‘विश्वकर्मा जयंती’ बढ़ाती है ‘सृजन’ के प्रति ‘प्रतिबद्धता’
भगवान विश्वकर्मा की पूजा किये बिना कोई भी तकनीकी कार्य शुभ नहीं मना जाता। इसीलिए प्रतिवर्ष विश्वकर्मा जयंती पर पूजा के बाद विभिन्न कार्यो में प्रयुक्त होने वाले औजारों कल-कारखानों, उद्योगों में लगी मशीनों का पूजन किया जाता है। कहा जाता है विश्वकर्मा के बताएं नियमों का अनुपालन कर बनवाएं गये मकान, दुकान शुभ फल देने वाले माने जाते है। ऐसा करने से उनमें कोई वास्तुदोष नहीं रहता और ऐसे भवनों में रहने वाले सदैव सुखी व संपंन रहते है। ऐसी दुकानों में कारोबार भी अच्छा फलता-फूलता है। इसी कारण देशभर में प्रतिवर्ष भगवान विश्वकर्मा जयंती पर धूमधाम से उनकी पूजाअर्चना की जाती है
सुरेश गांधी
वैसे भी
भगवान विश्वकर्मा
को निर्माण
एवं संरचना
का स्वामी
माना जाता
है। जीवन
को सुखी
बनाने वाले
निर्माण सिद्धांतों
का वास्तु
शास्त्र उन्हीं
की देन
है। ऋग्वेद
में इन्हें
लोकमंगल की
दृष्टि से
सदैव वास्तु
विद्या के
अनुसंधानों में निरत रहने वाला
आदि शिल्पी
बताया गया
है। ऋग्वेद
के दशम
मंडल के
81वें व
82वें सूक्त
में दिव्य
अस्त्र-शस्त्रों
के निर्माता
के साथ
वास्तुकला, चित्रकला व अन्यान्य विविध
कला उपकरणों
के प्रर्वतक
आचार्य के
रूप में
देवशिल्पी विश्वकर्मा की अभ्यर्थना मिलती
है। देव
लोक के
शिल्पी विश्वकर्मा
जी का
प्रादुर्भाव प्राचीन काल से माना
जा रहा
है। जब
नारायण की
नाभि से
ब्रह्माजी हुए और उन्हों ने
सृष्टि की
रचना की।
तभी ब्रह्मा
जी के
पुत्र धर्म
हुए और
धर्म के
सातवे पुत्र
के पुत्र
स्वयं विश्वकर्मा
जी हुए।
आर्यावर्त के पुरातन तकनीकी ज्ञान
व विज्ञान
के अद्वितीय
ग्रन्थ ‘विश्वकर्मा
शिल्पशास्त्र’ व ‘मयमतम’ में विश्वकर्मा के
शिल्प कौशल
व अविष्कारों
का विस्तार
से वर्णन
है। इन
ग्रन्थों में
इन्हें पदार्थ
विज्ञान के
आदि पुरोधा
रूप में
चित्रित किया
गया है।
ये जल,
विद्युत, प्रकाश
व परमाणु
ऊर्जा के
साथ वनस्पति
व पर्यावरण
विज्ञान के
भी अनूठे
विशेषज्ञ थे।
इन्होंने ऐसे-ऐसे यंत्र
उपकरणों का
निर्माण किया
था जिन्हें
किसी चमत्कार
से कम
नहीं कहा
जा सकता।
इससे यह
आशय लगाया
जाता है
कि धन-धान्य और
सुख-समृद्धि
की अभिलाषा
रखने वाले
पुरुषों को
भगवान विश्वकर्मा
की पूजा
करना आवश्यक
और मंगलदायी
है।
मान्यता है
कि स्वर्ग
लोक का
निर्माण स्वयं
विश्वकर्मा जी ने किया है।
स्वर्ग लोक
के बाद
विश्वकर्मा जी ने लंका तथा
द्वारिका का
निर्माण कराया
