Thursday, 7 May 2020

डरने नहीं ‘कोरोना’ के वसूलों पर चलना सीखना होगा


डरने नहींकोरोनाके वसूलों पर चलना सीखना होगा
कोरोना महामारी से उपजी परिस्थिति विषम है। एक तरफ जहां कोरोना ने आम लोगों की दुनिया बदल दी है, वहीं सरकार की जवाबदेही भी तय कर दी है। उसी जवाबदेही से बचने के लिए सरकार ने लॉकडाउन के सहारे लाखों जाने तो बचा ली है अब सबकी जीविका भी बचानी होगी। क्योंकि लॉकडाउन के सहारे हम बहुत दिनों तक नहीं चल सकते। खासतौर तब जब यह तय है कि कोरोना अगले साल-दो सालों तक धीमे ही सही, पर पीछा नहीं छोड़ने वाला। मतलब साफ है लॉकडाउन ने हमें कोरोना से लड़ने का तरीका बताया है। अब जरुरत है उससे बचते हुए अपनी दिनचर्या आजिविका चलाने की। यह तभी संभव हो पायेगा जब हम उससे बचने के कारगर उपाय सोशल डिस्टेंसिंग, हर घंटे हाथों को धोते रहे और कम से कम यात्रा करे
सुरेश गांधी
बेशक, अगर सबकुछ ठप रहेगा तो वह भी घातक है। पूरी सप्लाई चैन वापस स्थापित नहीं हुई तो अर्थव्यवस्था जल्दी उभर नहीं पाएगी। उत्पादन शुरू हो जाएं और बाजार नहीं खुले तो फिर माल बनाकर क्या होगा? इसलिए हमें जल्द से जल्द घरेलू बाजार के साथ निर्यात के लिए बंदरगाह खोलने के भी प्रयास करने होंगे। वैसे भी 80 फीसदी आर्थिक गतिविधियां कुछ प्रमुख शहरों में केंद्रित है। इन शहरों को पूरा बंद रखा गया तो आर्थिक गतिविधियां ठप रहेंगी। रहा सवाल बचाव का तो सरकार के दावे के मुताबिक साधनों की भी कमी नहीं है। बड़ी संख्या में जांच करने से लेकर इलाज के लिए एक लाख से अधिक बेड सुरक्षित हैं। वैसे भी इस महामारी से संक्रमित 15 फीसदी लोगों को ही भर्ती करना होगा। बाकी को सघन इलाज की जरूरत नहीं होगी। इसलिए सरकार को चाहिए कि इस वक्त सारा ध्यान लोगों को जिंदा रहने पर केंद्रित करने के बजाय उनकी जीविका पर सोचे। कोरोना के कारण घरों में कैद लोगों को बाहर निकालना होगा। वरना लॉकडाउन से बढ़ती अवधि इससे उपज रही आशंकाओं से लोग फाइनेंशियल क्राइसिस से लोग डिप्रेशन में जाने लगेंगे।
घरों में कैद रहने की 50 दिन की अवधि काफी होती है। इसलिए यह वक्त है लोगों को मजबूत करने की। नकारात्मक अंधेरे से निकालकर सकारात्मक प्रकाश में लाने की। तभी हम इस संकटकाल से खुद अपने को बाहर निकाल पाएंगे। कहने का अभिप्राय यही है कि कोरोना के साथ लड़ना है तो हमें इस सच को स्वीकारना होगा कि अब कोरोना के साथ ही हमें जीना है। कोरोना नॉन लीविंग वायरस है, यह तभी एक्टीवेट होगा जब उसे होस्ट यानी शरीर में प्रवेश करने का मौका मिले। तो क्यों हम वो हर उपाय करे, जिससे यह शरीर में प्रवेश ही नहीं कर पाएं। वैसे भी इसके बचाव के सरकार की गाइडलाइन है, हर घंटे हाथ धोते रहे, हाथ को धोए बिना ना ही हाथ को मुंह पर लगाएं या कुछ खाएं। खरीदी हुई जो भी सामान घर में लाएं उसे कुछ घंटो तक बाहर ही पड़े रहने दें, अच्छी तरह सफाई के बाद ही इस्मेमाल करें। ज्यादा से ज्यादा सील पैक सामाग्रियों का ही इस्तेमाल करें। यूज करते समय उसके रैपर को तुरंत फेंके और हाथ धोए। क्योंकि हम जिन शत्रुओं का सामना कर रहे हैं वह अदृश्य है। यही उसके खतरनाक होने का सिंबल है।
हम ही इस वायरस के वाहक हैं। अगर यह एक इंसान से दूसरे इंसान में जा रहा है तो हमें यह समझने की जरूरत है कि इस कड़ी को बनने ही ना दिया जाएं। कुछ समय के लिए मिलना जुलना बंद करना ही होगा। प्रेम आपके दिल से पोषित होना चाहिए। इसे थोड़े वक्त के लिए अभिव्यक्त करने का जरूरत नहीं है। बस यह सुनिश्चित कीजिए कि तो आप और ना ही आप के आस पास कोई इस वायरस का शिकार बने। अगर वायरस आप में जाता है तो इसे आप तक ही रुक जाना चाहिए। जब तक इसका प्रकोप खत्म ना हो जाए। अगर खासी है तो दूसरों से दूर रहे, यह भेदभाव नहीं है। यह बस समझदारी है, जो लोग समझदार हैं वहीं परिस्थितियों में जीवित बचेंगे जो लोग नासमझ हैं, वह मरेंगे। यानी हर वक्त हमें इससे सजग रहने की जरुरत है। देखां जाएं तो हमने पहले भी कई संक्रामक बीमारियां देखी है। भारत मलेरिया के दौर से और हाल में डेंगू और चिकनगुनिया से गुजर चुका है।
