जब राम के लिए सबूत मांगा गया, तो वक्फ पर खामोशी क्यों?
देश भर में जहां एक और वक्फ बिल को लेकर घमासान मचा हुआ है वहीं मौजूदा सरकार के नुमाइंदों द्वारा वक्फ बिल को मुसलमान के हक में बताने के लिए पूरी ताकत झोक रखी है। विपक्ष का आरोप हैं, यह बिल मुसलमानों का हक छींनने वाला है। इसी दलील के आधार सुप्रीम कोर्ट में न सिर्फ चुनौती दी गयी है, बल्कि कहा गया है कि उनके पास न तो स्पष्ट दस्तावेज़ होते हैं, न ही पारदर्शी प्रक्रिया। वे 300 साल पुराने दस्तावेज कहां से लायेंगे। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है 5000 साल पुराने राम के अस्तित्व से लेकर उनके होने के सबूत मांगने वाले, अब वक़्फ़ पर खामोशी की चादर क्यों ओढ़ रखी हैं? सुप्रीम कोर्ट किन मुद्दों को तरजीह देता है और किन्हें नहीं, इस पर भी लोगों के सवाल हैं। विष्णु शंकर जैन ही पूछते हैं कि वो वक्फ कानून को लेकर गए तब सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें पहले हाई कोर्ट जान का निर्देश दिया, लेकिन वक्फ कानून को लेकर ही जब दूसरा पक्ष गया तो सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिकाएं तुरंत स्वीकार कर लीं और न केवल सुनवाई होने लगी बल्कि पहले ही दिन नए कानून के कुछ प्रावधानों पर अस्थायी रोक लगाने का उतावलापन भी दिखा
सुरेश गांधी
फिरहाल, भारत में धर्म और राजनीति का संबंध जितना पुराना है, उतना ही संवेदनशील भी। एक ओर आस्था के प्रतीक भगवान श्रीराम को लेकर हजारों वर्षों पुरानी घटनाओं पर ऐतिहासिक प्रमाण मांगे जाते हैं, वहीं दूसरी ओर वक़्फ़ बोर्ड की विवादास्पद संपत्तियों और उसके रिकॉर्ड पर उठते सवालों पर चुप्पी साध ली जाती है। भगवान श्रीराम, जो करोड़ों हिंदुओं के लिए आदर्श पुरुष और आस्था का केंद्र हैं, उनके अस्तित्व को लेकर राजनीतिक बहसें अक्सर उठती रही हैं। कुछ राजनीतिक दलों और संगठनों ने अदालतों में हलफ़नामे दाखिल कर यह दावा किया कि राम कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं थे, और मंदिर निर्माण के लिए ऐतिहासिक प्रमाण मांगे गए। मतलब साफ है आस्था को “कागज़ी सबूत“ के तराजू पर तौला गया, जबकि यह विषय लाखों वर्षों से श्रद्धा का हिस्सा रहा है। जबकि वक़्फ़ बोर्ड एक ऐसा मसला है जिसे मुस्लिम धार्मिक और परोपकारी कार्यों के लिए ज़मीनें और संपत्तियां दी जाती हैं। लेकिन समय के साथ यह संस्थान विवादों में घिरता गया।
देशभर में कई जगहों पर ऐसी संपत्तियां हैं जिन पर वक़्फ़ बोर्ड दावा करता है, लेकिन उनके पास न तो स्पष्ट दस्तावेज़ होते हैं, न ही पारदर्शी प्रक्रिया। हाल ही में कुछ राज्यों में वक़्फ़ की ’सीक्रेट लिस्ट’ लीक होने के बाद यह मामला और गरमाया। वक़्फ़ संपत्तियों पर हो रहे घोटाले, अवैध कब्ज़े, और बढ़ती दावेदारियां आज एक राष्ट्रीय मुद्दा बन चुके हैं। फिर भी कई राजनीतिक दल इस पर सवाल उठाने से बचते हैं। इसके पीछे वोटबैंक की राजनीति, तुष्टिकरण की नीति और तथ्यों से मुंह मोड़ने की प्रवृत्ति देखी जाती है।
कहने का अभिप्राय यह है कि देश को अब चुनिंदा आस्थाओं पर सवाल उठाने की बजाय, एक समान दृष्टिकोण अपनाना होगा। जब राम के लिए सबूत मांगे जाते हैं, तो वक़्फ़ की हर ज़मीन और संपत्ति पर भी वैसा ही पारदर्शी हिसाब देना होगा। लोकतंत्र में आस्था और दावेदारी दोनों के लिए एक ही कानून लागू होना चाहिए।
