Sunday, 9 March 2025

रंगभरी एकादशी : भक्तों संग बाबा विश्वनाथ खेलते है होली

रंगभरी एकादशी : भक्तों संग बाबा विश्वनाथ खेलते है होली

वैसे भी देवभूमि काशी को देवो के देव महादेव यानी बाबा विश्वनाथ ने स्वयं सांस्कारिक मानव कल्याण के लिए ब्रह्मा की सृष्टि से बिल्कुल अलग बसाया। कहते है श्रृष्टि के तीनों गुण सत, रज और तम इसी नगरी में समाहित है। तभी तो यहां यमराज का दंडविधान नहीं, बल्कि बाबा विश्वनाथ के ही अंश बाबा कालभैरव का दंडविधान चलता है। और यहां धार्मिक संस्कारों का पालन करने वाला हर प्राणी मृत्युपरांत मोक्ष को प्राप्त करता है। इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि महादेव सिर्फ अपने पूरे कुनबे के साथ काशी में वास किया बल्कि हर उत्सवों में यहां के लोगों के साथ महादेव ने बराबर की हिस्सेदारी की। खासकर उनके द्वारा फाल्गुन में भक्तों संग खेली गयी होली की परंपरा आज भी जीवंत करने की सिर्फ कोशिश बल्कि काशी के लोगों द्वारा डमरुओं की गूंज और हर हर महादेव के नारों के बीच एक-दूसरे को भस्म लगाने परंपरा हैं। यही वजह है कि यहां होली की छटा देखते ही बनती है। ये होली तब और खास हो जाती है, जब महादेव खुद अपने भक्तों के साथ होली के रंगों में सराबोर हो जाते हैं। भोले बाबा जब डमरू की अलौकिक धुन पर नाचते हैं, तो भक्तों के पांव रोके नही रुकते। काशी का यह भाव भौगोलिक नहीं ऐतिहासिक है। बाबा काशीवासियों के लिए अनंत है, इसीलिए अनादि भी है। इस पावन दिन पर बाबा की चल प्रतिमा का दर्शन भी श्रद्धालुओं को होता है। बाबा के दर्शन को हजारों श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ पड़ता है। हर भक्त के मन में बस यही रहता है कि रंग भरी एकादशी के दिन बाबा विश्वनाथ के साथ होली खेली जाएं. मान्यता है कि एकादशी का व्रत रखने से पापों से मुक्ति मिल जाती है और जीवन में सुख समृद्धि की वृद्धि होती है   

सुरेश गांधी

मोक्ष की नगरी काशी की होली अन्य जगहों से इतर बिलकुल अद्भूत, अकल्पनीय बेमिसाल है। बिल्कुल बनारसी अंदाज में भांग, धतूरा, पान चबाये- जोगीरा सा रा रा रा की धुन पर। रंगभरी एकादशी संसार में केवल काशी विश्वनाथ मंदिर में ही महोत्सव के रूप में मनाई जाती है। इस दिन विशेष श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर की दो प्रमुख आरती यानी भोग आरती सप्तर्षि आरती लगभग तीन घंटे पहले कर ली जाती है, ताकि बाबा भक्तों के बीच में कोई बाधा रहे। जी हां, त्रैलोक्य से न्यारी काशी की परंपराएं अनूठी, प्यारी और मनोहारी हैं। इससे काशीपुराधिपति भोले बाबा का दरबार भी अछूता नहीं है। इसका अंदाजा काशी के दो महत्वपूर्ण पर्व-उत्सवों से लगाया जा सकता है। दोनों ही बाबा के प्रति भक्तों की अगाध श्रद्धा दर्शाते हैं। वैसे भी बाबा भोले शंकर लोक के देवता हैं। मस्त-मलंग और औघड़दानी। उनकी श्रद्धा-भक्ति का रंग जब लोक में घुलता है तो लोकरंग हो जाता है। बाबा का तिलकोत्सव वसंत पंचमी पर, विवाह महाशिवरात्रि पर और रंगभरी एकादशी पर गौना (द्विरागमन) इसी दिन माता गौरा का गौना (द्विरागमन) कराकर बाबा काशी में पधारे। 

