“जब चौथा स्तंभ असुरक्षित हो, तो लोकतंत्र कितना मजबूत रहेगा?”
भारत का लोकतंत्र तीन संवैधानिक स्तंभों : विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका : पर आधारित है। परंतु इसकी असली आत्मा वह चौथा स्तंभ है, जिसकी कलम सच को उजागर करती है : पत्रकारिता। दुर्भाग्य यह है कि आज यही स्तंभ सबसे अधिक उपेक्षित, असुरक्षित और आर्थिक रूप से जर्जर है। जहां अन्य स्तंभों के लिए सरकार वेतन आयोग, पेंशन, बीमा और सुरक्षा योजनाएं निर्धारित करती है, वहीं पत्रकारिता से जुड़े हजारों लोग अपनी जान जोखिम में डालकर काम करते हैं : बिना किसी संस्थागत संरक्षण या सरकारी सुरक्षा के। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है जब विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को वेतन, पेंशन व सुरक्षा से लेकर सभी सुविधाएं मुहैया है तो पत्रकारों को क्यों नहीं? जब चौथा स्तंभ खुद खतरे में हो, तो लोकतंत्र की दीवारें कैसे टिकेंगी? जब पत्रकार ही असुरक्षित हैं, तो जनता तक सच कैसे पहुँचेगा? संवैधानिक दृष्टिकोण से भी देखें तो क्या पत्रकारिता को चौथे स्तंभ का दर्जा मिला है? जब देश के अन्य स्तंभों के लिए सुरक्षा और कल्याण योजनाएं तैयार की जा सकती हैं, तो पत्रकारों के लिए क्यों नहीं? खास तो यह है कि आवाज़ जो लोकतंत्र की सांस थी, अब चीख बनती जा रही है... हाल यह है कि सत्ता से सवाल पूछने वाली कलम, अब खुद उत्तर ढूंढ रही है : सुरक्षा, सम्मान और संरचना के लिए...
सुरेश गांधी
लोकतंत्र के तीन संवैधानिक स्तंभ : विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका : संविधान से तय हैं। लेकिन चौथा स्तंभ : पत्रकारिता : एक ऐसा प्रहरी है, जिसकी जिम्मेदारी न केवल सूचना देना है, बल्कि सत्ता से जवाब भी मांगना है। विडंबना देखिए, जो आवाज़ हर पीड़ित की आवाज़ बनती है, वही आवाज़ आज अपनी सुरक्षा के लिए चीख रही है। सत्ता को आइना दिखाने वाली कलम अब खुद बेआवाज़, बेसहारा और बेपरवाह सिस्टम की शिकार होती जा रही है। पिछले 5 वर्षों में भारत में 156 पत्रकारों पर हमले, जिनमें 30 से अधिक की मौत। 2023 में भारत प्रेस की स्वतंत्रता में 161 देशों में 159वें स्थान पर रहा। 80 फीसदी पत्रकार ठेके, पार्ट टाइम या फ्रीलांस पर, जिन्हें कोई संस्थागत सुरक्षा नहीं। कोविड काल में अकेले उत्तर प्रदेश, बिहार, एमपी में 9000 पत्रकारों को नौकरी से निकाला गया, जिनमें से सिर्फ 600 को आंशिक मुआवजा मिला। बता दें, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को सुरक्षा और अन्य सुविधाएं प्रदान करने के पीछे मुख्य कारण उनकी संवैधानिक भूमिका और स्वतंत्रता की रक्षा करना है। इन अंगों की निष्पक्षता और स्वतंत्रता लोकतंत्र के लिए आवश्यक हैं। जबकि पत्रकार लोकतंत्र के एक महत्वपूर्ण स्तंभ हैं, उनकी सुरक्षा और स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सरकारों, मीडिया मालिकों और समाज की होती है,
बावजूद इसके उसे कोई सुविधा, सुरक्षा नहीं है, जबकि सियासी पार्टियां सार्वजनिक मंचों से कहते नहीं अघाते पत्रकार देश के चौथा स्तंभ है। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है जब पत्रकार देश के चौथा स्तंभ है तो न्याय पालिका, कार्यपालिका व विधायिका की तर्ज पर उन्हें सुविधाएं क्यों नहीं दी जाती?
