आखिर कब खत्म होगी ‘पुलिसिया गुंडागर्दी‘
ये
हम
नहीं,
बल्कि
यूपी
के
हर
उस
शख्स
के
जुबान
पर
है
जिसकी
थोड़ी
बहुत
भी
राजनीति
में
दिलचस्पी
है।
यह
सच
भी
है,
क्योंकि
आम
जनमानस
अपराधी
से
ज्यादा
पुलिस
से
ही
त्रस्त
है।
पुलिस
अगर
वक्त
पर
छोटी-छोटी
बातों
से
पीड़ित
व्यक्ति
के
साथ
न्याय
कर
दें
तो
न
बड़ी
हिंसक
वारदाते
हो
और
ना
ही
अपराधियों
के
हौसले
बढ़े।
लेकिन
पुलिस
है
जो
सिर्फ
‘वसूली‘ की ही भाषा
समझती
है।
यही
पुलिस
की
मनोवृत्ति
उसे
घातक
बनाती
है।
मतलब
साफ
है
अगर
पुलिस
सुधर
जाएं
तो
अपराध
से
लेकर
भ्रष्टाचार
खुद
ब
खुद
खत्म
हो
जाएं
सुरेश गांधी
लेकिन, पुलिस व
उसके पाले गुंडो
से खुद पीड़ित
रह चुके सूबे
के मुखिया को
कौन समझाएं। पता
नहीं उन्हें किसने
सलाह दे डाली
है कि अपराधमुक्त
यूपी के लिए
फर्जी एनकाएंटर ही
सबसे बड़ा इलाज
है। जबकि ऐसा
नहीं हैं। जाने
अनजाने योगी जी
ने पुलिस को
फर्जी एनकाउंटर का
इतना बड़ा हथियार
सौपा है कि
उसकी गुंडागर्दी व
वसूली चैगुना बढ़
गयी है। इसकी
एक-दो नहीं
दर्जनों वारदाते चीख-चीख
कर गवाही दे
रही है। ताजा
मामला सोशल मीडिया
पर तेजी से
वायरल हो रहा
ऑडियो क्लिप है।
इस आफडियों ने
तो यूपी में
एनकाउंटर के नाम
पर चल रहे
खेल को बेनकाब
कर दिया है।
एक हिस्ट्रीशीटर और
पुलिस अधिकारी के
बीच की बातचीत
के ऑडियो से
खाकी और गुंडों
के बीच साठगांठ
का पर्दाफाश हो
गया है। बता
दें, कुछ ही
दिन पहले झांसी
में लेखराज और
पुलिस के बीच
मुठभेड़ हुई थी।
करीब आधे घंटे
की फायरिंग में
लेखराज अपने साथियों
और बेटों के
साथ भागने में
कामयाब रहा था।
इस एनकाउंटर के
बाद मऊरानीपुर थाना
प्रभारी सुनीत कुमार और
हिस्ट्रीशीटर लेखराज के बीच
जो बातचीत हुई
वह बताने के
लिए काफी है
कि किस तरह
योगी की पुलिस
एवं अपराधियों में
वसूली का धंधा
फलफूल रहा है।
सवाल उठने लगे
हैं कि क्या
योगी की पुलिस
एनकाउंटर को भी
मैनेज कर रही
है? दूसरा अहम
सवाल उठ रहा
है कि क्या
पुलिस अपनी मनमर्जी
के मुताबिक, जिसे
चाह रही है
उसे ठिकाने लगा
रही है और
जिसे चाह रही
है बचा ले
रही है? हालांकि
यह कोई नया
मामला नहीं है।
ऐसी बातें लाखों
हजारों में है
जिसमें पुलिस खुद ही
अपराधियों से मिलकर
लूट, हत्या, डकैती,
किसी की घर-गृहस्थी लूटवाना, जमीन
पर कब्जा करना,
अवैध खनन से
लेकर हर तरह
अनर्गल काम करने
वाले बाहुबलियों की
जी हजूरी, तफतीश
में असली अपराधी
को बचाकर निर्दोश
को जेल भेजना
जैसे काले कारनामे
शामिल है। ऐसा
भी नहीं है
इस तरह के
अनर्गल काम हर
पुलिस वाला ही
करता है। महकमे
में ऐसे भी
पुलिसकर्मी या आफिसर
है जिनके हौसलों
व ईमानदारी की
भी चर्चा होती
है और इन्हीं
के बदौलत तमाम
पुलिसिया कुकर्मो के बावजूद
पुलिस की साख
बची हुई हैं।
पुलिस के कुकर्मो
का इससे बड़ा
उदाहरण और क्या
हो सकता है
कि उन्नाव में
बलातकार पीड़ित महिला के