इन सब संक्रामक बीमारियों के लिए वाहन यानी उन्हें फैलाने वाले मच्छर है। तो हमने हमेशा मच्छरों को मारने का उपाय किए हैं। लेकिन मौजूदा हालात में हम खुद इस के वाहक हैं। हम खुद को तो मार नहीं सकते। इसलिए हमें ही अपनी  गतिविधियों को कम से कम करना होगा। हमें अपनी यात्रा के जूतों को कुछ समय के लिए अलमारी में बंद रखने होंगे। सोशल डिस्टेंसिंग जैसे सरकार के गाइडलाइन के मुताबिक अपनी दिनचर्या बनाएं। बुखार, बदन-दर्द, हल्की सर्दी इत्यादि इसके लक्षण के रूप में पहचाने जाते रहे हैं। एक बार संक्रमित हो जाने पर इसके तीन से पांच दिन की अवधि में इससे छुटकारा पाने की बात भी सब जानते हैं। ग्रामीण इलाके में भीवायरल फीवरके प्रति जागरूकता रही है। संपर्क-संक्रमण की बात भी सब लोग समझते हैं। इन बीमारियों से संक्रमित लोगों के संपर्क में आने से परहेज एवं दूरी बनाकर रखना हमारी पुरानी मान्यता है। इसी काआधुनिक रेखांकित एवं परिमार्जित रूप सोशल डिस्टेंसिंग की अवधरणा है। जिनके शरीर का इम्यून सिस्टम कमजोर होता है, उनके लिए जोखिम अधिक होताहै। दूसरी तरफ, संक्रमित लोगों के कुछ दिनआइसोलेशनमें रहने से इससे प्रायः छुटकारा मिल जाता है। इसकी कोई खास दवा निश्चित नहीं है और बिना दवा के भी लोग संक्रमण से मुक्त हो जाते हैं।
जहां तक लॉकडाउन का सवाल है इसे अगर जल्द नहीं खोला तो तीन चीजें होंगी। पहला लोग दूसरी बीमारियों का इलाज नहीं मिल पाने से मारे जाएंगे। दुसरा कुपोषण का स्तर बहुत बढ़ जाएगा। गरीबी रेखा से निकाले गए 30 करोड़ लोगों के वापस अति गरीब होने की आशंका है। जहां तक सरकार का सवाल है उसमें हमारी जनसंख्या जिस तरह की है उसको देखते हुए भारत अभी जो कर रहा है वह एक अविश्वसनीय अकल्पनीय प्रयास है। इस प्रयास से हम बहुतों की जीवन बचाने में सफल भी रहे। यानी इसको लेकर बहुत घबराने की जरूरत भी नहीं है। घबराने का मतलब है कि आप सारी गलत चीजें करेंगे। सावधानी का मतलब है कि आप सही चीजें करेंगे। यह एक अदृश्य शत्रु है तो हम बस अपना सिर झुकाए और कुछ समय के लिए सजग रहे इसे गुजर जाने दे। कोरोना काल परिवर्तन का समय है, जिसने हमारे जीवन को कई महीनों से बदल कर रख दिया है। बच्चों का घर पर ही ऑनलाइन क्लास लेना, वर्क फ्रॉम होम जैसी एक्टिविटीज हमारी दिनचर्या बन गयी है। या यू कहे घर ही अब स्कूल, दफ्तर और जिम आदि बनता जा रहा है। ऐसे ही बदलाव परिवार के सदस्यों के साथ भी हुए हैं। किसी ने इन परिवर्तनों को बढ़िया मानते हुए स्वीकार कर लिया है, तो कोई इन पलों को जिंदगी के नए तरीके से देखने का एक मौका मान रहा है। यानी कोरोना हमारे शरीर पर असर करे ना करे लेकिन हमारी सोच पर जरूर असर कर रहा है। इसने हमारी सोच दिनचर्या को बदल कर रख दिया है।
या यूं कहे कोरोनाजन्य निषेधात्मक परिस्थितियां हमें भविष्य के लिए रोशनी दिखा रही हैं। आजलॉकडाउन एवं सामाजिक दूरी से प्रकृति पुनर्जीवित हो रही है। हवा-पानी के साथ संपूर्ण पर्यावरण की शुद्धता में अकल्पनीय इजाफा हो रहा है। इसे प्राकृतिक चेतावनी के रूप में भी देखा जा सकता है। कोरोना ने हमें एहसास कराया है कि भविष्य में हम किस प्रकार कुदरती संसाधनों का पुनर्भरण और प्रकृति को पुनर्जीवन दे सकते हैं। कोरोना के खौफ का अंत होना तय है, क्योंकिकोरोना के फैलाव की शृंखला को हम पूरी तरह से तोड़ देंगे, यह महामारी भी अपनी स्वभाविक मौत मर जायेगी। लेकिन, इसके विषाणु अवशेष तो किसी--किसीरूप में पृथ्वी पर मनुष्य के साथ विद्यमान रहेंगे। आज तक किसी वायरस का उन्मूलन पूर्ण रूप से नहीं हो पाया है। इसका आनुवंशिक रूपांतरण भी होता ही रहता है। अतः हमें अभी के परीक्षित उपायों एवं अनुभव के आधार पर भविष्य का रास्ता बनाना है। मतलब साफ है कोरोना ने जिंदगी को नए झरोखों से जीने का फलसफा दिखाया है। इस कोरोना काल में किसी ने लुक बदला, सेहत सुधरी और किचन में लगने लगे है तो कोई गायकी में दिन काट रहा है। करोना ने हमें संसाधनों को सीमित उपयोग करना भी सिखाया है।

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