आज यह सवाल बेमानी नहीं कि जब न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका को हर प्रकार की सरकारी सुरक्षा और सुविधाएं प्राप्त हैं, तो पत्रकार : जो इन तीनों की निगरानी और आलोचना करता है : उसे सुरक्षा क्यों नहीं? जब पत्रकार मारा जाता है, तो केवल एक व्यक्ति नहीं मरता : सच की उम्मीद, जनता की आवाज़ और लोकतंत्र की सांस दम तोड़ती है। सरकारें अगर अब भी नहीं जागीं, तो अगला खतरा सिर्फ पत्रकारों का नहीं होगा, हम सबका होगा। काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष अत्री भारद्वाज कहते है “जब कलम खामोश हो जाए, तो लोकतंत्र की आत्मा भी मर जाती है” पत्रकारों की सुरक्षा नहीं, तो जनता की सच्चाई भला कैसे उजागर होगी? भारतीय संविधान में पत्रकारिता को अलग से “चौथे स्तंभ” के रूप में मान्यता नहीं दी गई है, लेकिन अनुच्छेद 19(1)(एं) के अंतर्गत “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता“ का अधिकार प्रेस की स्वतंत्रता का मूल आधार है। लेकिन समस्या यह है कि न तो भारतीय संसद ने अब तक “प्रेस स्वतंत्रता कानून” पारित किया है। न ही पत्रकारों को न्यायपालिका या विधायिका की तरह संवैधानिक संरक्षण मिला है।
सुप्रीम
कोर्ट ने कई बार
प्रेस की भूमिका की
सराहना की है, लेकिन
उनके लिए कोई संस्थागत
सुरक्षा तंत्र नहीं बनाया गया।
उनका कहना है कि
प्रेस की आज़ादी को
लोकतंत्र की आत्मा बताया
गया। लेकिन अब सवाल यह
है : जब न्यायपालिका खुद
प्रेस को लोकतंत्र का
प्राण कहती है, तो
प्राण की रक्षा का
कोई तंत्र क्यों नहीं है? “आवाज़
जो लोकतंत्र की सांस थी,
अब चीख बनती जा
रही है“ काशी पत्रकार
संघ के नवनिर्वाचित अध्यक्ष
अरुण मिश्रा ने कहा, लोकतंत्र
का वास्तविक मूल्य केवल चुनावों या
संसद की बहसों में
नहीं, बल्कि उस निर्भीक पत्रकार
की लेखनी में है जो
तमाम दबावों, धमकियों और प्रलोभनों के
बावजूद जनता के हक़
की बात करता है।
पत्रकार लोकतंत्र का दर्पण हैं, और जब यह दर्पण टूटता है तो समाज का चेहरा विकृत हो जाता है। आज यह प्रश्न केवल भावनात्मक नहीं, ठोस और नीतिगत है : क्या भारत का लोकतंत्र पत्रकारों के बिना जीवित रह सकता है? पत्रकार की सुरक्षा केवल एक पेशेवर की नहीं, बल्कि एक संपूर्ण लोकतांत्रिक प्रणाली की सुरक्षा है। यदि वह असुरक्षित रहेगा, तो सत्ता निरंकुश होगी, विपक्ष बेजुबान होगा और जनता गुमराह। अब वक्त है कि भारत “मीडिया फ्रेंडली” नहीं बल्कि “पत्रकार-सुरक्षित लोकतंत्र” बने। कलम की स्याही जब खून से रंगने लगे तो यह केवल खतरा नहीं, लोकतंत्र का मातम होता है।
सीनियर पत्रकार राधारमन चित्रांसी ने कहा कि लोकतंत्र की परिभाषा अक्सर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के त्रिकोणीय संतुलन से की जाती है, लेकिन भारत जैसे विशाल और विविधता भरे राष्ट्र में यह संतुलन अधूरा है जब तक उसमें पत्रकारिता : चौथा स्तंभ : की दमदार भूमिका शामिल न हो। पत्रकार वही हैं जो लोकतंत्र को सांस देते हैं, जनभावनाओं को स्वर देते हैं, और सत्ता के हर गलियारे में सवाल लेकर पहुंचते हैं। मगर सवाल ये है कि क्या यह चौथा स्तंभ अब खुद ही वेंटिलेटर पर नहीं है? विधायकों, न्यायधीशों और अधिकारियों को मिलने वाली सुरक्षा, वेतन, पेंशन, विशेषाधिकार और भत्तों की लंबी सूची है। वहीं पत्रकारों को जो कुछ मिलता है, वह है : निश्चित वेतन का अभाव, पेंशन का कोई वजूद नहीं, बीमा की सुविधा नहीं, और नौकरी की गारंटी तो दूर की बात है। जब विधायिका सवालों के घेरे में होती है, कार्यपालिका का अमल ढीला पड़ता है या न्यायपालिका मौन हो जाती है : तब भी पत्रकार ही होते हैं जो जनता के भरोसे को थामे रहते हैं। पर क्या पत्रकारों के जीवन की कोई कीमत नहीं? क्या लोकतंत्र केवल सत्ता की कुर्सियों तक सीमित है?