था। इनका
नाम सर्वप्रथम
ऋग्वेद और
शतपथ वेद
में मिलता
है। पुराणों
के अनुसार
विश्वकर्मा लावण्यमयी के गर्भ से
पैदा हुए
थे और
यह प्रभात
वसु के
पुत्र थे।
नल इनका
पुत्र था।
जब कभी
देवलोक में
निर्माण की
बात हुई,
तो विश्वकर्मा
जी आगे
आए और
उन्होंने अपने
कौशल से,
अपने ज्ञान
से और
अपनी कला
से निर्माण
कार्य किए।
इसी कारण
विश्वकर्मा जयंती को सभी उद्योगों,
तकनीकी दफ्तरों
और कल
कारखानों में
धूमधाम से
मनाया जाता
है। कहते
है विश्कर्मा
जी ने
ही शक्तिस्वरूपा
दुर्गा जी
को राक्षसों
के संहार
के लिए
अपने हाथ
से फरसा,
शूल आदि
अस्त्र-शस्त्र
बना कर
दिए थे।
इस बार
भी हर
साल की
तरह 17 सितंबर
को भगवान
विश्वकर्मा की जयंती है। ज्योतिषाचार्यो
के अनुसार
भगवान विश्वकर्मा
का जन्म
आश्विन कृष्णपक्ष
का प्रतिपदा
तिथि को
हुआ था
वही कुछ
लोगो का
मनाना है
कि भाद्रपद
की अंतिम
तिथि को
भगवान विश्वकर्मा
की पूजा
के लिए
सर्वश्रेष्ठ होता है। वैसे विश्वकर्मा
पूजा सूर्य
के पारगमन
के आधार
पर तय
किया जाता
है। भारत
में कोई
भी तीज
व्रत और
त्योहारों का निर्धारण चंद्र कैलेंडर
के मुताबिक
किया जाता
है। लेकिन
विश्वकर्मा पूजा की तिथि सूर्य
को देखकर
की जाती
है। जिसके
चलते हर
साल विश्वकर्मा
पूजा 17 सितंबर
को आती
है। विश्वकर्मा
पूजा शुभ
मुहूर्त सुबह
07ः01 सुबह
है। ज्योतिष
शास्त्र के
अनुसार इसी
दिन सूर्य
कन्या राशि
में प्रवेश
करते हैं।
चूंकि सूर्य
की गति
अंग्रेजी तारीख
से संबंधित
है, इसलिए
कन्या संक्रांति
भी प्रतिवर्ष
17 सितंबर को पड़ती है। जैसे
मकर संक्रांति
अमूमन 14 जनवरी
को ही
पड़ती है,
ठीक उसी
प्रकार कन्या
संक्रांति भी प्रायः 17 सितंबर को
ही पड़ती
है। विश्वकर्मा
पूजा हर
वर्ष कन्या
संक्रांति को होती है। भगवान
विश्वकर्मा का जन्म इसी दिन
हुआ था
इसलिए इसे
विश्वकर्मा जयंती कहा जाता है।
पुरुरुवा के
राज्य में
12 वर्ष तक
संपन्न होने
वाले यज्ञ
के लिए
एक बहुत
विशाल एवं
भव्य यज्ञशाला
का निर्माण
स्वयं विश्वकर्मा
जी ने
किया था।
ऐसे वास्तु-शिल्पी का
पूजन-अर्चन
करने से
तकनीकी बौद्धिकता
का आशीर्वाद
प्राप्त होता
है। आधुनिक
युग में
अगर वास्तु
शास्त्र की
अनदेखी कर
भवनों एवं
कारखानों का
निर्माण किया
जाता है,
तो इसका
नकारात्मक परिणाम होता है और
जब उन
दोषो को
दूर कर
दिया जाता
है, तो
लाभ मिलता
है। इसी
कारण वास्तु
शास्त्र की
महत्ता स्वीकार
की जाने
लगी है।
वास्तु की
महत्ता के
कारण आज
भी भगवान
विश्वकर्मा का महत्व बना हुआ