जब एक धार्मिक आस्था पर साक्ष्य मांगे जाते हैं, तो क्या उसी कठोरता से वक़्फ़ की दावेदारियों की भी जांच नहीं होनी चाहिए? क्या देश की भूमि पर हर दावे के लिए एक समान प्रक्रिया और पारदर्शिता नहीं होनी चाहिए? हालांकि भरत में धर्म और कानून का आपसी संबंध हमेशा संवेदनशील और जटिल रहा है। वक़्फ़ एक्ट और प्लेसेज़ ऑफ वर्शिप एक्ट, 1991 आज भी बहस और विवाद के केंद्र में हैं। प्लेसेज़ ऑफ वर्शिप (स्पेशल प्रोविज़न्स) एक्ट, 1991 तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा पारित किया गया था। इसका उद्देश्य धार्मिक स्थलों की स्थिति को 15 अगस्त 1947 की स्थिति में ’फ्रीज़’ करना था। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या यह एक्ट बहुसंख्यकों की आस्था पर कुठाराघात नहीं है? क्या यह कानून ऐतिहासिक तथ्यों की उपेक्षा नहीं करता? जबकि भारत का संविधान सभी नागरिकों को समानता, धार्मिक स्वतंत्रता और न्याय का अधिकार देता है। ऐसे में किसी भी कानून को धार्मिक संतुलन और सामाजिक समरसता के सिद्धांतों पर खरा उतरना चाहिए। वक़्फ़ एक्ट में पारदर्शिता और संतुलन की ज़रूरत है। प्लेसेज़ ऑफ वर्शिप एक्ट की पुनर्समीक्षा समय की मांग बनती जा रही है। जहां तक वक्फ कानून का सवाल है तो लोगों को समझना होगा कि यह कानून हक छीनने के लिए नहीं हक दिलाने के लिए है. इससे न सिर्फ राजस्व में बढ़ोत्तरी होगी बल्कि यतीम, गरीब मुसलमानों को उनका हक मिलेगा. जिस तरह से पूर्व में मुसलमानों के साथ धोखा हुआ करता था. उससे आजादी मिलेगी। वक्फ संपत्तियों के लिए मुतवल्ली बनाए गए अधिकांश लोग मालिक बन गए। जबकि वक्फ संपत्तियां अल्लाह को दी गई हैं। ये कभी बेची नहीं जा सकतीं, ना उनके स्वरूप में बदलाव किया जा सकता है।
इसके बाद भी मुतवल्लियों ने वक्फ संपत्तियों पर या तो अपना नाम चढ़ा लिया या अपने परिवार व नजदीकी लोगों के नाम चढ़वा दिए। स्थिति यह है कि जिन संपत्तियों का किराया एक लाख हो सकता था, उन्हें 5000 के किराये पर दे दिया। कुछ राशि काले धन के रूप में चुपचाप ले ली गई। देश में चार लाख 50 हजार वक्फ संपत्तियां हैं, जिसमें वक्फ जमीन का कुल रकबा छह लाख एकड़ है। अगर इनका उपयोग ठीक से किया जाता है तो 10 प्रतिशत के हिसाब से सालाना 12 हजार करोड़ रुपये की आय होती। लेकिन, मौजूदा समय में सिर्फ 163 करोड़ रुपये की आय हो रही है। सच्चर कमेटी ने तत्कालीन कांग्रेस सरकार से मुतवल्लियों और भ्रष्ट अधिकारियों को निलंबित करने के साथ ही संपत्तियों को कब्जा से मुक्त कराने, राष्ट्रीय स्तर पर एक कॉर्पोरेशन बनाने और वक्फ संपत्तियों का सदुपयोग करके गरीब मुसलमानों के जीवन को बेहतर बनाने का भी सुझाव दिया था। 2004-2014 तक देश की सत्ता संभालने वाली कांग्रेस सरकार ने सच्चर कमेटी की रिपोर्ट मानने की बात तो दूर, 2013 में इस वक्फ अधिनियम में एक नया संशोधन कर दिया और वक्फ संपत्तियों की लूट को और छूट दे दी। और जब बीजेपी सरकार उसमें सुधार कर रही है तो विपक्ष लोगों को गुमराह कर रहा है कि यह मुसलमान विरोधी कानून है, जबकि वे खुद यह नहीं कह पा रहे हैं कि मोदी सरकार वक्फ की जमीनों से अवैध कब्जे हटवा रही है. खास यह है कि वक्फ बोर्ड संशोधन कानून पर सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान सबसे बड़ा मुद्दा वक्फ बाय यूजर का बन गया है. हिंदू पक्ष जिस तरह इस मुद्दे पर आक्रामक हुआ है उससे लगता है कि सरकार इस विषय पर झुकने के मूड में नहीं है.
