दुनिया को युद्ध के मुहाने पर ला खड़ा करेगी ट्रम्प की दादागिरी?
वैश्विक स्थिरता पर मंडराते अमेरिका की आक्रामक नीति के बादल मंडराने लगे हैं। डोनाल्ड ट्रम्प की नेतृत्व शैली भले ही अमेरिका के कुछ हिस्सों में लोकप्रिय हो, लेकिन उनका अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण दादागिरी, धमकी और दबाव की नीति दुनिया को युद्ध को मुहाने पर ला खड़ा दिखाई देने लगा है। जबकि दुनिया पहले से ही युद्ध, आतंकवाद, जलवायु संकट और आर्थिक अस्थिरता की मार झेल रही है. ऐसे में ट्रम्प की हालिया हरकते वैश्विक असंतुलन को और गंभीर बना सकती है। मतलब साफ है ट्रंप न तो शांति के दूत साबित हो रहे हैं और न ही पूर्ण युद्ध नेता, बल्कि वे एक ऐसे कूटनीतिक अभिनेता बन गए हैं जिनकी स्क्रिप्ट में शांति की कोई पंक्ति नहीं दिखती। उनका ‘दुविधा भरा नेतृत्व’ शायद दुनिया को उस मोड़ पर ले जा रहा है जहां से लौटना नामुमकिन होगा
सुरेश गांधी
ट्रम्प का “अमेरिका फर्स्ट“
एजेंडा जितना उनके देश के
लिए बना था, उतना
ही बाकी देशों के
लिए परेशानी का कारण बन
गया। नाटो देशों को
चेतावनी दी कि खर्च
बढ़ाओ वरना अमेरिका सुरक्षा
नहीं देगा। जलवायु समझौतों और अंतरराष्ट्रीय संधियों
से खुद को अलग
कर लिया। ईरान परमाणु समझौते
से हटना, मध्य-पूर्व में
अस्थिरता की बड़ी वजह
बना। चीन पहले ही
ताइवान को लेकर आक्रामक
है। ट्रम्प के दौर में
चीन से रिश्ते सबसे
निचले स्तर पर पहुंचे।
उनके आने से आशंका
है कि ताइवान मुद्दा
अमेरिका-चीन के बीच
सीधे टकराव का रूप ले
सकता है। ट्रम्प की
मध्य-पूर्व नीति ने फिलिस्तीनियों
को नाराज किया और इस्राइल
को खुला समर्थन दिया।
फिलिस्तीन में विरोध भड़का
और ईरान-इस्राइल के
रिश्ते और तल्ख हुए।
अब ट्रम्प की वापसी वहां
नई लड़ाई की आशंका
को बल दे रही
है। आज जब दुनिया
यूक्रेन युद्ध, ताइवान तनाव और पश्चिम
एशिया के संघर्ष से
जूझ रही है, ऐसे
में ट्रम्प जैसे नेता की
दादागिरी इसे और विस्फोटक
बना सकती है।
इजराइल-ईरान युद्ध के
बीच अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भूमिका पर
अब सवाल उठ रहे
हैं. उन पर इजराइल
को धोखा देने का
आरोप लग रहा है।
ट्रंप ने कहा है,
’मैं अगले दो हफ्तों
के भीतर जाने या
न जाने का फैसला
करूंगा।’ इस बीच, इजराइल
बिना अमेरिकी मदद के भी
ईरान के खिलाफ कार्रवाई
जारी रखे हुए है,
जबकि ईरान भी झुकने
को तैयार नहीं है। युद्ध
में अमेरिका के शामिल होने
को लेकर एक बड़ा
बयान सामने आया है. इस
बयान में कहा गया
है कि जंग में
शामिल होने का अंतिम
फैसला ट्रंप को लेना है.
वहीं, इजराइल ने स्पष्ट किया
है कि अमेरिका इस
युद्ध में शामिल हो
या न हो, वह
अपनी बेहतरी के लिए लगातार
काम करता रहेगा. ऐसे
में बड़ा सवाल तो
यही है क्या डोनाल्ड
ट्रंप ने ईरान के
सामने इजरायल को अकेला छोड़ा?
बता दें, इजरायल और
ईरान के बीच 10 दिनों
से जारी संघर्ष ने
दुनियाभर के देशों की
चिंता बढ़ा दी है.
इजरायल के हवाई हमलों
और ईरान के मिसाइल
हमलों के बीच विश्व
समुदाय युद्ध के विस्तार को
लेकर सतर्क है.
फिलहाल अमेरिकी सरकार अभी सीधे युद्ध
में शामिल नहीं हुई है,
इसके पीछे भारी आर्थिक
खर्च और कूटनीतिक पहल
बताया जा रहा है.