काशीपुराधिपति के द्विरागमन के इस उत्सव को काशीवासी रंगभरी एकादशी महोत्सव के रूप में मनाते हैं और शिव- शक्ति की नगरी में दोनों की ही एकमुश्त कृपा पाते हैं। इसके लिए भक्तों का रेला शिव परिवार का आशीर्वाद लेने श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर पहुंचता है। सर्वप्रथम बाबा को अबीर-गुलाल समर्पित कर छह दिवसीय होली उत्सव मनाने की अनुमति लेता है। फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को रंगभरी एकादशी कहते हैं। इस बार रंगभरी एकादशी 10 मार्च को है। मान्यता है कि भगवान शिव माता पार्वती को पहली बार काशी रंगभरी एकादशी पर ही लेकर आए थे। भगवान शिव और माता पार्वती का स्वागत लोगों ने रंग और गुलाल उड़ाकर किया था और चारों तरफ खुशियां मनाई थीं। इस वजह रंगभरी एकादशी के दिन काशी में रंगों का उत्सव मनाया जाता है और बाबा विश्वनाथ को दूल्हे की तरह सजाया जाता है। साथ ही बाबा विश्वनाथ का माता पार्वती के साथ गौना कराया जाता है। रंगभरी एकादशी के दिन बाबा विश्वनाथ नगर भ्रमण पर निकलते हैं और चारों तरफ लाल, हरे, पीले गुलाल उड़ाया जाता है। मान्यता के अनुसार देव लोक के सारे देवी देवता इस दिन स्वर्गलोक से बाबा के ऊपर गुलाल फेंकते हैं. यह परंपरा दो सौ वर्षों से ज्यादा समय से जारी है। इसे आमलकी एकादशी भी कहा जाता है और यह मार्च माह में पहला एकादशी व्रत होगा

रंगभरी एकादशी को भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा का विधान है. मान्यता है कि रंगभरी एकादशी को ही बाबा विश्वनाथ हिमालय पुत्री गौरा का गौना कराकर काशी आए थे और काशी के लोगों ने गुलाल उड़ाकर उनका स्वागत किया था. हालांकि इस एकादशी को भगवान विष्णु और आंवले के पेड़ कर भी पूजा की जाती है.

रंगभरी एकादशी मुहूर्त

ब्रह्म मुहूर्त प्रातः 4 बजकर 59 मिनट से 5 बजकर 48 मिनट तक भिजीत मुहूर्त दोपहर में 12 बजकर 8 मिनट से 12 बजकर 55 मिनट तक योग - रंगभरी एकादशी की पूजा ब्रह्म मुहूर्त से कर सकते हैं. समय शोभन योग रहेगा.

रंगभरी एकादशी के दिन सर्वार्थ सिद्धि योग सुबह 6 बजकर 36 मिनट से बन रहा है, इस योग में पूजा पाठ, शुभ कार्य करने से शुभ फल की प्राप्ति होती है, कार्य सफल सिद्ध होते हैं.

रंगभरी एकादशी व्रत पारण समय 11 मार्च मंगलवार को सुबह 6 बजकर 35 मिनट से 8 बजकर 13 मिनट के बीच है. 11 मार्च को द्वादशी तिथि सुबह 8 बजकर 13 मिनट पर समाप्त होगी.

रंगभरी एकादशी की पूजा विधि

रंगभरी एकादशी का व्रत करने वालों को प्रातः काल जल्दी अछकर स्नान आदि कर लेना चाहिए.

घर के मंदिर में घी से दिया जलाएं.

भगवान विष्णु, भगवान शिव और माता पार्वती को गंगाजल से अभिषेक कराएं.

भगवान विष्णु, भगवान शिव और मां पार्वती को फूल माला अर्पित करें.

देशी घी का दीपक जलाकर आरती और मंत्रों का जाप करें.

