सवा लाख से एक लड़ाऊं तभै गोविन्द सिंह नाम कहाऊं
.. गोबिंद सिंह आयो है.. बोले सो निहाल, सतश्री आकाल,. .. वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरु की फतह जैसे धार्मिक नारों की गूंज चारो तरफ है। भला हो भी क्यों नहीं, 14 अप्रैल को गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज के 352वां प्रकाश उत्सव जो है। यानी वैसाख महीने का पहला दिन। इस मौके पर जहां देश के अलग-अलग हिस्सों में नये साल को मनाने के तरीके भी जुदा हैं, वहीं पंजाब के गांवों में कई जगहों पर नई फसल की खुशी में वैसाखी मेले भी लगते हैं। इस मेले में जहां पंजाब के गबरू रंगीन पोशाकों और पगड़ी में भांगड़ा करते नजर आते हैं वहीं मुटियारें पारंपरिक नृत्य ‘गिद्दा’ कई तरह की बोलियों के साथ करती हैं। पूरा माहौल आनंद उत्सव से नहा उठता है
सुरेश
गांधी
‘मानस की जाति
सबै एकै पहिचानबो‘ के इस सिद्धांत
के मानने वाले
गुरु गोबिंद सिंह
जी की किसी
मजहब से शत्रुता
नहीं थी। इसके
बावजूद कुछ अज्ञानी
लोग यह समझाते
हैं कि गुरु
गोबिंद सिंह का
इस दुनिया में
आना और खालसा
पंथ की स्थापना
केवल मुसलमान बादशाहों
से लड़ने के
लिए ही थी।
या यूं कहे
ऐसे समाज विरोधी
लोग उन्हें इसलाम
का दुश्मन मानते
हैं। जबकि सच
तो यह है
कि वे सर्व
धर्म समभाव के
प्रतीक हैं। वे
न सिर्फ राजशाही
को खत्म कर
बराबरी और समाजवादी
व्यवस्था कायम करने
के पक्षधर रहे,
बल्कि सभी की
बराबरी और मनुष्य
के गौरव की
पुनस्र्थापना की पुरजोर
शुरुआत की। वास्तव
में उनका इस
दुनिया में आने
का मकसद सिर्फ
और सिर्फ चाहे
वह किसी भी
धर्म के मानने
वालों हो उकी
अपनी-अपनी पूजा
इबादत के तरीकों
में कोई रुकावट
नहीं हो, संत
उबारन अच्छी प्रवृत्ति,
नेक काम करने
वालों की सदा
रक्षा करना, दुष्ट
सभन को मूल
अपारन यानी सभी
दुष्ट प्रवृत्ति वालों
को जड़ से
उखाड़ कर फेंक
देना, मिटा देना
था। यही वजह
भी था उनका
पहला युद्ध उन्हीं
लोगों से हुआ
जो निरीह और
कमजोर लोगों पर
अत्याचार कर रहे
थे। इसलिए ही
उन्हें धर्म (ईमान) रक्षक
और अत्याचार तथा
अत्याचारी से युद्ध
कर उनका नाश
करने वाला सिपाही
कहा जाता है।
देखा जाएं
तो गुरु गोविंद
सिंह ने खालसा
पंथ की स्थापना
के साथ ही
दो नारे भी
दिये, जिनमें एक
था- वाहेगुरु जी
का खालसा, वाहेगुरु
जी की फतेह
तथा दूसरा- बोले
सो निहाल, सत्
श्री अकाल! पहले
नारे का मतलब
था खालसा वही
जो खालिस है,
पवित्र है तथा
वाहेगुरु का है
यानी ईश्वर का
है तथा किसी
भी कार्य में
या युद्ध में
उसकी फतेह (जीत)
भी ईश्वर की
ही इच्छा से
है। यहां मनुष्य
के अपने अहंकार
को तिलांजलि देने
का फलसफा है।
इसके साथ ही
सत्श्री अकाल यानी
जो काल से
परे है वही
एकमात्र सत्य है
बाकी सब मिथ्या
है। इस तथ्य
को जो भलीभांति
आत्मसात कर लेता
है बोलता है
यानी व्यवहार में
लाता है वो
निहाल हो जाता
है, आनंद से
भर उठता है।
आज भी हम