सीजेआई संजीव खन्ना कहते हैं कि कई ऐसी मस्जिदें हैं जो 14वीं-15वीं शताब्दी में बनी हुई हैं, ऐसे में वो दस्तावेज कहां से दिखाएंगे क्योंकि अंग्रेजी राज से पहले रजिस्ट्रेशन की कोई प्रक्रिया ही नहीं थी. उनके इस तर्क पर मुस्लिम पक्ष में जहां खुशी की लहर है वहीं हिंदुओं की दुखती रग पर कोर्ट ने हाथ रख दिया है। जाहिर है कि हिंदू पक्ष को लग रहा है कि जब मंदिरों की बात आती है तो यही कोर्ट उनसे कागजात मांगता है. और आज इसी कोर्ट में जब वक्फ की बात हो रही है तो उससे यह लग रहा है कि उस दौरान के दस्तावेज कहां मिलेंगे? इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि वक्फ बाय यूजर शब्द को हटाने से कुछ संपत्तियों पर से वक्फ बोर्ड को हाथ धोना पड़ सकता है, पर इस शब्द के दुरुपयोग के चलत ही तो यह कानून आया है. याद करिए देश में पिछले कुछ सालों में किस तरह अंधाधुंध वक्फ बोर्ड ने कब्जे किए है. कुछ समय पहले कर्नाटक में किसानों की 15 सौ एकड़ जमीन और केरल में छह सौ ईसाइयों की संपत्ति पर वक्फ बोर्डों के दावे को खारिज करने और पीड़ितों के हितों की रक्षा करने का आश्वासन देने के लिए वहां के मुख्यमंत्रियों को आगे आने पड़ा था. इन दोनों ही राज्यों में बीजेपी की सरकारें नहीं हैं.
जाहिर है कि वक्फ बाय यूजर शब्द ने सरकारों को मुश्किल में तो डाल ही दिया है. सवाल और भी हैं जिसका जवाब जनता जानना चाहती है सुप्रीम कोर्ट के सीनियर अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन ने इस मसले को गंभीरत से लिया है। उन्होंने पूछा है कि आखि़र कई विपक्षी राजनीतिक दलों की याचिकाएं सीधे सुप्रीम कोर्ट में कैसे स्वीकार कर ली जाती हैं, जबकि हिन्दुओं को अयोध्या से लेकर काशी-मथुरा तक के लिए जिले की कचहरी से होकर गुजरना पड़ता है और सदियों लग जाते हैं.जाहिर है कि जैन की बात में दम है. अब वक्फ बोर्ड मामले को ही देखिए कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने लगातार दो दिन सुनवाई की है. काशी में ज्ञानवापी के सर्वे में भी निकला कि ये हिन्दू मंदिर है, मस्जिद की दीवारों पर, ऐतिहासिक किताबों पर तमाम साक्ष्य होने के बाद आज तक कोई स्टे नहीं आया. मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद और मध्य प्रदेश स्थित भोजशाला मंदिर को लेकर भी कभी स्टे नहीं आया.