पूजा के बाद आरती करें और एकादशी का व्रत रखें.

पूजा के अंत में भगवान को भोग लगाएं और लोगों में प्रसाद का वितरण करें.

इस दिन आंवले के पेड़ की भी पूजा की जाती है.          

शिव मंदिर जाकर आंवले के पेड़ की पूजा करें.

रंगभरी एकादशी के दिन व्रत रखकर भगवान विष्णुर भगवान शिव और माता पार्वती  की पूजा अर्चना की जाती है.

रंगभरी एकादशी का व्रत रखेन से मोक्ष की प्राप्ति होती है.

रंगभरी एकादशी के दिन आंवले के पेड़ की भी पूजा शुभ माना जाता है.

आंवले के वृक्ष को सभी प्रकार के पापों को नष्ट करने वाला शुभ वृक्ष माना जाता है.

रंगभरी एकादशी के दिन आंवला खाना शुभ माना जाता है.

होली फाल्गुन शुक्ल-एकादशी के दिन काशी में भगवान विश्वनाथ का विशेष श्रृंगार किया जाता है। इस एकादशी का नाम आमलकी (आंवला) एकादशी भी है। कहते है रंगभरी एकादशी के ही दिन आदि शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस, तुलसीदास आदि महर्षि भी बाबा श्रीकाशी विश्वनाथ के दरबार में आशीर्वाद लेने उपस्थित हुए थे। शास्त्रों में वर्णित है कि भगवान शिव के त्रिशूल पर काशी स्थित है। यहां की परंपरा के अनुसार बाबा के आशीर्वाद स्वरूप ही काशीवासी सभी उत्सव त्योहार मनाते हैं। मोक्ष के लिए वैकुंठ धाम जा कर शिवलोक ही उन्हें भाता है। यही एक ऐसा कारण है कि संसार में काशी विश्वनाथ मंदिर, बाबा के भक्त और यहां के आम श्रद्धालु बिल्कुल अलग पद्धति अपनाते हैं। मान्यताओं के अनुरूप काशी में माता पार्वती के प्रथम आगमन परखेले मशाने में होरी दिगंबर ... गीत लिखा गया था। पौराणिक परम्पराओं और मान्यताओं के मुताबिक रंगभरी एकादशी के दिन ही भगवान शिव माता पार्वती से विवाह के उपरान्त पहली बार अपनी प्रिय काशी नगरी आये थे। इस अवसर पर शिव परिवार की चल प्रतिमायें काशी विश्वनाथ मंदिर में लायी जाती हैं और बाबा श्री काशी विश्वनाथ मंगल वाद्ययंत्रो की ध्वनि के साथ अपनी जनता, भक्त और श्रद्धालुओं का हाल-चाल पूछने एवं आशीर्वाद देने सपरिवार निकलते हैं। यह पर्व काशी में मां पार्वती के प्रथम स्वागत का भी सूचक है। इस अवसर पर समस्त जनता पर रंग अबीर गुलाल उड़ाकर खुशियां मनायी जाती हैं। मान्यता के अनुसार देव लोक के सारे देवी देवता इस दिन स्वर्गलोक से बाबा के ऊपर गुलाल फेंकते हैं. यह परंपरा दो सौ वर्षों से ज्यादा समय से जारी है. रंग भरी एकादशी का पर्व इसलिए मनाया जाता है, क्योंकि इसी दिन महादेव मां भगवती का गौना कराकर वापस घर आते हैं. बसंत पंचमी को बाबा का तिलक, शिवरात्रि को विवाह और रंग भरी एकादशी को गौना यानी माता पार्वती अपनी ससुराल काशी जाती हैं. रंग भरी एकादशी के दिन रंगों और गुलालों से काशी नहा उठती है. ये रंग तब चटकीला हो जाता है, जब रंग बाबा और मां पार्वती के ऊपर पड़ता है