खासतौर से सिखों
में अभिवादन के
लिए सत्श्री अकाल
का प्रयोग करते
हुए देखते हैं,
जो हमें संसार
की नश्वरता का
सच हमेशा याद
दिलाता रहता है।
गुरुप्रदत्त आत्मबल हर प्राणी
में सवा लाख
लोगों की ऊर्जा
भरता है, ‘ सवा
लाख से एक
लड़ाऊं तभै गोविन्द
सिंह नाम कहाऊं‘‘। गुरुवाणी में है
कि जो उपजे
सो बिनस है,
परे आज या
काल, यानी जो
जन्मता है वही
मरता है, लेकिन
ईश्वर कभी नहीं
मरता क्योंकि उसका
तो जन्म ही
नहीं हुआ। उनका
प्रयास था कि
समाज में धर्मो
खासकर ऊंच-नीच
जातियों में बंटे
लोगों को एक
कर सारी मनुष्य
जाति को एक
ही ईश्वरीय शक्ति
के अधीन किया
जाएं ताकि सामाजिक
वैमनस्यता को खत्म
किया जा सके।
उन्होंने शस्त्र उठाने तथा
युद्ध करने को
भी तभी तर्कसंगत
माना था, जब
अत्याचारी, अन्यायी बातचीत या
शांति की भाषा
समझना ही न
चाहता हो, तब
शमशीर को हाथ
में उठाना ही
धर्म है।
गुरु गोबिंद
सिंह
के
प्रमुख
आदर्श
दसवंड देना: अपनी
कमाई का दसवां
हिस्सा दान में
दे दें।
गुरुबानी कंठ करनी:
गुरुबानी को कंठस्थ
कर लें।
कम करन
विच दरीदार नहीं
करना: काम में
खूब मेहनत करें
और काम को
लेकर कोताही न
बरतें।
धन, जवानी,
तै कुल जात
दा अभिमान नै
करना: अपनी जवानी,
जाति और कुल
धर्म को लेकर
घमंडी होने से
बचें।
दुश्मन नाल साम,
दाम, भेद, आदिक
उपाय वर्तने अते
उपरांत युद्ध करना: दुश्मन
से भिड़ने पर
पहले साम, दाम,
दंड और भेद
का सहारा लें,
और अंत में
ही आमने-सामने
के युद्ध में
पड़ें।
किसी दि
निंदा, चुगली, अतै इर्खा
नै करना: किसी
की चुगली-निंदा
से बचें और
किसी से ईर्ष्या
करने के बजाय
मेहनत करें।
परदेसी, लोरवान, दुखी,
अपंग, मानुख दि
यथाशक्त सेवा करनी:
किसी भी विदेशी
नागरिक, दुखी व्यक्ति,
विकलांग व जरूरतमंद
शख्स की मदद
जरूर करें।
बचन करकै
पालना: अपने सारे
वादों पर खरा
उतरने की कोशिश
करें।
शस्त्र विद्या अतै
घोड़े दी सवारी
दा अभ्यास करना:
खुद को सुरक्षित
रखने के लिए
शारीरिक सौष्ठव, हथियार चलाने
और घुड़सवारी की
प्रैक्टिस जरूर करें।
आज के
संदर्भ में नियमित
व्यायाम जरूर करें।
जगत-जूठ
तंबाकू बिखिया दी तियाग
करना: किसी भी
तरह के नशे
और तंबाकू का
सेवन न करें।
मानस की
जाति,
सबे
एक
पहिचानबो
इतिहास गवाह है
कि जिस समय
गुरु गोबिंद सिंह का
अवतार पटना में
हुआ था, तो
सुदूर खरम निवासी
सैयद भीखन शाह
हिंदुस्तान आये। इबादत
के वक्त ऐसा
महसूस हुआ कि
वहां से पूरब
(मशरिक) में कोई
गैबी हस्ती हिन्दोस्तान
की सरजमीन पर
तशरीफ लायी है।
उनसे रूबरू होने
के लिए वह
पटना तशरीफ लाये
और बालक के
दीदार की ख्वाहिश
जाहिर की। घर
वाले पहले तो
तैयार नहीं हुए
मगर सारी बात
समझने के बाद
उन्हें वहां ले
गये जहां बालक
गोबिंद राय अपनी
माता गुजरी की
गोद में बैठे
थे। माता गुजरी
और पिता गुरु
तेग बहादुर के
घर शादी के
32 साल के बाद
बालक गोबिंद राय
का जन्म हुआ
था। कहते हैं
पीर भीखन शाह
ने दो कूजे
