कांग्रेस की ‘गेमचेंचर’ होंगी ‘प्रियंका गांधी’?
बढ़ती सर्द
हवाओं के बीच
यूपी में सियासी
पारा भी उफान
पर है। बहन
प्रियंका गांधी और कांग्रेस
नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया
को बतौर महासचिव
यूपी की कमान
सौंपने के बाद
राहुल गांधी एक
और बड़ी तैयारी
में हैं। माना
जा रहा है
कि कांग्रेस को
वजूद में लाने
के लिए राहुल
गांधी यूपी में
दो प्रदेश अध्यक्ष
नियुक्त करने की
तैयारी में हैं।
नाम पर भी
मुहर लग गयी
है सिर्फ औपचारिक घोषणा किया जाना
है। इसमें पं
लोकपति त्रिपाठी के पपौत्र
पं राजेशपति त्रिपाठी
रेस में सबसे
आगे है। हालांकि
सांसद रहे राजेश
मिश्रा का भी
नाम लिया जा
रहा है। लेकिन
इसमें पेंच इस
बात का है
लोकसभा चुनाव में पूर्वाचंल
की एक भी
सीट हाथ ना
निकल पाएं, इस
समीकरण को भी
ध्यान में रखा
जा रहा है।
सही स्थिति प्रियंका
के पूर्वांचल दौरे
के बाद ही
साफ हो सकती
है
सुरेश गांधी
आगामी लोकसभा चुनाव
से पहले सभी
पार्टियां अपनी तैयारियों
को अंतिम रूप
देने में लगी
हैं। बीजेपी जहां
एक बार फिर
अपने सबसे लोकप्रिय
चेहरे नरेंद्र मोदी
के सहारे सत्ता
पर दोबारा काबिज
होने का सपना
देख रही है
तो कांग्रेस अपने
अध्यक्ष राहुल गांधी को
देश का प्रधानमंत्री
बनते देखना चाहती
है। वहीं क्षेत्रीय
पार्टियां एकसाथ आकर अपनी
ताकत को बढ़ावा
देने की कोशिश
कर रही हैं।
लेकिन बड़ा सवाल
तो यही है
क्या यूपी में
डूबती कांग्रेस को
सहारा दे पाएंगी
प्रियंका गांधी? क्या प्रियंका
गांधी के आने
से कांग्रेस कार्यकर्ताओं
का मनोबल बढ़ेगा?
क्या प्रियंका कांग्रेस
की वोट प्रतिशत
बढ़ाने में मदद
करेंगी? क्या प्रियंका
जरुरी है या
कांग्रेस की मजबुरी?
क्या 2019 में मोदी
योगी बनाम प्रियका
बांड्रा होगा? क्या जो
राहुल न कर
सके वो करिश्मा
करेंगी प्रियंका? क्या यह
गठबंधन, महागठबंधन के मुकाबले
रक्षाबंधन है? क्या
प्रियंका आई है,
गठबंधन के लिए
टेंशन लाई? क्या
प्रियंका की सियासी
इक्सटेंशन, गठबंधन की टेंशन
है? क्या प्रियंका
के रास्ते राहुल
को पीएम बनाने
के तैयारी है?