आरोपियों के खिलाफ
र
पट लिखने व
गिरफ्तारी करने के
बजाए आरोपियों से
मिलकर उसके पिता
की ही साजिस
के तहत हत्या
करा दी। जबकि
कानून के मुताबिक
रेप का आरोप
लगने पर पुलिस
को एफआईआर लिख
देनी चाहिए थी।
मतलब साफ है
जब कानून कहता
है कि आरोपी
से पूछताछ और
गिरफ्तारी होनी चाहिए
तो कम से
कम पूछताछ तो
होनी ही चाहिए
थी। जब कानून
कहता है कि
नाबालिग से रेप
पर पास्को लगता
है तो यह
धारा पहले ही
लग जानी चाहिए
थी। यह सब
तब हुआ जब
पीड़िता के पिता
की मौत के
बाद मीडिया में
हो हल्ला मचा
और इलाहाबाद हाईकोर्ट
ने स्वत संज्ञान
लेकर कार्रवाई का
निर्देश दिया। माना ऐसा
होने पर एफआइआर
तो हुई लेकिन
पुलिस से छीनकर
केस सीबीआई को
भेज दिया और
तकनीकी आड़ में
विधायक की गिरफ्तारी
नहीं होने दी।
सवाल उठता है
कि अगर सीबीआई
केस लेने से
इनकार कर देती
तो क्या तब
तक आरोपी की
गिरफ्तारी नहीं होती।
तब तक विधायक
सबूतों को मिटाने
की कोशिश करने
के लिए आजाद
होता। तब तक
रसूख का इस्तेमाल
कर केस को
दबाने की गुंजाइश
निकालने के लिये
स्वतंत्रता होती। लेकिन पूरे
देश में हड़कंप
मचा देने वाली
इस घटना में
सीबीआई की कार्रवाई
तब हुई जब
पीएम ने बिना
किसी लाग-लपेट
कहा कि किसी
के साथ अन्याय
नहीं होने दिया
जाएगा। सवाल उठता
है कि अगर
यही आरोप किसी
आम आदमी पर
लगा होता तब
भी क्या योगी
सरकार की पुलिस
इसी तरह के
गिरफ्तार नहीं करने
के तर्क देती।
लेकिन अभी यह
सामने आना शेष
है कि विधायक
पर लगे आरोपों
में कितनी सच्चाई
है? यह तो
साफ है कि
विधायक के भाई
ने युवती के
पिता को बुरी
तरह पीटा और
पुलिस ने उसकी
मदद करने के
बजाय उसे ही
जेल भेज दिया
जहां इलाज के
अभाव में उसकी
मौत हो गई।
बता दें,
4 जून 2017 को एक
पीड़ित अचानक गायब
हो गई। 21 जून
को पीड़ित वापस
आ गई। 22 जून
को उसने मजिस्ट्रेट
के सामने अपना
बयान दर्ज करवाया।
उसने तीन लोगों
के नाम लिए
लेकिन उसमें विधायक
का नाम मौजूद
नहीं था। बाद
में जुलाई में
पीड़ित ने पीएम
मोदी और सीएम
आदित्यनाथ को चिट्ठी
लिखी जिसमें उसने
विधायक कुलदीप सिंह सेंगर
पर बलात्कार का
आरोप लगाया था।
बाद में पीड़ित
के परिवार पर
विधायक समर्थकों ने मानहानि
का मामला दर्ज
कर दिया। 22 फरवरी
को पीड़ित के
परिवार ने जिला
अदालत में एक
अर्जी देकर फिर
से विधायक पर
आरोप लगाया। इस
मामले में पुलिस
ने तीनों आरोपियों
को गिरफ्तार भी
कर लिया था।
लेकन विधायक के
खिलाफ कोई कार्रवाई
नहीं की गई
थी। शायद यह
बात यूं ही
दबी भी रह
जाती लेकिन दबंगों
को यह अखर
गई थी कि
एक आम आदमी
ने उनका नाम
उछाल कैसे दिया।
उन्हें शायद लगा
होगा कि इस
तरह तो उनका
दबदबा खतरे में
पड़ सकता है।
तभी 3 अप्रैल को
अदालत से लौटते
वक्त पीड़ित के
पिता को इतनी
बुरी तरह से
पीटा की वो
अधमरा हो गया।
यहां भी पुलिस
कार्रवाई के बजाएं
पीड़िता के पिता
को ही आम्र्स
एक्ट का केस