एक में-पानी
दूसरे में दूध
उनके सामने रख
दिये। मन ही
मन उन्होंने सोच
रखा था कि
अगर गुरु जी
दूध वाले कूजे
पर हाथ रखते
हैं तो वह
हिंदुओं के हिमायती
होंगे पानी वाले
कूजे पर हाथ
रखते हैं तो
मुसलमानों के हिमायती
होंगे। यह गुरु
गोबिंद सिंह की
पहली परीक्षा थी।
बालक गोबिंद ने
हल्की सी मुस्कुराहट
के साथ दोनों
कूजों पर एक
साथ हाथ रख
दिये फिर दूध
व पानी को
उड़ेल कर मिला
दिया। पीर भीखन
शाह समझ गये
कि यह दोनों
के हैं और
उनका सिर सजदे
में झुक गया।
वह एक रूहानी
तसकीन के साथ
वापस लौट गये।
कहते है एक
बार फकीर गियासुदीन
से मजाक के
लहजे में उन्होंने
पूछा, आप किसके
लिए हैं और
यहां क्यों आये
हैं, तो फकीर
ने कहा मैं
अपने दोस्त और
दानिशमंद भाई नंदलाल
के लिए आया
हूं। जब किसी
सिख ने कुछ
एतराज करने की
चेष्टा की, तो
गुरु जी बोले
जो मेरे भाई
नंदलाल का दोस्त
है, वह मेरा
भी दोस्त हुआ।
इसी तरह सैयद
बेग और मैमूखान
उनके अदबी साथी
थे जो उनके
52 कवियों में शामिल
थे। इसलिए हम
कह सकते हैं
कि गुरु जी
किसी एक कौम
के रहबर नहीं
थे बल्कि सारी
मानवता की भलाई
के लिए इस
संसार में आये
थे चाहे वो
हिंदू हो या
मुसलमान। इसका सबसे
बड़ा उदाहरण है
चमकौर का युद्ध।
बताते है युद्ध
के वक्त जब
उनके पास कुछ
गिनती के बहादुर
सिपाहियों का सामना
औरंगजेब के लाखों
फौजियों से हुआ
तो उन्हें जान
बचाने के लिए
युद्ध भूमि से
निकलना पड़ा। भयभीत
होकर नहीं बल्कि
सामरिक दृष्टि से। उस
विपत्ति के समय
दो मुसलमान नबी
खान और गनी
खान ने उन्हें
माछीवाड़ा जंगल से
निकाल था। उन्होंने
गुरु जी को
नीले वस्त्र (जो
अक्सर मुसलिम फकीर
पहनते हैं) पहना
दिये और एक
पालकी में बिठा
कर अपने कंधों
पर उठा लिया।
मार्ग में अनेकों
सिपाहियों ने उन्हें
रोका और पूछा
वे लोग किसे
पालकी में बैठा
कर ले जा
रहे हैं तो
उन्होंने बताया कि यह
उच्च के पीर
अर्थात ऊंचे पीर
हैं जिन्हें वह
उनकी दरगाह में
ले जा रहे
हैं। इस प्रकार
उस विपत्ति के
समय उन्होंने गुरु
जी की हिफाजत
कर के अपनी
गुरु के प्रति
अकीदत का परिचय
दिया। गुरु जी
ने कहा भी
है मंदिर और
मसजिद ओही पूजा
और नमाज ओही
मानस सबै एक
हैं। अपनी एक
रचना ‘अकाल उस्तति’ में स्पष्ट लिखा- हिंदू,
तुरक कोउ राफजी
इमाम साफी। मानस
की जाति, सबे
एक पहिचानबो।। करता
करीम सोई राजक
रहीम ओई। दूसरो
न भेद कोई,
भूल भरम मानबो।।
इसी भावना को
गुरुग्रंथ साहिब के प्रथम
संकलनकर्ता तथा सिखों
के पांचवें गुरु
अरजुन देव ने
भी रेखांकित किया
है- कोई बोले
राम-राम, कोई
खुदाए, कोई सेवै
गुसईयां कोई अलाहे।
कारण करम करीम,
किरपा धारि रहीम।।
वैसाखी के
दिन
ही
की
खालसा
पंथ
की
स्थापना
गुरु गोविन्द
सिंह ने वैसाखी
के दि नही
खालसा पंथ की
स्थापना की थी।
इसके पीछे मकसद
था अन्याय और
अत्याचारों के विरुद्ध
खड़े होने का
आत्मबल प्रदान करने की।
क्योंकि वैशाखी को सूर्य
की संक्रांति होती
है। अर्थात इस