क्या पूर्वी यूपी
के सहारे लौटेंगे
कंग्रेस के अच्छे
दिन? क्या गठबंधन
की बेरुखी से
तैयार हुआ है
प्रियंका ब्रह्मास्त्र? क्या कांग्रेस
की गेमचेंचर होंगी
प्रियंका बांड्रा? ये सवाल
यूपी के हर
शख्स की जुबान
पर है।
फिरहाल इसका जवाब
तो चुनाव मैदान
उतरने वाले योद्धाओं
के तस्वीर साफ
होने के बाद
ही पता चल
पायेग। लेकिन इतना तो
तय है कि
हाशिए पर पहुंची
कांग्रेस ने अपना
सबसे बड़ा दांव
खेल दिया है।
इस दांव से
कांग्रेस को मनोवैज्ञानिक
लाभ मिलने की
संभावना से भी
इनकार नहीं कियाजा
सकता। कांग्रेस प्रियंका
के सहारे यूपी
में एक तीर
से कई निशाना
साधने की कोशिश
में हैं। उसे
उम्मींद है कि
कांग्रेस को कमतर
आंक रही मोदी-शाह की
जोड़ी के साथ-साथ माया-अखिलेश की जोड़ी
को भी पता
चलेगा कि कांग्रेस
भी यूपी जीत
सकती है। धर्म
मजहब व जातिय
की लड़ाई में
वह भी सोशल
इंजिनियरिंग के फार्मूले
से मैदान मार
सकती है। यही
वजह है कि
पार्टी यूपी में
अब पूरा दमखम
झोंकने की तैयारी
कर चुकी है।
यह अलग बात
है कि बीएसपी-एसपी गठबंधन
में शमिल होने
की गुंजाइश कांग्रेस
ने अभी छोड़ी
नहीं है। कम
से कम राहुल
का अखिलेश माया
के प्रति नरमी
इसी कड़ी की
ओर इसारा करती
है। इन सबके
बीच कांग्रेस को
पूर्वी यूपी के
जटिल जातिय समीकरणों
को साधने के
साथ ही पश्चिमी
यूपी में ध्रुवीकरण
की भाजपा की
रणनीति की काट
ढूंढनी पड़ेंगी। इसके लिए
प्रियंका को न
केवल पूर्वांचल में
सक्रियता दिखानी है बल्कि
सियासी कौशल को
भी साबित करना
होगा।
हालांकि कांग्रेस अकेले
लड़ने तैयारी को
भी अंतिम रुप
देने में जुटी
है। इसी तैयारी
के तहत राहुल
गांधी ने यूपी
में एक बजाए
दो प्रदेश अध्यक्ष
नियुक्त करने की
रणनीति बनाई है।
ज्योतिरादित्य सिंधिया को पश्चिमी
यूपी व प्रियंका
गांधी को पूर्वी
यूपी की कमान
इसी फार्मूले के
तहत दी गयी
है। कांग्रेस का
मानना है कि
अभिनेता से नेता
बने राज बब्बर
के कंधों को
प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी
जरुर है, लेकिन
सूबा बड़ा है
इसीलिए जिम्मेदारियों का दायरा
बढ़ाया जाना भी
जरुरी है। ऐसे
में राज बब्बर
अध्यक्ष पद पर
बने रहेंगे या
दो नए नाम
सामने आएंगे, इस
पर भी अभी
फैसला होना बाकी
है। लेकिन इतना
साफ है कि
पार्टी दो प्रदेश
अध्यक्ष, दो महासचिव
व दो-दो
उपाध्यक्ष की नियुक्त
किए जाने क
तैयारी कर ली
हैं। इस नियुक्ति
में पार्टी की
अंदुरुनी खेमेबाजी व जाति
समीकरणों जैसी सोशल
इंजिनियंरिंग पर विशेष
ध्यान दे रही
है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र
मोदी के संसदीय
क्षेत्र वाराणसी को चुनाव
प्रचार का केन्द्र
या यूं कहे
पूर्वांचल का केन्द्रीय
कार्यालय बनाने की योजना
है। कांग्रेस का
मानना है कि
प्रियंका गांधी के मैदान
में उतरने के
बाद ऐसा माहौल
बने कि सपा
बसपा के साथ
भाजपा को यह
कहने के लि
मजबूर होना पड़े
कि वो हाशिये
पर नहीं है।
इसीलिए कांग्रेस बनारस, भदोही,
मिर्जापुर तीनों में से
किसी एक सीट
पर दमदार ब्राह्मण
प्रत्याशी चनावी मैदान में