बनाकर जेल भेज
दिया। जहां उसकी
मौत हो गई।
पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक
मौत की वजह
बेरहमी से पिटाई
है। रिपोर्ट में
साफ लिखा गया
है कि पीड़िता
के पिता के
शरीर पर भारी
चोट के 14 निशान
मिले हैं। इसी
बीच एक वीडियो
भी सामने आया
जिसमें पुलिस बगैर लड़की
के पिता को
दिखाए कागजों पर
उसके अंगूठे के
निशान ले रही
है। फिरहाल, पुलिस
पर बर्बरता करने
और दबंगो का
साथ देने का
यह कोई पहला
मामला नहीं है।
पुलिस के व्यवहार
को लेकर आए
दिन इस तरह
की घटनाएं सुनने
को मिलती रहती
है। 1980 में पुलिस
की बर्बरता का
शिकार बनी एक
महिला और उसके
पति और साथियों
की हत्या का
एक इसी तरह
के मामला जन
आंदोलन में बदल
गया था।
जहां तक
सीबीआई के कार्रवाई
की त्तपरता का
है तो वे
भी पुलिस के
ही अधिकारी होते
हैं, लेकिन वह
सक्षम नजर आते
हैं तो इसीलिए,
क्योंकि उन पर
नेताओं का दबाव
नहीं होता। यदि
पुलिस सुधारों की
दिशा में आगे
नहीं बढ़ा गया
तो हमारी पुलिस
और अधिक अपंग
ही होगी और
उसकी बची- खुची
धार भी खत्म
हो जाएगी। राजनीतिक
नेतृत्व पुलिस सुधारों की
दिशा में इसीलिए
आगे नहीं बढ़
रहा, क्योंकि शायद
वह यह जानता
है कि एक
बार पुलिस के
तंत्र और स्वभाव
में सुधार आ
गया तो फिर
वह उससे अपने
अनर्गल और अनुचित
कार्य नहीं करा
सकेगा। और जब
पुलिस सुधर जाएं
तो अपराध स्वतः
खत्म हो जायेंगे।
माना कि हर
घटित होने वाली
वारदातो को पुलिस
नहीं रोक सकती।
लेकिन अपराध के
बाद अगर पुलिस
तत्काल कार्रवाई, वो भी
पूरी पारदर्शिता के
साथ करें तो
अपराधियों पर नकेल
जरुर कसी जा
सकती है। लेकिन
दो चार वारदातां
को छोड़ दें
तो फर्जी ही
कार्रवाईयां की जाती
रही है। परिणाम
सामने है। प्रथम
दृष्टया जांच में
ही साबित हो
चुका है कि
पुलिस की ही
कार्यप्रणाली से हालात
बिगड़े। हालात संभालने के
लिए ही सरकार
मामले को सीबीआई
के हवाले कर
दिया। लेकिन अफसोस
है कि हम
बेफिक्र लोग हैं।
दिमाग में बहुत
दिनों तक कोई
बात नहीं रखते।
नाबालिग या उसकी
जैसी बच्चियों के
नाम भी कुछ
दिनों में भूल
जाएंगे। उनके नाम
भी डेटा की
बोझ में दब
जाएंगे। तभी जब
एनसीआरबी यानी नेशनल
क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो अपने
हालिया आंकड़े में बताता
है कि 2014 से
2016 के बीच बच्चों
के खिलाफ अपराधों
मे 19.6ः की
बढ़ोतरी हुई है
तो हम किसी
बच्चे का नाम
नहीं जानते, या
याद नहीं रख
पाते। केस, नंबर्स
के तराजू में
तौला जाता है।
पता चलता है
कि 2014 में बच्चों
के साथ 89 हजार
से ज्यादा क्राइम
हुए और 2016 में
एक लाख से
अधिक. क्या फर्क
पड़ता है। चिंघाड़ते,
बड़बड़ाते पागल हो
गए लोगों के
लिए कोई ठोस
सजा तय नहीं
करते। कई बार
उन्हें बचाने के लिए
आंदोलन, जुलूस भी निकालते
हैं। इसे सांप्रदायिक
साजिश बताते हैं।
धर्म पर धर्म
चढ़ा जाता है,
जातियों पर जातियां.
