Sunday, 13 January 2019

मोदी के ‘चक्रव्यूह’ में हवा हो जायेगी ‘बुबा-बबुआ’ गठबंधन


मोदी केचक्रव्यूहमें हवा हो जायेगीबुबा-बबुआगठबंधन
चुनाव कोई भी हो जीत की राह आसान नहीं होती। इसके लिए नेताओं को हाडतोड़ मेहनत करनी प़ती है। लेकिन जिस तरह अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे बुआ-बबुआ का मेल हुआ है वह सिर्फ और सिर्फ मेदी के डर का गठबंधन है उससे अधिक कुछ भी नहीं। बुआ-बबुआ जिस मुस्लिम मतों के सहारे अपनी जीत की दावा ठोक रहे है वो 2014 में भी इन्हीं दोनों के पाले में पूरी एकजुटता से था, परिणाम मोदी के पक्ष में ही गया। जहां तक 2019 का सवाल है दोनों के साथ आने सीटों के बटवारे में तैयारियों में जुटे नेताओं को निराशा हाथ लगी है और वे बगली ताकझाक में लगे है वो यह बताने के लिए काफी है कि सबकुछ ठीक नहीं है। रही सही कसर कांग्रेस, चाचा शिवपाल समेत बाकी के क्षेत्रीय पार्टिया पूरी कर देगी। मतलब साफ है मोदी केचक्रव्यूहमें हवा हो जायेगीबुबा-बबुआगठबंधन। 
                   सुरेश गांधी
फिरहाल, यूपी में विपक्ष का एनडीए को लोकसभा चुनावों में मात देने का मास्टरप्लान तैयार है। अखिलेश यादव और मायावती की जोड़ी ने मोदी लहर की काट निकालने की कोशिश की है। कांग्रेस अपने दम पर चुनाव मैदान में उतरने का ऐलान की है। चाचा शिवपाल कहते है क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर वे ही भाजपा को हरायेंगे। कौन किसकों हरायेगा ये तो सभी दलों के मैदान में आने के बाद पता चलेगा। लेकिन जिस फूलपुर गोरखपुर उपचुनाव को आधार बनाकर बुआ-बबुआ सूबे के सभी सीटों पर जीत का दावा ठोक रहे है शायद वो भूल रहे है कि भाजपा की अंदुरुनी कलह और सवर्ण मतों का बूथों पर ना जाना हार की वजह थी। जहां तक मुसलमानों का एकमुश्त वोट उनके पक्ष में होने का सवाल है तो वो पहले भी था। 2014 में भी मुस्लिम मत बिना बटें जो मजबूत स्थिति में बसपा हो या बसपा एकबगा ही उसके पक्ष में गया। दलित, यादव या अन्य पिछड़ी जातियों का मानना है कि बात जब यूपी की होगी तो देखा जायेगा, अभी राष्ट्र की सुरक्षा, देश की अस्मिता और भ्रष्ट्राचार पर नकेल कसने का सवाल है इसलिए मोदी ही उनकी प्राथमिकता में हैं। मायावती भूल गयी जब यही सपाई गुंडे थानों में बैठकर दलितो, व्यवापारियों का दोहन कर रहे थे। लोग पूछेंगे कहा गया वो नारा जिसे खुद मायावती कहती थीचढ़ गुंडों की छाती पर मुहर लगाओं हाथी पर वो भूल गयी है किस तरह अखिलेश भ्रष्ट आइएएस चंद्रकला, अमृत त्रिपाठी जैसे अधिकारी गायत्री प्रजापति जैसे बलातकारी खनन माफियाओं को संरक्षण देते रहे। ऐसे में सवाल तो यही है अखिलेश-मायावती के गठबंधन के बाद क्या मुसलमान रोकेंगे मोदी का विजय रथ?