उतारेंगी। मिर्जापुर से ललितेशपति
त्रिपाठी प्रबल दावेदार है।
उनकी राहुल गांधी
से नजदीकिया भी
जगजाहिर है।
ऐसे में
अंदुरुनी रुप से
खेमें में बटे
कांग्रेस की कलह
सार्वजनिक ना हो,
का विशेष ख्याल
जा रहा है।
चूकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र
मोदी के संसदीय
क्षेत्र वाराणसी के जरिए
पूरे पूर्वांचल में
बीजेपी को घेरा
जाए इसलिए जातीय
समीकरणों का भी
खास ख्याल रखा
जा रहा है।
एक ही खेमे
को दो पद
हासिल ना हो
इसे भी ध्यान
में रखा गया
है। मोदी के
सामने चुनाव लड़
चुके अजय राय
और सांसद रहे
राजेश मिश्रा में
कौन बेहतर हो
सकता है, के
लिए पुराने परफार्मेस
के साथ ही
वोट प्रतिशत व
मुस्लिम मतो में
पैठ की पड़ताल
शुरु हो चुकी
है। क्योंकि कांग्रेस
ने प्रियंका को
ऐसे समय में
सक्रिय राजनीति में उतारा
है जब सपा
बसपा ने दलित
पिछड़े वोटों के
लिए गठबंधन किया
है और भाजपा
ने संविधान संशोधन
करके सामान्य वर्ग
के आर्थिक तौर
पर कमजोर वर्ग
को 10 फीसदी आरक्षण
दिया है। ऐसे
में प्रियंका सिंधिया
के रुप में
ब्राहमण व राजपूत
समीकरण को परवान
चढ़ाना आसान नहीं
हैं। मोदी योगी
और अखिलेश मायावती
के तिलिस्म को
तोड़ना प्रियंका के
लिए बहुत आसा
नहीं होगा। या
यू कहे भाजपा,
सपा, बसपा के
मजबूत संगठन के
आगे प्रियंका की
लोकप्रियता को वोटों
में तब्दील करने
की चुनौती होगी।
प्रियंका की सक्रियता
से कई सीटों
पर मुस्लिम मतों
का बटवारा हो
सकता है। खासकर
वहां जहां ब्राह्मण
व राजपूत के
साथ बसपा के
उम्मींदवार होंगे। भाजपा यही
चाहती है।
बता दें,
यूपी वही राज्य
है जिसमें आजादी
के बाद से
1989 तक कुछ एक
मौकों को छोड़
कर कांग्रेस ने
एकछत्र राज किया
है। अब हाल
ये है कि
यूपी में कांग्रेस
पिछले 30 साल से
सत्ता के आसपास
भी नहीं फटकी
है। यही हाल
लोकसभा का है।
पिछले तीस साल
में 2009 को छोड़कर
यूपी ने कांग्रेस
को निराश ही
किया है। 2009 में
कांग्रेस ने पूरा
जोर लगाने के
बाद 21 सीटें जीती थीं
और तब केंद्र
में कांग्रेस पूर्ण
बहुमत के साथ
आई थी। लेकिन
इस बार कांग्रेस
को प्रियंका की
जरूरत इसलिए पड़ी
क्योंकि एसपी-बीएसपी
ने कांग्रेस को
किनारे कर आपस
में गठबंधन कर
लिया। दोनों ने
मिलकर कांग्रेस के
लिए सिर्फ रायबरेली
और अमेठी सीट
छोड़ी है। कांग्रेस
पस्त थी लेकिन
हार मानने की
बजाए कांग्रेस ने
अपना तुरुप का
पत्ता खेल दिया
है। लोकसभा चुनाव
से पहले कांग्रेस
ने प्रियंका गांधी
वाड्रा को महासचिव
बनाया और पूर्वी
यूपी की जिम्मेदारी
दी। जिस पूर्वांचल
की जिम्मेदारी प्रियंका
को मिली है
वहां 30 सीट हैं।
साथ में अवध
की 12 सीट की
जिम्मदारी भी है।
यानी कुल 42 सीट।
साल 2014 में इन
42 में से कांग्रेस
ने दो सीटें
ही जीती थीं।
प्रियंका के पास
यूपी में 80 में
से 43 सीटों की
जिम्मेदारी है। इन
43 में से 2014 में सिर्फ
2 सीट कांग्रेस ने
जीती थी। पूर्वांचल
की 30 सीटों पर
कांग्रेस को 6 फीसदी
वोट मिले थे।
अवध की 13 सीटों
पर 18 फीसदी वोट
मिले थे, जबकि
राज्यभर में कांग्रेस
को 8.4 फीसदी वोट मिले