दिन सूर्य एक
राशि से दूसरी
राशि में प्रवेश
करते हैं। वैसे
तो यह तिथि
हर माह पड़ती
हैं पर मकर
संक्राति की तरह
बैशाख माह की
इस संक्राति का
भी विशेष महत्व
होता है। बैसाखी
का संबंध फसल
के पकने की
खुशी का प्रतीक
है। कहा जाता
है कि किसान
इस त्योहार के
बाद ही गेहूं
की फसल की
कटाई शुरु करते
हैं। किसान इसलिए
खुश हैं कि
अब फसल की
रखवाली करने की
चिंता समाप्त हो
गई है। इस
दिन गंगा स्नान
का अत्यंत महत्व
होता है। इस
दिन पाप मोचनी
गंगा में स्नान
करने से पुण्य
लाभ होता है।
हिन्दू पंचांग के अनुसार,
गुरु गोबिन्द सिंह
ने वैशाख माह
की षष्ठी तिथि
को खालसा पंथ
की स्थापना की
थी। सामाजिक भेदभाव
को खत्म करने
के लिए पंज
प्यारों के हाथों
से अमृत चखकर
सिंह की उपाधि
धारण की थी।
इसके बाद ही
सिखों के लिए
केश, कंघा, कड़ा,
कच्छा और कृ्पाण
धारण करना जरूरी
किया था। सिख
इस त्योहार को
सामूहिक जन्मदिवस के रूप
में मनाते हैं।
बैसाखी का पर्व
जब आता है
उस समय सर्दियों
की समाप्ति और
गर्मियों का आरंभ
होता है। इसी
के आधार स्वरूप
लोक परंपरा धर्म
और प्रकृति के
परिवर्तन से जुड़ा
यह समय बैसाखी
पर्व की महत्ता
को दर्शता है।
इस पर्व पर
पंजाब के लोग
अपने रीति रिवाज
के अनुसार भांगडा
और गिद्धा करते
हैं। जो तो
प्रेम खेलण का
चाउ। सिर अर
अली, गली मोरी
आओ।। या फिर
कबीर दास जिन्हें
गुरु ग्रंथ साहिब
में उच्च स्थान
प्राप्त है- कबीरा
खड़ा बाजार में,
लिये लुकाठी हाथ।
जो जारै घर
आपना, चलै हमारे
साथ।। तथा मनुष्यों
में विभेद को
अस्वीकारते हुए कहा
- अव्वल अल्ला नूर उपाइया,
कुदरत के सभ
बंदे। एक नूर
ते सभ जग
उपजेया, कौन भले
कौ मंदे।।
खुशहाली और
समृद्धि
का
दिन
है
वैसाखी
अगर घर
में खुशहाली और
समृद्धि आए तो
किसका मन नाचने-गाने और
उत्सव मनाने को
नहीं करेगा। बैसाखी
एक ऐसा ही
पावन पर्व है।
यह फसल के
तैयार होने की
प्रसन्नता और उल्लास
में मनाया जाता
है। गेहूं, दलहन,
तिलहन और गन्ने
की रबी फसल
किसानों को प्राप्त
होती है। फसल
ही किसानों के
जीवन में समृद्धि
लाती है, इसलिए
किसान अपनी उमंग
और उत्साह को
रोक नहीं पाते
और नाचने-गाने
और उत्सव मनाने
लगते हैं। वैशाखी
समृद्धि का उत्सव
है। वैशाखी का
त्योहार हमें प्रेम
की भावना में
रहना सिखाता है।
वैसे तो यह
त्योहार पूरे उत्तर
भारत में मनाया
जाता है लेकिन
पंजाब में इसकी
छटा निराली ही
होती है। पंजाब
में इसका विशेष
महत्व है। वैशाखी
का सीधा और
साफ मतलब है
कि किसानों की
फसलें कटने के
लिए तैयार हैं।
किसानों को इस
बात की खुशी
होती है कि
जो मेहनत उन्होंने
की थी, वह
सफल रही और
अब उसका फल
मिलने वाला है।
अप्रैल माह में
रवी फसल कटकर
घर आती है
और किसान इसे
बेचकर धन कमाते
हैं। इसलिए इसे
हर्ष और उल्लास
का पर्व माना
जाता है। हर
वर्ष वैशाखी के
दिन पंजाब में
मेले लगते हैं
और जगह-जगह
लंगर एवं छबील
लगाये जाते हैं
तथा पंजाबी लोग