ज़मीनी सच्चाइयां, जो सत्ता के दावों की पोल खोलती हैं
सच के साथ
खड़ा होना : अब जीवन जोखिम
पर है, उदाहरण बहुत
हैं और चौंकाते हैंः
बलिया
(यूपी,
2021)ः
भू-माफिया के खिलाफ रिपोर्टिंग
कर रहे पत्रकार राकेश
सिंह को जिंदा जला
दिया गया।
बिहार
: पत्रकार चंदन तिवारी की
हत्या : उसका गुनाह था
कि वह मनरेगा में
भ्रष्टाचार उजागर कर रहा था।
छत्तीसगढ़
: 2015 से अब तक 17 से
अधिक ग्रामीण पत्रकार माओवादियों और पुलिस के
बीच पिस चुके हैं।
मध्य
प्रदेश
: पत्रकार सुशील पांडे पर खनन माफिया
का हमला : आज तक न्याय
नहीं।
इन मामलों में
पीड़ित परिवारों को न कोई
सरकारी सहायता मिली, न न्याय। केवल
एक ठंडी सी पंक्ति
: “मामले की जांच जारी
है...“
संस्थागत बेरुखीः ‘वो हमारा स्थायी कर्मचारी
नहीं था’संक्रमण, चुनाव, प्राकृतिक आपदाओं से लेकर सांप्रदायिक तनाव तक : हर बार पत्रकार सबसे आगे रहते हैं। लेकिन जब संकट आता है, तो वही मीडिया संस्थान कहते हैं : “वह हमारा स्थायी कर्मचारी नहीं था...जबकि “सत्ता और रीडरशिप की रेस में प्रिंट, टीवी और डिजिटल सभी में पत्रकार की जान, परिवार और भविष्य सब दांव पर होता है, लेकिन संस्थानों की जवाबदेही लगभग नगण्य रहती है। ऐसे में सवाल यह है कि जब पत्रकार संस्थान के लिए काम करता है, तो उससे ‘ब्रांड’ की रक्षा की उम्मीद की जाती है। लेकिन जब हमला होता है, तब वही संस्थान पलड़ा झाड़ लेते हैं। कोविड के दौरान जिन संस्थानों ने व्यूअरशिप से करोड़ों कमाए, उसमें कई प्रतिष्ठित मीडिया हाउसों ने बिना किसी सूचना के पत्रकारों को बिना किसी सूचना के बाहर निकाल दिया। न कोई बीमा, न मुआवजा, न ही पुनर्वास की कोई नीति। पत्रकारों को संस्थानों से ‘सिर्फ़ काम’, सरकार से ‘सिर्फ़ वादे’ और समाज से ‘सिर्फ़ मौन’ मिलता है। काशी पत्रकार संघ के नवनिर्वाचित महामंत्री जितेन्द्र श्रीवास्तव कहते है आज देश में पत्रकारिता सिर्फ कलम की लड़ाई नहीं रह गई है, यह अब जान की बाज़ी बन गई है। जो घटनाएं हुई है उन मामलों में “मामले की जांच जारी है” जैसी सरकारी भाषा पीड़ित परिवारों की उम्मीदों का मज़ाक उड़ाती है। आज पत्रकारों से अपेक्षा की जाती है कि वो किसी भी हाल में “ब्रांड इमेज” की रक्षा करें, लेकिन जब संकट आता है, तो वही संस्थान उन्हें “ठेके पर काम करने वाला“ कह कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। कोविड काल इसका क्रूरतम उदाहरण है : हज़ारों पत्रकारों को नौकरी से निकाला गया। किसी को मुआवज़ा नहीं मिला, न बीमा, न भविष्य निधि। यह सिद्ध कर दिया
