इतिहास के पन्नों से भी प्राचीन है पैसठ साल का वाराणसी
धर्म व अध्यात्म की नगरी काशी की विशेषता को परिलक्षित करते हैं गंगा घाट। यहां के गंगा घाट ही काशी को मोक्षदाययिनी दर्जा दिलाते है। तभी तो गंगा तट पर बसी काशी को तीनों लोकों से न्यारी कहा जाता है। इस महात्य के पीछे बड़ा रहस्य यह है कि पूरी काशी देवादिदेव महादेव के त्रिशूल पर टिकी है। यहां के पग-पग में बसते है बाबा विश्वनाथ। कोई ऐसी जगह नहीं, जहां महादेव का शिवलिंग न हो। कोई ऐसा मुहल्ल नहीं जहां चार-छह मंदिर न हो। तभी तो यहां की रग-रग में रची-बसी है आस्था। काशी का दूसरा नाम बनारस है, तो तीसरा प्रचलित नाम वाराणसी। खास यह है कि काशी और बनारस आदि नामों के बीच 24 मई, 1956 को प्रशासनिक तौर पर इसका वाराणसी नाम स्वीकार किया गयासुरेश गांधी
है। गंगा किनारे एक-दो नहीं बल्कि चमकते-दमकते सौ से अधिक घाटों की कतारबद्ध श्रृंखलाओं के बीच बजते घंट-घडियालों व शंखों की गूंज। कभी ना बुझने वाली मणकर्णिका घाट की आगी। स्वर्णिम किरणों में नहाएं घाटों पर अविरल मंत्रोंचार। कल-कल बहती पतित पावनि मां गंगा। ये विहगंम व सुंदर दृश्य खुद-ब-खुद कहती है यहां एक संस्कृति है, तैतीस करोड़ देवी-देवताओं की स्थली है। जहां महादेव संग आदिशक्ति जगत जननी मां भगवती जगदम्बिका स्वयं घाटों पर हर क्षण विराजमान रहती है। जहां तक वाराणसी के नामकरण का सवाल है तो कहते है जिस दिन इसे वाराणसी का नाम मिला उस दिन भारतीय पंचांग में दर्ज तिथि के अनुसार वैसाख पूर्णिमा, बुद्ध पूर्णिमा और चंद्रग्रहण का योग था। माना जा सकता है कि वाराणसी का नामकरण सबसे पुण्यकाल में स्वीकार किया गया था। हालांकि वाराणसी नाम बेहद पुराना है। इतना पुराना कि मत्स्य पुराण में भी इसका जिक्र है।
कहते है जब पृथ्वी
का निर्माण हुआ तो प्रकाश की
प्रथम किरण काशी की धरती पर
पड़ी। तभी से काशी ज्ञान
तथा आध्यात्म का केंद्र माना
जाता है। गंगा हमारी सांस्कृतिक माता है तथा हमारी
पवित्रता, मुक्ति एवं सांस्कृतिक प्रवाह की निरंतरता की
प्रतीक है। महादेव के 12 ज्योतिर्लिंगों में काशी विश्वनाथ नौवां ज्योतिर्लिंग है। माना जाता है कि जो
श्रद्धालु विश्वनाथ के दर्शन करता
है उसे जन्म-जन्मांतर के चक्रों से
मुक्ति मिलती है और उसके
लिए मोक्ष के द्वार खुल
जाते हैं। ब्रह्मपुराण में शिव पार्वती से कहते है
‘हे सुखवल्लभे, वरुणा और असी इन
दोनों नदियों के बीच में
ही काशी क्षेत्र है। उससे बाहर किसी को नहीं बसना
चाहिए। लोगों का ऐसा विश्वास
था कि शिव के
भक्तों के काशी में
रहने के कारण लौकिक
एवं पारलौकिक आनंद की प्राप्ति होती
है। पुराणों के अनुसार मनु
से 11वीं पीढ़ी के राजा काश
के नाम पर काशी बसी।
24 मई को गजट के
अनुसार वाराणसी अपना 65वां जन्मदिन मनाएगी।
वाराणसी गजेटियर, जो कि 1965 में
प्रकाशित किया गया था, उसके दसवें पृष्ठ पर जिले का
प्रशासनिक नाम वाराणसी किये जाने की तिथि अंकित
है। इसके साथ ही गजेटियर में
इसके वैभव संग विविध गतिविधियां भी इसका हिस्सा
हैं। गजेटियर में इसके काशी, बनारस और बेनारस आदि
नामों के भी प्राचीनकाल
से प्रचलन के तथ्य व
प्रमाण हैं। मगर आजादी के बाद प्रशासनिक
तौर पर ’वाराणसी’ नाम की स्वीकार्यता राज्य
सरकार की संस्तुति से
इसी दिन की गई थी।
वाराणसी की संस्तुति जब
शासन स्तर पर हुई तब