खुशी-खुशी लंगर
बांटते और खाते
हैं। वैसे तो
हर पंजाबी गुरूद्वारे
में लंगर और
छबील लगाई जाती
है लेकिन आनंदपुर
साहब में उस
इलाके की सारी
बेल्ट में कदम-कदम पर
लंगर लगे होते
हैं और जहग-जगह ढोल-नगाड़े एवं पंजाबी
लोकगीतों की धमक
सुनाई पड़ती है।
कैसे पड़ा
बैसाखी
नाम
बैसाखी के समय
आकाश में विशाखा
नक्षत्र होता है।
विशाखा नक्षत्र पूर्णिमा में
होने के कारण
इस माह को
बैसाखी कहते हैं।
कुल मिलाकर, वैशाख
माह के पहले
दिन को बैसाखी
कहा गया है।
इस दिन सूर्य
मेष राशि में
प्रवेश करता है,
इसलिए इसे मेष
संक्रांति भी कहा
जाता है। सूर्य
की स्थिति परिवर्तन
के कारण इस
दिन के बाद
धूप तेज होने
लगती है और
गर्मी शुरू हो
जाती है। इन
गर्म किरणों से
रबी की फसल
पक जाती है।
इसलिए किसानों के
लिए ये एक
उत्सव की तरह
है। चूंकि हमारा
देश कृषि प्रधान
देश है इसलिए
बैसाखी पर गेहूं
की कटाई शुरू
हो जाती है।
गेहूं को पंजाब
के किसान कनक
यानी सोना भी
कहते हैं। ये
फसल
वे सिखों
के
10वें
और
अंतिम
गुरु
थे
गुरु गोबिंद
सिंह को ज्ञान,
सैन्य क्षमता और
दूरदृष्टि का सम्मिश्रण
माना जाता है।
उनका जन्म पटना
साहिब में हुआ
था और वहां
उनकी याद में
एक खूबसूरत गुरुद्वारा
भी निर्मित किया
गया है। वे
सिखों के 10वें
और अंतिम गुरु
थे। गुरु गोविंद
सिंह ने वैसाखी
के ही दिन
शीशों की मांग
की, जिसे लाहौल
से आये खत्री
दयाराम बन गये
दया सिंह, दिल्ली
का जाट धर्म
दास बना धरम
सिंह, द्वारका का
धोबी मुहकमचंद बना
मुहकम सिंह तथा
जहां जगन्नाथपुरी का
पनिहार हिम्मत राय, हिम्मत
सिंह बना वहीं
बिदर का नाई
साहिबचंद हुआ साहिब
सिंह। इस तरह
सभी की जातियों
को समाप्त कर
उन्हें वीरता से भर
‘सिंह’ बना दिया।
इतना ही नहीं
उन्होंने फिर स्वयं
भी उन पांचों
प्यारों के समक्ष
नतमस्तक होकर अमृतपान
किया और गोविंद
राय से गोविंद
सिंह हुए। दुनिया
के इतिहास में
संभवत। ये एक
अनोखी तथा विलक्षण
घटना थी जब
कोई गुरु स्वयं
अपने शिष्यों से
दीक्षा लेता हो।
इसीलिये कहा जाता
है- वाह, वाह
गोविंद सिंह, आपे गुरु
चेला! इन पांचों
को गुरु के
‘पंच-प्यारे’ कहा जाता
है, जिन्हें गुरु
ने अमृत पान
कराया। जो सिख
सभ्यता व संस्कृति
का प्रमाण देते
है। युवक-युवतियां
अग्नि जलाकर लोक-नृत्य करते व
एक-दूसरे को
बधाई देते। रात
के समय आग
जलाकर नई फसल
की खुशियां मनाते
हुए नये अनाज
को आग में
जलाया जाता है।
श्रद्धालु गुरुद्वारों में जाकर
गुरु नाम का
जाप करते हैं।
इस अवसर पर
आनंदपुर साहिब में (खालसा
पंथ का स्थल)
भव्य कार्यक्रम किए
जाते हैं। गुरु
ग्रंथ साहिब को
श्रद्धा पूर्वक दूध व
जल से स्नान
करा कर तख्त
पर प्रतिष्ठित तथा
पंच-प्यारों के
सम्मान में शबद
कीर्तन किए जाते
हैं। अरदास उपरांत
गुरु जी को
भोग लगाया जाता
है। अंतरू सामूहिक
भोज (लंगर) का
आयोजन किया जाता
है।
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