है। उदाहरण
के तौर
पर पुष्पक
विमान को
लिया जा
सकता है।
इस अद्भुत
विमान के
कई किस्से
पौराणिक विवरणों
में विख्यात
हैं। कहा
जाता है
कि यह
विमान आवश्यकतानुसार
अपना आकार
घटा-बढ़ा
सकता था।
जरूरत पड़ने
पर एक
या दो
लोगों के
बैठने जितना
छोटा आकार
ले लेता
था और
उसी तरह
आवश्यकता होने
पर इतना
बड़ा आकार
ले सकता
था कि
पूरा नगर
उसमें समा
सके। कहा
जाता है
कि ब्रह्मा
के कहने
पर विश्वकर्मा
ने इसकी
रचना कुबेर
के लिए
की थी।
कुबेर उस
युग के
सबसे बड़े
धनिक व
गंधर्वों के
राजा थे।
पुराणों में
विश्वकर्मा द्वारा निर्मित ऐसे अनेक
अस्त्र-आयुधों
का उल्लेख
मिलता है,
जो आज
के विकसित
वैज्ञानिक युग के वैज्ञानिकों के
लिए भी
किसी अजूबे
से कम
नहीं हैं।
पुप्पक विमान
व उस
जैसे अन्यान्य
उपकरण इस
मूर्धन्य वैज्ञानिक
के कुशल
तकनीकी कौशल
का उत्कृष्ट
प्रमाण कहे
जा सकते
हैं। पुरा
साहित्य में
विश्वकर्मा द्वारा निर्मित ऐसे अनेक
रथों का
भी विवरण
मिलता है,
जो वायुवेग
से चलकर
लक्ष्यभेद कर सकने में सक्षम
थे। इनमें
प्रमुख था
अर्जुन का
नन्दी घोष
रथ। विभिन्न
प्रकार के
उपकरणों से
सुसज्जित इस
रथ में
कपिध्वज नामक
एक एंटिनानुमा
यंत्र भी
लगा था,
जो आसपास
से महत्वपूर्ण
सूचनाएं एकत्र
करने में
सक्षम था।
इसी तरह
अर्जुन का
अक्षय तुणीर
व द्रौपदी
का अक्षयपात्र
भी विश्वकर्मा
के चमत्कारी
निर्माण कहे
जाते हैं।
निश्चित रूप
से इसके
पीछे निर्माण
व आपूर्ति
की कोई
उच्चस्तरीय तकनीकी जरूर रही होगी,
जिसका अभी
हम लोग
सिर्फ अनुमान
ही लगा
सकते हैं।
यही नहीं,
तमाम पौराणिक
विवरणों पर
यकीन करें
तो विष्णु
का सुदर्शन
चक्र, इन्द्र
का वज्र,
शिवजी का
त्रिशूल, दुर्गा
मां का
भाला, यमराज
का कालदंड,
हनुमान की
गदा व
कर्ण के
कवच व
कुंडल आदि
के निर्माणकर्ता
भी विश्वकर्मा
ही थे।
उन्होंने जल
पर चलने
वाली खड़ाऊं
भी बनायी
थी। कहा
जाता है
कि प्राचीन
काल में
जब भी
देवों व
दानवों के
मध्य संग्राम
होता था
तो भवन,
आयुध व
अन्य निर्माण
कार्य का
दायित्व विश्वकर्मा
के जिम्मे
ही रहता
था। माना
जाता है
कि प्राचीन
काल में
जितने भी
प्रसिद्ध शहर,
नगर और
राजधानियां थीं, मुख्यतया विश्वकर्मा की
ही बनायी
हुई थी।
पुराणों में
इसका व्यापक
विवरण मिलता
है। उन्होंने
कई विलक्षण
नगरियों का
निर्माण किया
था। श्रीकृष्ण
की द्वारिका,
इन्द्र की
अमरावती, यमपुरी,
वरुणपुरी, कुबेरपुरी, रावण की लंका,
पांडवों का
इन्द्रप्रस्थ, सुदामापुरी आदि सुंदरतम व