डा. संपूर्णानंद मुख्यमंत्री थे। स्वयं डा. संपूर्णानंद की पृष्ठभूमि वाराणसी
से थी और वो
यहां काशी विद्यापीठ में अध्यापन से भी जुड़े
थे। वैसे भी अथर्ववेद में
वरणावती नदी का जिक्र आया
है जो आधुनिक काल
में वरुणा का पर्याय माना
जाता है। वहीं अस्सी नदी को पुराणों में
असिसंभेद तीर्थ कहा गया है। अग्निपुराण में असि नदी को नासी का
भी नाम दिया गया है। पद्यपुराण में भी दक्षिण-उत्तर
में वरुणा और अस्सी नदी
का जिक्र है। स्कंद पुराण के काशी खंड
में नगर की महिमा 15 हजार
श्लोकों में कही गई है। मत्स्यपुराण
में वाराणसी का वर्णन करते
हुए कहा गया है कि
वाराणस्यां नदी
पु
सिद्धगन्धर्वसेविता।
प्रविष्टा त्रिपथा
गंगा
तस्मिन
क्षेत्रे
मम
प्रिये।।
अर्थात हे प्रिये, सिद्ध
गंधर्वों से सेवित वाराणसी
में जहां पुण्य नदी त्रिपथगा गंगा बहती है वह क्षेत्र
मुझे प्रिय है। इसके अतिरिक्त भी विविध धर्म
ग्रंथों में वाराणसी, काशी और बनारस सहित
यहां के पुराने नामों
के दस्तावेज मौजूद हैं। बता दें, वाराणसी को पुरातन काल
से अब तक कई
नामों से बुलाया जाता
है। बौद्ध और जैन धर्म
का भी बड़ा केंद्र
होने की वजह से
इसके नाम उस दौर में
सुदर्शनपुरी और पुष्पावती भी
रहे हैं। वाराणसी को अविमुक्त, आनंदवन,
रुद्रवास के नाम भी
जाना जाता रहा है। इसके करीब 18 नाम - वाराणसी, काशी, फो लो - नाइ
(फाह्यान द्वारा प्रदत्त नाम), पो लो - निसेस
(ह्वेनसांग द्वारा प्रदत्त नाम), बनारस (मुस्लिमों द्वारा प्रयुक्त), बेनारस, अविमुक्त, आनन्दवन, रुद्रवास, महाश्मशान, जित्वरी, सुदर्शन, ब्रह्मवर्धन, रामनगर, मालिनी, पुष्पावती, आनंद कानन और मोहम्मदाबाद आदि
नाम भी पुरातन काल
में लोगों की जुबान पर
रहे हैं। कई नामों के
सफर भले ही इस सबसे
पुरानी नगर ने किया हो
लेकिन विश्व में एक बार नई
काशी नई वाराणसी की
पहचान यहां के सांसद और
देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी ने इस नगरी
को दिया है।
स्कंदपुराण के अनुसार काशी नाम ’काश्य’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ प्रकाश से है, जो मोक्ष की राह को प्रकाशित करता है। सन 1965 में इलाहाबाद के सरकारी प्रेस से प्रकाशित गजेटियर में कुल 580 पन्ने हैं। यह आइएएस अधिकारी श्रीमती ईशा बसंती जोशी के संपादकीय नेतृत्व में प्रकाशित किया गया था। सरकार द्वारा दस्तावेजों को डिजिटल करने के तहत सन 2015 में इसे आनलाइन किया गया। जबकि इसके शोध और प्रकाशन के लिए उस समय 6000 रुपये सरकार की ओर से प्रति गजेटियर रकम उपलब्ध कराई गई थी। वाराणसी गजेटियर में लगभग 20 अलग अलग विषय शामिल हैं। चीन नगर संसार में बहुत नहीं हैं। हजारों वर्ष पूर्व कुछ नाटे कद के साँवले लोगों ने इस नगर की नींव डाली थी। तभी यहाँ कपड़े और चाँदी का व्यापार शुरू हुआ। कुछ समय उपरांत पश्चिम से आये ऊँचे कद के गोरे लोगों ने उनकी नगरी छीन ली। ये बड़े लड़ाकू थे, उनके घर-द्वार न थे, न ही अचल संपत्ति थी। वे अपने को आर्य यानि श्रेष्ठ व महान कहते थे। आर्यों की अपनी जातियाँ थीं, अपने कुल घराने थे। उनका एक राजघराना तब काशी में भी आ जमा। काशी के पास ही अयोध्या में भी तभी उनका राजकुल बसा। उसे राजा इक्ष्वाकु का कुल कहते थे, यानि सूर्यवंश।(3) काशी में चन्द्र वंश की स्थापना हुई। सैकड़ों वर्ष काशी नगर पर भरत राजकुल के चन्द्रवंशी राजा राज करते रहे। काशी तब आर्यों के पूर्वी नगरों में से थी, पूर्व में उनके राज की सीमा। उससे परे पूर्व का देश अपवित्र माना जाता था।