हो जो भी सच तो यही है लोकसभा चुनाव 2019 से पहले यूपी में सपा और बसपा दोनों की नजर दलित, ओबीसी और खास तौर पर मुस्लिमों वोटों पर है। यूपी में 19.5 फीसदी मुस्लिम वोटर हैं। दोनों का मानना है कि इससे पहले इनका वोट सपा और बसपा में बंट जाता था। इसका फायदा बीजेपी को मिलता था। अब दोनों के साथ आने से दलित- ओबीसी गठजोड़ ताकतवर तो बनेगा ही मुसलमान वोटर भी निर्णायक भूमिका में नजर आएंगे। कयास लगाएं जा रहे है कि इस गठबंधन से पिछड़े-दलित और मुसलमानों में एकजुटता की संभावना बढ़ गई, जो कहीं कहीं बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती होगी। बता दें, साल 2011 के जनगणना के मुताबिक यूपी में 19.5 फीसदी मुसलमान वोटर हैं। सूबे में 38 जिलों और 27 लोकसभा की सीटों पर मुसलमानों की निर्णायक आबादी है. 125 विधानसभा सीटों पर मुस्लिमों की पकड़ तगड़ी है। साल 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने मुस्लिम वोटों में सेंधमारी की थी। लोकसभा चुनाव में करीब 10 फीसदी और विधानसभा चुनाव में करीब 17 फीसदी मुस्लिमों ने बीजेपी को वोट दिया था। लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 42.63 फीसदी, सपा को 22.35 फीसदी और बसपा को 19.77 फीसदी वोट मिले थे।
बता दें, इसी तरह से 1993 में मुलायम सिंह यादव और कांशीराम ने गठबंधन करके बीजेपी को मात दी थी। हालांकि 25 साल के बाद अखिलेश और मायावती के लिए पहले जैसे नतीजे दोहराना एक बड़ी चुनौती है। 1993 से लेकर 2019 तक गंगा-गोमती और यमुना में बहुत पानी बह चुका है। यही वजह है कि माया-अखिलेश वाले इस गठबंधन के लिए 25 साल पहले जैसे नतीजे दोहराना बड़ी चुनौती माना जा रहा है। दरअसल सपा-बसपा ने 25 साल पहले जब हाथ मिलाया था वह दौर मंडल का था, जिसने सूबे के ही नहीं बल्कि देश के पिछड़ों को एक छतरी के नीचे लाकर खड़ा कर दिया था। मुलायम सिंह यादव ओबीसी के बड़े नेता बनकर उभरे थे और राम मंदिर आंदोलन के चलते मुस्लिम मतदाता भी उनके साथ एकजुट था। इसके अलावा कांशीराम भी दलित और ओबीसी जातियों के नेता बनकर उभरे थे। ऐसे में जब दोनों ने हाथ मिलाया तो सामाजिक न्याय की उम्मीद जगी थी। इसी का नतीजा था कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भी बीजेपी सत्ता में वापसी नहीं कर पाई थी। हालांकि ये गठबंधन 1995 में टूट गया, जिसके बाद यादव और दलितों के बीच एक गहरी खाई पैदा हो गई। सूबे में इस समय 22 फीसदी दलित वोटर हैं, जिनमें 14 फीसदी जाटव और चमार शामिल हैं। ये बसपा का सबसे मजबूत वोट है। जबकि बाकी 8 फीसदी दलित मतदाताओं में पासी, धोबी, खटीक मुसहर, कोली, वाल्मीकि, गोंड, खरवार सहित 60 जातियां हैं। वहीं, 45 फीसदी के करीब ओबीसी मतदाता हैं. इनमें यादव 10 फीसदी, कुर्मी 5 फीसदी, मौर्य 5 फीसदी, लोधी 4 फीसदी और जाट 2 फीसदी हैं। बाकी 19 फीसदी में गुर्जर, राजभर, बिंद, बियार, मल्लाह, निषाद, चौरसिया, प्रजापति, लोहार, कहार, कुम्हार सहित 100 से ज्यादा उपजातियां हैं। 19 फीसदी के करीब मुस्लिम हैं।