विष्णु शंकर जैन ने पूछा कि आखिर क्या कारण है कि एक पक्ष सुप्रीम कोर्ट जाता है तो तुरंत उसकी याचिका स्वीकार कर ली जाती है और अंतरिम राहत देने की बात भी की जाती है, जबकि दूसरे पक्ष के लिए ये क़ानून लागू नहीं होता.अधिवकने कहा कि पिछले 13 वर्षों से 4 राज्यों में एंडोमेंट एक्ट के जरिए मंदिरों पर कब्ज़ा किए जाने के विरुद्ध सुनवाई चल रही है, हाल ही में फ़ैसला भी आया है जिस..में सारे मुद्दों को हाईकोर्ट में भेज दिया गया है. विष्णु शंकर जैन ने कहा कि ये सारे सवाल इस मामले में क्यों नहीं किए जा रहे हैं?मतलब साफ है
वक्फ बाय यूजर को
लेकर जिस विवाद को
उठाया जा रहा है
कम से कम ये
बात हिंदुओं को तो नहीं
ही हजम होने वाली
है. आखिर अयोध्या में
श्रीराम की जन्मभूमि के
कागज के लिए ही
तो 134 वर्षों तक कोर्ट में
लड़ाई लड़नी पड़ी. जाहिर
है कि जिस तरह
पूजा स्थल अधिनियम में
1947 वाला ब्रेकेट लगा दिया गया
कि हिंदू भविष्य में काशी, मथुरा,
भद्रकाली, भोजशाला और अटाला की
बात नहीं करेंगे. उसी
तरह क्या वक्फ अधिनियम
में व्यवस्था नहीं होना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट के पास मौका
है कि पूजा स्थल
अधिनियम की तरह ऐसी
व्यवस्था के लिए आदेश
जारी कर दे. लेकिन
बड़ा सवाल तो यही
हे क्या सुप्रीम कोर्ट
निष्पक्षता का ध्यान नहीं
रख पा रहा है
और चाहे-अनचाहे एक
पक्ष के साथ खड़ा
दिखता है और दूसरे
के विरोध में? क्या सुप्रीम
कोर्ट अपनी सीमा लगातार
लांघ रहा है? ऐसे
सवाल चौतरफा उठ रहे हैं।
पहले सोशल मीडिया और
आम बातचीत में इसकी चर्चा
होती थी, लेकिन अब
तो सरकार की तरफ से
भी यह चिंता जताई
जाने लगी है। उपराष्ट्रपति
जगदीप धनखड़ तो साफ-साफ शब्दों में
कह रहे हैं कि
सुप्रीम कोर्ट संविधान में खींची गई
सीमा से निकलकर विधायिका
और कार्यपालिका के कामकाज में
हस्तक्षेप कर रहा है।
उन्होंने यहां तक कहा
कि सुप्रीम कोर्ट ही अब कानून
बनाना चाहता है और वह
ऐसा कर भी रहा
है।
इधर, सोशल मीडिया
पर सुप्रीम कोर्ट के आदेशों और
टिप्पणियों की कड़ी आलोचना
हो रही है। वक्फ
कानून के खिलाफ दायर
याचिकाओं की सुनवाई में
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों पर
तो सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म
एक्स पर टॉप ट्रेंड्स
चल रहे हैं। इनमें
लोग एक से बढ़कर
एक उदहारणों के साथ दलीलें
दे रहे हैं कि
कैसे सुप्रीम कोर्ट देश की दो
सबसे बड़ी आबादी के
बीच भेद करता है।
सोशल मीडिया यूजर्स इस बात पर
हैरानी जता रहे हैं
कि जो सुप्रीम कोर्ट
राम मंदिर के प्रमाण मांग
सकता है, वही यह
कैसे कह सकते है
कि 14वीं-15वीं सदी की
मस्जिदों के कागज नहीं
मांगे जाने चाहिए! सुप्रीम
कोर्ट ने वक्फ कानून
के एक प्रावधान ’वक्फ
बाय यूजर’को नए
वक्फ कानून में हटा दिए
जाने पर सवाल खड़े
किए हैं। इस पर
सोशल मीडिया पूछ रहा है
कि जब वक्फ बाय
यूजर हो सकता है
तो मंदिर बाय यूजर, गिरिजाघर
बाय यूजर, गुरुद्वारा बाय यूजर क्यों
नहीं? हिंदू हितों की पैरवी करने
वाले वकील विष्णु शंकर
जैन कहते हैं कि
जब राम मंदिर का
प्रमाण मांगा गया तो मस्जिदों
का कागज क्यों नहीं
मांग जाए?