विलक्षण नगरियों
का निर्माण
इन्हीं महान
शिल्पकार को
जाता है।
इन्हीं के
विलक्षण वास्तुकौशल
के बल
पर ही
इन सुंदर
नगरियों का
अस्तित्व दुनिया
के समक्ष
आ सका।
उड़ीसा में
स्थित भगवान
जगन्नाथ मंदिर
की निर्माण
कथा भी
विश्वकर्मा का गुणगान करती है।
‘मयशिल्पम’ नामक ग्रन्थ
में विश्वकर्मा
की भवन
निर्माण शैली
की विषद
वर्णन मिलता
है। उत्खनन
में मिले
मय सभ्यता
के अवशेष
आज भी
वास्तु विशेषज्ञों
को दांतों
तले अंगुलियां
दबा लेने
को विवश
कर देते
हैं। इंका
सभ्यता के
नाम से
जानी जाने
वाली मय
सभ्यता के
अवशेष दक्षिण
अमेरिका में
पेरू से
इक्वाडोर तक
फैले हुए
थे। इन
निमार्णों में सौ-सौ टन
के शिलाखंड
प्रयुक्त हुए
थे। और
तो और
इन शिलाखंडों
के बीच
में किसी
सीमेंट जैसी
वस्तु के
प्रयोग के
कोई प्रमाण
नहीं मिले
हैं। ये
अवशेष इस
बात के
साक्षी हैं
कि शिल्पकार
की वास्तुविज्ञान
संबंधी जानकारी
कितनी उच्चकोटि
की थी।
राजा भोज
कृत ‘समारांगण
सूत्रधार’ में विश्वकर्मा
के पुत्र
द्वारा खगोल,
मृदा व
शिल्पशास्त्र से संबंधित 60 प्रश्नों व
उनके उत्तरों
का विस्तार
से उल्लेख
मिलता है।
कहा जाता
है कि
कालान्तर में
इसी ज्ञान
के आधार
पर उन्होंने
वास्तुविज्ञान का एक विश्वविद्यालय स्थापित
कर इस
ज्ञान को
सर्वसुलभ कर
दिया था।
विश्व के
प्रथम तकनीकी
ग्रन्थों का
सृजेता भी
विश्वकर्मा को माना गया है।
इन ग्रन्थों
में न
केवल भवन
वास्तु विद्या,
रथादि वाहनों
के निर्माण
व रत्नों
के प्रभाव
व उपयोग
आदि का
भी विवरण
है। देव
शिल्पी के
‘विश्वकर्मा प्रकाश’ को
वास्तु तंत्र
का अपूर्व
ग्रन्थ माना
जाता है।
उक्त ग्रन्थ
में इसकी
अनुपम वास्तु
विद्या को
गणतीय सूत्रों
के आधार
पर प्रमाणित
किया गया
है है।
प्राचीनकाल में हमारा ज्ञान-विज्ञान
कितना समृद्ध
था, इसका
अनुमान तब
के सुविकसित
यंत्र-उपकरणों
व अद्भुत
वास्तु निर्माणों
की जानकारियों
को पढ़
और भग्नावशेषों
को देखकर
सहज ही
लगाया जा
सकता है।
अपने विशिष्ट
ज्ञान-विज्ञान
के कारण
देव शिल्पी
विश्वकर्मा सुर-असुर, यक्ष गंधर्व
ही नहीं,
मानव समुदाय
व देवगणों
द्वारा भी
पूजित-वंदित
हैं। इनको
गृहस्थ आश्रम
के लिए
आवश्यक सुविधाओं
का निर्माता
व प्रवर्तक
माना जाता
है। संसार
में आज
जितना भी
तकनीकी विकास
दिखता है
वह भगवान
विश्वकर्मा की ही देन है,
जिन्होंने सूई से लेकर जहाज
तक बनवाने
के गुण
अपने पैरोकारों
को सिखाए।
यही वजह
है कि
विश्वकर्मा को तकनीक के सर्वमान्य
वैदिक देवता
की प्रतिष्ठा