बीजेपी यूपी में अपने जनाधार को बढ़ाने के लिए 2014 और 2017 के विधानसभा चुनाव में गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों को अपने साथ मिलाने में कामयाब रही है। इसी का नतीजा है कि पहले लोकसभा और फिर विधानसभा में बीजेपी के सामने सपा-बसपा पूरी तरह से धराशाही हो गई थीं। बीजेपी ने सत्ता में आने के बाद सरकार में इन दलित ओबीसी जातियों को हिस्सेदार भी बनाया है। इतना ही नहीं ओबीसी को मिलने वाले 27 फीसदी आरक्षण को भी बीजेपी तीन कैटेगरी में बांटने की रणनीति पर काम कर रही है। ऐसे में सपा-बसपा गठबंधन के लिए सबसे बड़ी चुनौती इन दलित और ओबीसी जातियों को अपने साथ जोड़ने की होगी। जबकि सपा बसपा पर आरोप लगता रहा है कि वे यादव, मुस्लिम और जाटवों की पार्टी हैं। जबकि मौजूदा राजनीति में गैर-यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों के अंदर भी राजनीतिक चेतना जागी है, ऐसे में इन्हें साधे बिना बीजेपी को मात देना अखिलेश और मायावती के लिए टेढ़ी खीर होगा।
अगर सपा और बसपा का वोट प्रतिशत जोड़ दिया जाए तो आकड़ा 42.12 फीसदी तक पहुंच जाता है। वहीं, विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 40 फीसदी (312 सीट), सपा को 22 फीसदी (47 सीट) और बसपा को 22 फीसदी (17 सीट) वोट मिले थे। यानि सपा और बसपा को 44 फीसदी वोट मिले थे। इन दोनों चुनाव के बाद हुए उपचुनावों में सपा और बसपा साथ गए थे। नतीजा हुआ कि बीजेपी को अपने गढ़ में करारी हार झेलनी पड़ी। फूलपुर उपचुनाव में सपा-बसपा को 47 फीसदी और बीजेपी को 39 फीसदी, कैराना में सपा-बसपा को 51 फीसदी और बीजेपी को 46 फीसदी, गोरखपुर में सपा-बसपा को 49 फीसदी और बीजेपी को 47 फीसदी वोट मिले थे। भदोही के सलीम अंसारी कहते है वे गठबंधन को वोट देंगे। पूछने पर कहते है पहले भी वे सपा बसपा दोनों में उसी को वोट देते रहे जो बीजेपी को हराने की स्थिति में थे। मुसलमान कभी बटता नहीं। जबकि नसीर कहते है कांग्रेस को लिए बगैर बुआ बबुआ बीजेपी नहीं हरा पाएंगे। यह भी सच्चाई है कि यूपी में मुसलमानों की बड़ी आबादी होने के बावजूद 2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी मुस्लिम संसद नहीं पहुंच सका। यह अलग बात है कि तीन तलाक के नाम पर अब बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाएं बीजेपी के पक्ष में है।
दोनों के गठबंधन बाद अब चर्चा ये है कि कौन सी सीट किस दल के खाते में जाएगी। नेताओं और कार्यकर्ताओं से लेकर समर्थकों के बीच इस सवाल को लेकर चर्चा का बाजार गर्म है। संभवतः इसकी सार्वजनिक घोषणा बसपा सुप्रीमो मायावती के 15 जनवरी को जन्मदिन के मौके पर या इसके एक-दो दिन के भीतर कर दी जाएगी। लेकिन चुनाव तैयारियों में जुटे दोनों दलों के नेताओं की धुकधुकी बड़ गयी है। कुछ तो मानकर चल रहे है कि उनकी सीट उनके दल में नहीं आयेगी। ऐसे में वे दुसरे दलों के तरफ भी ताकझाक करने में जुटे है। माना जा रहा है कि ऐसे नाराज नेता बीजेपी कांग्रेस या शिवपाल के संपर्क में हैं। उनका दावा है कि वे जिस दल से आयेंगे सीट उसी के झोली में जायेगी। वैसे भी यादव समाज के अधिकांश यही कह रहे है उनकी पहली प्राथमिकता अखिलेश है लेकिन जब उनकी सीट पर दल का कोई नहीं होगा तो वे शिवपाल के नेता को अपना वोट करेंगे। क्योंकि यह वजूद का चुनाव है प्रधानमंत्री तो ना अखिलेश को बनना है और ना शिवपाल को। या यूं कहे यूपी में सपा-बसपा के बीच गठबंधन के सामने सबसे बड़ी चुनौती वोटों को ट्रांसफर की है। जिन सीटों पर सपा लड़ रही है, वहां बसपा का वोट तो