काशी में छह दिन खेलते है होली

एकादशी से काशी में रंग खेलने का सिलसिला आरंभ हो जाता है, जो लगातार 6 दिन तक चलता है। शास्त्रों के अनुसार देवतागण भी रंगभरी एकादशी के इस उत्सव में भाग लेने और बाबा की प्रसन्नता पाने के लिए श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर में उपस्थित होते हैं। इस कारण महत्व बढ़ जाता है। मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव पार्वती माता को गौना कर काशी लाएं। इस खुशी में काशीवासी अपने भोले बाबा की बरात सजाते हैं। रजत पालकी में गौरी दुल्हन दूल्हा शंकर के साथ ससुराल आती हैं। और जब महादेव ने मदमस्त होकर भूत-पिशाच के संग उत्सव मनाना शुरू किया, तो पूरा ब्रह्माण्ड उनके संग झूम उठा। देवी-देवताओं ने बाबा के ऊपर गुलाल फेंकना शुरू कर दिया। फिर तो काशी के संग, पूरे विश्व को रंगों और गुलालों से नहा ही उठना था। इस दिन बाबा विश्वनाथ की पालकी निकलती है। लोग उनके साथ रंगों का त्योहर मनाते है। दुसरे दिन शंकर अपने औघड़ रुप में श्मशान घाट यानी मणिकर्णिका घाट पर जलती चिताओं के बीच चिता-भस्म की होली खेलते है। डमरुओं की गूंज और हर-हर महादेव के जयकारे अक्खड़, अल्हड़भांग, पान और ठंडाई की जुगलबंदी के साथ अल्हड़ मस्ती और हुल्लड़बाजी के बीच एक-दुसरे को मणिकर्णिका घाट का भस्म लगाते है, तो यह दृश्य देखने लायक होता है।

भोलेनाथ देते है तारक मंत्र

धारणा यह है कि भगवान भोलेनाथ तारक का मंत्र देकर सबकों को तारते है। लोगों की आस्था है कि मशाननाथ रंगभरी एकादशी के एक दिन बाद खुद भक्तों के साथ होली खेलते है। तभी तो यहां की चिताएं कभी नहीं बुझतीं। मृत्यु के बाद जो भी मणिकर्णिका घाट पर दाह संस्कार के लिए आते हैं, बाबा उन्हें मुक्ति देते हैं। यही नहीं, इस दिन बाबा उनके साथ होली भी खेलते हैं। कहा यहां तक जाता है कि काशी का कंकड़-कंकड़ शिव है। काशी के हर व्यक्ति से शिव का सीधा संबंध है। कुछ लोग शिव को मित्र मानते है, कुछ जगदंबा भाव से पूजते है। नारियां वत्सलता उड़ेलती है। कुछ शिव को मालिक तो अपने को दास मानते हैं। इसके पीछे यह भाव निहित है कि यहां प्राण छोड़ने वाला हर व्यक्ति शिवत्व को प्राप्त होता है। हर व्यक्ति सुंदर की खोज और आनंनद में लीन रहता है। तभी तो बड़े-बुढ़े आर्शीवाद देते है तो कहते है, मस्त रह और मस्त कर। लोग यहां जितना लूटकर प्रसंन होते है, उतना काशी का व्यक्ति लुटाकर प्रसंन होता है।