गया कि पत्रकारिता ’सिस्टम के लिए अनिवार्य’, पर खुद पत्रकार ’बेहद विवश’ हैं। एक पत्रकार की हत्या केवल एक व्यक्ति की मृत्यु नहीं होती, वह सच की हत्या होती है। वह लोकतांत्रिक विमर्श की मौत होती है। जब पत्रकार डरकर लिखेगा, तब जनता अंधेरे में जीएगी। और जब जनता अंधेरे में जीएगी, तो लोकतंत्र सिर्फ कागज़ों पर बचा रह जाएगा.अनुच्छेद 19(1)(ए) पत्रकारों को
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता
है, पर यह व्यवहारिक
सुरक्षा नहीं देता। मतलब
साफ है न कोई
अलग पत्रकार सुरक्षा कानून है, न ही
कोई स्वतंत्र न्यायिक आयोग। प्रेस कौंसिल आफ इंडिया जैसे
संस्थान केवल “सिफारिश“ कर सकते हैं,
उनके पास दंड देने
का अधिकार नहीं। नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन के सामने पत्रकारों
पर हमलों की सुनवाई लंबित
रहती है : फैसले नदारद।
सुप्रीम कोर्ट भले प्रेस को
लोकतंत्र की आत्मा मानता
हो, लेकिन सरकारें उसे सुरक्षा देने
में कंजूसी बरतती हैं।
कुछ राज्य सरकारों की पहल, लेकिन अधूरी
छत्तीसगढ़ की ग्रामीण पत्रकार
सुरक्षा योजना : अभी तक केवल
कागज़ों में।
महाराष्ट्र की पत्रकार शहीद
योजना : न फंडिंग स्पष्ट,
न प्रक्रिया।
झारखंड, ओडिशा ने प्रस्तावित पत्रकार
सुरक्षा विधेयक तैयार किया, लेकिन पास नहीं किया।
अब क्या जरूरी है?
अब बात सुझावों
की नहीं, व्यवस्था बदलने की है। सरकार,
संस्थान और समाज को
मिलकर निम्न कदम उठाने होंगेः
1. राष्ट्रीय पत्रकार सुरक्षा कानून लाया जाए, जो
पत्रकारों पर हमले को
गैर-जमानती अपराध घोषित करे।
2. पत्रकार कल्याण कोष : हमले या मौत
की स्थिति में पीड़ित परिवार
को 10 लाख तक मुआवजा।
3. पत्रकार बीमा योजना लागू
हो जिसमें सभी पंजीकृत और
स्वतंत्र पत्रकार कवर हों।
4. स्थायी मान्यता नीति : जिला स्तर तक
काम करने वाले पत्रकारों
को उचित वेतन और
सुविधा के अलावा सेवा
सुरक्षा नीति लागू की
जाए।
5. पत्रकार न्याय आयोगः शिकायतों की स्वतंत्र जांच
के लिए संवैधानिक निकाय।
यानी स्वतंत्र पत्रकार सुरक्षा आयोग गठित किया
जाए, जो हमलों की
निगरानी और रिपोर्टिंग करे।
6 : आपदा, युद्ध, चुनाव और आपराधिक विषयों
पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों
को विशेष जोखिम भत्ता मिले
7 : मीडिया संस्थानों को कानूनी रूप
से अपने पत्रकारों की
सुरक्षा की जिम्मेदारी देनी
चाहिए
कुछ कड़वे तथ्यः
भारत में 2023 तक
150 से अधिक पत्रकारों पर
हमले, जिनमें 26 की हत्या। 85 फीसदी
पत्रकार संविदा या फ्रीलांस पर,
जिनके पास कोई बीमा,
पेंशन या सुरक्षा गारंटी
नहीं। 12,000 से अधिक पत्रकार
कोविड के दौरान नौकरी
से निकाले गए, मुआवजा केवल
7 फीसदी को। 40 फीसदी स्थानीय संवाददाता अपने संसाधनों से
रिपोर्टिंग करते हैं, बिना