ट्रांसफर हो सकता है, लेकिन जिन सीटों पर बसपा लड़ रही है वहां सपा के वोट ट्रांसफर होना मुश्किल हो सकता है। तीसरा सबसे बड़ा चैलेंज जिन सीटों पर गठबंधन से मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव लड़ेंगे, उन सीटों पर सपा और बसपा अपने वोटरों को कैसे ट्रांसफर कराएंगे? क्योंकि मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की ज्यादा संभावनाएं रहती हैं। गौरतलब है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में यूपी की 80 संसदीय सीटों में से बीजेपी गठबंधन में 73 सीटें जीतने में सफल रही थी और बाकी 7 सीटें विपक्ष को मिली थीं। बीजेपी को 71, अपना दल को 2, कांग्रेस को 2 और सपा को 5 सीटें मिली थीं। बसपा का खाता तक नहीं खुल सका था। हालांकि सूबे की 3 लोकसभा सीटों पर उपचुनाव हुए हैं, जिनमें से 2 पर सपा और एक पर आरएलडी को जीत मिली थी। इस तरह बीजेपी के पास 68 सीटें बची हैं और सपा की 7 सीटें हो गई हैं।
इधर, सपा-बसपा गठबंधन की कवायद के बीच कांग्रेस ने प्लान बी पर काम शुरू कर दिया है। कांग्रेस ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश की लोकसभा सीटों के लिए इमरान मसूद को जिम्मेदारी सौंपी है और इस काम में भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आजाद भी कांग्रेस का साथ देंगे। इसके अलावा शिवपाल यादव के साथ भी कांग्रेस ने गठबंधन की संभावनाएं तलाशना शुरू कर दिया है। पश्चिमी यूपी में कांग्रेस दलित-मुसलमान और किसान का समीकरण बनाकर 2019 के सियासी जंग फतह करना चाहती है। पश्चिम यूपी में मेरठ और सहारनपुर मंडल की 8 लोकसभा सीटों में 7 सीटें चिन्हित की हैं जिन पर वह दलित-मुसलमान और किसान के समीकरण पर काम कर रहे हैं। बता दें कि पश्चिम यूपी में 21 लोकसभा सीटें आती हैं। इनमें से मेरठ मंडल में मेरठ, बागपत, बुलंदशहर, गाजियाबाद और नोएडा लोकसभा सीटें आती हैं, जबकि सहारनपुर मंडल में सहारनपुर, मुजफ्फरनगर और कैराना संसदीय सीटें शामिल हैं। मौजूदा समय में इनमें से कैराना छोड़कर बाकी सीटों पर बीजेपी का कब्जा है। कांग्रेस ने गाजियाबाद को छोड़कर बाकी 7 सीटों पर कांग्रेस तैयारी कर रही है। उधर, लोकसभा चुनाव से पहले अयोध्या में राम मंदिर को लेकर राजनीति के मैदान में माहौल गर्म है। सरकार से लगातार कानून बनाकर राम मंदिर बनाने को लेकर मांग हो रही है। हालांकि प्रधानमंत्री ने साफ कर दिया है कि पहले अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करेंगे फिर कोई कदम उठाएंगे। राम मंदिर मामले में देरी के लिए प्रधानमंत्री ने कांग्रेस पर आरोप लगाए हैं। लेकिन कहा जा रहा है कि चुनाव के पहले राम मंदिर बनाने का काम शुरू हो सकता है। सुब्रमण्यम स्वामी ने तो साफ कहा है कि राममंदिर बना तो ही बीजेपी जीत सकती है। मंदिर बना तो अखिलेश और मायावती के गठबंधन को पांच से ज्यादा सीटें नहीं मिलेंगी। संविधान के मुताबिक सरकार सर्वोपरि है। सरकार अगर किसी की जमीन लेती है तो उसे मुआवजा देना होता है। सरकार को मुआवजा देने का फैसला लेना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को बताना चाहिए कि आप 10 साल, 20 साल में फैसला करें हमे कोई ऐतराज नहीं है लेकिन जमीन सरकार की है। जब सुप्रीम कोर्ट तय करेगी कि जमीन का मालिक कौन है तो सरकार उसको मुआवजा देगी। 