रजत पालकी पर सवार होते है बाबा

रंगभरी एकादशी की इस खास परंपरा की बात करें तो काशी के लिंगिया (लिंग पूजन करने वाले) परिवार के वंशज इसे सदियों से उत्सव रूप में मनाते आए हैं। हालांकि, इस परिवार ने 1869 में लिंगिया उपनाम के स्थान पर महंत लिखना शुरू कर दिया। बात उस दौर की है जब बाबा के गौना के जश्न में कुछ लोग ही शामिल होते थे। गंगा स्नान कर हाथ को पालकी आकार दिए रजत प्रतिमा गर्भगृह तक ले जाते और सपरिवार भोले बाबा को वहां विराजमान कराते। दर्शन विश्राम होने पर पुजारी प्रतिमा को वापस अपने आवास पर रख आते थे। वर्ष 1917 में नौवीं पीढ़ी के तत्कालीन महंत प्रसाद तिवारी ने इसे विस्तार दिया। उन्होंने अन्नकूट श्रृंगार के लिए लकड़ी का मंदिर और नक्काशीदार रजत पालकी बनवाई। इसमें शहर के प्रतिष्ठित धर्म अनुरागियों ने खुले दिल से सहयोग किया। जिससे इस पर्व-उत्सव का दायरा बढ़ने लगा। 11वीं पीढ़ी के महंत डा. कुलपति तिवारी बताते हैं कि 1918 में इस पर्व विशेष पर महंत आवास से मंदिर प्रांगण तक और गलियों में श्वेत चांदनी झाड़-फानूस लगाए जाते थे। महिलाएं मंगल गीत गाती थीं। ढोल-मजीरा बजाते लोग मंदिर तक जाते थे। पालकी को महंत परिवार के सदस्य ही कंधे पर ले जाते थे। यह प्रथा आज भी है, लेकिन अब भगवान की पालकी को कांधे से लगाने का सौभाग्य श्रद्धालुओं को भी मिलता है। मान्यता है कि नाथों के नाथ बाबा विश्वनाथ के गौना की झांकी देखने अपने -अपने धाम से भगवान श्रीराम प्रभु श्रीकृष्ण भी आते हैं और पुष्प वर्षा कर शिव परिवार को शुभकामना देते हैं। लिंगिया वंशजों की मानें तो इस दिन बाबा के दरबार से कोई खाली हाथ नहीं जाता। सभी की मनोकामनाएं पूरी होती हैं।

बुढ़वा मंगल

श्रृष्टि के तीनों गुण सत, रज और तम काशी में समाहित हैं। बाबा विश्वनाथ की नगरी में यह फाल्गुनी बयार भारतीय संस्कृति का दीदार कराती है। काशी में बुढ़वा मंगल मनाया ही इसीलिए जाता है क्योंकि जवानी की परिपक्वता ही बुढ़वा मंगल है। संकरी गलियों से होली की सुरीली धुन या चौक-चौराहों के होली मिलन समारोह बेजोड़ हैं। इस अनोखी होली का नजारा देखने और कैमरे में कैद करने के लिए हर साल कई विदेशी सैलानी भी यहां आते हैं। मान्यता के अनुसार, यहां रंगभरी एकादशी के अगले दिन भस्म की होली खेली जाती है। यह परंपरा कब शुरू हुई? इसका सही उत्तर किसी के पास नहीं है, क्योंकि यह परंपरा कई सदियों से चली रही है। स्नान के बाद वे पिशाच, भूत, सर्प सहित सभी जीवों के साथ होली का उत्सव मनाते हैं। मणिकर्णिका घाट पर होली खेलने की तैयारियां महाशिवरात्रि के समय से ही प्रारंभ हो जाती हैं। इसके लिए चिताओं से भस्म अच्छी तरह से छानकर इकट्ठी की जाती है।

दुल्हा बनते है भोलेनाथ

रंगभरी एकादशी के दिन बाबा विश्वनाथ के दरबार से शुरु होने वाली होली का यह सिलसिला बुढ़वा मंगल तक चलता है। जिस वक्त काशी के मुकीमगंज से बैंड-बाजे के साथ औघड़दानी बाबा की बारात निकलती है, नियत स्थान पर पहुंचकर महिलाएं परंपरागत ढंग से दूल्हे का परछन करती हैं। मंडप सजता है, जिसमें दुल्हन आती है, फिर शुरू होती है वर-वधू के बीच बहस और दुल्हन के शादी से इंकार करने पर बारात रात में लौट जाती है। जोगीरा सारा .. रा .. रा .. रा .. रा ... की हुंकार बनारस की होली का अलग अंदाज दर्शाता है।