प्राप्त है
और इनकी
गणना सनातन
धर्म में
सर्वाधिक महत्वपूर्ण
देवों में
की जाती
है।
पौराणिक मान्यताएं
भगवान विश्वकर्मा
की महत्ता
को सिद्ध
करने वाली
एक कथा
भी है।
कथा के
अनुसार काशी
में धार्मिक
आचरण रखने
वाला एक
रथकार अपनी
पत्नी के
साथ रहता
था। वह
अपने कार्य
में निपुण
तो था,
परंतु स्थान-स्थान पर
घूमने और
प्रयत्न करने
पर भी
वह भोजन
से अधिक
धन प्राप्त
नहीं कर
पाता था।
उसके जीविकोपार्जन
का साधन
निश्चित नहीं
था। पति
के समान
ही पत्नी
भी पुत्र
न होने
के कारण
चिंतित रहती
थी। पुत्र
प्राप्ति के
लिए दोनों
साधु-संतों
के यहां
जाते थे,
लेकिन यह
इच्छा पूरी
न हो
सकी। तब
एक पड़ोसी
ब्राह्मण ने
रथकार की
पत्नी से
कहा कि
तुम भगवान
विश्वकर्मा की शरण में जाओ,
तुम्हारी अवश्य
ही इच्छा
पूरी होगी
और अमावस्या
तिथि को
व्रत कर
भगवान विश्वकर्मा
महात्म्य को
सुनो। इसके
बाद रथकार
एवं उसकी
पत्नी ने
अमावस्या को
भगवान विश्वकर्मा
की पूजा
की, जिससे
उसे धन-धान्य और
पुत्र रत्न
की प्राप्ति
हुई और
वे सुखी
जीवन व्यतीत
करने लगे।
पूजा की विधि
देव शिल्पकार
विश्वकर्मा की पूजा और यज्ञ
विशेष विधि-विधान से
किया जाता
है। यज्ञकर्ता
स्नान और
नित्यक्रिया आदि से निवृत्त होकर
पत्नी सहित
पूजा स्थान
पर बैठे।
इसके उपरांत
विष्णु भगवान
का ध्यान
करे। बाद
में हाथ
में पुष्प
और अक्षत
लेकर विश्वकर्मा
जी के
श्लोक का
उच्चारण करें।
श्लोक का
उच्चारण करने
के बाद
चारों दिशाओ
में अक्षत
छिड़कें और
पीली सरसों
लेकर दिग्बंधन
करे। अपने
रक्षासूत्र बांधें एवं पत्नी को
भी बांधें।
जलपात्र में
पुष्प छोड़ें।
तत्पश्चात हृदय में भगवान विश्वकर्मा
का ध्यान
करें। रक्षादीप
जलाए, जलद्रव्य
के साथ
पुष्प एवं
सुपारी लेकर
संकल्प करना
चाहिए। शुद्ध
भूमि पर
अष्टदल कमल
बनाएं। उस
स्थान पर
सप्त धान्य
रखें। उस
पर मिट्टी
और तांबे
के पात्र
से जल
का छिड़काव
करें। इसके
बाद पंचपल्लव,
सप्त मृन्तिका,
सुपारी, दक्षिणा
कलश में
डालकर कपड़े
से कलश
का आच्छादन
करें। चावल
से भरा
पात्र समर्पित
कर ऊपर
विश्वकर्मा की मूर्ति स्थापित करें
और वरुण
देवता का
आह्वान करें।
पुष्प चढ़ाकर
प्रार्थनापूर्वक नमस्कार करना चाहिए। इसके
बाद भगवान
से आग्रह
करें, ‘हे
विश्वकर्मा देवता, इस मूर्ति में
विराजिए और
मेरी पूजा
स्वीकार कीजिए।’ इस प्रकार पूजन
के बाद
विविध प्रकार
के औजारों
और यंत्रों
आदि की
पूजा कर
हवन और
यज्ञ करें।
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