तर्क है अगर आप
युद्ध में उतरते हैं
तो हर दिन अरबों
रुपये खर्च होंगे. इजरायल,
पिछले दो सालों से
फिलिस्तीनी आतंकी संगठन हमास से लड़
रहा था और अब
वो पिछले 10 दिनों से ईरान से
जंग लड़ रहा है.
अभी की जो स्थिति
है उसमें इजरायल, ईरान के साथ
युद्ध में बहुत दिनों
तक टिक नहीं पाएगा,
क्योंकि ..इजरायल पहले से ही
फिलिस्तीन के साथ चल
रहे युद्ध में काफी खर्चा
कर चुका है. ईरान
के साथ युद्ध में
इजरायल हर दिन करीब
6 हजार 300 करोड़ रुपये खर्च
कर चुका है. फिलिस्तीन
युद्ध की वजह से
इजरायल पर पहले से
ही आर्थिक बोझ था, जो
ईरान युद्ध की वजह से
और बढ़ गया है.
इजरायल के वित्त मंत्रालय
का कहना है कि
साल 2025 में देश की
आर्थिक विकास दर का अनुमान
पहले 4.6 प्रतिशत लगाया था. लेकिन अब
उसे घटाकर 3.6 प्रतिशत कर दिया गया
है. युद्ध की वजह से
फैक्ट्रियों में प्रोडक्क्शन और
लोगों की प्रोडक्टिविटी में
कमी आई है, जिससे
आर्थिक विकास रुक गया है.
इजरायल की जीडीपी का
7 प्रतिशत हिस्सा रक्षा खर्च में जा
रहा है जो यूक्रेनके
बाद दूसरे नंबर पर है.
रक्षा खर्च बढ़ने से
बजट पर असर हो
रहा है.
अगर इजरायल-ईरान
में युद्ध परमाणु त्रासदी तक पहुंचा तो,
इस मौके का कई
देश फायदा उठाना चाहेंगे. सबसे पहले ईरान
के साथ खड़े चीन
और रशिया, अमेरिका से भिड़ जाएंगे.
अमेरिका और यूरोपीय देश
मिलकर ईरान, चीन और रशिया
पर मिसाइल अटैक कर सककर
सकते हैं, और इसके
जवाब में चीन और
रशिया भी मिसाइल हमले
करेंगे. ईरान भी इजरायल
पर बड़े हमले शुरू
कर देगा और इस
बार उसके साथ इजरायल
के पुराने दुश्मन भी होंगे. इजरायल
को हराने के लिए ईरान,
लेबनान, सीरिया और मिस्र एक
साथ हमला कर सकते
हैं. जिसमें मिस्र और लेबनान की
थल सेना, इजरायल के न्यूक्लियर फेसिलिटेज़ी
पर कब्जा करेंगी. उधर, ईरान और
लेबनान मिलकर तेल अवीव पर
मिसाइल हमले करते रहेंगे.
अमेरिका अपनी लड़ाई में
व्यस्त होगा, इसीलिए वो अपना ही
राग अलापता नजर आयेगा। सवाल
अब ये नहीं है
कि ट्रंप क्या करेंगे, सवाल
ये है कि क्या
दुनिया ट्रंप जैसे नेता को
युद्ध और शांति के
बीच संतुलन का सूत्रधार मान
सकती है? देखा जाएं
तो डोनाल्ड ट्रंप एक ऐसा नाम
है जो कभी अब्राहमिक
समझौतों के लिए नोबेल
पुरस्कार की चर्चा में
था, तो कभी मध्य-पूर्व की राजनीति में
एक तानाशाही दखल के लिए
बदनाम। लेकिन आज, जब इज़राइल
और ईरान युद्ध के
सबसे भयावह मोड़ पर हैं,
तब सवाल उठ रहा
है क्या ट्रंप वास्तव
में शांति दूत हैं या
यह जंग उनके लिए
वैश्विक मंच पर ’पुरस्कार’
पाने का मौका बन
चुके है? जबकि हालात
बता रहे है यह
सिर्फ एक पारंपरिक युद्ध
नहीं, बल्कि तीसरे विश्व युद्ध की संभावित प्रस्तावना
है।
जब मास्को सीधा
कह रहा है कि
“खामेनेई को कुछ हुआ
तो अमेरिका भुगतेगा”, और चीन भी
चुपचाप युद्ध-स्थितियों पर नज़र गड़ाए
बैठा है तो ट्रंप
की चुप्पी क्या विश्व को
युद्ध की आग में
झोंकने की तैयारी नहीं
तो और क्या है?