महाभारत पूर्व मगध में राजा जरासन्ध ने राज्य किया
और काशी भी उसी साम्राज्य
में समा गई। आर्यों के यहां कन्या
के विवाह स्वयंवर के द्वारा होते
थे। एक स्वयंवर में
पाण्डवों और कौरवों के
पितामह भीष्म ने काशी नरेश
की तीन पुत्रियों अंबा, अंबिका और अंबालिका का
अपहरण किया था। इस अपहरण के
परिणामस्वरूप काशी और हस्तिनापुर की
शत्रुता हो गई। महाभारत
युद्ध में जरासन्ध और उसका पुत्र
सहदेव दोनों काम आये। कालांतर में गंगा की बाढ़ ने
पाण्डवों की राजधानी हस्तिनापुर
को डुबा दिया, तब पाण्डव वर्तमान
इलाहाबाद जिले में यमुना किनारे कौशाम्बी में नई राजधानी बनाकर
बस गए। उनका राज्य वत्स कहलाया और काशी पर
मगध की जगह अब
वत्स का अधिकार हुआ।
इसके बाद ब्रह्मदत्त नाम के राजकुल का
काशी पर अधिकार हुआ।
उस कुल में बड़े पंडित शासक हुए और में ज्ञान
और पंडिताई ब्राह्मणों से क्षत्रियों के
पास पहुंच गई थी।
इनके समकालीन पंजाब में कैकेय राजकुल में राजा अश्वपति था। तभी गंगा-यमुना के दोआब में
राज करने वाले पांचालों में राजा प्रवहण जैबलि ने भी अपने
ज्ञान का डंका बजाया
था। इसी काल में जनकपुर, मिथिला में विदेहों के शासक जनक
हुए, जिनके दरबार में याज्ञवल्क्य जैसे ज्ञानी महर्षि और गार्गी जैसी
पंडिता नारियां शास्त्रार्थ करती थीं। इनके समकालीन काशी राज्य का राजा अजातशत्रु
हुआ।(3) ये आत्मा और
परमात्मा के ज्ञान में
अनुपम था। ब्रह्म और जीवन के
सम्बन्ध पर, जन्म और मृत्यु पर,
लोक-परलोक पर तब देश
में विचार हो रहे थे।
इन विचारों को उपनिषद् कहते
हैं। इसी से यह काल
भी उपनिषद-काल कहलाता है। युग बदलने के साथ ही
वैशाली और मिथिला के
लिच्छवियों में साधु वर्धमान महावीर हुए, कपिलवस्तु के शाक्यों में
गौतम बुद्ध हुए। उन्हीं दिनों काशी का राजा अश्वसेन
हुआ। इनके यहाँ पार्श्वनाथ हुए जो जैन धर्म
के २३वें तीर्थंकर हुए। उन दिनों भारत
में चार राज्य प्रबल थे जो एक-दूसरे को जीतने के
लिए, आपस में बराबर लड़ते रहते थे।
ये राह्य थे
मगध, कोसल, वत्स और उज्जयिनी। कभी
काशी वत्सों के हाथ में
जाती, कभी मगध के और कभी
कोसल के। पार्श्वनाथ के बाद और
बुद्ध से कुछ पहले,
कोसल-श्रावस्ती के राजा कंस
ने काशी को जीतकर अपने
राज में मिला लिया। उसी कुल के राजा महाकोशल
ने तब अपनी बेटी
कोसल देवी का मगध के
राजा बिम्बसार से विवाह कर
दहेज के रूप में
काशी की वार्षिक आमदनी
एक लाख मुद्रा प्रतिवर्ष देना आरंभ किया और इस प्रकार
काशी मगध के नियंत्रण में
पहुंच गई। राज के लोभ से
मगध के राजा बिम्बसार
के बेटे अजातशत्रु ने पिता को
मारकर गद्दी छीन ली। तब विधवा बहन
कोसलदेवी के दुःख से
दुःखी उसके भाई कोसल के राजा प्रसेनजित
ने काशी की आमदनी अजातशत्रु
को देना बन्द कर दिया जिसका
परिणाम मगध और कोसल समर
हुई। इसमें कभी काशी कोसल के, कभी मगध के हाथ लगी।
अन्ततः अजातशत्रु की जीत हुई
और काशी उसके बढ़ते हुए साम्राज्य में समा गई। बाद में मगध की राजधानी राजगृह
से पाटलिपुत्र चली गई और फिर
कभी काशी पर उसका आक्रमण
नहीं हो पाया।
काशी पर केंद्रित इतिहास साहित्य से संबंधित संकलन के लिए आप को हृदय से धन्यवाद
ReplyDeleteभारतीय संस्कृति संपूर्ण विश्व में लोगों के कल्याण के लिए ।