संस्थागत सहयोग के। पंजाब-हरियाणा
चुनावी व किसानों के
मुद्दों पर रिपोर्टिंग में
हिंसा की खबरे आई,
लेकिन कोई अलग पत्रकार
सुरक्षा पहल के बजाय
लगातार उत्पीड़न हो रहा है।
यह रवैया सिर्फ अमानवीय नहीं, बल्कि पेशेवर धोखा भी है।
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी पत्रकारों
पर केस दर्ज होते
रहते है। वाराणसी मंडल
में 2020-23 तक कोविड के
चलते 31 पत्रकारों की मृत्यु, जिनमें
से केवल 5 को सरकारी सहायता
मिली। यूपी प्रेस क्लब
रिपोर्ट के अनुसार, 70 फीसदी
पत्रकार किसी प्रेस मान्यता
सूची में शामिल नहीं,
फिर भी वे रोज
जान जोखिम में डालते हैं।
काशी की ज़मीन से उठता एक कड़ा सवाल
यह शहर सिर्फ
प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र
नहीं, यह बुद्ध और
तुलसी की नगरी भी
है : जहाँ विचार, प्रश्न
और सत्य की परंपरा
रही है। अगर यहीं
के पत्रकार असुरक्षित हैं, तो सवाल
पूरे लोकतंत्र की आत्मा पर
खड़ा होता है। काशी,
जहां ज्ञान की मशालें जलती
हैं, वहीं से आज
एक सवाल उठता हैकृक्या
वह कलम, जो अंधेरे
में सच की रोशनी
देती है, अब खुद
अंधेरे में क्यों डूबी
है? वाराणसी, भदोही, बलिया, मऊ, गाजीपुर से
लेकर लखनऊ, प्रयागराज तक पत्रकार आज
केवल खबरें नहीं लिख रहे,
बल्कि अपनी सुरक्षा की
फरियाद भी कर रहे
हैं। और दुर्भाग्य देखिए,
उनकी आवाज़... अखबारों में छपती है,
लेकिन सरकारों के कानों तक
नहीं पहुँचती। कहने का अभिप्राय
है जब कलम ही
असुरक्षित हो जाए, तो
लोकतंत्र की सांसें रुकने
लगती हैं. वाराणसी से
बलिया तक, पत्रकारों की
अनसुनी चीख लोकतंत्र के
लिए चेतावनी है.
सरकारों की चुप्पी : लोकतंत्र
के लिए खतरनाक संकेत
जब एक पुलिसकर्मी
पर हमला हो, तो
तत्काल कड़ी धाराओं में
केस दर्ज होता है।
किसी विधायक या अफसर को
धमकी मिले, तो तत्काल सुरक्षा
दी जाती है। पर
जब एक पत्रकार पर
हमला होता है तब
एफआईआर दर्ज करने तक
की हिम्मत थाने नहीं जुटा
पाते।
क्यों नहीं पत्रकारों के लिए भी
‘ऑन ड्यूटी प्रोटेक्शन लॉ’ है?
क्यों नहीं मीडिया कर्मियों
के लिए पेंशन, बीमा
और दुर्घटना मुआवजा जैसी आधारभूत योजनाएँ
अनिवार्य की गई हैं?
जबकि एक लोकतंत्र तभी
स्वस्थ कहलाता है जब उसके
प्रहरी सुरक्षित हों। और जब
चौथा स्तंभ ही असुरक्षित हो
जाए, तो सत्ता के
पास यह कहने का
नैतिक अधिकार नहीं रह जाता
कि देश लोकतांत्रिक है।
अब वक्त श्रद्धांजलि देने
या सोशल मीडिया पर
लिखने का नहीं, नीतिगत
और कानूनी हस्तक्षेप का है। “जब
पत्रकार की मौत पर
बस दो लाइन की
खबर छपती है, तब
लोकतंत्र की आत्मा रोती
है।”
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