वक्फ एक्ट के
मसले पर सुप्रीम कोर्ट
ने कहा कि नए
वक्फ एक्ट के ज्यादातर
प्रावधान अच्छे हैं, लेकिन तीन
प्रावधानों पर सरकार को
सफाई देनी होगी। वक्फ
कानून का विरोध करने
वालों से भी सुप्रीम
कोर्ट ने पूछा कि
नया कानून किस तरह से
मुसलमानों के बुनियादी हकों
का हनन करता है।
सरकार से कोर्ट ने
कई सवाल पूछे..जैसे
कलेक्टर को इतने अधिकार
क्यों दिए? वक्फ बाई
यूजर प्रोविजन खत्म करने का
क्या असर होगा? वक्फ
कानून को चुनौती देने
वालों को उम्मीद थी
कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही दिन
इस कानून पर रोक लगा
देगा पर ऐसा हुआ
नहीं। वादियों को सिर्फ इस
बात पर संतोष करना
पड़ा कि कोर्ट ने
सरकार से सख्त सवाल
पूछे। कोर्ट ने वक्फ कानून
के विरोधियों की चितांओं पर
गौर किया। ऐसा लगा कि
सुप्रीम कोर्ट वक्फ कानून पर
कोई अन्तरिम आदेश जारी कर
सकता है। ये आदेश
मोटे तौर पर तीन
मुद्दों पर हो सकता
है। एक, वक्फ कौंसिल
और बोर्ड में
गैर मुसलमानों की नियुक्ति पर,
दूसरा, वक्फ के नए
कानून में कलेक्टर के
रोल और अधिकारों पर,
और तीसरा, वक्फ की प्रॉपर्टी
सीज करने के सरकार
के अधिकार पर। लेकिन अभी
तो बहस का शुरुआती
दौर है।
सुनवाई कर रही है तो हिंसा करने का क्या मतलब। जब सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही थी, उस वक्त भी पश्चिम बंगाल में हिंसा हुई। मुर्शिदाबाद में कुछ दुकाने जलाईं गईं, फिर कुछ घरों पर पथराव हुआ। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इमामों के एक सम्मेलन में कहा कि बंगाल में हिंसा करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा, दंगा करने वालों के खिलाफ पुलिस सख्त एक्शन लेगी। इसके बाद ममता बनर्जी ने बंगाल में हो रही हिंसा को बीजेपी की साजिश करार दिया। पश्चिम बंगाल में हो रही हिंसा को लेकर मैंने तृणमूल कांग्रेस के कई नेताओं के बयान सुने हैं। किसी ने कहा कि बीजेपी के इशारे पर बांग्लादेश से लोग आए और हिंसा करके भाग गए लेकिन उन्होंने ये नहीं बताया कि हिंसा करने वाले बांग्लादेशियों को पुलिस ने पकड़ा क्यों नहीं ? किसी ने कहा कि हिंसा करने वाले अच्छी खासी हिंदी बोल रहे थे, बीजेपी, बिहार से ट्रक भर-भरकर लाई और दंगा करवाया। अब इन लोगों से कोई पूछे कि जब बिहार से लोग ट्रकों में भर भरकर आ रहे थे, दंगा कर रहे थे तो बंगाल की पुलिस को कुछ दिखाई क्यों नहीं दिया? बीजेपी के नेता भी कम नहीं हैं। शुभेंदु अधिकारी योगी आदित्यनाथ का डर दिखा रहे हैं।राजनीति दोनों तरफ से हो रही है।आग दोनों तरफ लगी है।उसे बुझाने में किसी की दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि सब इस आग में अपना फायदा देख रहे हैं।
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