भारतीय कालीनों की जर्मनी डोमोटेक्स फेयर में जलवा


भारतीय कालीनों की जर्मनी डोमोटेक्स फेयर में जलवा
उद्घाटन कानसुलेट जनरल भारत सरकार के मदन लाल रैगर ने किया
फेयर में भारत के 337 निर्यातकों ने लगाई है कालीनों की प्रदर्शनी
सुरेश गांधी
वाराणसी। सात समुंदर पार जर्मनी के हनोवर शहर में आयोजित डोमोटेक्स में भारतीय निर्यातकों ने बुनकरों की हाडतोड़ मेहनत से तैयार आकर्षक डिजाइन वाले कालीनों और फ्लोर कवरिंग के बूते देश का नाम रोशन कर रहे हैं। डोमोटेक्स में कालीन निर्यातकों के स्टाॅलों पर विदेशी खरीदारों की काफी पूछपरख है। या यूं कहें भारतीय  स्टाॅलो पर विभिन्न प्रकार के डिजाइन एवं आकर्षक कलर वाली कालीनों की डिमांड है। दावा है कि डोमोटेक्स में बड़ी संख्या में विदेशी खरीदारों ने शिरकत की है। इस डोमोटेक्स से भदोही, मिर्जापुर, बनारस, आगरा, पानीपत, जयपुर, दिल्ली जम्मू कश्मीर सहित पूरे भारत के कालीन निर्यातकों को काफी उम्मीदें होती है। डोमोटेक्स में भारतीय पवेलियन का उद्घाटन भारत सरकार के कानसुलेट जनरल मदन लाल रैगर ने फीता काटकर किया। इस मौके पर हस्तशिल्प आयुक्त कार्यालय के निदेशक अरूण कुमार यादव, सीइपीसी चेयरमैन महावीर प्रताप शर्मा, प्रधम उपाध्यक्ष सिद्धनाथ सिंह, द्वितीय उपाध्यक्ष उमर हामिद, अधिशासी निदेशक संजय कुमार, वरिष्ठ प्रशासनिक सदस्य उमेश गुप्ता, बोधराज मलहोत्रा, सतीश वतल, श्रीराम मौर्य, ओंकारनाथ मिश्र, राजेन्द्र कुमार मिश्र आदि मौजूद थे।
कालीन निर्यात संवर्धन परिषद (सीईपीसी) के सीनियर कोआ मेम्बर उमेश गुप्ता मुन्ना ने फोन पर बताया कि महाकुंभ डोमोटेक्स का शुभारंभ शुक्रवार को जर्मनी के हनोवर शहर में हो गया है। फेयर में भारत के 337 निर्यातकों ने भागीदारी की हैं, जिसमें 162 कालीन निर्यातक सीईपीसी के बैनर तले अपना रजिस्ट्रेशन कराया हैं। फेयर में हाल नंबर 3 में भारतीय पवेलियन बना है, जिसमें निर्यातकों ने अपने अपने आकर्षक डिजाइनों रंगामेजी वाली कालीनों की प्रदर्शनी लगाई हैं। बताया कि उद्घाटन के बाद कानसुलेट जनरल मदन लाल ने भारतीय कालीन उद्योग में बाल मजदूरी को लेकर फैली भ्रांतियों को दूर करने का आश्वासन देते हुए कहा कि ऐसे लोगों को चिन्हित कर उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जायेगी। बीते दिनों जर्मन टीवी चैनल पर भारतीय कालीन उद्योग में बाल मजदूरी पर दिखाई गई डाक्यूमेंट्री पूरी तरह सुनियोजित है। बीते तीन दशक में भारतीय कालीन उद्योग को पूरी बाल मजदूर मुक्त कराने के लिए भारत सरकार द्वारा कारगर उपाय किए गए हैं। दावे के साथ कहा जा सकता है कि कालीन उद्योग बाल श्रमिकों से मुक्त हैं। श्री उमेश गुप्ता ने बताया कि फ्लोर कवरिंग में विश्व का यह सबसे बड़ा चार दिवसीय डोमोटेक्स है। इस मेले से भारतीय कालीन निर्यातकों को काफी उम्मींदे होती है। इस चार दिन के फेयर में निर्यातकों को पूरे साल का आर्डर मिलता है। सीईपीसी फेयर में भारतीय पवेलियन की व्यवस्था करती हैं। इस फेयर के लिए निर्यातक काफी सफल तैयारी करते है।

वेतन रोके जाने और निजीकरण की तैयारी पर प्रबंधन को खुली चुनौती

निजीकरण के खिलाफ़ हुंकार : संविदा कर्मियों की छंटनी और स्मार्ट मीटर थोपने पर गुस्से में बिजली कर्मचारी वेतन रोके जाने औ...