर्म
की शुचिता के आगे उसे
नतमस्तक होना ही पड़ता
है। होली का त्योहार
हमें इसी की स्मृति
दिलाता है।
रिश्तों में खुशियों की आमद
श्रीमद्भभागवत महापुराण के सप्तम स्कंध में प्रथम से दसवें सर्ग तक भक्त प्रह्लाद की कथा का वर्णन है। इसमें पिता हिरण्यकश्यपु की लाख प्रताड़नाओं यहां तक कि कई बार मार डालने की कोशिशों के बावजूद बालक प्रह्लाद की विष्णु के प्रति भक्ति अडिग रहती है। राक्षस कुल में जन्मे प्रह्लाद की भगवद-भक्ति हिरण्यकश्यपु के ‘मैं ही विष्णु हूं‘ जैसे अहंकार को चूर-चूर कर देती है। वह जितना जोर देकर अपने पुत्र को डराता है कि ‘विष्णु का नहीं मेरा नाम जपो‘, प्रह्लाद की भक्ति उतनी ही दृढ़ होती जाती है। वह न डरता है और न विचलित होता है। पिता के आदेश दर पर प्रह्लाद को पहाड़ की ऊंचाइयों से फेंका गया, उबलते तेल के कड़ाहे में डाला गया, किंतु ये यातनाएं भी उसकी भक्ति को कमजोर नहीं कर सकी। प्रह्लाद की कथा से जुड़े ये सारे आख्यान और उसकी अविचल भक्ति आज भी बुराइयों से लड़ने की प्रेरणा देती है। कोई भी डर, कोई भी प्रताड़ना या कोई भी प्रलोभन हमें अपने ईमान से, मनुष्यता के भाव से डिगा न सके तो यह धरती ही स्वर्ग बन जाये। शक्ति के मन में कुल बुलाती बुराइयां, उसके अंतस में मचलता स्वार्थ-लोभ-लालच कब उसे इतना नीचे गिरा देता है कि वह इनसान से हैवान बन जाता है, यह वह समझ ही नहीं पाता। इन दुष्वृत्तियों के कारण मानो सारे रिश्ते बेमानी हो जाते हैं।
आदमी इन रिश्तों का, इनसानियत का खून करने से भी नहीं हिचकता।बुराइयों से लड़कर मनुष्यता को बचाने का आख्यान
भक्त प्रह्लाद की
कथा बुराइयों से लड़कर मनुष्यता
को बचाने का आख्यान है।
यह कथा याद दिलाती
है कि जब व्यक्ति
का अहंकार उसे भगवान से
भी ऊंचा मानने लगता
है तो उसका पतन
निश्चित है। इसीलिए हमारे
शास्त्रकारों ने ज्ञान का,
विद्या का पहला लक्षण
बताया। विनम्रता-‘विद्या ददाति विनयं, विनयात याति सुपरत्रता‘ इस
विनय से ही व्यक्ति
सुपात्र बनता है। विनय
साधुता का लक्षण और
अहंकार दुष्टता का। प्रह्लाद ने
पिता की दुष्टता का,
हिंसा का विरोध नहीं
किया, उसने अपनी सारी
शक्ति अपनी भक्ति को
अडिग रखने में लगायी,
यह दृढ़ विश्वास ही
उसकी विजय का मूल
बना। प्रह्लाद की भक्ति और
विश्वास के सामने हिरण्यकश्यपु
के सभी अत्याचारी उपक्रम
निष्फल और असहाय साबित
हो रहे थे। उसका
राक्षसी अहंकार यह स्वीकार करने
को कतई तैयार नहीं
था कि एक छोटा
सा बालक, वह भी उसका
पुत्र राजाज्ञा का उल्लंघन कर
विष्णु-विष्णु जपता रहे। इस
बेचैनी में पैर पटकते
हिरण्यकश्यपु की मदद के
लिए सामने आती है उसकी
बहन होलिका। उसे यह वरदान
प्राप्त था कि अग्नि
उसे जला नहीं सकती।
तय हुआ कि होलिका
बालक प्रह्लाद को गोद में
लेकर बैठेगी और चारों ओर
लकड़ियों का बड़ा ढेर
लगा कर अग्नि प्रज्जवलित
की जायेगी। उस दहकती आग
में प्रह्लाद जल कर भस्म
हो जायेगा ओर होलिका सही
सलामत अग्नि-शिखाओं के बीच से
बाहर निकल आयेगी। राक्षसी
मन प्रसन्न था कि उसका
यह प्रयोग व्यर्थ नहीं जायेगा। लेकिन
हो गया उलटा। दृढ़
इच्छा के आगे शक्ति
हार गयी। उस विकराल
अग्नि ने होलिका को
लील लिया, होलिका दहन हो गया
और प्रह्लाद मुस्कुराता हुआ बाहर निकल
आया। सभी भौंचक देखते
रह गये कि किस
तरह होलिका नामक बुराई जल
कर भस्म हो गयी
और प्रह्लाद की भक्ति व
विश्वास रूपी अच्छाई को
रंच मात्र भी आंच न
आयी।
भक्ति और शक्ति का समन्वय
ब्रज में आज
भी इस कथानक को
फाग के रूप में
गाया जाता है-‘होलिका
ने ऐसा जुल्म गुजारा
प्रह्लाद गोद बैठारा‘।
हमारे शास्त्रों में ऐसे अनगिनत
आख्यान भरे पड़े हैं
जो यह सीख देते
हैं कि सत्य को
प्रताड़ति किया जा सकता
है, पर पराजित नहीं।
इसीलिए ‘सत्यमेव जयते‘ भारत की सनातन
संस्कृति का मूल पाठ
है और सत्य-न्याय-अर्थ भारत की
सांस्कृतिक चेतना की संजीवनी हैं।
ये प्रवृतियां ही मनुष्यता का
सृजन करती है और
भारतवर्ष इसके फलने-फूलने
की प्रयोग भूमि रहा है।
इसलिए देवता भी लालायित रहते
हैं इस पुण्य धरा
पर जन्म लेने के
लिए। विष्णु पुराण में उल्लेख है-
गायंति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु
ते भारत भूमि भागे
स्वगीयवगीस्पद हेतु भताः भवंति
भूयः पुरषाः सुरत्वात अर्थात भारत भूमि का
यश देवता भी गाते हैं
कि वे लोग धन्य
हैं जिन्होंने इसकी गोद में
जन्म लिया। क्योंकि यह धरती
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