अगर युद्ध लंबा खिंचा, तो
इज़राइल के पास हथियार
खत्म होने की कगार
पर होंगे, और ईरान के
शीर्ष सैन्य नेतृत्व का संकट और
गहराएगा। चीन, रूस, तुर्किये
जैसे देश एक तरफ,
अमेरिका-इज़राइल दूसरी तरफ दुनिया फिर
से ‘कोल्ड वॉर’ 2.0 की ओर बढ़
सकती है। भारत सहित
एशिया के कई देश
संकट में घिर सकते
हैं, खासकर तेल कीमतों और
सुरक्षा चिंताओं को लेकर। मतलब
साफ है दुनिया एक
बार फिर युद्ध की
दहलीज़ पर खड़ी है।
ईरान और इज़रायल के
बीच जारी संघर्ष ने
10वें दिन भी अपनी
विनाशलीला को नहीं रोका।
इज़रायल के हमलों में
ईरान में अब तक
500 से अधिक लोगों की
मौत हो चुकी है,
जबकि ईरान के मिसाइल
और ड्रोन हमलों ने तेल अवीव
सहित इज़रायल के कई शहरों
को दहला दिया है।
इज़रायल ने एक बड़ा
सैन्य ऑपरेशन चलाकर ईरान की खतरनाक
सैन्य इकाई आईआरजीसी के
दो बड़े कमांडरों सईद
इजादी और बेहनाम शाहरियारी
को मार गिराया है।
जवाब में ईरान ने
बेत शीआन में ड्रोन
हमले कर भारी तबाही
मचाई है। इन हमलों
से स्पष्ट है कि यह
युद्ध सिर्फ एक सीमित टकराव
नहीं, बल्कि तीसरे विश्व युद्ध की भूमिका बनता
जा रहा है। ईरान
और इज़रायल की सीधी सरहद
नहीं है, लेकिन सीरिया
और इराक के वायुक्षेत्र
से होते हुए मिसाइल
और ड्रोन हमले जारी हैं।
यह अंतरराष्ट्रीय कानूनों की भी खुली
अवहेलना है।
इस संघर्ष का
असर सिर्फ इन दोनों देशों
तक सीमित नहीं है। यूक्रेन-रूस युद्ध पहले
से जारी है, और
अब यह तीसरा मोर्चा
खुलने से वैश्विक महाशक्तियां
दो खेमों में बंटती दिख
रही हैं. इस संघर्ष
का सबसे बड़ा खतरा
है तेल की कीमतों
में उछाल। पेट्रोलियम उत्पाद फिलहाल अपने न्यूनतम स्तर
पर हैं, लेकिन यदि
युद्ध लंबा चला तो
विशेषज्ञों का अनुमान है
कि कच्चे तेल की कीमतें
150 डॉलर प्रति बैरल तक जा
सकती हैं। इससे पूरी
दुनिया में महंगाई और
मंदी दोनों का खतरा बढ़
जाएगा। भारत के लिए
भी यह संकट चेतावनी
है। एक ओर वह
ईरान के साथ सदैव
मित्रवत संबंधों में रहा है,
तो दूसरी ओर इज़रायल से
रणनीतिक साझेदारी भी है। यदि
अमेरिका इस युद्ध में
उतरता है, तो भारत
के सामने कूटनीतिक संतुलन बनाए रखने की
कठिन चुनौती खड़ी हो जाएगी.
डोनाल्ड ट्रंप की भूमिका इस
पूरे घटनाक्रम में संदेह के
घेरे में है। उन्होंने
पहले गाजा पट्टी पर
इज़रायली हमले रोकने की
कोशिश की थी, लेकिन
ईरान के मसले पर
वे इज़रायल को खुली छूट
दे चुके हैं। इस
तरह उनकी रणनीति शांति
के बजाय टकराव को
बढ़ावा देने जैसी प्रतीत
हो रही है। यदि
यही स्थिति बनी रही, तो
न केवल मध्यपूर्व, बल्कि
सम्पूर्ण एशिया युद्ध की चपेट में
आ सकता है। इस
युद्ध के गंभीर परिणाम
होंगे. परमाणु खतरा, वैश्विक मंदी, नागरिक उड़ानों का अवरोध, और
कूटनीतिक गठजोड़ों में भारी उलटफेर।
ट्रम्प का “अमेरिका फर्स्ट“
एजेंडा एक राष्ट्रवादी नीति
थी, जिसमें अमेरिका के हितों को
सर्वोपरि रखते हुए वैश्विक
सहयोग की धारणा को
तिलांजलि दी गई। ट्रम्प
ने नाटो देशों पर
रक्षा खर्च बढ़ाने का
दबाव बनाया और कहा कि
“अगर वे खर्च नहीं
करेंगे, तो हम उनकी
सुरक्षा की गारंटी नहीं
देंगे।“ इससे यूरोप में
अमेरिका की विश्वसनीयता पर
सवाल खड़े हो गए।
ट्रम्प का 2018 में इस समझौते
से हटना मध्य-पूर्व
में तनाव का बड़ा
कारण बना। “लिटिल रॉकेट मैन“ जैसे अपमानजनक
शब्दों और न्यूक्लियर बटन
की धमकी से दुनिया
थर्रा उठी थी।
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