बदले लिए जाते
हैं। खुद को
बड़ा, असरदार साबित
किया जाता है।
इस तरह सबसे
कमजोर को तह-नहस कर
दिया जाता है।
चतुराई से कूट
भाषा में कहा
जाता है- मारो,
नेस्तनाबूद कर दो।
क्योंकि तुम्हारे राजनीतिक, सामाजिक
आका तसल्ली से
कुर्सियों पर धंसे
हुए हैं।
कहा जा
सकता है सबकुछ
पहले ही जेसा
हो रहा है।
योगी सरकार एंटी
रोमियो स्क्वॉड लेकर आई
थी। रेप और
महिलाओं के साथ
छेड़खानी को मुख्य
चुनावी मुद्दा बनाया था।
लेकिन खुद की
पार्टी के एक
विधायक पर रेप
का आरोप लगा
तो सारे नियम
कानून कायदे भूल
गयी। डीजी पुलिस
विधायक को माननीय
विधायक जी कह
रहे हैं और
माननीय विधायकजी टीवी कैमरों
के आगे मुस्कराते
हुए कहते हैं
कि उन्हें झूठा
फंसाया जा रहा
है। हो सकता
है कि ऐसा
ही हो रहा
हो लेकिन सत्ता
में रहते हुए
संविधान की रक्षा
के शपथ लेने
वाली सरकार कानूनों
की अवहेलना नहीं
कर सकती। 1980 में
पुलिस की बर्बरता
का शिकार बनी
एक महिला और
उसके पति और
साथियों की हत्या
का एक इसी
तरह के मामला
जन आंदोलन में
बदल गया था।
उधर, सत्ता और
शासन को अपनी
जेब में रखकर
घूमने वाले ये
लोग सोचते हैं
कि उनका कोई
क्या बिगाड़ लेगा।
उन्हें मालूम है कि
या तो ताकत
के बल पर
या पैसों के
जोर पर वो
फिर से किसी
के साथ जबर्दस्ती
करने के लिए
तैयार हो जाएंगे।
हो सकता है
इस मामले में
ये बातें भी
सामने आए कि
हम मामले को
समझने में जल्दबाजी
कर रहे हों
लेकिन पुलिस हिरासत
में किसी आम
आदमी की मौत
किस ओर इशारा
करती है। विधायक
की पत्नी इस
मामले में नार्कों
टेस्ट करवाने की
बात कर रही
है। उनका मानना
है कि इसके
बाद सच सामने
आ जाएगा। तो
अगर उनके हिसाब
से सच कुछ
और है तो
फिर पीड़िता के
पिता को बुरी
तरह से पीटे
जाने की क्या
जरूरत पड़ गई।
उनकी हिरासत में
मौत क्यों हो
गई? पुलिसवाले उन्हें
परेशान क्यों कर रहे
थे? अगर सच
दंबगों के साथ
था तो ये
सब घटनाएं क्यों
घटी? ऐसे कई
सवाल है जो
बताते हैं कि
सच के आक्रोश
को बाहर निकलने
के लिए चीखना
बेहद जरूरी है।
और जब ये
चीख शासन की
कानों को चुभती
है तो नतीजा
जरूर निकलता है।
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