थे। अब प्रियंका
की चुनौती है
कि इस इस
वोट प्रतिशत में
कुछ इजाफा करे।
साल 2014 में कांग्रेस
को 11 फीसदी ब्राह्मण,
16 फीसदी कुर्मी-कोइरी, 13-13 फीसदी
जाट-वैश्य और
11 फीसदी मुस्लिम वोट मिले
थे। मतलब जो
8.4 फीसदी वोट मिले
उसमें हर तबके
के लोग थे।
ऐसे में क्या
प्रियंका को मैदान
में उतार कर
राहुल गांधी एसपी-बीएसपी को सजा
दी है, क्योंकि
माना जा रहा
है कि प्रियंका
गांधी वाड्रा के
आने से बीजेपी
विरोधी वोट कटेंगे।
साल 2009 जब कांग्रेस
ने 80 में से
21 सीट जीती थीं
तब बीजेपी सिर्फ
10 सीट पर सिमट
गई थीं। साल
1999 में कांग्रेस को करीब
14 फीसदी वोट हासिल
किए थे तो
बीजेपी को 27 फीसदी वोट
मिले थे। लेकिन
2009 में कांग्रेस को 18 फीसदी
वोट मिले तो
बीजेपी का वोट
शेयर 17 फीसदी रह गया।
जब 2014 में कांग्रेस
को करीब 8 फीसदी
वोट मिले तो
बीजेपी को करीब
42 फीसदी वोट मिले।
मतलब साफ है
प्रियंका के सहारे
कांग्रेस युवा वोटरों
के साथ सवर्ण
और शहरी वोट
हासिल करने की
कोशिश करेगी। ये
वही वर्ग है
जिस पर बीजेपी
भी दांव खेल
रही है। वैसे
भी पिछले कुछ
समय में कांग्रेस
सॉफ्ट हिंदुत्व का
कार्ड खेल रही
हैं। ऐसे में
अगर वो सवर्ण
वोटरों पर दांव
खेलेगी तो महागठबंधन
से ज्यादा बीजेपी
को नुकसान पहुंचाएगी।
प्रियंका का जादू
किस जाति पर
चलेगा अभी कह
पाना मुश्किल है।
लेकिन इतना तो
है कि कांग्रेस
के इस मास्टर
कार्ड ने विरोधी
खेमे में खलबली
मचा दी है।
कांग्रेस फ्रंट फुट पर
खेल रही है।
वाराणसी में तो
प्रियंका को पीएम
मोदी के सामने
उतारने के पोस्टर
लग रहे हैं।
कहा जा
सकता है कांग्रेस
प्रियंका के चेहरे
के सहारे माहौल
खड़ा करने की
कोशिश में है।
जिससे मोदी लहर
का सामना किया
जा सके। वहीं
एसपी-बीएसपी को
टक्कर देने के
लिए भी एक
मजबूत चेहरे की
तलाश प्रियंका पर
खत्म हुई। यह
अलग बात है
कि इसके लिए
राहुल गांधी ने
फ्रंट फुट पर
आकर खेलने की
रणनीति में सफल
तो भले हो
रहे है, लेकिन
खतरा भी कम
नहीं है। क्योंकि
प्रियंका गांधी वाड्रा को
इतने कम वक्त
में उतारने का
बड़ा सवाल है।
उधर, यूपी विधानसभा
से ठीक पहले
यादव परिवार में
जो जंग छिड़ी
थी वही जंग
अब लोकसभा चुनाव
में भी देखने
को मिल सकती
है। शिवपाल का
फिरोजबाद सीट चुनना
जाहिर तौर पर
दिखाता है कि
वह अपने भतीजे
अखिलेश के खिलाफ
नरम नहीं हुए
हैं। उन्होंने 3 फरवरी
को फिरोजाबाद में
बड़ी रैली का
ऐलान भी किया
है। फिलहाल इस
सीट से उनके
चचेरे भाई और
पार्टी के राष्ट्रीय
महासचिव रामगोपाल यादव के
बेटे अक्षय यादव
सांसद हैं। यानी
शिवपाल का फिरोजबाद
सीट चुनना जाहिर
तौर पर दिखाता
है कि वह
अपने भतीजे अखिलेश
के खिलाफ फ्रंट
फुट पर खेलने
के मूड में
हैं। बता दें
कि शिवपाल यादव
की पार्टी आगामी
चुनाव में लोकसभा
की सभी 80 सीटों
पर चुनाव लड़ेगी।
शिवपाल का यह
कदम सपा-बसपा
का खेल बिगाड़ने
की कोशिश के
रूप में देखा
जा रहा है।
बीजेपी जिंदाबाद भैया, प्रियंका कुछ नही कर पाएंगी।
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