पर्यटको को भाती है अड़भंगी रुप

भावों से ही प्रसन्न हो जाने वाले औघड़दानी की इस लीला को हर साल पूरी की जाती है। इस रस्म की उमंग घंटों देसी-विदेशी पर्यटकों को लुभाती है। अबीर गुलाल से भी चटख चिता भस्म की फाग के बीच वाद्य यंत्रों ध्वनि विस्तारकों पर गूंजते भजन माहौल में एक अलग ही छटा बिखेरती है। जिससे इस घड़ी मौजूद हर प्राणी भगवान शिव के रंग में रंग जाता है। इस अलौकिक बृहंगम दृष्य को अपनी नजरों में कैद करने के लिए गंगा घाटों पर देश-विदेश के हजारों-लाखों सैलानी जुटते हैं।

रंगीन होता मिजाज

यहां की खास मटका फोड़ होली और हुरियारों के ऊर्जामय लोकगीत हर किसी को अपने रंग में ढाल लेते हैं। फाग के रंग और सुबह--बनारस का प्रगाढ़ रिश्ता यहां की विविधताओं का अहसास कराता है। गुझिया, मालपुए, जलेबी और विविध मिठाइयों, नमकीनों की खुशबू के बीच रसभरी अक्खड़ मिजाजी और किसी को रंगे बिना नहीं छोड़ने वाली बनारस की होली नायाब है। जोगीरा की पुकार पर आसपास के हुरियारे वाह-वाही लगाए बिना नहीं रह सकते और यही विशेषता अल्हड़ मस्ती दर्शाती है। इसके अलावा रंग बरसे भींगे चुनर वाली, रंग बरसे. और होली खेले रघुबीरा अवध में होली खेले रघुबीरा जैसे गीतों की धुनें भी भांग और ठंडाई से सराबोर पूरे बनारस ही झूमा देती हैं। गंगा घाटों पर मस्ती का यह आलम रहता है कि विदेशी पर्यटक भी अपने को नहीं रोक पाते और रंगों में सराबोर हो ठुमके लगाते हैं।

राजशाही लिबास में होंगे बाबा विश्वनाथ

इस बार श्री काशी विश्वनाथ राजशाही लिबास में होंगे। रंगभरी एकादशी पर पहली बार बाबा विश्वनाथ के दरबार में राजशाही पगड़ी अर्पित की जाएगी। मखमल की टोपी पर जरी, मोती, नगीने और लैस का काम कराया गया है। कलंगी और सुरखाब का पर लगाकर पगड़ी तैयार की गयी है। पूर्व महंत के आवास से बाबा विश्वनाथ सपरिवार लाल रंग की राजशाही पगड़ी पहनकर अपने राजसी वेश में काशी की गलियों में निकलेंगे। इसके अलावा यूपी के मथुरा जेल में तैयार हर्बल गुलाल बाबा विश्वनाथ को को अर्पित की जायेगी। माता गौरा की पालकी यात्रा में भी यही गुलाल उड़ाया जाएगा। मंदिर के पूर्व महंत डॉ कुलपति तिवारी ने बताया कि पालकी यात्रा को और खास बनाने के लिए मथुरा जेल में बंद छह कैदियों से खास गुलाल तैयार कराया गया है। यह गुलाल अरारोट में सब्जियों को मिलाकर बनाया गया है। अरारोट में पालक, मेथी और चुकंदर पीसकर डाला गया है। इससे अलग-अलग रंग के गुलाल तैयार हो रहे हैं। लाल रंग हल्दी पाउडर की मदद से पीला गुलाल तैयार किया गया है। खुशबू के लिए इत्र भी मिलाया गया है। पालकी पर हर साल हजारों कुंतल गुलाल उड़ाए जाते हैं।

 

No comments:

Post a Comment

भविष्य की पुलिस तैयार — वाराणसी से नई पीढ़ी को गढ़ने की शुरुआत

भविष्य की पुलिस तैयार — वाराणसी से नई पीढ़ी को गढ़ने की शुरुआत डीजीपी राजीव कृष्ण ने वाराणसी में जेटीसी प्रशिक्षण का क...