मशाने में अड़भंगी भक्तों ने खेली चिता भस्म की होली
साधु-संत
हो
या
कोई
और
सबके
सब
चीताओं
की
राख
से
होली
खेलने
में
रमे
रहे
ढोल,
मजीरे
और
डमरुओं
की
थाप
के
बीच
भक्तगण
जमकर
झूमे
और
हर
हर
महादेव
के
उद्घोष
से
महाश्मशान
गूंजता
रहा
जब
सितार
की
झंकार
के
बीच
‘होरी
खेलें
मसाने
में...‘
के
बोल
पर
होरी
गूंजी
तो
चाहे
वह
शव
संग
आएं
परिजन
हो
या
खाटी
बनरसिएं
थिरकने
से
खुद
को
नहीं
रोक
सके
रंगभरी
एकादशी
का
समापन,
रंग-तरंग
की
मस्ती
में
डूबी
भोले
की
नगरी
काशी
सुरेश गांधी
सालों से चली आ रही परंपरा के तहत एकबार फिर मणिकर्णिका महाश्मशान पर होली का अद्भुत नजारा लोगों के लिए यादगार बन गया। एक तरफ चिताएं धधकती रहीं तो दूसरी ओर बुझी चिताओं की भस्म से अड़भंगी शिव की काशी के अड़भंगी भक्तों ने चिता भस्म की होली खेली।
साधु-संत हो या कोई और सबके सब चीताओं की राख से होली खेलने में रमे रहे। ढोल, मजीरे और डमरुओं की थाप के बीच भक्तगण जमकर झूमे और हर हर महादेव के उद्घोष से महाश्मशान गूंजता रहा। खास यह रहा जब सितार की झंकार के बीच ‘होरी खेलें मसाने में...‘ के बोल पर होरी गूंजी तो चाहे वह शव संग आएं परिजन हो या खाटी बनरसिएं थिरकने से खुद को नहीं रोक सके। दुनिया के कई देशों के पर्यटक भी चिता की भस्म से होली खेलने के उन क्षणों के साक्षी बने। बता दें, सबसे पहले धुनी रमाए नागा साधु मसान घाट पर पहुंचे। उनके ऊपर राख डालकर लोगों ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। इसके बाद परंपरा के अनुसार महाश्मसाननाथ श्रृंगार किया गया और आरती उतारी गई। काशी के लोठंडी चिताओं की भस्म के साथ भभूत उड़ाई जाने लगी। साथ में कुछ युवक अबीर और गुलाल की भी बौछार घाटों से करने लगे।कहीं चिताएं लगती रहीं तो कहीं मुखाग्नि दी जाती रही। इसके बीच बाबा के गणों के रूप में गंजी, गमछा लपेटे युवाओं की होली तमाम विदेशी पर्यटकों के लिए भी यादगार बनी।
लोग उन क्षणों को कैमरे में कैद करने के लिए आसपास की छतों, मुंडेरों पर जमे रहे। इसमें घुलते अबीर-गुलाल ने राग विराग को एकाकार करते हुए जीवन दर्शन के रंग को चटख किया। परंपरा के अनुसार पहले शिव के ही अंश माने जाने वाले बाबा मसाननाथ को भस्म और अबीर चढ़ाकर भक्तों ने एक दूसरे को भस्म लगाया। वैसे भी काशी मोक्ष की नगरी मानी जाती है। मान्यता है कि यहां शरीर छोड़ते वक्त इंसान के कानों में खुद भगवान शंकर उसे तारक मंत्र सुनाते हैं। जिससे वो जन्म मरण के चक्र से छुटकारा पा जाता है। और इसकी खुशी भी शव ले जाते वक्त रास्ते में नाचते गाते परिजनों और नगाड़ों के ढोल में देखी और सुनी जा सकती है। मौत पर इस नाच को देख आप चैंक भी सकते हैं। पर काशी के फक्कड़पन में इस तरह की मस्ती आम बात है।मान्यता है कि रंगभरी एकादशी एकादशी के दिन माता पार्वती का गौना कराने बाद देवगण एवं भक्तों के साथ बाबा होली खेलते हैं।
लेकिन भूत-प्रेत, पिशाच आदि जीव-जंतु उनके साथ नहीं खेल पाते हैं। इसीलिए अगले दिन बाबा मणिकर्णिका तीर्थ पर स्नान करने आते हैं और अपने गणों के साथ चीता भस्म से होली खेलते हैं। नेग में काशीवासियों को होली और हुड़दंग की अनुमति दे जाते हैं। यह अति प्राचीन परम्परा आज तक चली आ रही है। यही वजह है कि यहां होली की छटा देखते ही बनती है।काशी का यह भाव भौगोलिक नहीं ऐतिहासिक है। बाबा काशीवासियों के लिए अनंत है, इसीलिए अनादि भी है।
कहते है महाश्मशान ही वो स्थान है, जहां कई वर्षों की तपस्या के बाद महादेव ने भगवान विष्णु को संसार के संचालन का वरदान दिया था। काशी के मणिकर्णिका घाट पर शिव ने मोक्ष प्रदान करने की प्रतिज्ञा ली थी।काशी दुनिया की एक मात्र ऐसी नगरी है जहां मनुष्य की मृत्यु को भी मंगल माना जाता है। मृत्यु को लोग उत्सव की तरह मनाते है।
मय्यत को
ढोल नगाडो के साथ श्मशान
तक पहुंचाते है। कहते है
साल में एक बार
होलिका दहन होता है,
लेकिन महाकाल स्वरूप भगवान भोलेनाथ की रोज होली
होती है। काशी के
मणिकर्णिका घाट सहित प्रत्येक
श्मशान घाट पर होने
वाला नरमेध यज्ञ रूप होलिका
दहन ही उनका अप्रतिम
विलास है।
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